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अमनिका

पाँच पंक्तियों की कविता, जिसमें एक ही बात को चार तरीके से कहने का प्रयास किया गया है। खास बात ये है कि पाँच पंक्तियों में ऊपर-नीचे से कोई भी दो पंक्ति लेने पर बात पूरी हो जाती है। आशा है सुधि पाठक और समीक्षक अमनिका को नयी विधा के रूप में स्वीकार करेंगे।  1 मैं एक चराग़ की तरह जलने में रह गया मौसम की तरह रोज़ बदलने में रह गया हर हमसफ़र ने राह में धोका दिया मुझे मंजिल न आई और मैं चलने में रह गया सूरज की तरह रोज़ निकलने में रह गया 2 गीत गाने को जी चाहता है प्रीत पाने को जी चाहता है झील सी गहरी आँख तेरी पास आने को जी चाहता है डूब जाने को जी चाहता है 3 मैं आंसू तुम्हारे छलकने न दूंगा हवा से चिराग़ों को बुझने न दूंगा मेरी ज़िंदगी एक बहता है दरिया मैं दरिया को हरगिज़ भी रुकने न दूंगा क़दम अपने पी कर बहकने न दूंगा 4 देख मेरी आँखों में क्या है सुन मेरी सांसों में क्या है दिल से दिल की बातें मत कर दिल, दिल की बातों में क्या है दिन में क्या रातों में क्या है 5 खुशबुओं की तरह मैं बिखर जाऊंगा एक जगह रुक गया तो मैं मर जाऊंगा दुनिया वाले मुझे कुछ भी समझा करें मैं तो दुश्मन के भी अपने घर जाऊंगा कोई आवाज़ देगा

ग्रामीण भारत में हो रहा है बदलाव : धर्मपाल सिंह

धर्मपाल सिंह राजपूत सेवानिवश्त शिक्षक हैं और सेवानिवश्ति के बाद राजनीति में सक्रिय हैं। आप वर्तमान में 'अखिल भारतीय हिंदू शक्ति दल' उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष हैं। आपका मानना है कि ग्रामीण भारत बहुत तेजी से बदल रहा है और यह बदलाव अच्छा है। प्रस्तुत है उनसे आलोक त्यागी द्वारा की गई बात के अंश-  सवाल- ग्रामीण भारत किसे कहेंगे? जवाब- जो भारत गाँवों में बसता है, वही तो ग्रामीण भारत है।  सवाल- ग्रामीण भारत को किस नजरिए से देखते हैं? जवाब- ग्राम और कृषि भारत के विकास को निर्धारित करता है। ग्रामीण भारत में कृषि महत्वपूर्ण आय का साधन है। इसके बावजूद ग्रामीण जनसंख्या समृद्धि की ओर बढ़ रही है। आज किसान तमाम खर्च राक कर अपने बच्चों को पढ़ा रहा है और यही पढ़ाई अतिरिक्त रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर ग्रामीण भारत को समृद्ध कर रही है।  सवाल- आजादी के बाद किसान की आय उसकी खेती की वजह से कितनी बढ़ी है? जवाब- आजादी के बाद सरकार द्वारा भूमि सुधार कानूनों को बनाने और  क्रियान्यवन करने से काफी बदलाव आया है। अधिक कृषि योग्य सरकारी भूमि निर्धनों और जरूरतमंद खेतीहरो को आजीविका के लिए वितरित की गई। यह परिकल्पना

कभी कश्ती कभी मुझको किनारा छोड़ जाता है

सुधीर तन्‍हा कभी कश्ती कभी मुझको किनारा छोड़ जाता है। ये दरिया प्यार का प्यासे को प्यासा छोड़ जाता है।। भूलाना भी जिसे मुमकिन नहीं होता कभी अक्सर। कई सदियों को पीछे एक लम्हा छोड़ जाता है।। मैं जब महसूस करता हूँ मेरा ये दर्दे दिल कम है। वो फिर से राख में कोई शरारा छोड़ जाता है।। मैं जब भी ज़िंदगी के गहरे दरिया में उतरता हूँ। भँवर की आँख में कोई इशारा छोड़ जाता है।। तलब से भी ज़ियादा देना उसकी ऐन फ़ितरत है। मैं क़तरा माँगता हूँ और वो दरिया छोड़ जाता है।। वो मेरा हमसफ़र कुछ दूर चलकर साथ में 'तन्हा' । मेरी ख़ातिर वही पेचीदा रस्ता छोड़ जाता है।।

सुधीर कुमार ‘तन्हा’ की ग़ज़लों में सामाजिक यथार्थ/मंजु सिंह

सुधीर कुमार 'तन्हा' उत्तर प्रदेश में जनपद बिजनौर के ग्राम सीकरी बुजुर्ग में जन्मे सुधीर कुमार 'तन्हा' ग़ज़ल कहते हैं और उनकी ग़ज़ल हिंदी-उर्दू के बीच की कड़ी लगती है। न तो ठेठ हिंदी और न ही ठेठ उर्दू। दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल में भी यही भाषा दिखाई देती है जो साहित्य के लिए बुरी नहीं बल्कि अच्छी बात है। बिजनौर के ही एक और विद्वान पं. पद्मसिंह शर्मा ने पहले पहल यह प्रयोग किया था। तब उनकी भाषा को कुछ विद्वानों ने उछलती कूदती भाषा क हा था तो कुछ विद्वानों ने उनकी भाषा को साहित्य के लिए बहुत अच्छा माना था। पंडित जी हिंदी से बहुत प्रेम करते थे परंतु वह अन्य किसी भाषा से या उसके शब्दों से द्वेष नहीं रखते थे। यही कारण है कि आज उनकी वही भाषा आम बोलचाल की भाषा बन गई है। कवि सुधीर कुमार 'तन्हा' भी  ईर्ष्‍या अर्थात् हसद को लाइलाज बीमारी मानते हुए इससे बचने की सलाह देते हैं- हसद बहुत ही बुरा मरज़ है, हसद से 'तन्हा' गुरेज़ करना। हर एक मरज़ की दवा है लेकिन, हसद की कोई दवा नहीं है।।1 ग़ज़ल ने अनेक प्रतिमान गढ़े हैं। आशिक और माशूक से निकल कर ग़ज़ल ने विषय विस्तार पाया है। आज ग़ज़ल हर विषय

प्रणाम सर

डॉ. बेगराज  जब हम पढ़ते थे, गुरुजन को कहते थे प्रणाम सर!  सोचते थे, कैसा लगेगा, जब हमें होगी प्रणाम सर!  बन गए अध्यापक, और शुरु हो गई प्रणाम सर!  जब घर से निकलते, रास्ते से शुरु हो जाती प्रणाम सर!  कोई हंसकर कहता, तो कोई रोकर कहता प्रणाम सर!  कोई-कोई तो लठ सा मार देता, कहकर प्रणाम सर!  फिर भी हमें अच्छा लगता, सुनकर प्रणाम सर!  जब हम जा रहे हों, अपने किन्हीं रिश्तेदारों के साथ,  तब कोई आकर हमसे कहता प्रणाम सर!  हम कनखियों से रिश्तेदार को देखते, और कहते,  देखा, कितनी इज्जत है हमारी, सब करते हमें प्रणाम सर!  शुरु-शुरु में अच्छा लगता, सुनकर प्रणाम सर!  अब हम पर बंदिशे लगाने लगा, ये प्रणाम सर!  मन कर रहा हो हमारा गोल-गप्पे खाने का,  मन मसोस कर रह जाना पड़ता, सुनकर प्रणाम सर!  हम गए हों किसी शादी या बर्थ-डे पार्टी में,  हाथ में हो हमारे खाली खाने की प्लेट,  खाने से पहले, सुनने को मिलता प्रणाम सर!  हम गए हों किसी रेस्टोरेंट में,  संवैधानिक या असंवैधानिक दोस्तों के साथ,  वहाँ भी आकर कोई कह जाता, प्रणाम सर!  दोस्तों से फटकार लगती, और सुनने को मिलता,  यहा भी पीछा नहीं छोड़ रहा है, ये प्रणाम सर!  हम

हौंसला अपना भी अक्सर आज़माना चाहिए

डॉ. एस. के. जौहर हौंसला अपना भी अक्सर आज़माना चाहिए। आंख में आंसू भी हों तो मुस्कुराना चाहिए।। अब नहीं होती हिफ़ाज़त ग़म की इस दिल से मेरे। अब कहाँ जाकर तेरे ग़म को छुपाना चाहिए।। शाख पर कांटों में खिलते फूल से ये सीख लो। वक्त कितना ही कठिन हो मुस्कुराना चाहिए।। चांद सूरज की तरह ख़ुद को समझते हो तो फिर। भूले भटकों को भी तो रस्ता दिखाना चाहिए।। दूसरों के नाम करके अपनी सब खुशियां कभी। दूसरों के दुख में भी तो काम आना चाहिए।। दूरियां पैदा न कर दें ये ज़िदें 'जौहर' कभी। वो नहीं आये इधर तो हमकों जाना चाहिए।।

पं. पद्मसिंह शर्मा और ‘भारतोदय’

अमन कुमार 'त्यागी'   पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म सन् 1873 ई. दिन रविवार फाल्गुन सुदी 12 संवत् 1933 वि. को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टेशन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नंगला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके एक छोटे भाई थे जिनका नाम था श्री रिसाल सिंह। वे 1931 ई. से पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। पं. पद्मसिंह शर्मा की तीन संतान थीं। इनमें सबसे बड़ी पुत्री थी आनंदी देवी, उनसे छोटे पुत्र का नाम श्री काशीनाथ था तथा सबसे छोटे पुत्र रामनाथ शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा के पिता आर्य समाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रति उनकी अत्यंत श्रद्धा थी। इसी कारण उनकी रुचि विशेष रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया। जब ये 10-11 वर्ष के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पंडित अध्यापकों से संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी, और रघुवंश आदि का अध्ययन किया तथा एक मौलवी साहब से उर्दू व फारसी की भी शिक्षा ल