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परिंदों की आवाज़

अमन कुमार  परिंदों के कूकने, कूलने या चहचहाने की आवाज़ मुझे सोचने पर कर देती है मजबूर उनके फड़फड़ाने,  दिवार से टकराने की आवाज़ दिवारें,  दो वस्तुओं के बीच की नहीं बुलन्द इमारतों की खंडहर दिवारें शान्ति मिलती है इन भूतहा दिवारों में जैसे  कोइ आत्मा, अस्तित्व तलाशती है दिवारों में आह! हवा का तेज़ और ठंडा झौंका भारी पत्थरों से टकराता हुआ धूल से जैसे कोई लिखता इबारत   अपढ और रहस्यमयी इबारत पढ लेती है बस खंडहर इमारत घटनाओं - दुर्घटनाओं की कहानी पाप और पुण्य की अंतर कहानी इन दिवारों को लाॅघती हुई फैल जाती है दावानल की भाँति काल जिसे रोक नहीं पाता  और इन कहानियों का, छोटी-बड़ी कहानियों का खंडहर हुई दिवारों का  विशाल इतिहास बन जाता।

प्रेमचंदजी के साथ दो दिन

बनारसीदास चतुर्वेदी   प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी। यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौका नहीं मिला था। इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे। इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही गया। प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता। लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा। हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करे, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं। यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंद