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ढलती उम्र का प्रेम

अर्चना राज   ढलती उम्र का प्रेम कभी बहुत गाढ़ा  कभी सेब के रस जैसा, कभी बुरांश  कभी वोगेनविलिया के फूलों जैसा, कभी जड़-तने तो कभी पोखर की मछलियों जैसा, ढलती उम्र में भी होता है प्रेम !!   क़तरा-क़तरा दर्द से साभार 

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !

असरारुल हक़ मजाज़   बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी बूढ़े, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! ! राज सिंहासन डाँवाडोल! कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेज़ारी कब तक सरमाए के धंधे, कब तक यह सरमायादारी बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मजबूर नहीं हम मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है बोल कि हमसे जागी दुनिया बोल कि हमस

साल मुबारक

अमृता प्रीतम   जैसे सोच की कंघी में से एक दंदा टूट गया जैसे समझ के कुर्ते का एक चीथड़ा उड़ गया जैसे आस्था की आँखों में एक तिनका चुभ गया नींद ने जैसे अपने हाथों में सपने का जलता कोयला पकड़ लिया नया साल कुछ ऐसे आया... जैसे दिल के फिकरे से एक अक्षर बुझ गया जैसे विश्वास के कागज पर सियाही गिर गयी जैसे समय के होंठों से एक गहरी साँस निकल गयी और आदमजात की आँखों में जैसे एक आँसू भर आया नया साल कुछ ऐसे आया... जैसे इश्क की जबान पर एक छाला उठ आया सभ्यता की बाँहों में से एक चूड़ी टूट गयी इतिहास की अँगूठी में से एक नीलम गिर गया और जैसे धरती ने आसमान का एक बड़ा उदास-सा खत पढ़ा नया साल कुछ ऐसे आया...

ओ देस से आने वाले बता!

अख्तर शीरानी   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या अब भी वहां के बाग़ों में मस्‍ताना हवाएँ आती हैं? क्‍या अब भी वहां के परबत पर घनघोर घटाएँ छाती हैं? क्‍या अब भी वहां की बरखाएँ वैसे ही दिलों को भाती हैं?   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्‍त नज़ारे होते हैं? क्‍या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद-सितारे होते हैं? हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं? ओ देस से आने वाले बता! शादाबो-शिगुफ़्ता1 फूलों से मा' मूर2 हैं गुलज़ार3 अब कि नहीं? बाज़ार में मालन लाती है फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं? और शौक से टूटे पड़ते है नौउम्र खरीदार अब कि नहीं?   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या शाम पड़े गलियों में वही दिलचस्‍प अंधेरा होता हैं? और सड़कों की धुँधली शम्‍मओं पर सायों का बसेरा होता हैं? बाग़ों की घनेरी शाखों पर जिस तरह सवेरा होता हैं?   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या अब भी वहां वैसी ही जवां और मदभरी रातें होती हैं? क्‍या रात भर अब भी गीतों की और प्‍यार की बाते होती हैं? वो हुस्‍न के जादू चलते हैं वो इश्‍क़ की घातें होती हैं? 1 प्रफुल्‍ल स्‍फुटित 2 परिपूर्ण 3 बाग   ओ देस से आने व

ख़ाके-हिन्द

बृज नारायण चकबस्त   अगली-सी ताज़गी है फूलों में और फलों में करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में पस्ती-सी आ गई है पर दिल के हौसलों में गुल शमअ-ए-अंजुमन है,गो अंजुमन वही है हुब्बे-वतन नहीं है, ख़ाके-वतन वही है बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा दुनिया से मिट रहा है नामो-निशाँ हमारा कुछ कम नहीं अज़ल से ख़्वाबे-गराँ हमारा इक लाशे -बे-क़फ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ बरबाद हो रहे हैं ऐशो-तरब के बन्दे ग़फ़लत, में सो रहे हैं ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी ! इस ख़्वाब को जगा दे भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे मुर्दा तबीयतों की अफ़सुर्दगी मिटा दे उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे हुब्बे-वतन समाए आँखों में नूर होकर सर में ख़ुमार हो कर, दिल में सुरूर हो कर है जू-ए-शीर हमको नूरे-सहर वतन का आँखों को रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का है रश्क़े- महर ज़र्र: इस मंज़िले -कुहन का तुलता है बर्गे-गुल से काँटा भी इस चमन का ग़र्दो-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को मरकर भी चाहते हैं ख़ाके-वतन क़फ़न को

क्या कहें उनसे बुतों में हमने क्या देखा नहीं

बहादुर शाह ज़फ़र   क्या कहें उनसे बुतों में हमने क्या देखा नहीं जो यह कहते हैं सुना है, पर ख़ुदा देखा नहीं ख़ौफ़ है रोज़े-क़यामत का तुझे इस वास्ते तूने ऐ ज़ाहिद! कभी दिन हिज्र का देखा नहीं तू जो करता है मलामत देखकर मेरा ये हाल क्या करूँ मैं तूने उसको नासिहा देखा नहीं हम नहीं वाक़िफ़ कहाँ मसज़िद किधर है बुतकदा हमने इस घर के सिवा घर दूसरा देखा नहीं चश्म पोशी दाद-ओ-दानिस्तख: की है ऐ ज़फ़र वरना उसने अपने दर पर तुमको क्या देखा नहीं

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़   तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं   तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीसे-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे-वतन तो चश्मे-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियागरी फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं दरे-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं