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अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति

अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

मानव संचार : अवधारणा और विकास

    अवधेश कुमार यादव साभार- http://chauthisatta.blogspot.com/2014/12/blog-post.html           मानव जीवन में जीवान्तता के लिए संचार का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य है। पृथ्वी पर संचार का उद्भव मानव सभ्यता के साथ माना जाता है। प्रारंभिक युग का मानव अपनी भाव-भंगिमाओं, व्यहारजन्य संकेतों और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से संचार करता था, किन्तु आधुनिक युग में सूचना प्रौद्योगिकी (प्दवितउंजपवद ज्मबीदवसवहल)  के क्षेत्र में क्रांतिकारी अनुसंधान के कारण मानव संचार बुलन्दी पर पहुंच गया है। वर्तमान में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, मोबाइल, फैक्स, इंटरनेट, ई-मेल, वेब पोर्टल्स, टेलीप्रिन्टर, टेलेक्स, इंटरकॉम, टेलीटैक्स, टेली-कान्फ्रेंसिंग, केबल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, समाचार पत्र, पत्रिका इत्यादि मानव संचार के अत्याधुनिक और बहुचर्चित माध्यम हैं।      संचार : संचार शब्द का सामान्य अर्थ होता है- किसी सूचना या संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाना या सम्प्रेषित करना। शाब्दिक अर्थों में श्संचारश् अंग्रेजी भाषा के ब्वउउनदपबंजपवद शब्द का हिन्दी रूपांतरण है। जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा क

रघुवीर सहाय से मैं इस तरह करीब आ गया

अनामी शरण बबल http://asbmassindia.blogspot.com/2014/12/blog-post_34.html काफी अर्सा बीत चुका है, रात भी काऱी गहरा गयी है मगर आज रघुवीर सहाय की जन्म तिथि एक माकूल मौका है कि मैं भी उनके साथ गुजारे गए कुछ क्षणों को याद करूं। 1987-88 भारतीय जनसंचार संस्थान  के हिन्दी पत्रकारिता के पहले बैच का हिस्सा मैं भी था। हमलोग को पढाने एक दिनपत्रकारों के पत्रकार रघुवीर सहाय जी आए। क्लास से पहले और बाद में हम सारे छात्रओं को सहायजी ने बडी आत्मीय तरीके से देखा और स्नेह जताया।  क्लास में पत्रकार बनने से पहले आवश्यक टिप्स दिए और खूब पढने और लगातार लिखते रहने का सुझाव दिया। बातचीत में मैं भी जरा बढ चढ़ कर जोश दिखाया होगा , तभी तो उन्होने मेरा नाम और छात्रावास का फोन नंबर भी पूछा। अपने घर से सहाय जी फोन किया और कहा अनामी मैं रघुवीर सहाय बोल रहा हूं। मैं पहले तो अवाक सा रह गया फिर संभलते हुए कहा जी सर बताइए। तब शालीनता के साथ सहाय जी ने कहा नहीं नहीं मैं नंबर चेक कर रहा था कि यह काम कर रहा है या नहीं। मैंने फौरन पलटवार सा किया मैं समझ गया सर कि आप मेरा टेस्ट ले रहे थे कि मैने सही नंबर दिया था या नहीं? इस प

प्रेमधाम: आश्रम और उसकी शिक्षा सेवा (प्रेमधाम आश्रम नजीबाबाद के संदर्भ में)

धनीराम कुदरत भी दुनिया में नए-नए करिश्में करती रहती है किसी को दुनिया भर की नियामतों से नवाज़ देती है तो वहीं कुछ को मूलभूत ज़रूरतों से भी महरूम कर देती है। दरअसल कुदरत पर किसी का कोई जोर नहीं है लेकिन कुदरत की इस बेरहमी का शिकार कुछ मासूम और लाचार बच्चों के लिये रोशनी की किरण बना है प्रेमधाम आश्रम। प्रेमधाम आश्रम उन अनाथ या शारीरिक, मानसिक रूप से दिव्यांग बालकों का है, जिनके सगे-संबंधियों या माता-पिता ने इस बेरहम दुनिया में अकेला छोड़ दिया। यहाँ उन दिव्यांगों को अपनों से ज्यादा प्यार मिलता है। शारीरिक व मानसिक रूप से निःशक्त बच्चों की तमाम जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर लेकर यहाँ के प्रत्येक सेवक व कर्मचारी इनकी पढ़ाई-लिखाई, सेहत, इलाज आदि कार्य को पूर्ण करते हैं। साथ ही इनको संस्कार भी दिए जा रहे हैं। यहाँ के सेवकों के साथ-साथ दूसरे अन्य सेवक भी सेवा करते हैं, दान देते हैं। इस आश्रम में दूर-दूर से लोग सेवा के लिए आते हैं। प्रेमधाम आश्रम में फादर शीबू व फादर बेनी को देखकर लगता है कि वह दुनिया के सबसे अधिक सौभाग्यशाली व्यक्ति हैं क्योंकि ये दोनों उस कार्य को कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें चुन

यमुना तीरे ...

कविता वाचक्नवी   गर्मी अभी जलाने वाली नहीं हुई थी। आँगन में सोना शुरू हो चुका था। आँगन इतना बड़ा कि आज के अच्छे समृद्ध घर के दस-ग्यारह कमरे उसमें समा जाएँ। एक ओर छोटी-सी बगीची थी। बगीची के आगे आँगन और बगीची की सीमारेखा तय करती, तीन अँगुल चौड़ी और आधा बालिश्त गहरी, एक खुली नाली थी; जिसे महरी सींक के झाड़ू से, आदि से अंत तक एक ही `स्ट्रोक' में साफ़ करती हुई आँगन की दो दिशाएँ नाप जाती थी। नीचे हरी-हरी काई की कोमलता, ऊपर से बहता साफ़ पानी...। मैं कल्पना किया करती कि चींटियों के लिए तो यह एक नदी होगी...| ...और... मैं चींटी बन जाती अपनी कल्पना में। फिर उस नन्हें आकार की तुलना में इस तीन अंगुल चौड़ी नाली के बड़प्पन की गंभीरता में, एक फ़रलाँग की दूरी पर बहती यमुना याद आती। ...याद आता उसके पुल पर खड़े होकर नीचे गर्जन-तर्जन, भँवर, पुल के खंभों का दोनों दिशाओं में काफी बाहर की ओर निकला भाग, उनसे टकराती, बँटकर बहती धाराएँ। पुल पर खड़े-खड़े मैं इतना डूब जाती थी कि लगता पुल बह रहा है और मैं निरंतर आगे-आगे बहे जा रही हूँ...जंगला थामे खड़ी। आज भी डर लगता है। ... मैं जिसे भी यह समझाने की कोशिश करती

रेल का टिकट

भदंत आनंद कौसल्यायन   भला हो सिस्टर निवेदिता का! उसने कहीं लिखा है कि यदि देश की सेवा करनी हो तो पहले अपने देश का परिचय प्राप्त करो। उसके लिए आवश्यक है कि घर-घर घूमो, गाँव-गाँव घूमो, नगर-नगर घूमो, शहर-शहर घूमो। मैं नहीं कह सकता कि मुझसे अपने देश की कुछ सेवा बन पड़ी अथवा नहीं, किन्तु सिस्टर निवेदिता के उस कथन की कृपा से मैं घूमा खूब हूँ। मेरे घूमने का उद्देश्य केवल देश-दर्शन था और साधनों के नाम पर एक प्रकार से 'शून्यवाद।' पैदल चलना और माँग कर खाना इन्हीं दो को में अपने उन दिनों के घुमक्कड़ी जीवन की आधार-शिला कह सकता हूँ। हाँ, साथ मैं थी 'हीरो एंड हीरो वर्शिप' अंग्रेजी किताब। उसका मुझ पर कम उपकार नहीं। *** जिस दिन की बात मैं कहने जा रहा हूँ, उस शाम को मैं एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ देखकर लौटा था। पैदल तो चला ही करता था किन्तु प्राय: रेल की पटरी के किनारे-किनारे, जिससे कभी-कभी रेल की सवारी का जुगाड़ भी लग ही जाता। सामान्य तौर पर मैं भोजनोपरांत ही किसी दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान किया करता। शाम तक चलते रहकर किसी भी रेलवे स्टेशन के मुसाफिर-खाने में जा ठहरता। जब अधिक सन्ध्या हो

कुछ कहना ,कुछ सुनना हो,

डॉ साधना गुप्ता   कुछ कहना ,कुछ सुनना हो, मन के सपनों को बुनना हो,   दें उतार मुखटो को आज कर ले स्व से पहचान आज, मानव-मानव हो एक समान,   धर्म रहे मानवतावादी, कर्म रहे कर्तव्य प्रधान, शिक्षा दे संस्कार आज    उत्तम हो आचार-विचार  नर-नारी का भेद न हो  निर्भय हो  सकल संसार    कुछ कहना ,कुछ सुनना हो,  मन के सपनों को बुुनना हो ।                                       मंगलपुरा, टेक, झालावाड़ 326001 राजस्थान