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Showing posts from 2020

इन्द्रदेव भारती के गीतों में लोक भावना

  गीतकार इन्द्रदेव भारती ने, उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर की तहसील नजीबाबाद के ग्राम लालपुर के संभ्रांत किसान पंडित अनूपदत्त शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र मास्टर चिरंजीलाल शर्मा के कनिष्ठ पुत्र रत्न के रूप में 4 नवंबर 1945 को जन्म लिया। आपकी मातु श्री श्रीमती रक्षा देवी जी सीधी-सादी धर्म परायण महिला थीं। तख़्ती, बुतका, कलम और हिंदंी का ‘‘क़ायदा’’ पढ़ते हुए आपने एमए ;हिंदीद्ध, साहित्य रत्न ;हिंदीद्ध, बीएड, आईजीडी बंबई की कला परीक्षा जैसी शैक्षिक योग्यताएं प्राप्त कीं। 1961 में हाईस्कूल में पढ़ते-पढ़ते तुकबंदियों में बात कहने की आपकी अभिरुचि, आपको पैरोडी लिखने तक ले गई। आपके पिताश्री के प्राथमिक शिष्य रहे जिन्हें हिंदी ग़ज़ल सम्राट ‘‘दुष्यंत कुमार’’ के नाम से दुनिया जानती है, एक दिन अपने प्राथमिक गुरु जी से मिलने जब नजीबाबाद आए तो उन्होंने पैरोडी लिख रहे इन्द्रदेव शर्मा के अंदर पनप रहे ‘‘कवि’’ को पहचान इन्हें पैरोडी लिखना छोड़, कविता लिखने के लिए प्रेरित किया और समय-समय पर आते-जाते इनका समुचित मार्गदर्शन किया। 1965 में लायन्स क्लब नजीबाबाद के मंच पर आपने जनपदीय कवियों, हुक्का बिजनौरी, मुच्छड़ बिजनौरी, दी

विवेकी राय की कहानी ‘बाढ़ की यमदाढ़ में’ पत्रकारीय तत्व

  कोमल सिंह शोधार्थी (हिंदी) शोध केन्द्र राजकीय पी0जी0 काॅलेज, कोटद्वार, पौड़ी गढ़वाल श्रीनगर गढ़वाल विश्वविद्यालय पत्रकारिता का मूल तत्व है सूचना एकत्र कर उसका प्रसार करना ताकि दूसरे लोगों को सही जानकारी मिल सके। इसी तत्व के साथ पत्रकार की नैतिकता और समाचार की सत्यता व रोचकता समाचार संकलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चूंकि कहानीकार विवेकी राय एक पत्रकार भी थे इसलिए उनके कहानी साहित्य में पत्रकारिता की झलक स्पष्ट दिखाई दे जाती है। आलोचना के लिए उनकी कहानी ‘बाढ़ की यम दाढ़’ में कहानी को चुना गया है जो कहानीकार की पुस्तक ‘गूंगा जहाज’ में संकलित है। आलोच्य कहानी का आमुख किसी समाचार की भाँति ही अनोखा प्रतीत हो रहा है- ‘यदि यह कोई कहता कि बाढ़ का तमाम पानी जमकर ठोस चमचमाता हुआ पत्थर हो गया तो उतना आश्चर्य नहीं होता जितना यह सुन कर हुआ कि दूखनराम कोहार की सात सेर दूध देने वाली भैंस रात में किसी ने चुरा ली।’ उपरोक्त पंक्तियों में समाचार सी रोचकता बन गई है। कोई भी पाठक भैंस कहाँ गई? यह जानने के लिए समाचार की भाँति संपूर्ण कहानी पढ़ जाना पसंद करेगा। समाचार को विस्तार देने जैसा ही कहानीकार ने कहानी

उच्च शिक्षा और भारतीय भाषाएँ' पर अंतरराष्ट्रीय वेबिनार संपन्न

  हैदराबाद (प्रेस विज्ञप्ति)।    भारत सरकार ने उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालय के स्तर की पाठ्य सामग्री को आठवीं अनुसूची में उल्लिखित 22 भाषाओं में अनुवाद करने तथा प्रकाशित करने की योजना बनाई है। प्रकाशन के लिए अनुदान भी प्रदान किया जा रहा है। भारत के पास सुनिश्चित भाषा नीति नहीं है। इसीलिए भाषा नीति तैयार करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए मैसूर में केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान की स्थापना की गई थी। अब अनेक विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं के लिए अलग केंद्र भी खोले जा रहे हैं। साथ ही संस्कृत भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में बुनियादी और उच्च शिक्षा से संबंधित मौलिक  सामग्री उपलब्ध कराने के लिए अनेक कदम उठाए जा रहे हैं।    इन सब विषयों पर विमर्श हेतु गठित "वैश्विक हिंदी परिवार" के तत्वावधान में 'उच्च शिक्षा और भारतीय भाषाएँ' विषय पर 21 जून, 2020 को ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी/ वेबिनार संपन्न हुई। बतौर मुख्य वक्ता रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति संतोष चौबे ने अपने

लौकी की बेल

इन्द्रदेव भारती रामा !  बेल  चढ़ी  लौकी की, लो  अपने  भी  द्वार  चढ़ी ।। भोर  भये   में   कलियां   फूटैं, सूरज    चढ़ते    चटकै     हैं । भरी   दुपहरी   फूलन    फूलैं, देख  सभी   जन   मटकै   हैं । चोबाइन    के    चौबारे   पै, त्यागन   की   दीवार  चढ़ी ।। छुटकी-छुटकी कोमल जइयाँ, बड़की - बड़की जब  होंगी । जब होंगी जी,  तब  होंगी वो, और  ग़ज़ब  की   सब  होंगी । धोबनिया  के  घाट  पै  फैली, नाइन    के   ओसार   चढ़ी ।। घोसनिया   के   घेर  चढ़ी जी, बामनिया    के     बंगले   पै । चौहनिया  के  चौक  चढ़ी  तो, जाटनिया    के    जंगले   पै । गुरुद्वारे   के   गुम्बद  ऊपर, मंदिर  जी   के   द्वार  चढ़ी ।। मनिहारन  की   चढ़ी  मुंडेरी, चढ़ी  जुलाहन   के   घर  पै । चढ़ी   लुहारन  के   हाते   में, छिप्पीयन   के    छप्पर   पै । गिरजाघर  के  गेट  चढ़ी  तो, मस्ज़िद  की   मीनार  चढ़ी ।। चढ़ी  अमीरन  के  आंगन  में, नीम   चढ़ी    निर्धनिया  के । चढ़ी  खटीकन की   खोली पै, बिना   भेद    तेलनिया   कै । हिंदू, मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई वार के  सब पे  प्यार चढ़ी ।

ग़ज़लिया

इन्द्रदेव भारती आधी रख,या सारी रख । लेकिन  रिश्तेदारी  रख ।। छोड़ के  तोड़  नहीं प्यारे, मोड़ के अपनी यारी रख । शब्दों  में  हो  शहद  घुला, नहीं  ज़बाँ पर आरी रख । भले  तेरी   दस्तार   गयी, तू  सबकी  सरदारी  रख । "देव''  नहीं   दुनिया  तेरी,   पर  तू   दुनियादारी  रख ।  

एक ग़ज़लिया

इन्द्रदेव भारती खुशियाँ  दे  तो   पूरी दे । बिल्कुल  नहीं अधूरी दे । कुनबा  पाल सकूँ  दाता, बस  इतनी  मजदूरी  दे । बेशक आधी  प्यास बुझे, लेकिन   रोटी   पूरी   दे । बिटिया  बढ़ती  जावे  है, इसको  मांग  सिंदूरी  दे । पैर  दिये   हैं  जब   लंबे, तो  चादर  भी   पूरी  दे । आँगन   में   दीवार  उठे, ऐसी   मत  मजबूरी  दे । 'देव'  कपूतों  से  अच्छा, हमको  पेड़  खजूरी  दे । 

पर्यावरण अपना

ज्योत्सना भारती यह.... धरती ! रहे....सजती ! सजे पर्यावरण अपना । यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।             ( 1 ) ये  जीवनदायनी  वायु, ये जीवनदायी पानी है । ये माटी  उर्वरा  माँ  है, ये ऊर्जा भी बचानी है । वो वापिस लो ! गया   है   जो ! हरा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।              ( 2 ) कहीं पे  रात हैं  दहकी, कहीं पे दिन हैं बर्फानी । कहीं भूकंप,कहीं सूखे, कहीं वर्षा की मनमानी । न कर दूषित ! करो  पोषित ! बचा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 3 ) है कटना वृक्ष जरूर एक, तो पौधें दस वहाँ  लगनी । नहीं कंक्रीट  की  फसलें, किसी भी खेतअब उगनी । न  शोषित   हो ! औ शोभित हो ! सदा  पर्यावरण अपना ।। यही    विनती ! कलम  करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 4 ) न भाषण हों,न वादे हों, न  बातें हों,  कहानी हों । यही शुभ कर्म,मानें धर्म, यदि  स्वांसें  बचानी  हों । ये  घोषित हो ! प्रदूषित    हो ! नहीं  पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।  

 श्याम रंग वाला कागा

इन्द्रदेव भारती (1) भोर   भये    वो, आता   है    जो, काँव-काँव  करता कागा । नंद   के    नंदन, के   शुभ  दर्शन, करता है  वो  बिन नागा । (2) हाथ में....पौंची, गल.....वैजन्ती, कान में कुंडल मधुर बजे । कटि करधनिया, पग....पैंजनिया, पंख  मोर का शीश सजे । (3) जसुमति  मैया, कृष्ण  कन्हैया, को माखन - रोटी देके । चुपके -चुपके, ओट में छुपके, रूप  देखती  कान्हा के । (4) ठुमक-ठुमक के, आये जो चलके, आँगन बीच कन्हाई ज्यों । ताक   में   बैठे, काग   ने   देखे, दृष्टि  उधर   गड़ाई   त्यों । (5) माखन    रोटी, हरि  हाथ  की, चोंच दबा कर के भागा । जगत अभागा, मगर   सुभगा, श्याम रंग  वाला  कागा । गीतकार - इन्द्रदेव भारती

मन समर्पित, तन समर्पित

रामावतार त्यागी   मन समर्पित, तन समर्पित, और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। माँ तुम्‍हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन, किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन- थाल में लाऊँ सजाकर भाल मैं जब भी, कर दया स्‍वीकार लेना यह समर्पण। गान अर्पित, प्राण अर्पित, रक्‍त का कण-कण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। माँज दो तलवार को, लाओ न देरी, बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी, भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी, शीश पर आशीष की छाया धनेरी। स्‍वप्‍न अर्पित, प्रश्‍न अर्पित, आयु का क्षण-क्षण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो, गाँव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो, आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो, और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो। सुमन अर्पित, चमन अर्पित, नीड़ का तृण-तृण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

पर्यावरण अपना

 ज्योत्सना भारती   यह.... धरती ! रहे....सजती ! सजे पर्यावरण अपना । यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।             ( 1 ) ये  जीवनदायनी  वायु, ये जीवनदायी पानी है । ये माटी  उर्वरा  माँ  है, ये ऊर्जा भी बचानी है । वो वापिस लो ! गया   है   जो ! हरा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।              ( 2 ) कहीं पे  रात हैं  दहकी, कहीं पे दिन हैं बर्फानी । कहीं भूकंप,कहीं सूखे, कहीं वर्षा की मनमानी । न कर दूषित ! करो  पोषित ! बचा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 3 ) है कटना वृक्ष जरूर एक, तो पौधें दस वहाँ  लगनी । नहीं कंक्रीट  की  फसलें, किसी भी खेतअब उगनी । न  शोषित   हो ! औ शोभित हो ! सदा  पर्यावरण अपना ।। यही    विनती ! कलम  करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 4 ) न भाषण हों,न वादे हों, न  बातें हों,  कहानी हों । यही शुभ कर्म,मानें धर्म, यदि  स्वांसें  बचानी  हों । ये  घोषित हो ! प्रदूषित    हो ! नहीं  पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।। ए/3-आदर्शनगर नजीबाबाद-246763 (ब

ऐ ज़िंदगी!

निधी   ऐ ज़िंदगी! ज़रा ठहर वक्त लिख रहा है सदियों की दास्तां। बन न जाए ये हकीक़त  कहीं किस्से कहानी दुनिया के लिए तूने तो दिखाया आईना  हम ही नादान बने गर तो तेरी क्या खता ए ज़िन्दगी  क्या अहम, क्या घमण्ड क्या मैं, क्या तू सब हैं एक दायरे में अब समझ जाएं तो बात बने।।।

खुशियाँ  दे  तो   पूरी दे

इन्द्रदेव भारती खुशियाँ  दे  तो   पूरी दे । बिल्कुल  नहीं अधूरी दे । कुनबा  पाल सकूँ  दाता, बस  इतनी  मजदूरी  दे । बेशक आधी  प्यास बुझे, लेकिन   रोटी   पूरी   दे । बिटिया  बढ़ती  जावे  है, इसको  मांग  सिंदूरी  दे । पैर  दिये   हैं  जब   लंबे, तो  चादर  भी   पूरी  दे । आँगन   में   दीवार  उठे, ऐसी   मत  मजबूरी  दे । 'देव'  कपूतों  से  अच्छा, हमको  पेड़  खजूरी  दे ।  नजीबाबाद(बिजनौर)उ.प्र

हारे थके मुसाफिर

रामावतार त्यागी   हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से मैंने अक्सर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है । कोई ठोकर लगी अचानक जब-जब चला सावधानी से पर बेहोशी में मंजिल तक जा पहुँचा हूँ आसानी से रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से मैंने अक्सर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है ॥ प्यासे अधरों के बिन परसे, पुण्य नहीं मिलता पानी को याचक का आशीष लिये बिन स्वर्ग नहीं मिलता दानी को खाली पात्र किसी का अपनी प्यास बुझा कर भर देने से मैंने अक्सर यह देखा है मेरी गागर भर जाती है ॥ लालच दिया मुक्ति का जिसने वह ईश्वर पूजना नहीं है बन कर वेदमंत्र-सा मुझको मंदिर में गूँजना नहीं है संकटग्रस्त किसी नाविक को निज पतवार थमा देने से मैंने अक्सर यह देखा है मेरी नौका तर जाती है ॥

ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई

रामावतार त्यागी ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई एक बस्ती थी वो भी शहर हो गई घर की दीवार पोती गई इस तरह लोग समझें कि लो अब सहर हो गई हाय इतने अभी बच गए आदमी गिनते-गिनते जिन्हें दोपहर हो गई कोई खुद्दार दीपक जले किसलिए जब सियासत अंधेरों का घर हो गई कल के आज के मुझ में यह फ़र्क है जो नदी थी कभी वो लहर हो गई एक ग़म था जो अब देवता बन गया एक ख़ुशी है कि वह जानवर हो गई जब मशालें लगातार बढ़ती गईं रौशनी हारकर मुख्तसर हो गई

आधी रख,या सारी रख

इन्द्रदेव भारती   आधी रख,या सारी रख । लेकिन  रिश्तेदारी  रख ।। छोड़ के  तोड़  नहीं प्यारे, मोड़ के अपनी यारी रख । शब्दों  में  हो  शहद  घुला, नहीं  ज़बाँ पर आरी रख । भले  तेरी   दस्तार   गयी, तू  सबकी  सरदारी  रख । "देव''  नहीं   दुनिया  तेरी,   पर  तू   दुनियादारी  रख । नजीबाबाद(बिजनौर)उ.प्र

डिजिटल संप्रेषण और साहित्य पर अंतरराष्ट्रीय वेबिनार संपन्न

हैदराबाद, 1 जून 2020  हिंदी हैं हम विश्व मैत्री मंच, हैदराबाद के तत्वावधान में 1 जून, 2020 को मध्याह्न 3 बजे से 5 बजे तक "तकनीकी व डिजिटल संप्रेषण की दुनिया में हिंदी साहित्य के बढ़ते क़दम" विषय पर एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेबिनार सफलतापूर्वक आयोजित किया गया। मुख्य वक्ता के रूप में प्रसिद्ध कवि-समीक्षक प्रो. ऋषभदेव शर्मा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा उपस्थित थे।  हैदराबाद केंद्र से संचालित अंतरराष्ट्रीय वेबिनार में दोनों विद्वानों ने महत्वपूर्ण विचार रखे। प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में हैदराबाद नगर को एक विशेष स्थान दिलाया है। उन्होंने तकनीकी संप्रेषण के माध्यम से हिंदी साहित्य की बढ़ोतरी के बारे में अपने विचर अभिव्यक्त किए। प्रो. ऋषभ ने कहा कि वर्तमान समाज सही अर्थ में 'सूचना समाज' है। अब साहित्य पुस्तकों की दहलीज लाँघ कर डिजिटल मल्टीमीडिया के सहारे अधिक लोकतांत्रिक बनने की ओर अग्रसर है। उन्होंने मुक्त वितरण के लिए तकनीकी के उपयोग की जानकारी देने के साथ ही विभिन्न आधुनिक संचार

‘कड़वे यथार्थ की चित्रकारी...’

  पुस्तक समीक्षा-   भारतीय साहित्य में व्यंग्य लेखन की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। ऐसा माना जाता है कि यह कबीरदास, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, प्रतापनारायण मिश्र से आरंभ हुई, कालान्तर में शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, लतीफ घोंघी, बेढब बनारसी के धारदार व्यंग्य-लेखन से संपन्न होती हुई यह परंपरा वर्तमान समय में ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यकुमार पांडेय, सुभाष चंदर, ब्रजेश कानूनगो आदि के सृजन के रूप में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करा रही है, किन्तु व्यंग्य-कविता लेखन में माणिक वर्मा, प्रदीप चौबे, कैलाश गौतम, मक्खन मुरादाबादी सहित कुछ ही नाम हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में विशुद्ध व्यंग्य लिखा है। कवि सम्मेलनीय मंचों पर मक्खन मुरादाबादी के नाम से पर्याप्त ख्याति अर्जित करने वाले डॉ. कारेन्द्रदेव त्यागी की लगभग 5 दशकीय कविता-यात्रा में प्रचुर सृजन उपरान्त सद्यः प्रकाशित प्रथम व्यंग्यकाव्य-कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ की 51 कविताओं से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उन्होंने समाज के, देश के, परिवेश के लगभग हर संदर्भ में अपनी तीखी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया कविता के

ओ मेरे मनमीत

  ज्योत्सना भारती   ओ मेरे मनमीत ! प्यार के गीत, वही फिर गाना चाहती हूँ। मधुर.....रजनी, सजी....सजनी, ठगी फिर जाना चाहती हूँ। आज ये कितने, साल हैं गुजरे, एक-एक दिन को गिनते। प्यार की बारिश में....हम...भीगे, लड़ते...और....झगड़ते। वही.......पुराने, प्रेम - तराने, गाना......चाहती......हूँ। जो मान दिया, सम्मान दिया, दी खुशियों की बरसात। अवगुण हर के, सद्गुण भर के, बाँटे दिन और रात। परिवार....संग, राग और रंग, मनवाना....चाहती...हूँ।   हमारे 48वे परिणय दिवस को समर्पित यह गीत

परिणय की इस वर्षगांठ पर,

  इन्द्रदेव भारती     प्रिये ! तुम्हारे, और.....हमारे, परिणय की इस वर्षगांठ पर, आज कहो तो, क्या दूँ तुमको, जो कुछ भी है,प्रिये ! तुम्हारा, मेरा क्या है ।। नयन....तुम्हारे, स्वप्न.....तुम्हारे, मधु-रजनी नवरंग तुम्हारे। सुबह- शाम के, आठों याम के, जन्म-मरण के रंग तुम्हारे। कल-आज-कल, सुख का हर पल, सब पर लिक्खा नाम तुम्हारा, मेरा क्या है ।। स्वांस तुम्हारे, प्राण तुम्हारे, तन-मन के सब चाव तुम्हारे। पृष्ठ....तुम्हारे, कलम तुम्हारे, गीत-ग़ज़ल के भाव तुम्हारे। तुमको अर्पण, और समर्पण, मेरा यह सर्वस्व तुम्हारा, मेरा क्या है ।।   48 वे "परिणय दिवस" पर उर के उद्गार 

महामारी में

इन्द्रदेव भारती दाता जीवन दीप बचाले, मौत की इस अँधियारी में। अपने लगने लगे बेगाने, दाता इस महामारी में।। 1. बंद पड़ा संसार है दाता। बंद पड़ा घर-द्वार है दाता। बंद पड़ा व्यापार है दाता। बंद पड़ा रुजगार है दाता। नक़द है मेहनत, लेकिन मालिक, धेल्ला दे न उधारी में।। 2. छोड़ शहर के खोट हैं लौटे। खाकर गहरी चोट हैं लौटे। गला भूख का घोट हैं लौटे। लेकर प्यासे होंठ हैं लौटे। चले गाँव के गाँव, गाँव को, आज अजब लाचारी में।। 3. आगे-घर के राम-रमैया। पीछे छुटके बहना-भैया। लाद थकन को चलती मैया। पाँव पहनके छाले भैया। राजपथों को नापें कुनबे, ज्यों अपनी गलियारी में।। 4. आँगन से छत, चैबारे लो। चैबारे से अंगनारे लो। अंगनारे से घर-द्वारे लो। घर-द्वारे से ओसारे लो। घूम रहे हैं अपने घर में, कै़द हो चार दीवारी में।। 5. घर के बाहर है सन्नाटा। घर के भीतर है सन्नाटा। इस सन्नाटे ने है काटा। घर में दाल, नमक न आटा। उपवासों की झड़ी लगी है, भूखों की बेकारी में।। 6. दूध-मुहों की बोतल खाली। चाय की प्याली अपनी खाली। तवा, चीमटा, कौली, थाली। बजा रहे हैं सारे ताली। चूल्हे बैठे हैं लकड़ी के- स्वागत की तैयारी में।। 7. धनवानों के भाग्य

एक बेगम की जिन्दगी का सच

एक बेगम की जिन्दगी का सच : जिसमें इतिहास की गरिमा और साहित्य की रवानी है अनिल अविश्रांत     कहा जाता है कि कुछ सच कल्पनाओं से भी अधिक अविश्वसनीय होते हैं। 'बेगम समरू का सच' कुछ ऐसा ही सच है। एक नर्तकी फरजाना से बेगम समरू बनने तक की यह यात्रा न केवल एक बेहद साधारण लड़की की कहानी है बल्कि एक ऐसे युग से गुजरना है जिसे इतिहासकारों ने आमतौर पर 'अंधकार युग' कह कर इतिश्री कर ली है, पर उसी अंधेरे मे न जाने कितने सितारे रौशन थे, न जाने कितनी मशालें जल रही थीं और न जाने कितने जुगनू अंधेरों के खिलाफ लड़ रहे थे। फरजाना एक सितारा थी जिसने अपनी कला, अपनी बुद्धि और अपने कौशल से इतिहास में अपने लिए जगह बनाई। साहित्यिक विधा में इतिहास लिखना एक बड़ा जोखिम भरा काम है। जरा-सा असन्तुलन रचना की प्रभावशीलता को खत्म कर सकता है। इसके लिए विशेष लेखकीय कौशल की आवश्यकता होती है। 'बेगम समरू का सच' पढते हुए यह कौशल दिखता है। यह किताब न केवल इतिहास की रक्षा करने में सफल रहती है बल्कि इसे पढ़ते हुए पाठक को साहित्य का रस भी प्राप्त होता है। लेखक का अनुसंधान, ऐतिहासिक तथ्यों के प

गोविन्द मिश्र के कथा साहित्य में नारी का स्वरूप

शोधार्थिनी सुदेश  कान्त (नेट) (हिन्दी विभाग) बी0एस0एम0पी0जी0 रुड़की (हरिद्वार) प्रस्तावना नारी प्रकृति की अनुपम एवं रहस्यमयी कृति है जिसके आन्तरिक मन की पर्तों को जितना अधिक खोलते हैं, उसके आगे एक नवीन अध्याय दृष्टिगत होता है। अपने अनेक आकर्षणों के कारण नारी साहित्य का केन्द्र बिन्दु रही है। प्राचीन समय में स्त्री शिक्षा को  भले ही महत्वहीन समझा जाता रहा हो, परन्तु वर्तमान समय में इसे विशेष महत्व दिया जाने लगा है। शिक्षा के बल पर आज की स्त्री आवश्यकता पड़ने पर घर की चाहरदीवारी की कैद से निकलकर स्वतंत्र हो सकी है, उत्पीड़ित होने पर प्रतिशोध कर सकती है। उचित निर्णय लेकर उचित कदम उठाकर आत्मरक्षा कर सकती है।  गोविन्द मिश्र जी का कथा साहित्य अधिकांश नारी केन्द्रित है। मिश्र जी का क्षेत्र शिक्षा जगत होने के कारण उनके अधिकांश नारीपात्र-बुद्धिजीवी हैं। मिश्र जी के नारी पात्र अन्तद्र्वन्द्व से घिरे कुण्ठित एवं असहाय तथा कहीं पर परम्परागत रूप दृष्टिगत हुआ है किन्तु अधिकांश नारी-पात्र किसी भी स्थिति में पुरुष की दासता सहने को तैयार नहीं हैं, भले ही उसे उसका कितना भी बड़़ा मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। मि

एक ज़माना था के चमचों की हनक भी ख़ूब थी

  एक ज़माना था के चमचों की हनक भी ख़ूब थी, आजकल नेताओं तक की भी पुलिस सुनती नहीं।               एक ज़माने में गलीयों की राजनीति करने वाले चमचे भी थानों में जाकर अपने कुर्ते के कलफ़ से ज़्यादा अकड़ दिखा दिया करते थे, वे सीधे मुख्यमंत्री का आदमी होने का दावा करते थे मगर अब सारा माहौल ही बदल गया कुर्ते का कलफ़ ढीला पड़ गया चमचे कमा कर खा रहे हैं कोई बैटरी वाली रिक्शा चला रहा है कोई केले, चाउमीन,या सेव बेच रहा है।जिस पुलिस को वें हड़का दिया करते थे वही पुलिस अब उन्हें हड़का रही है लठिया रही है।अगर कोई पुराना चमचा,किसी ऐसे पुलिस वाले के हत्ते चढ़ जाता है जिसे उसने हड़काया हो तो वह पुलिस वाला उससे सारा पुराना हिसाब चुकता करता है।इस समय पुराने नेताओं की बहुत दुर्गति हुई पड़ी है।बिना पद के किसी नेता का बहुत ही बुरा हाल है वह तो थाने में जाने ही के नाम से इधर-उधर की बातें करने लगता है।पद वाला नेता भी थानों में जाना नहीं चाहता क्योंकि क्या पता कौन सा अफ़सर कैसा हो ज़रा सी देर में बेइज़्ज़ती हो जाए क्या फ़ायदा।उस ज़माने में जेबकतरों को, उठाईगिरों को,लड़कियों को छेड़ने वालों को नेता तो क्या उसका चमचा तक छुड़ा लिया करता

दिल खोल कर बोली लगाएं, मन चाहा पुरस्कार पाएं

  अभी तक किसी भी पुरस्कार से वंचित कवियों या शायरों को निराश होने की ज़रूरत नहीं है।उन्हें इस बात की चिन्ता करने की भी ज़रूरत नहीं है कि उनकी रचनाएं पुरस्कार योग्य नहीं है, उन्हें इसकी भी फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है कि लोग उन्हें पकाऊ कहते हैं उनकी रचनाओं को बकवास कहते हैं,सभी पुरस्कार प्यासों में एक ही गुण होना आवश्यक है वह यह कि उसकी जेब भारी हो भले ही दिमाग़ ख़ाली हो। शहर के शायर,कवि,पत्रकार और पता नहीं क्या-क्या सुनील 'उत्सव' को जब किसी मूर्खों की संस्था से लेकर काग़ज़ी संस्था तक ने कोई एज़ाज़, पुरस्कार, सम्मान नहीं दिया तो उसने अपने नाम ही की एकेडमी गढ़ ली "सुनील 'उत्सव' एकेडमी" और उसके द्वारा पुरस्कार बांटने शुरू कर दिए।देखते ही देखते उसका यह गोरखधंधा चल निकला।सबसे बड़ी आसानी यह कि न जीएसटी का झंझट न इन्कम टैक्स का।"पानपीठ" पुरस्कार से लेकर "अझेल" पुरस्कारों की कई तरह की वैराइटी है।जिन सरकारी अफ़सरों ने अपनी ऊपरी कमाई से अपने मन की बातें किताब की शक्ल में छपवा रक्खी हैं उन्हें वह 10 परसेंट की छूट भी देता है।रही पात्रों,अपात्रों,कुपात्रों में से

तलवे छुपे हुए हों तो घुटने ही चाट ले

  तलवे छुपे हुए हों तो घुटने ही चाट ले, चमचागिरी का शौक़ भी कितना अजीब है।   वास्तव में चमचागिरी भी एक शौक़ है।अगर किसी के तलवे जूतों में छुपे हों तो आज के चमचे घुटने तक चाटने को तैयार रहते हैं।कई शौक़ की तरह चमचागिरी भी शौक़ है, इस शौक़ को पूरा करने के लिए लोग शानदार कपड़े तक सिलवा लेते हैं।आजकल कई प्रकार के चमचे दिखाई पड़ रहे हैं।मुख्यतः चमचे दो प्रकार के तो होते ही हैं एक अफ़सरों के चमचे दूसरे नेताओं के चमचे।मालिकों के आसपास भी चमचे मंडराते रहते हैं इन चमचों की भी कई वैराइटीयाँ हैं।अफ़सर की चमचागिरी करने वाला चमचा अभूतपूर्व अहंकार से भरा होता है।वह अपनी पत्नी पर भी रौब जमाता है भले ही उसकी पत्नी उसकी ख़बर ले लेती हो।अगर कोई अफ़सर किसी चमचे का ज़्यादा इस्तेमाल करने के लिए कभी चाय पिला दे तो चमचा कई दिनों तक ग्लैड रहता है।जब किसी मोहल्ले में कोई अफ़सर आता है,तो अव्वल दर्जे का चमचा सबसे पहले उसके पास पहुंचता है ताकि पूरा मोहल्ला उसे कुछ समझे।पूरा मोहल्ला उसे कुछ समझे इसके लिए वह अफ़सर से पूंछ हिलाने की मुद्रा में बात करता है।ऐसे चमचे यह जताने की कोशिश करते हैं कि इस मोहल्ले के सबसे ज़्यादा समझदार वही

आज का श्रवण कुमार

नीरज त्यागी           पापा मैं ये बीस कम्बल पुल के नीचे सो रहे गरीब लोगो को बाट कर आता हूँ।इस बार बहुत सर्दी पड़ रही है।श्रवण अपने पिता से ये कहकर घर से निकल गया।             इस बार की सर्दी हर साल से वाकई कुछ ज्यादा ही थी। श्रवण उन कंबलों को लेकर पुल के नीचे सो रहे लोगो के पास पहुँचा।वहाँ सभी लोगो को उसने अपने हाथों से कम्बल उढा दिया।             हर साल की तरह इस बार भी एक आदर्श व्यक्ति की तरह कम्बल बाटकर वह अपने घर वापस आया और बिना अपने पिता की और ध्यान दिये अपने कमरे में घुस गया।            श्रवण के पिता 70 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति है और अपने शरीर के दर्द के कारण उन्हें चलने फिरने में बहुत दर्द होता है।बेटे के वापस आने के बाद पिता ने उसे अपने पास बुलाया।             किन्तु रोज की तरह श्रवण अपने पिता को बोला।आप बस बिस्तर पर पड़े पड़े कुछ ना कुछ काम बताते ही रहते है।बस परेशान कर रखा है और अपने कमरे में चला गया।             रोज की तरह अपने पैर के दर्द से परेशान श्रवण के पिता ने जैसे तैसे दूसरे कमरे से अपने लिए कम्बल लिया और रोज की तरह ही नम आँखों के साथ अपने दुखों को कम्बल में ढक कर सो ग

शोध कार्यों में साहित्यिक चोरी : कारण और निवारण

डॉ. मुकेश कुमार एसोसिएट प्रोफ़ेसर, वनस्पतिविज्ञान विभाग, साहू जैन कॉलेज, नजीबाबाद (बिजनौर) उ.प्र.   साहित्यिक चोरी का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। लगभग 2000 पूर्व, सन 80 में रोमन कवि मार्शल ने आरोप लगाया था कि उनकी कविताओं को अन्य व्यक्तियों ने अपने नाम से सुनाया था। रोमन कानून में इस प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए ‘साहित्य चोर’ शब्द का उपयोग किया गया था। अंग्रेजी भाषा के ‘प्लेगेरिज्म’ शब्द का शाब्दिक अर्थ भी ‘साहित्यिक चोरी’ ही है। साहित्यिक अथवा वैज्ञानिक जानकारियों के आदान-प्रदान और प्रकाशन की परंपरा सदियों से चली आ रही है किंतु कई दशकों से प्रकाशन को अकादमिक प्रतिष्ठा, पदोन्नति एवं वित्त पोषण से जोड़ दिए जाने के कारण सम्बंधित व्यक्तिओं में अधिकाधिक प्रकाशन करने की होड़ मच गई है। वह कम समय में, कम परिश्रम करके अधिक से अधिक प्रकाशन करना चाहते हैं। कोई भी वैज्ञानिक जानकारी शोध पत्र के रूप में प्रकाशित की जाती है। वैज्ञानिकों अथवा साहित्यकारों द्वारा कठिन परिश्रम से किए गए अपने कार्य को विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित कराना शोध की एक स्वस्थ एवं महत्वपूर्ण परंपरा है। किं