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आराम से भाई जिंदगी

भवानीप्रसाद मिश्र   आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब इतना कसकर किया आलिंगन जरा ज्यादा है जर्जर इस शरीर को आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या महल-अटारियों पर भी न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर जो हो जाएँगे राख छूकर सवेरे की किरन सुबह हुए जाना है मुझे आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से !

प्रेम शिशु

अर्चना राज   अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को  बूँद-बूँद बरसता है प्रेम रगों मे जज़्ब होने के लिए  लहू स्पंदित होता है -धमनियाँ तड़कने लगती हैं  तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से   पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ़  समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए, बिजलियाँ ख़ुद में महसूस होती हैं  तुरंत बाद एक ठहराव भी हल्के चक्कर के साथ,  स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं  लकीरों मे जुगनू उग आते हैं और नदी नग़मे में बदल जाती है  ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद ख़ामोशी से एक प्रेम शिशु का ख़ुद में, तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं  महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना, अब और किसी की दरकार नहीं, बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना  अकेले ही ...... !!!   क़तरा-क़तरा दर्द से

कालिंदी 

ज्योत्सना भारती कालिंदी सुंदर और प्रतिभा सम्पन्न तो थी ही, एक अच्छी वकील भी थी। उसके विवाह को अभी कुछ ही समय हुआ था कि उसकी चाची सास लखनऊ से उसके पास कुछ दिन रहने के लिए आ गईं। चाची जी बहुत ही नेक और समझदार महिला थीं। उन्होंने आते ही अपनी पसंद और नापसंद के बारे में कालिंदी को सब कुछ बता दिया था। साथ ही ये भी बता दिया कि वो कितने दिन तक रुकने वाली हैं। चाची जी का प्रोग्राम सुनकर उसे कुछ परेशानी तो महसूस हुई मगर उसने बड़ी ही चतुरता से स्वयं को संभाल लिया। असल मे उसकी परेशानी का मुख्य कारण चाची जी नही थीं बल्कि ये था कि उसको न तो घर का कोई कार्य आता था और न ही सीखने में रुचि थी। ऐसे में वो चाची जी की सेवा और नित नई फरमाइशें कैसे पूरी करेगी। चाची जी को उसके पास आए तीन दिन हो गए थे परंतु न तो उसके पास उनके साथ बैठने का समय था और न ही बात करने की फुर्सत। घर में फुल टाइम नौकरानी थी जो सारा घर संभालती थी। कालिंदी को तो आॅफिस और फोन से ही समय नही मिलता था। अतः जो चीज नौकरानी नहीं बना पाती थी वो बाहर से आॅर्डर कर दी जाती थी। जैसा खाना बन जाता था वैसा ही सबको खाना पड़ता था। चाची जी को उसका बनाया हु

कुआँ प्यासे के पास आया

पृथ्वीराज कपूर   दरियागंज की एक छोटी-सी गली में, एक छोटे-से मकान की, एक छोटी सी बैठक के छोटे-से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी-सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख, मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा, बस, खड़ा-खड़ा-सा ही रह गया। मूर्ति की पीठ मेरी ओर थी। शरद जो मुझे वहाँ लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा प्रणाम कर बोले 'पृथ्वीराज आए हैं'। मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने विशाल कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए - शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा - 'मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है!' शरद मेरी ओर देखने लगे। उसकी आँखें कह रही थी कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है? मैं स्वयं विचारमग्न हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घूमे और दो बड़ी-बड़ी आँखें मेरे चेहरे पर रुक गईं जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते-चलते एक मोड़ पर अचानक कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी बत्तियाँ आपके मुँह पर गाड़ दे - हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रोशनी की उष्णता जला दे, और चमक आँखों को चुंधिया दे, किंतु

केरल की शारदीय परिक्रमा

नंददुलारे वाजपेयी   कुछ समय पूर्व, जब दिल्‍ली की एक सरकारी समिति में उत्तर भारत से दक्षिण भारत को हिंदी के प्रति सद्भावना-संचार के लिए कुछ साहित्यिकों के भेजे जाने का प्रस्‍ताव किया गया और मेरे सामने यह प्रश्‍न रखा गया कि मैं दक्षिण के किस प्रदेश में जाना चाहूँगा तो मैंने बिना एक क्षण-भर सोचे केरल का नाम लिया था। इसका कारण यह न था कि मुझमें उस समय की केरल की कम्युनिस्‍ट सत्ता के प्रति कोई अभिरुचि या लगवा था परंतु एक पंथ दो काज हो जाएँ तो कम्युनिस्‍ट शासन की गतिविधि को देख लेने में हानि भी क्‍या थी! एक प्रेरणा जो मन के किसी कोने में निहित थी, यह अवश्‍य थी कि इसी बहाने देश के दक्षिण छोर का और मार्ग में समस्‍त दक्षिण-पथ का दर्शन और पर्यटन हो जाएगा। सरकारी खर्च पर खदि यह कार्य हो जाए तो उससे वंचित रहना बुद्धिमानी नहीं जान पड़ी। विश्‍वविद्यालय से बीस-बाईस दिन की छुट्टी लेकर यदि अपने नियमित कार्य में अंझा डाला जाए तो उसके बदले में कुछ तो हासिल होना ही चाहिए और जब एक बार केरल की यात्रा पर निकल ही पड़ा तो दक्षिण के विशाल मंदिरों और तीर्थ-स्थानों को क्‍यों न देखूँ? संभव है, ये सारे इरादे अंतर्म

क्योंकि सपना है अभी भी

धर्मवीर भारती   ...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ...क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था (एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?) किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना है धधकती आग में तपना अभी भी ....क्योंकि सपना है अभी भी! तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर वह तुम्ही हो जो टूटती तलवार की झंकार में या भीड़ की जयकार में या मौत के सुनसान हाहाकार में फिर गूंज जाती हो और मुझको ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको फिर तड़प कर याद आता है कि सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं तुम्हारा अपना अभी भी इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ... क्योंकि सपना है अभी भी!

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

दुष्यंत कुमार इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है| एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है| एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है| एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है| निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है| दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है|