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‘प्रताप’ की नीति


गणेशशंकर विद्यार्थी


 


आज अपने हृदय में नयी-नयी आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्‍य पर पूर्ण विश्‍वास रखकर 'प्रताप' कर्मक्षेत्र में आता है। समस्‍त मानव जाति का कल्‍याण हमारा परमोद्देश्‍य है और इस उद्देश्‍य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारत वर्ष की उन्‍नति को समझते हैं। उन्‍नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्‍यापार विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार औा सच्‍चरित्रता की वृद्धि से है। भारत को इस उन्‍नतावस्‍था तक पहुँचाने के लिए असंख्‍य उद्योगो, कार्यों और क्रियाओं की आवश्‍यकता है। इनमें से मुख्‍यत: राष्‍ट्रीय एकता, सुव्‍यवस्थित, सार्वजनिक और सर्वांगपूर्ण शिक्षा प्रचार, प्रजा का हित और भला करने वाली सुप्रबंध और सुशासन की शुद्ध नीति का राज्‍य-कार्यों में प्रयोग, सामाजिक कुरीतियों और अत्‍याचारों का निवारण और आत्‍मावलंबन और आत्‍मशासन में दृढ़ निष्‍ठा हैं। हम इन्‍हीं सिद्धांतों और साधनों को अपनी लेखनी का लक्ष्‍य बनायेंगे। हम अपनी प्राचीन सभ्‍यता और जातीय गौरव की प्रशंसा करने में किसी से पीछे न रहेंगे और अपने पूजनीय पुरुषों के साहित्‍य, दर्शन, विज्ञान औा धर्म-भाव का यश सदैव गायेंगे। किंतु अपनी जातीय निर्बलताओं और सामाजिक कुसंस्‍कारों और दोषों को प्रकट करने में हम कभी बनावटी जोश या समलहत-वक्‍त से काम न लेंगे, क्‍योंकि हमारा विश्‍वास है कि मिथ्‍या अभिमान जातियों के सर्वनाश का कारण होता है। किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्‍नता या अप्रसन्‍नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें अपने सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी। सत्‍य और न्‍याय हमारे भीतरी पथ-प्रदर्शक होंगे और सरकारी कानून, बाहरी साम्‍प्रदायिक और व्‍यक्तिगत झगड़ों से 'प्रताप' सदा अलग रहने की कोशिश करेगा। उसका जन्‍म किसी विशेष सभा, संस्‍था, व्‍यक्ति या मत के पालन-पोषण, रक्षा या विरोध के लिए नहीं हुआ है, किंतु उसका मत स्‍वातंत्र्य-विचार और उसका धर्म सत्‍य होगा।


हम अपने देश और समाज की सेवा के पवित्र काम का भार अपने ऊपर लेते हैं। हम अपने भाइयों और बहनों को उनके कर्तव्‍य और अधिकार समझाने का यथाशक्ति प्रयत्‍न करेंगे। राजा और प्रजा में, एक जाति और दूसरी जाति में, एक संस्‍था और दूसरी संस्‍था में बैर और विरोध, अशांति और असंतोष न होने देना हम अपना परम कर्तव्‍य समझेगे। हम अपने देशवासियों को उन सब अधिकारों का पूरा हकदार समझते हैं, जिनका हकदार संसार का कोई भी देश हो सकता है। जिस इंग्‍लैण्‍ड की छत्रछाया में हम हैं, वह अपनी उदारता, स्‍वातंत्र्यप्रियता और न्‍यायपरता में इस भू-मंडल पर अपना सानी नहीं रखता। भारत का कल्‍याण ब्रिटिश अध्‍यक्षता और सुशासन के द्वारा हो सकता है। इंग्‍लैण्‍ड की उदारता से हमारे लिए रास्‍ते हैं। अतएव हमारी यह कोशिश होगी कि हमारे देशवासियों के रास्‍ते से वे तमाम रूकावटें और कठिनाइयाँ दूर हो जावें, जिनके कारण हिंदुस्‍तानी उच्‍च से उच्‍च पद और मान नहीं पा सकते। जिन देशों में अंग्रेजी झंडा फहराता है, उनमें, एक ही राजा की प्रजा होने के नाते से, हमारे समान अधिकार होने चाहिए। हम सरकार और प्रजा के संबंध को ज्यादा मजबूत बनाने का यत्‍न करेंगे। प्रजा की सच्‍ची शिकायतों और तकलीफों को गवर्नमेंट तक पहुँचाने में हम कभी किसी से पीछे न रहेंगे। इस काम के लिए हमें अपने अस्तित्‍व तक की परवाह नहीं होगी, क्‍योंकि हम अपना होना और न होना उस दिन बराबर मानेंगे, जिस दिन हम अपने-आपको इस काम के लिए तैयार न पायेंगे। इसके साथ ही, हम यह भी न चाहेंगे कि गवर्नमेंट की इच्‍छाओं और मंतव्‍यों के उलटे और मनमाने मतलब निकालकर प्रजा को भड़काया और भटकाया जाये। हम न्‍याय में राजा और प्रजा दोनों का साथ देंगे, परंतु अन्‍याय में दोनों में से किसी का भी नहीं। हमारी यह हार्दिक अभिलाषा है कि देश की विविध जातियों, सम्‍प्रदायों और वर्णों में परस्‍पर मेल-मिलाप बढ़े। जो लोग जबर्दस्‍त हैं, उनकी कमज़ोरी दूर की जाए जो बलवान जाति अपनी ताकत के भरोसे दूसरी कमजोर जाति को दबाती या कुचलती है, वह अत्‍याचार करती है, उसके जुल्‍म से देश में अनाचार, अन्‍याय, कायरता और फूट की वृद्धि होती है। साथ ही जो जाति हर मौके पर और हर काम में संतोषी बनकर पिटना और पीछे रहना प्रारब्‍ध समझती है, वह किसी तरह से भी कम अपराधी और कम दोषी नहीं हो सकती, क्‍योंकि वास्‍तव में वह अत्‍याचार को बढ़ाती और फैलाती है। राष्‍ट्रीय सदाचार के लिए यह परमावश्‍यक है कि देश की सब जातियाँ एक से हक रखती हों और उनके लिए एक से मौके हों, नहीं तो अनमेल हालत में रहते हुए राष्‍ट्र-निर्माण और जातीय एकता की चर्चा करना हवा में पुल बाँधना है।


हम जनसाधारण की किसी ऐसी बात को मानने के लिए तैयार न होंगे, जो मनुष्‍य-समाज और मनुष्‍य-धर्म के विकास और बुद्धि में बाधक हो। हमारे लिए वह धर्म कहलाने योग्‍य नहीं, जिसके सिद्धांत और आदेश किसी जाति या देश के मानसिक, आत्मिक, सामाजिक, शारीरिक या राजनीतिक अध:पतन के कारण हों। जो धर्म व्‍यवहार और आचरण से उदासीन होकर कोरी कल्‍पनाओं से लोगों का दिल बहलाया करता हो, उसे हम केवल धर्माभास समझते हैं। हम सदाचार, सद्व्‍यवहार, पुरुषार्थ, जितेंद्रियता, स्‍वार्थ-त्‍याग, देशभक्ति, उदारता आदि को ही धर्म के मुख्‍य अंग मानते हैं और उन्‍हीं के द्वारा हम अभ्‍युदय और नि:श्रेयस् की प्राप्ति समझते हैं।


मनुष्‍य समाज के हम दो भाग करते हैं। पूर्वी और पश्चिमी नहीं, काले और गोरे नहीं, ईसाई और यहूदी नहीं, हिंदू और मुसलमान नहीं, गरीब और अमीर नहीं, विद्वान और मूर्ख नहीं, बल्कि एक दल है उन उदारहृदय, दूरदर्शी और सिद्धांतनिष्ठ विद्वानों और सज्‍जनों का, जिन्‍होंने दृढ़ता और विश्‍वास के साथ केवल सत्‍य ही का पल्‍ला पकड़ा है या सत्‍य की मीमांसा और खोज में लगे हुए भावी संतति के लिए अंधकारमय दुर्गम पथ को साफ कर रहे हैं। वे मानव जाति के धार्मिक, राजनीतिक, जातीय और वंश-परंपरागत कपटों, छलों, दंभों, निर्बलताओं और कुटिल चालों को क्रमश: निर्मूल करते हैं। संख्‍या में यह महानुभाव अभी बहुत नहीं है, किंतु मूल्‍य और गुरुत्व में सर्वोपरि हैं। विज्ञान, स्‍वार्थ-त्‍याग, मानव-सहानुभूति, तत्‍वानुसंधान और सभ्‍य जगत की वर्तमान संस्थिति के यथार्थ ज्ञान के विस्‍तार के साथ-साथ यह दल संस्‍थाओं में भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जायेगा। दूसरा भाग है उनका, जो आँखें बंद करके दुनिया में रहना चाहते हैं, जो विषय-वासनाओं की जजीरों में जकड़े हुए भी अपने-आपको सुखी और स्‍वतंत्र समझ बैठे हैं, जिन्‍हें सत्‍य और असत्‍य, न्‍याय और अन्‍याय की खोज से कोई मतलब नहीं, जो हवा के झोंकों के साथ-साथ अपनी सम्‍मतियों को बदलते और स्‍वार्थ और झूठी प्रतिष्‍ठा के लोभ से सदा हाँ-में-हाँ मिलाने के मंत्र को जपते हुए अपने जीवन को कृतकृत्‍य माने हुए हैं और जो धन, बल, मान, वंश आदि के मद से मतवाले होकर देश और जाति में अनेक प्रकार के अनाचार और अत्‍याचार करते हुए मानव समाज के शत्रु और आत्‍मघातक हो चुके हैं।


इन्‍हीं दो दलों का घोर संग्राम भविष्‍य में होने वाला है। हमें पूर्ण विश्‍वास है कि अंत में पहले दल की जीत होगी। मनुष्‍य की उन्‍नति भी सत्‍य की जीत के साथ बँधी है, इसीलिए सत्‍य का दबाना हम महापाप समझेंगे और उसके प्रचार और प्रकाश को महापुण्‍य। हम जानते हैं कि हमें इस काम में बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा और इसके लिए बड़े भारी साहस और आत्‍मबल की आवश्‍यकता है। हमें यह भी अच्‍छी तरह मालूम है कि हमारा जन्‍म निर्बलता, पराधीनता और अल्‍पज्ञता के वायुमंडल में हुआ है, तो भी हमारे हृदय में केवल सत्‍य की सेवा करने के लिए आगे बढ़ने की इच्‍छा है और हमें अपने उद्देश्‍य की सच्‍चाई और अच्‍छाई पर अटल विश्‍वास है। इसीलिए हमें, अंत में इस शुभ और कठिन कार्य में सफलता मिलने की आशा है।


लेकिन जिस दिन हमारी आत्‍मा ऐसी हो जाये कि हम अपने प्‍यारे आदर्श से डिग जावें, जानबूझकर असत्‍य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता स्‍वतंत्रता और निष्‍पक्षता को छोड़ देने की भीरूता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्‍यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का भी अंत हो जाये। रास्‍ता कठिन है, पथिक निर्बल है, परंतु हृदय में विश्‍वास है - केवल विश्‍वास। सत्‍यस्‍वरूप, अनाथों के नाथ और दीनों के बंधु परमपिता ही हमारा बेड़ा पार करें।


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