भवानीप्रसाद मिश्र आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब इतना कसकर किया आलिंगन जरा ज्यादा है जर्जर इस शरीर को आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या महल-अटारियों पर भी न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर जो हो जाएँगे राख छूकर सवेरे की किरन सुबह हुए जाना है मुझे आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से !