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मुठभेड़

मुद्राराक्षस   कितनी लंबी और तीखी मार होती है फिर वह चाहे मौसम की हो या सिपाही की। चौंक कर उड़ी फड़फड़ाती हुई चील की तरह रज्‍जन की तकलीफ भरी हुई एक सदा-सी सुन पड़ी… 'ओ माँ...' नत्‍थू के हाथ कमर में बँधे कपड़े के छोर से बनाई छोटी-सी पोटली पर इस कदर ढीले पड़ गए कि पोटली उसके बदन का हिस्‍सा जैसी तड़कती हुई तकलीफ भरी वह चीख ज्‍यादा लंबी नहीं थी लेकिन नत्‍थू की पसलियों के अंदर बहुत दूर तक और देर तक लकीर-सी खींचती चली गई। कितनी लंबी और तीखी मार होती है फिर चाहे वह मौसम की हो या सिपाही की। जून की इस बहुत तीखी और बहुत ज्‍यादा चढ़े बुखार की तरह बेआवाज धूप में नत्‍थू जहाँ ठिठक गया था, वहाँ से सिर्फ कुछ कदम आगे ही उसके मकान की पिछली दीवार थी। कच्‍ची मिट्टी से खड़ी की गई उस दीवार पर सफेद सीपियाँ और घोंघे इस तरह उभर आए थे गोया वे वहाँ जड़ दिए गए हों। उस सफेद पच्‍चीकारी के बीच पानी की धार से कटी मिट्टी की सँकरी खड़ी धारियाँ जाहिर कर रही थीं कि मौसम की अगली मार पड़ते ही दीवार गल कर गिर जाएगी। शायद इस दीवार के गिरने पर भी वैसी ही दहलाने और भद्दी आवाज हो जैसी आवाज इस बार रज्‍जन की सुनाई दी थी।

बारिश की रात

मिथिलेश्वर   आरा शहर। भादों का महीना। कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात। ज़ोरों की बारिश। हमेशा की भाँति बिजली का गुल हो जाना। रात के गहराने और सूनेपन को और सघन भयावह बनाती बारिश की तेज़ आवाज़! अंधकार में डूबा शहर तथा अपने घर में सोये-दुबके लोग! लेकिन सचदेव बाबू की आँखों में नींद नहीं। अपने आलीशान भवन के भीतर अपने शयन-कक्ष में बेहद आरामदायक बिस्तरे पर अपनी पत्नी के साथ लेटे थे वे। पर लेटनेभर से ही तो नींद नहीं आती। नींद के लिए - जैसी निश्चिंतता और बेफ़िक्री की ज़रूरत होती है, वह तो उनसे कोसों दूर थी। हालाँकि यह स्थिति सिर्फ़ सचदेव बाबू की ही नहीं थी। पूरे शहर पर खौफ़ का यह कहर था। आए दिन चोरी, लूट, हत्या, बलात्कार, राहजनी और अपहरण की घटनाओं ने लोगों को बेतरह भयभीत और असुरक्षित बना दिया था। कभी रातों में गुलज़ार रहनेवाला उनका यह शहर अब शाम गहराते ही शमशानी सन्नाटे में तब्दील होने लगा था। अब रातों में सड़कों और गलियों में नज़र आनेवाले लोग शहर के सामान्य और संभ्रांत नागरिक नहीं, संदिग्ध लोग होते थे। कब किसके यहाँ क्या हो जाए, सब आतंकित थे। जब इस शहर में अपना यह घर बनवा रहे थे सचदेव बाबू तो बहुत प्

दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी

आचार्य चतुरसेन शास्त्री   गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फाल्गुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के सब झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनन्द की कलोलें करने, वह सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतखाने में चले आए थे। रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ से सफेद होकर चाँदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग के महलों के नीचे पहाड़ी नदी बल खाकर बह रही थी। मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उसकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौन्दर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फिरोजी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुँथी हुई उस फीरोजी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमखाब की कुरती और पन्नों की कमर-पेटी पर, अंगूर के बराबर बड़े मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमरमर के समान पैरों में जरी के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे धक् -धक् चमक रहे थे। कमरे में एक कीमती ईरानी कालीन का फर्श बिछा था, जो पैर लगते ही हाथ भर धँस जाता था। सुगन्धित मसालों से बने हुए शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे

गरीबों की बस्ती

मार्कंडेय   यह है कलकत्ता का बहूबाज़ार, जिसके एक ओर सरकारी अफ़सरों तथा महाजनों के विशाल भवन हैं और दूसरी ओर पीछे उसी अटपट सड़क के पास मिल मज़दूरों तथा दूसरे प्रकार के श्रमजीवियों की बस्ती है। नन्हे-नन्हे झोपड़ों तथा मकानों की बहुलता के कारण सारी बस्ती एक घर-सी दिखाई पड़ती है। निःसंदेह वह एक घर ही है जहां जीवन यथार्थ परिभाषा में चलता है। धर्म श्रम की छाया में विलीन है। चलना जानने वाला बच्चा भी गृह-कार्यों में सहायक है। नूरी उसी बस्ती की एक कन्या है। वह नित्य संध्या समय अपनी एक छोटी बहन के साथ नन्हे-से काठ के ठेले को ठेल-ठेल कर मूंगफली बेचती है। आज से नहीं, दस वर्ष से वह मधुर गानों से उस सड़क पर चलने वालों से परिचित है। वह भी जीवन की गतिविधि के साथ अनुभवों का जाल बुनती जा रही है। एक ओर विशाल अट्टालिकाएँ उसकी ओर पीठ किये खड़ी हैं, दूसरी ओर वही बस्ती अपना दामन फैलाये उससे वर्षों से कह रही है, ''नूरी! आ तेरी मूंगफली के ग्राहक तो इस ओर बसे हैं। तू क्यों बेकार अपने मधुर संगीत को निर्जीव दीवारों के शुष्क उर पर लुटाती है।'' इस पर नूरी एक लंबी सांस लेकर कह उठी : ''चल मरिय

एक टोकरी-भर मिट्टी

माधवराव सप्रे   किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्‍छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्‍या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्‍छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्‍न निष्‍फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्‍होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्‍जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी। एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेक

बिंदा

महादेवी वर्मा   भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित। उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गई होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला - 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विंध्येश्वरी के धुँधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है। बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अंतर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गंभीर मुख औ

दुलाईवाली

बंगमहिला राजेन्द्र बाला घोष काशी जी के दशाश्‍वमेध घाट पर स्‍नान करके एक मनुष्‍य बड़ी व्‍यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ आ रहा था। एक हाथ में एक मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्‍यारह बजे थे, गोदौलिया की बायीं तरफ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे-से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खण्‍ड में बहुत अँधेरा था; पर उपर की जगह मनुष्‍य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्‍य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में उसने हाथ की चीजें रख दीं। और, 'सीता! सीता!' कहकर पुकारने लगा। "क्‍या है?" कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई, तब उस पुरुष ने कहा, "सीता! जरा अपनी बहन को बुला ला।" "अच्‍छा", कहकर सीता गई और कुछ देर में एक नवीना स्‍त्री आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा, "लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा!" इस बात को सुनकर स्‍त्री कुछ आश्‍चर्ययुक्‍त होकर और झुँझलाकर बोली, "आज ही जाना होगा! यह क्‍यों? भला आज कैसे जाना