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गुलाबों का बादशाह

अमन कुमार           आसपास के सभी लोग उसे गुलाबों के बादशाह के रूप में ही जानते थे। उसका असल नाम क्या है? अब तो स्वयं उसे भी स्मरण नहीं रहा मुश्किल से तीन वर्ष का रहा होगा, जब उसके माँ-बाप ने उससे सदा के लिए विदा ले ली थी। इस भरी दुनिया में वह नितांत अकेला था। उसकी उम्र लगभग पैंसठ वर्ष हो चुकी है। विवाह के अनेकों प्रस्तावों के बावजूद उसने कुंवारा ही रहना उचित समझा। मन लगाने के लिए उसके पास बड़ा सा गुलाबों का बग़ीचा है। कहा जाता है कि जब उसके माता-पिता ने उससे विदा ली थी, तब वह इसी बग़ीचे में था। यह बग़ीचा उस वक़्त उतना ख़ूबसूरत नहीं था, जितना कि आज है। तब व्याधियाँ भी अधिक थीं और उसके माता-पिता इस बग़ीचे की देखभाल भी उचित प्रकार से नहीं कर सके थे। पड़ोसियों के जानवर इस बग़ीचे में आते। जहाँ अच्छा लगता मुँह मारते और जहाँ मन करता गोबर करते और फिर चले जाते। हद तो ये हो गई कि बाद में एक दो सांडों ने इस सुंदर बग़ीचे को अपना आशियाना ही बना लिया। गुलाबों के बादशाह के माता-पिता इन सांडों से मरते दम तक अपने बग़ीचे को आज़ाद नहीं करा सके। आज गुलाबों का बादशाह अपने बग़ीचे को साफ-सुथरा रखता है। क्या मजाल एक भी प

एक दिन व्हाट्सएप पर

रश्मि अग्रवाल   जब से परिचय हुआ व्हाट्सएप से, दुनिया ही बदल गई तब से। आज झटपट बात पहुँच जाती उन तक, पहुँचाना चाहते हैं जिन तक। परंपराएँ बदल रहीं, परिवर्तन की बेला में, छोटे से उपकरण ने धूम मचा दी, दिमाग़ के हर कोने में। बधाई मिलती थी पहले, पास आकर/जाकर- हौले से हाथों को दबाकर, उपहार दिए जाते थे सौग़ातों में, सजीव हों या निर्जीव हाथों में थमाकर। आज.... गिला-शिकवा हो या बधाई, गुलदस्ता हो या मिठाई भेज दी जाती है व्हाट्सएप पर। ये तो कुछ भी नहीं सुनो! इससे आगे की, विवाह हो या वर्षगाँठ, जन्म दिन या मरणदिन सुख-दुःख सभी, बाँट लिए जाते हैं व्हाट्सएप पर। जानते हैं परिणाम क्या होगा? एक दिन  जिन भावनाओं के साथ, निमंत्रण पत्र भेजा जाएगा, उन्हीं भावनाओं के साथ  शगुन भी भेज दिया जाएगा। वैज्ञानिक परिवर्तन की ना पूछो बात, एक दिन हनीमून भी- मना लिया जाएगा व्हाट्सएप के साथ। भले ही इन सबका रंग-रूप स्वाद न ले पाएं हम, पर दूर बैठ कर भी काम चला लिया जाएगा, एक दिन व्हाट्सएप पर।

देश-गान

इंद्रदेव शर्मा 'भारती' वरिष्ठ गीतकार, चित्रकार, शिक्षक ए-3, आदर्श नगर, नजीबाबाद-246763  (बिजनौर) उप्र    मो. - 9927401111   (तर्ज़-आल्हा) दोहा   तीन लोक नौ खंड में, ऐसो देश है नाय धन-धन भारत-भारती, गाऊँ शीष नवाय छंद धन-धन भारत देश हमारो, तीन लोक मैं ऐसो नाय धन-धन भारत माता हमरी, जाकै गीत शहीदन गाय धन-धन अपना अमर तिरंगा, नीले नभ लौ जो लहराय धन-धन जन-गण-मन अधिनायक, जाको कंठ करोड़ो गाय धन-धन हर एक भारतवासी, जानै जनम यहाँ पै पाय धन-धन क़लमें उन कवियन की, जानै इसके गीत लिखाय धन-धन वीर सपूती माता, जानै ऐसे पूत जनाय धन-धन ऐसी वीर जवानी, हँस-हँस अपनो शीष कटाय धन-धन अपना धवल हिमालय, जो भारत का भाल कहाय धन-धन हिंद महासागर जी, जो माता के चरण धुलाय धन-धन झर-झर झरते झरने, मीठा-मीठा जल पिलवाय धन-धन अमरित जैसा पानी, पावन नदियाँ रही लुटाय धन-धन चंदन माटी अपनी, जाकि सोंधी गंध सुहाय धन-धन अपनी पुरवैया जी, तन-मन शीतल करती जाय धन-धन अपने खेत सुभागे, सोने जैसी फ़सल उगाय धन-धन इन खेतन के राजा, जो जन-जन की भूख मिटाय धन-धन आरती और अज़ानें, गुरुबानी के शबद सुनाय धन-धन सिक्ख, मुसलमाँ, हिंदू, क्रिस्तानी जो एक

नंदू

ज्योत्सना भारती थका हारा नंदू खेत से आकर एक तरफ़ चुपचाप बैठ गया। उसके चेहरे पर चिंता और थकान की झलक स्पष्ट थी। नंदू की पत्नी सीमा उसके सामने पानी का गिलास लिए कब से खड़ी थी। मगर नंदू का ध्यान तो कहीं और ही कुछ सोचने में लगा था। अचानक सीमा को देखकर वो चैंका और बोला-अरे! सीमा तुम कब से खड़ी हो बैठ जाओ न। सीमा चुपचाप बैठ गई। जब बहुत देर तक नंदू कुछ नहीं बोला तो सीमा ने उसके माथे पर हाथ रखा। ये क्या? नंदू तो बुरी तरह से तप रहा था। ये देख कर सीमा घबरा गई और तुरंत ही नंदू को लेकर पड़ोस के डाॅक्टर के पास गई। डाॅक्टर ने नंदू को कुछ दवाएं दीं और इंजेक्शन लगा दिया तथा घर जाकर आराम करने को कहा। घर आकर नंदू को बुखार और तेज़ हो गया था। वो लगातार बड़बड़ाए जा रहा था-'तो क्या हो गया, मैं क्या करूँगा अब, कैसे होगा?' और भी न जाने क्या-क्या बोले जा रहा था। सीमा उसी के पास बैठी थी।  नंदू शहर में अच्छे पद पर नौकरी करता था मगर वो अपनी लगी लगाई पक्की नौकरी इसलिए छोड़कर गाँव आ गया था कि घर पर अपने पिता के साथ खेती की पैदावार बढ़ाने को और नई तकनीक से खेती करने में उनका हाथ बटाएगा। मगर यहाँ आकर तो उसे अनेक कठिना

जु़ल्फें बिखर गईं तेरे गालों के आस पास /ग़ज़ल

महेन्द्र अश्क  जु़ल्फें बिखर गईं तेरे गालों के आस पास  लहरा रहे हैं साँप उजालों के आस पास किस किस तरह के जाल बिछाने में लग गई  दुनिया तुम्हारे चाहने वालों के आस पास  अब रात की सियाहियों में ध्ूप घुल गई  अब दिन बिखर गये तेरे बालों के आस पास  सोने ही नहीं देती इस अहसास की चुभन  हम भी रहे हैं शोख़ ग़ज़ालों के आस पास  वो आ रहे हैं जब से किसी ने दी ये ख़बर  सूरज निकल रहा है ख़यालों के आस पास 

हिन्दी नाटकों के माध्यम से पाठ शिक्षण, प्रशिक्षण और समाधान

डॉ. चन्द्रकला  साहित्य की इस विविधता भरी दुनिया में जहाँ एक तरफ नित्य नए संचार माध्यमों के प्रयोग ने विषयों के तर्कयुक्त, युक्तिसंगत पठन- पाठन, व विमर्शों को तीव्र गति दी है। साएबर जगत से इस परिवर्तन ने ही आज् के विदयार्थियों को जिस तरह से जागरूक किया है। उससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वर्तमान समय में कक्षा में पढाये जाने वाले पाठ से छात्र को जोडने के साथ उसके अन्दर के सृजनात्मक लोक से भी परिचय कराया जाय। तकनीकी शिक्षा व नई शिक्षा- नीति से उत्पन्न इस चुनौती का सामना वर्तमान शिक्षाविदों एंव अध्यापकों को भी करना है। उन्हें पाठ्य- पुस्तकों को रोचक ढंग से पढने और पढाने की परिपाटी पर नये सिरे से विचार करने की भी आवश्यकता है। आज यह वर्तमान समय की मांग और आवयश्कता भी है। कारण भी स्पष्ट है। -जहाँ एक तरफ स्कूली शिक्षा बहुत पहले ही इस बदलाव से अपने को जोड चुकी है। वहीं कालेजों में विशेष कर हिन्दी में यह सारा दायित्व किताबों ने ही उठा रखा हैं। -आज यदि प्रमाणिक पाठ उपलब्ध नहीं है, या पुस्तक ही प्रिंट में नही है तो उसकी सामग्री किसी साईट पर नही मिलेगी। हिन्दी में इस दिशा में कार्य ही कुछ समय प

चित्रा मुद्गल की कहानियों में व्यक्तिपरक यथार्थ

  डॉ.संगीता शर्मा चित्रा मुदगल हमारे समय की अग्रणी कथाकार है। इन्होंने उपन्यास और कहानी दोनों ही विधाओं में कथ्य और भाषा सभी क्षेत्रों में नई जमीन तोडी है। चित्रा मुद्गल का जन्म 10 दिसंबर 1943 को सामंती परिवेश के निहाल खेड़ा, जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश के एक संपन्न अमेठिहन ठाकुर परिवार में हुआ। पिता साहसी और रोबदार व्यक्ति थे वहीं माताजी सीधी-सादी घरेलू महिला गांव के रोबदार ठाकुर परिवार में जन्म होने के कारण उन्होंने अपने परिवार द्वारा निम्न वर्ग का घरेलू शोषण देखा जिससे उनका बालमन विचलित हो उठा।बालपन से ही उनके मन में अंतर्विरोध जाग उठा मुंबई में 'सारिका' पत्रिका के संपादक अवधनारायण मुद्गल से अंतर्जातीय विवाह किया जिससे परिवार ने उनसे संबंध तोड़ लिए। आर्थिक तंगी का सामना करते हए वे एक चॉल में रहते थे तथा अवधनारायण मदगल ने कविताएं. कहानियां लिखना छोड़ एजेंसियों में विज्ञापन लिखने शुरू किए और चित्राजी ने अनुवाद इन सब परिस्थितियों के बीच भी इन्होंने अपनी साहित्य साधना नहीं रोकी तथा समय-समय पर कई पत्र पत्रिकाओं में इनके लेख, कविताएं, कहानियां छपती रही। इसी बीच में कई सामाजिक संस्था