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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

कृष्ण बिहारी नूर   ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं सच घटे या बढ़े तो सच न रहे झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं जड़ दो चांदी में चाहे सोने में आईना झूठ बोलता ही नहीं  

किसानों की ईद

काज़ी नज़रुल इस्लाम अनुवाद - सुलोचना   बिलाल ! बिलाल ! हिलाल निकला है पश्चिम के आसमान में, छुपे हुए हो लज्जा से किस मरुस्थल के कब्रिस्तान में। देखो ईदगाह जा रहे हैं किसान, जैसे हों प्रेत-कंकाल कसाईखाने जाते देखा है दुर्बल गायों का दल ? रोजा इफ्तार किया है किसानों ने आँसुओं के शर्बत से, हाय, बिलाल ! तुम्हारे कंठ में शायद अटक जा रही है अजान। थाली, लोटा, कटोरी रखकर बंधक देखो जा रहे हैं ईदगाह में, सीने में चुभा तीर, ऋण से बँधा सिर, लुटाने को खुदा की राह में। जीवन में जिन्हें हर रोज रोजा भूख से नहीं आती है नींद मुर्मुष उन किसानों के घर आज आई है क्या ईद ? मर गया जिसका बच्चा नहीं पाकर दूध का महज एक बूँद भी क्या निकली है बन ईद का चाँद उस बच्चे के पसली की हड्डी ? काश आसमान में छाए काले कफन का आवरण टूट जाए एक टुकड़ा चाँद खिला हुआ है, मृत शिशु के अधर-पुट में। किसानों की ईद ! जाते हैं वह ईदगाह पढ़ने बच्चे का नमाज-ए-जनाजा, सुनते हैं जितनी तकबीर, सीने में उनके उतना ही मचता है हाहाकार। मर गया बेटा, मर गई बेटी, आती है मौत की बाढ़ यजीद की सेना कर रही है गश्त मक्का मस्जिद के आसपास। कहाँ हैं इमाम? कौन सा खु

दूसरा बनवास

क़ैफ़ी आज़मी   राम बनवास से जब लौट के घर में आए याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए रक़्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां प्‍यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां मोड़ नफरत के उसी राह गुज़र से आए धर्म क्‍या उनका है क्‍या ज़ात है यह जानता कौन घर न जलता तो उन्‍हें रात में पहचानता कौन घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आए शाकाहारी है मेरे दोस्‍त तुम्‍हारा ख़ंजर तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्‍थर है मेरे सर की ख़ता जख़्म जो सर में आए पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे कि नज़र आए वहां खून के गहरे धब्‍बे पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे राजधानी की फ़िजां आई नहीं रास मुझे छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे

आराम से भाई जिंदगी

भवानीप्रसाद मिश्र   आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब इतना कसकर किया आलिंगन जरा ज्यादा है जर्जर इस शरीर को आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या महल-अटारियों पर भी न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर जो हो जाएँगे राख छूकर सवेरे की किरन सुबह हुए जाना है मुझे आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से !

प्रेम शिशु

अर्चना राज   अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को  बूँद-बूँद बरसता है प्रेम रगों मे जज़्ब होने के लिए  लहू स्पंदित होता है -धमनियाँ तड़कने लगती हैं  तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से   पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ़  समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए, बिजलियाँ ख़ुद में महसूस होती हैं  तुरंत बाद एक ठहराव भी हल्के चक्कर के साथ,  स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं  लकीरों मे जुगनू उग आते हैं और नदी नग़मे में बदल जाती है  ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद ख़ामोशी से एक प्रेम शिशु का ख़ुद में, तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं  महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना, अब और किसी की दरकार नहीं, बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना  अकेले ही ...... !!!   क़तरा-क़तरा दर्द से