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मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

मिर्ज़ा ग़ालिब मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं सिवाय ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं मगर ग़ुबार हुए पर हव उड़ा ले जाये वगर्ना ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं ये किस बहीश्तशमाइल की आमद-आमद है के ग़ैर जल्वा-ए-गुल राहगुज़र में ख़ाक नहीं भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं ख़्याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मैकश शराबख़ाने के दीवर-ओ-दर में ख़ाक नहीं हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के 'असद' खुला कि फ़ायेदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

सावन आया

अमीर खुसरो अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया

एक बूँद

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी? देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा, मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, चू पडूँगी या कमल के फूल में? बह गयी उस काल एक ऐसी हवा वह समुन्दर ओर आई अनमनी एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला वह उसी में जा पड़ी मोती बनी। लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ

भगवतीचरण वर्मा   मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते। फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा क्या आदि-अन्त संसृति का अभिलाषा ही अभिलाषा? अज्ञात देश से आना, अज्ञात देश को जाना, अज्ञात अरे क्या इतनी है हम सब की परिभाषा? पल-भर परिचित वन-उपवन, परिचित है जग का प्रति कन, फिर पल में वहीं अपरिचित हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन। है क्या रहस्य बनने में? है कौन सत्य मिटने में? मेरे प्रकाश दिखला दो मेरा भूला अपनापन।

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे

अदम गोंडवी   आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे

फूल का जीवन

रश्मि अग्रवाल शस्य श्यामला धरती, सबका ही दुःख हरती। इसलिए तो ... पतझड़ मुझको कभी ना भाता, भाता हरियाली से नाता। खिली-अधखिली कलियाँ होतीं, जब अपने यौवन पर... कोई पत्तों की गोद में हँसती, कोई पत्तों के ऊपर, कोई जब खिल फूल हुई, हमसे तब एक भूल हुई । रूप-सुगन्ध के वशीभूत हो, हमने तोड़ा दम से ... एक फूल खिला, जो तेज़ हवा से लड़कर जीता- और उपवन महकाया, एक हार गया और गिरा ज़मीं पर, जल्दी ही मुरझा गया। मैं छुई-मुई सी, खड़ी-खड़ी सब देख रही थी, सोच रही थी, मन ही मन ... जग को सुरभित करने वाला फूल .... तेरा-भी क्या जीवन?

साप्‍ताहिक शार्प रिपोर्टर का आजमगढ में लोकार्पण

आजमगढ़। आजमगढ़ जर्नलिस्ट फेडरेशन द्वारा महात्मा गांधी के 150वीं जयंती वर्ष पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन नेहरू हाल के सभागार में किया गया। गोष्ठी का विषय महात्मा गांधी और उनकी पत्रकारिता रहा। इस अवसर पर शार्प रिपोर्टर साप्ताहिक के गांधी विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में महामना मदन मोहन मालवीय हिन्दी पत्रकारिता संस्थान, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी के निदेशक प्रो. ओमप्रकाश सिंह एवं मुख्यवक्त के रूप में जिलाधिकारी नागेन्द्र प्रसाद सिंह तथा विशिष्ट अतिथि पुलिस अधीक्षक प्रो. त्रिवेणी सिंह मौजूद रहे। इस वैचारिक संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार व समाजवादी विचारक विजय नारायण ने किया। संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए मुख्य वक्ता जिलाधिकारी नागेन्द्र प्रसाद सिंह ने कहा कि गांधी के राम साम्राज्यवादी नहीं, बल्कि समानता पर आधारित स्वायत्त फेडरेशन को स्थापित करते हैं। आज यहीं फेडरेशन कि अवधारणा उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था कि आत्मा है। जिसके प्रथम अवधारक हजारांे वर्ष पूर्व चक्रवर्ती उदार सम्राट राम रहे है। उन्होने चर्चा को आगे बढ़ाते हुये कहा कि गांधी