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मैं नास्तिक क्यों हूँ

भगत सिंह   एक नई समस्‍या उठ खड़ी हुई है – क्‍या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान सर्वव्‍यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर विश्‍वास नहीं करता हूँ? मैंने कभी कल्‍पना भी न की थी कि मुझे इस समस्‍या का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने दोस्‍तों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कुछ दोस्‍त, यदि मित्रता का मेरा दावा गलत न हो, मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए उत्‍सुक हैं कि मैं ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्‍यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्‍वास के लिए उकसाया है। जी हाँ, यह एक गंभीर समस्‍या है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्‍य हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। एक कमजोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार मेरे स्‍वभाव का अंग है। अपने कामरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्‍यक्ति कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्‍त श्री बी.के. दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्‍वेच्‍छाचारी कहकर मेरी निन्‍दा भी की गई। कुछ दोस्‍तों को

समष्टि और व्यक्ति

आचार्य नरेंद्र देव   व्यक्ति और समष्टि का विवाद बहुत पुराना है। दार्शनिकों में भी दोनों मतवादों के पक्षपाती पाए जाते हैं। प्लेटो ने अपनी 'रिपब्लिक' में समष्टिवाद का समर्थन किया है। हेगेल ने अपने दार्शनिक विचारों में इसी वाद को आश्रय दिया है। हेगेल के अनुसार सर्व समष्टि के प्रतिरूप इस बाह्य जगत में संस्थाओं का आकार धारण करते हैं; भाषा, राज, कला, धर्म इसी प्रकार की संस्थाएँ हैं। इन संस्थाओं की अंतरात्मा को आत्मसात करने से ही व्यक्तिगत विकास होता है। संस्थाओं के विरुद्ध व्यक्तियों के इसमें कोई आध्यात्मिक अधिकार नहीं हैं। यह ठीक है कि इतिहास बताता है कि संस्थाओं में परिवर्तन होता है, किंतु यह परिवर्तन विश्वात्मा का काम है। विश्वात्मा अपने महापुरुषों का वरण करता है। यही उसके उपकरण हैं। इनसे अन्यत्र व्यक्तियों का कोई हाथ नहीं होता।19वीं शती के अंतिम भाग में हेगेलवाद का सम्मिश्रण जीव-शास्त्र के विकास-सिद्धांत से हो गया। 'विकास' (Evolution) वह शक्ति है जो अपने लक्ष्य में परिणत होता है। इसके विरुद्ध व्यक्तियों के भाव और उनकी इच्छाएँ अशक्त हैं अथवा इन्हीं के द्वारा 'विकास'

हिंदी का शौकिया रंगमंच

अमृतलाल नागर   आमतौर से हमारे बुद्धिजीवी आलोचक मुँह उतार कर बड़ी लापरवाही-भरी शान के साथ यह फरमाया करते हैं कि हिंदी में रंगमंच ही नहीं है। यह बात मेरे गले के नीचे आज तक नहीं उतर सकी। रंगमंच के दो पहलू होते हैं, व्‍यावसायिक रंगमंच और शौकिया रंगमंच, हर भाषा के क्षेत्र में रंगमंच का यही इतिहास रहा है। हिंदी के पास भी दोनों प्रकार के रंगमंच रहे। बँगला के शौकिया रंगमंच का इतिहास हमसे निःसंदेह पचास-साठ वर्ष पहले आरंभ हो जाता है और विधिवत शोध के साथ सुरक्षित किया गया है। यही बात मराठी, गुजराती आदि अन्‍य भाषाओं के रंगमंचीय इतिहास के साथ भी जुड़ी है। हिंदी में यह इतिहास अब तक न संकलित किया जा सका खेद है तो सिर्फ इसी बात का। हिंदी का व्‍यावसायिक रंगमंच हिंदी भाषी क्षेत्र से बाहर के पारसी लोगों के हाथ में रहा और शौकिया रंगमंच इस विशाल क्षेत्र में हर जगह फलफूल कर भी उसका इतिहास हिंदी भाषी क्षेत्र की विशालता के कारण संपूर्ण रूप से कभी संकलित न हो सका। शौकिया रंगमंच किसी भी भाषा के क्षेत्र में व्‍यावसायिक रंगमंच से होड़ नहीं ले सका है। हिंदी में भी यही स्थिति रही। शौकिया रंगमंच पर हमारे देश के हर भ

कला का स्वाभाव और उद्देश्य

अज्ञेय   एक बार एक मित्र ने अचानक मुझसे प्रश्‍न किया- '‍कला क्‍या है?' मैं किसी बड़े प्रश्‍न के लिए तैयार न था। होता भी, तो भी इस प्रश्‍न को सुनकर कुछ देर सोचना स्‍वाभाविक होता। इसीलिए जब मैंने प्रश्‍न के समाप्‍त होते-न-होते अपने को उत्तर देते पाया, तब मैं स्‍वयं कुछ चौंक गया। मुझे अच्‍छा भी लगा कि मैं इतनी आसानी से इस युग युगांतर के मसले पर फतवा दे गया। पीछे लाज आई। तब बैठकर सोचने लगा, क्‍या मैंने ठीक कहा था? क्रमश: सोचना आरंभ किया, कला के विषय में जो कुछ एक अस्‍पष्‍ट और अर्धचेतन विचार अथवा धारणाऍं मेरे मन में थी, जिनसे मैं अनजाने ही शासित होता रहा था और कला संबंधी विवादों के वातावरण में रहकर भी आवश्‍वस्‍त भाव से कार्य कर सका था, वे विचार और धारणाएँ चेतन मन के तल पर आईं, एकाधिक कोणों से जाँची गईं। आज मैं दुबारा उस दिन कही हुई बात को कह सकता हूँ- कुछ हिचक के साथ, लेकिन फिर भी अनावश्‍वस्‍त भाव से नहीं। कुछ इस भावना से कि यह एक प्रयोगात्‍मक स्‍थापना है-संपूर्ण सत्‍य इसमें नहीं होगा, लेकिन इसकी अवधारणा सत्‍य के अन्‍वेषण और पर्यवेक्षण पर हुई है, अत: उसकी असंपूर्णता भी वैज्ञानिक है।

समय

बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'   काव्यशासस्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम। व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥ यह विख्यात है कि त्रिभुवन में विजय की पताका फहराने वाला, अपने कुटिल कुत्सित परिवार से ब्राह्मणों को दुःख देने वाला बली, प्रतापशाली, मायावी रावण जब भगवान रामचंद्र के रुधिरपाई बाणों से छिन्न-भिन्न हो पृथ्वी पर अपना पर्वत सरीखा अपार शरीर लिए गिरा और आकाश त्रिभुवन के हर्षनाद से पूरित हो गया, और अंतिम झटके उसे श्वास के आने लगे, अब अपने जेता के पूछने पर उसने कहा - "आवश्यक कृत्यों के संपादन में विलंब करना उचित नहीं। मैंने दो-तीन कृत्य करना आवश्यक समझा था और उन्हीं भूलों का फल मुझे तत्काल ही मिलेगा!" रावण यह नहीं जानता था कि त्रिभुवन त्राणदाता के सामने वह क्या कह रहा है। जब उसे स्वयं उन्हीं ने अपने हाथों से निधन किया तो अब इसके आगे उसे क्लेश मिल ही क्या सकता था। निश्चय जब अवसर चला जाता है, हाथ मलना ही भर रह जाता है। आलस्य से भरे भद्दे स्वभाव में बेकार बैठे रहने की इच्छा प्रबल होती है और जो यही कहता है आज नहीं कल, कल नहीं परसो यह करेंगे, जिसको तत्काल ही कर डालना उचित ह

रसप्रिया

फणीश्वरनाथ रेणु   धूल में पड़े कीमती पत्थर को देख कर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया की मुँह से निकल पड़ा - अपरुप-रुप! ...खेतों, मैदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता! मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गईं। मोहना ने मुस्करा कर पूछा, 'तुम्हारी उँगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हो गई है, है न?' 'ऐ!' - बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, 'रसपिरिया? ...हाँ ...नहीं। तुमने कैसे ...तुमने कहाँ सुना बे...?' 'बेटा' कहते-कहते रुक गया। ...परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से 'बेटा' कह दिया था। सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारपीट की तैयारी की थी - 'बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेर कर! ...मृदंग फोड़ दो।' मिरदंगिया ने हँस कर कहा था, 'अच्छा, इस बार माफ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा!' बच्चे खुश हो गये थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्‌डी पकड़ कर वह बोला था, 'क्यों, ठ

ईश्वर रे, मेरे बेचारे...!

फणीश्वरनाथ रेणु   अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती है दूसरी तस्वीर : जटाजूटधारी बाबूजी की गोद में किलकता एक नन्हा शिशु!! और तब अपने बारे में कुछ लिखने की बात मन से दूर हो जाती है। क्योंकि इस वृक्ष को बाद देकर अपनी कहानी लिख पाना मेरे लिए असंभव है। अतः जब लिखने बैठा हूँ, शुरू में ही कबूल कर लेना ठीक है कि मैं कुसंस्कारों में पला अंधविश्वासी हूँ। जन्मांधविश्वासी? इसके अलावा क्या हो सकता था मैं? मेरे गाँव के लोग, परिवार के लोग एक पेड़ को पूजते थे। गाँव का प्रत्येक बच्चा उस 'पेड़-देवता' की कृपा से जीता था, उसके कोप से मरता था। ...छह महीने की मेरी काया को (सुना है!) अमावस्या की एक रात - उस पेड़ के नीचे धरती पर सुलाकर मेरी दादी ने 'दंड-प्रणाम' करके मनौती मानी थी - 'ले जाना है, तो अभी ही ले जाओ। रखना है तो 'राजी-खुशी' से रखो!' इतने दिनों तक 'राजी-खुशी' रहने के बाद, अपने मुँह अप