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कविताएँ

मुहम्‍मद अली जौहर   काम करना है यही ख़ाक जीना है अगर मौत से डरना है यही हवसे-ज़ीस्‍त हो इस दर्जा तो मरना है यही क़ुलज़ुमे-इश्‍क़ में हैं नफ़ा-ओ-सलामत दोनों इसमें छूबे भी तो क्‍या पार उतरना है यही और किस वज़आ की जोया हैं उरुसाने-बिहिश्‍त है कफ़न सुर्ख़, शहीदों का संवरना है यही हद है पस्‍ती की कि पस्‍ती को बलन्‍दी जाना अब भी एहसास हो इसका तो उभरना है यही हो न मायूस कि है फ़तह की तक़रीबे-शिकस्‍त क़ल्‍बे-मोमिन का मिरी जान निखरना है यही नक़्दे-जां नज़्र करो सोचते क्‍यों हो 'जौहर' काम करने का यही है, तुम्‍हें करना है यही चश्‍मे-ख़ूंनाबा बार सीना हमारा फ़िगार देखिये कब तक रहे चश्‍म यह ख़ूंनाबा बार देखिये कब तक रहे हक़ की क़मक एक दिन आ ही रहेगी वले गर्द में पिन्‍हा सवार देखिये कब तक रहे यूं तो है हर सू अयां आमदे-फ़स्‍ले-ख़िज़ा जौर-ओ-जफ़ा की बहार देखिये कब तक रहे रौनके-देहली पे रश्‍क था कभी जन्‍नत को भी यूं ही यह उजड़ा दयार देखिये कब तक रहे ज़ोर का पहले ही दिन नश्‍शा हरन हो गया ज़ोम का बाक़ी ख़ुमार देखिये कब तक रहे आशियां बरबाद हैं यह अनदाज ज़माने के और ही ढ़ग हैं सताने के घर छुटा यूं क

माँ, कह एक कहानी

मैथिलीशरण गुप्त   'माँ, कह एक कहानी!' 'बेटा, समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?' 'कहती है मुझसे यह बेटी तू मेरी नानी की बेटी! कह माँ, कह, लेटी ही लेटी राजा था या रानी? माँ, कह एक कहानी!' 'तू है हटी मानधन मेरे सुन, उपवन में बड़े सबेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, यहाँ, सुरभि मनमानी? हाँ, माँ, यही कहानी!' 'वर्ण-वर्ण के फूल खिले थे झलमल कर हिम-बिंदु झिले थे हलके झोंकें हिले-हिले थे लहराता था पानी।' 'लहराता था पानी? हाँ, हाँ, यही कहानी।' 'गाते थे खग कल-कल स्वर से सहसा एक हंस ऊपर से गिरा, बिद्ध होकर खर-शर से हुई पक्ष की हानी।' 'हुई पक्ष की हानी? करुण-भरी कहानी!' 'चौक उन्होंने उसे उठाया नया जन्म-सा उसने पाया। इतने में आखेटक आया लक्ष्य-सिद्धि का मानी? कोमल-कठिन कहानी।' माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किंतु थे रक्षी! तब उसने, जो था खगभक्षी - 'हट करने की ठानी? अब बढ़ चली कहानी।' 'हुआ विवाद सदय-निर्दय में उभय आग्रही थे स्वविषय में गयी बात तब न्यायालय में सुनी सभी ने जानी।' 'सुनी सभी ने जानी? व्यापक हुई कहानी।&#

नया शिवाला

इक़बाल   सच कह दूं ऐ बिरहमन ! गर तू बुरा न माने तेरे सनमकदों[11] के बुत हो गए पुराने अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा जंगो-जदल[12] सिखाया वाइज़ [13] को भी खुदा ने तंग आके मैंने आखिर दैरो-हरम को [14] छोड़ा वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने [15] पत्‍थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है आ ग़ैरियत[16] के पर्दे इक बार फिर उठा दें बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे-दुई [17] मिटा दें सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्‍ती आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें दुनिया से तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ दामाने-आस्‍मां[18] से इसका कलश मिला दें हर सुबह उठके गायें मंतर[19] वो मीठे-मीठे। सारे पु‍जारियों को मय[20] पीत की पिला दें।। शक्ति भी शान्ति भी भक्ति के गीत में है। धरती के बासियों की मुक्ति परीत [21] में है।। [11] बुतख़ाना (मन्दिर) [12] युद्ध [13] इस्‍लामी उपदेशक [14] मन्दिर तथा काबे की चारदीवारी को [15] क‍हानियां [16] वैर-भाव [17] दुई के चिह्न [18] आकाश का दामन (आकाश) [19] मन्‍त्र [20] मदिरा [21] प्रीत   साभार https://www.hindisamay.com/content/612/1/%E0%A

क्या करते

माहेश्वर तिवारी   आग लपेटे जंगल-जंगल हिरन कुलाँच रहे हैं क्या करते बेबस बर्बर गाथाएँ बाँच रहे हैं सहमे-सहमे वृक्ष-लताएँ पागल जब से हुईं हवाएँ अपना होना बड़े गौर से खुद ही जाँच रहे हैं डरे-डरे हैं राजा-रानी पन्ने-पन्ने छपी कहानी स्नानघरों से शयनकक्ष तक बिखरे काँच रहे हैं

जीवनी

चरनदास : डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित द्वारा हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक – जीवनी | Charandas : by Dr. Triloki Narayan Dixit Hindi PDF Book – Biography (Jeevani) http://db.44books.com/2019/11/%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a4%a8%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%b8-%e0%a4%a1%e0%a5%89-%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%af.html

शारदे ,मेरे शब्दों को प्रवाह दो

  डॉ साधना गुप्ता   शारदे ,मेरे शब्दों को प्रवाह दो सोयी मानवता को जगाने को, पश्चिमी विपरीत बयार से  संस्कृति को बचाने को मेरे शब्दों को धार दो, शक्ति दो,करूणा की पुकार दो- मचा सके जो आतताइयों में हाहाकार नारी की अस्मिता रक्षार्थ अग्रजों के सम्मानार्थ अनुजों के स्नेहार्थ, मेरे शब्दों को ज्ञान दो- कर सके जो सत-असत का भान अपने पराए की पहचान जीवन लक्ष्य प्रति सावधान, मेरे शब्दों को दो सँवार- दे सके जो बच्चों को संस्कार युवाओं को परिवार बुजुर्गों को प्यार शारदे, मेरे शब्दों को प्रवाह दो।                    मंगलपुरा, टेक, झालवाड़ 326001 राजस्थान

ढलती उम्र का प्रेम

अर्चना राज   ढलती उम्र का प्रेम कभी बहुत गाढ़ा  कभी सेब के रस जैसा, कभी बुरांश  कभी वोगेनविलिया के फूलों जैसा, कभी जड़-तने तो कभी पोखर की मछलियों जैसा, ढलती उम्र में भी होता है प्रेम !!   क़तरा-क़तरा दर्द से साभार