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Showing posts with the label शोध लेख

मूँछ पदारथ सिंह ने बसाया था जलालाबाद

  जनपद बिजनौर के अन्तर्गत नजीबाबाद तहसील में नगरपालिका पंचायत जलालाबाद स्थित है। फिल्म जगत में प्रसिद्ध लेखक अख़्तरउल ईमान की भी यही जन्मभूमि है। अख़्तरउल ईमान ने अनेक सफल फिल्मों के डायलाग लिखे हैं। कहा जाता है कि जलालाबाद को मुगल शासनकाल में मूँछ पदारथ सिंह ने बसाया था। उस समय तक नजीबाबाद का कोई अस्तित्व भी नहीं था। बाद में इसी जलालाबाद को मुरादाबाद जिले का परगना भी बनाया गया। लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री अपनी पुस्तक 'क्षत्रिय जातियों को उत्थान-पतन' में लिखते हैं-   जिस समय मुगलसम्राट अकबर अपने समकालीन राजाओं और राज्यों को रौंदता-कुचलता हुआ बढ़ता चला जा रहा था। उस समय उच्चाकांक्षाओं से प्रेरित होकर जिंद राज्य में गोहाना के समीपस्थ रामरायपुर ग्राम को छोड़ कर कुछ काकराणा वंशी जाट अपने बसरू सिंह नेता के नेतृत्व में देहली की ओर चल निकले। वह बहादुरगढ़ में आ बसे। यहँा इन्होंने अपने प्रतिद्वन्दी भट्टी राजपूतों से बदला लेने के लिए शाही सेना की सेवाएँ स्वीकार कर लीं। दूल्हा भट्टी की कमान में लड़ने वाली सेनाओं के साथ युद्धग्रस्त रह कर इन्होंने अपनी राजरसिकता से अपने वंश की प्रतिष्ठा को बहुत उन

सुधीर कुमार ‘तन्हा’ की ग़ज़लों में सामाजिक यथार्थ/मंजु सिंह

सुधीर कुमार 'तन्हा' उत्तर प्रदेश में जनपद बिजनौर के ग्राम सीकरी बुजुर्ग में जन्मे सुधीर कुमार 'तन्हा' ग़ज़ल कहते हैं और उनकी ग़ज़ल हिंदी-उर्दू के बीच की कड़ी लगती है। न तो ठेठ हिंदी और न ही ठेठ उर्दू। दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल में भी यही भाषा दिखाई देती है जो साहित्य के लिए बुरी नहीं बल्कि अच्छी बात है। बिजनौर के ही एक और विद्वान पं. पद्मसिंह शर्मा ने पहले पहल यह प्रयोग किया था। तब उनकी भाषा को कुछ विद्वानों ने उछलती कूदती भाषा क हा था तो कुछ विद्वानों ने उनकी भाषा को साहित्य के लिए बहुत अच्छा माना था। पंडित जी हिंदी से बहुत प्रेम करते थे परंतु वह अन्य किसी भाषा से या उसके शब्दों से द्वेष नहीं रखते थे। यही कारण है कि आज उनकी वही भाषा आम बोलचाल की भाषा बन गई है। कवि सुधीर कुमार 'तन्हा' भी  ईर्ष्‍या अर्थात् हसद को लाइलाज बीमारी मानते हुए इससे बचने की सलाह देते हैं- हसद बहुत ही बुरा मरज़ है, हसद से 'तन्हा' गुरेज़ करना। हर एक मरज़ की दवा है लेकिन, हसद की कोई दवा नहीं है।।1 ग़ज़ल ने अनेक प्रतिमान गढ़े हैं। आशिक और माशूक से निकल कर ग़ज़ल ने विषय विस्तार पाया है। आज ग़ज़ल हर विषय

पं. पद्मसिंह शर्मा और ‘भारतोदय’

अमन कुमार 'त्यागी'   पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म सन् 1873 ई. दिन रविवार फाल्गुन सुदी 12 संवत् 1933 वि. को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टेशन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नंगला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके एक छोटे भाई थे जिनका नाम था श्री रिसाल सिंह। वे 1931 ई. से पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। पं. पद्मसिंह शर्मा की तीन संतान थीं। इनमें सबसे बड़ी पुत्री थी आनंदी देवी, उनसे छोटे पुत्र का नाम श्री काशीनाथ था तथा सबसे छोटे पुत्र रामनाथ शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा के पिता आर्य समाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रति उनकी अत्यंत श्रद्धा थी। इसी कारण उनकी रुचि विशेष रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया। जब ये 10-11 वर्ष के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पंडित अध्यापकों से संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी, और रघुवंश आदि का अध्ययन किया तथा एक मौलवी साहब से उर्दू व फारसी की भी शिक्षा ल

मणिपुरी कविता: कवयित्रियों की भूमिका

प्रो. देवराज  आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए ज

संत बाबा मौनी: इक पनछान 

डाॅ. प्रीति रचना  डुग्गर दे जम्मू सूबे दी धरती रिशियें-मुनियें, पीर-पगंबरे दी धरती ऐ। इस धरती पर केईं मंदर ते देव-स्थान होने करी इस्सी मंदरें दा शैह्र गलाया गेदा ऐ। जम्मू लाके च बाह्वे आह्ली माता दा मंदर, रणवीरेश्वर मंदर, रघुनाथ मंदर, आप-शम्भू मंदर, पीरखोह् मंदर, सुकराला माता बगैरा दे मंदर ते केईं सिद्धपुरशे दियां समाधियां बी हैन। उं'दे चा गै इक समाधी बावा मौनी जी हुंदी बी ऐ, जेह्ड़ी जम्मू जिले दी अखनूर तसील दे बकोर ग्रांऽ च ऐ। एह् ग्रांऽ जम्मू थमां 50 कि॰.मी॰. दूर चनाब दरेआ दे कंडै बस्से दा ऐ। इस दरेआ करी ग्रांऽ हुन चैथी बारी नमें सिरेआ बस्सेआ ऐ।   इस ग्रांऽ च इक राधा-कृष्ण दा मंदर बड़ा गै प्राचीन ऐ, जेह्दा निर्माण बावा मौनी होरें करोआया हा। बावा मौनी पैह्ले कश्मीर च 'रैनाबाडी' नांऽ दी जगह् रांैह्दे हे। ओह् शुरू थमां गै अध्यात्मिक प्रवृत्ति आह्ले हे। इक दंत कथा मताबक ओह् सन् 1650 दे कोल-कच्छ घरा निकली गे ते चलदे-चलदे अखनूर तसीलै दे पं´ग्रांईं नांऽ दे ग्रांऽ च आई गे हे। उत्थै उ'नें शैल घना जंगल दिक्खियै अपनी समाधी लाई लेई ही। किश ब'रें उत्थें तप ते प्रभु भजन करदे रे।

प्रताप सिंह पुरा (ललयाना) : इक पनछान / डोगरी लेख

शिव कुमार खजुरिया  तसील विशनाह् दा ग्रांऽ प्रताप सिंह पुरा ललयाना बड़ा गै म्शहूर ग्रांऽ ऐ। एह् जम्मू थमां लगभग 25 किलोमीटर ते विशनाह् थमां 6 किलोमीटर दी दूरी पर बस्से दा ऐ। इत्थूं दी कुल अबादी 663 ऐ ते जमीनी रकवा लगबग 550 धमाऽं ऐ। इत्थूं दे किश लोक मलाज़म न पर, ज्यादातर लोक जीमिदारी ते मजूरी करियै अपनी गुजर-बसर करा दे न। इस ग्रांऽ दे नांऽ बारै गल्ल कीती जा तां एह्दा नांऽ डुग्गर दे प्रसिद्व महाराजा प्रताप सिंह हुंदे नांऽ पर रक्खेआ गेदा ऐ। इस ग्रांऽ च बक्ख-बक्ख जातियें ते धर्में दे लोक आपूं- चें बड़े मेल जोल ते हिरख-समोध कन्नै रौंह्दे न। इत्थै उं'दे बक्खरे बक्खरे धार्मिक स्थान बी हैन। ओह् रोज इत्थै मत्था टेकियै, ग्रांऽ दी खुशहाली आस्तै मंगलकामना करदे न।    इस ग्रांऽ दी अपनी इक खास म्ह्ता ऐ। इत्थै भाद्रो म्हीने दी 8 तरीक गी बाबा तंत्र बैद जी दे नां पर बड़ा बड्डा मेला लगदा ऐ ते भंडारे दा आयोजन बी कीता जंदा ऐ। 8 तरीक कोला केईं रोज पैह्लें गै मेले च औने जाने आह्लें लोकें दी चैह्ल पैह्ल शुरू होई जंदी ऐ। इस दिन गुआंडी रियासतें ते आस्सै-पास्सै दे ग्राएं थमां ज्हारें दी गिनतरी च लोक बाबा जी दी स

माखनलाल चतुर्वेदी : कठिन जीवन का सृजन-धर्म

डॉ. रजनी शर्मा  'एक भारतीय आत्मा' माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म सन् 1889 में हुआ था। बाबई में जन्मे माखनलाल जी का जन्म का नाम मोहनलाल था। उनके पिता श्री नन्दलाल जी व्यवसाय से अध्यापक और स्वभाव से आधुनिक संस्कारों तथा सेवाभावी चरित्र के स्वामी थे। माखनलाल चतुर्वेदी को वैष्णव-संस्कार अपने पिता से ही प्राप्त हुए थे। माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन पर उनकी माता जी का बहुत प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपनी माँ के विषय में स्वयं लिखा है -''मेरे जीवन की कोमलतर घड़ियों का आधार मेरी माँ है। मेरे छोटे से ऊँचे उठने में भी, फूला न समाने वाला तथा मेरी वेदना में व्याकुल हो उठने वाला, उस जैसा कोई नहीं।''1  माखनलाल चतुर्वेदी की माँ ममता, वात्सल्य, साहस, त्याग और मानव सुलभ आदर्श गुणों की प्रतिमूर्ति थी। माखनलाल जी को अपने पिता के साथ ही अपनी माँ से संकल्प-शक्ति, अन्याय का विरोध करने की भावना, संघर्ष से प्रेम और विपरीत परिस्थितियों में अदम्य साहस जैसे गुण प्राप्त हुए थे।  माखनलाल जी अपने प्रारम्भिक जीवन में बहुत ही नटखट प्रवृत्ति के थे। बालसुलभ नटखट स्वभाव के कारण उनके पड़ोसी भी परेशान रहते थे। इ