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द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी ,10 -11 फरवरी 2020

अकादमिक हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ   मित्रों,  स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर 10 - 11 फरवरी को द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन करने जा रहा है। इस बार का विषय अकादमिक हिन्दी की स्थिति और संभावनाओं पर केंद्रित है। हिन्दी में अनुसंधान, रोजगार और हिन्दी शिक्षण की संभावित चुनौतियों पर व्यापक अकादमिक संवाद ही संगोष्ठी का उद्देश्य है।  सहभागी होने वाले साथियों से निम्नलिखित पक्षों पर चिंतन की अपेक्षा है -   * हिन्दी अनुसंधान : स्थिति और गति  * शोध लेखन : नई दिशाएँ- नई चुनौतियाँ * हिन्दी शिक्षण - नए आयाम की जरूरत  * हिन्दी में रोजगार के क्षेत्र    आपसे आग्रह है कि उपरोक्त में से किसी भी विषय पर अपना शोधपत्र 15 जनवरी, 2020 तक दिए गए पते पर मेल कर सहयोग प्रदान करें :- mkprtmnu@gmail.com  विषयोपयुक्त शोधपत्रों को संकलित कर पुस्तक प्रकाशित की जाएगी,जिसका विमोचन संगोष्ठी में प्रस्तावित है । अतः यथासमय अपना शोधपत्र भेजने का कष्ट करें।   कार्यक्रम का विस्तृत विवरण जल्दी  ही प्रेषित  किया जाएगा ।   संयोजक डाॅ मनोज पाण्डेय  9595239781

21वीं सदी के कथा साहित्य में किन्नरों के प्रति समाज का वर्तमान दृष्टिकोण 

रिंकी कुमारी  पीएचडी शोधार्थी                 हिंदी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय इस जगत में वंशाकुल की वृद्धि के लिए प्रकृति ने स्त्री-पुरुष का निर्माण किया है, समाज में इसे दो लिंगी नाम से पहचान मिली है। परंतु समाज में एक और वर्ग उपस्थित है, जिसमें शारीरिक रूप से लैंगिक विकलांग हैं जिन्हें किन्नर, हिजड़ा, तृतीयलिंग, उभयलिंगी आदि के नामों से पहचानी जाती है। इस वर्ग को हमेशा से ही समाज द्वारा उपेक्षित किया जाता है रहा है। 'हिजड़ा' शब्द हमारे समाज का सबसे अभिशापित शब्द माना जाता रहा है, लेकिन यही शब्द किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष के लिए संबोधन किया जाता है। मानवता की भावना से विचार किया जाए तो उन के दिलो-दिमाग़ में अपने प्रति क्या विचार आते होंगे? उनकी अंतरात्मा अपने आप से क्या कहती होगी? यह प्रश्न उस समाज से है जो इस जगत में शराफत का चोला ओढ़े हुए है। क्यों इन्हें इस समाज से वाहिष्कृत कर उनकी दुनिया अलग मान बैठे हैं। समाज क्यों यह भूल जाता है कि ये लोग किसी दूसरे ग्रह से नहीं आए हैं बल्कि हमारे ही समाज के एक अंग हैं, वे देखने में भी एलिएन नहीं लगते, उनकी शारीरिक बनावट भी हमार

शोध विशेषांक के संभावित विषय

शोधादर्श  'शोधादर्श' पत्रिका के आगामी आयोजन 'शोध विशेषांक' के लिए लेखकों से निवेदन है कि वह निम्‍न विषयों पर अपने लेख भेज सकते हैं- - शोध प्रारूप का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं महत्व - शोध प्रारूप की परिभाषा  - शोध प्रारुप के उद्देश्य - शोध प्रारूप के घटक अंग  - सूचना के स्रोत  - अध्ययन की प्रकृति - शोध अध्ययन का उद्देश्य  – सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति  - सामाजिक-कालिक सन्दर्भ  - अध्ययन के आयाम और निदर्शन कार्यविधि  - तथ्य संकलन के लिए प्रयुक्त तकनीक   - शोध प्रारूप का महत्व - शोध प्रारूप बनाम तथ्य संकलन की पद्धति  - शोध प्रारुप के प्रकार - विवरणात्मक या वर्णनात्मक शोध प्रारूप  - व्याख्यात्मक शोध प्रारूप  - अन्वेषणात्मक शोध प्रारूप  - प्रयोगात्मक शोध प्रारुप  - अनुसंधान प्रक्रिया - अनुसंधान और जीवन  - अनुसंधान के सौपान - अनुसंधान के नैतिक पक्ष  - अनुसंधान समस्या का चयन - अनुसंधान प्रस्ताव - अनुसंधान परिकल्पना और उसका परीक्षण - शोध हेतु साहित्य अवलोकन - प्रतिचयन प्रविधियाँ  - ऐतिहासिक अनुसंधान - वर्णात्मक अनुसंधान - प्रयोगात्मक अनुसंधान - क्रियात्मक अनुसंधान - व्यैक्तिक अ

नाखून क्यों बढ़ते हैं?

हजारी प्रसाद द्विवेदी   बच्‍चे कभी-कभी चक्‍कर में डाल देनेवाले प्रश्‍न कर बैठते हैं। अल्‍पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्‍यों बढ़ते हैं, तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्‍चे कुछ दिन तक अगर उन्‍हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अक्‍सर उन्‍हें डॉटा करते है। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्‍यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्‍वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्‍ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्‍यों हैं? कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्‍य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्‍त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्‍थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था। नाखून उसके लिए आवश्‍यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्‍तुओं का सहारा लेने लगा। पत्‍थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचंद्रजी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्‍

अनुपमा का प्रेम

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय   ग्यारह वर्ष की आयु से ही अनुपमा उपन्यास पढ़-पढ़कर मष्तिष्क को एकदम बिगाड़ बैठी थी। वह समझती थी, मनुष्य के हृदय में जितना प्रेम, जितनी माधुरी, जितनी शोभा, जितना सौंदर्य, जितनी तृष्णा है, सब छान-बीनकर, साफ कर उसने अपने मष्तिष्क के भीतर जमा कर रखी है। मनुष्य- स्वभाव, मनुष्य-चरित्र, उसका नख दर्पण हो गया है। संसार में उसके लिए सीखने योग्य वस्तु और कोई नही है, सबकुछ जान चुकी है, सब कुछ सीख चुकी है। सतीत्व की ज्योति को वह जिस प्रकार देख सकती है, प्रणय की महिमा को वह जिस प्रकार समझ सकती है,संसार में और भी कोई उस जैसा समझदार नहीं है, अनुपमा इस बात पर किसी तरह भी विश्वाश नही कर पाती। अनु ने सोचा- वह एक माधवीलता है, जिसमें मंजरियां आ रही हैं, इस अवस्था में किसी शाखा की सहायता लिये बिना उसकी मंजरियां किसी भी तरह प्रफ्फुलित होकर विकसित नही हो सकतीं। इसलिए ढूँढ-खोजकर एक नवीन व्यक्ति को सहयोगी की तरह उसने मनोनीत कर लिया एवं दो-चार दिन में ही उसे मन प्राण, जीवन, यौवन सब कुछ दे डाला। मन-ही-मन देने अथवा लेने का सबको समान अधिकार है, परन्तु ग्रहण करने से पूर्व सहयोगी को भी (बताने क

अँधेरे में शब्द

ओमप्रकाश वाल्मीकि   रात गहरी और काली है अकालग्रस्त त्रासदी जैसी जहां हजारों शब्द दफन हैं इतने गहरे कि उनकी सिसकियाँ भी सुनाई नहीं देतीं समय के चक्रवात से भयभीत होकर मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की तमाम कोशिशें हो जाएँगी नाकाम जिसे नहीं पहचान पाएगी समय की आवाज भी ऊँची आवाज में मुनादी करने वाले भी अब चुप हो गए हैं 'गोद में बच्चा गाँव में ढिंढोरा' मुहावरा भी अब अर्थ खो चुका है पुरानी पड़ गई है ढोल की धमक भी पर्वत कन्दराओं की भीत पर उकेरे शब्द भी अब सिर्फ रेखाएँ भर हैं जिन्हें चिह्नित करना तुम्हारे लिए वैसा ही है जैसा 'काला अक्षर भैंस बराबर' भयभीत शब्द ने मरने से पहले किया था आर्तनाद जिसे न तुम सुन सके न तुम्हारा व्याकरण ही कविता में अब कोई ऐसा छन्द नहीं है जो बयान कर सके दहकते शब्द की तपिश बस, कुछ उच्छवास हैं जो शब्दों के अंधेरों से निकल कर आए हैं शून्यता पाटने के लिए ! बिटिया का बस्ता घर से निकल रहा था दफ्तर के लिए सीढ़ियां उतरते हुए लगा जैसे पीछे से किसी ने पुकारा आवाज परिचित आत्मीयता से भरी हुई जैसे बरसों बाद सुनी ऐसी आवाज कंधे पर स्पर्श का आभास मुड़ कर देखा कोई नहीं एक

धुआँ

गुलजार   बात सुलगी तो बहुत धीरे से थी, लेकिन देखते ही देखते पूरे कस्बे में 'धुआँ' भर गया। चौधरी की मौत सुबह चार बजे हुई थी। सात बजे तक चौधराइन ने रो-धो कर होश सम्भाले और सबसे पहले मुल्ला खैरूद्दीन को बुलाया और नौकर को सख़्त ताकीद की कि कोई ज़िक्र न करे। नौकर जब मुल्ला को आँगन में छोड़ कर चला गया तो चौधराइन मुल्ला को ऊपर ख़्वाबगाह में ले गई, जहाँ चौधरी की लाश बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर बिछा दी गई थी। दो सफेद चादरों के बीच लेटा एक ज़रदी माइल सफ़ेद चेहरा, सफेद भौंवें, दाढ़ी और लम्बे सफेद बाल। चौधरी का चेहरा बड़ा नूरानी लग रहा था। मुल्ला ने देखते ही 'एन्नल्लाहे व इना अलेहे राजेउन' पढ़ा, कुछ रसमी से जुमले कहे। अभी ठीक से बैठा भी ना था कि चौधराइन अलमारी से वसीयतनामा निकाल लाई, मुल्ला को दिखाया और पढ़ाया भी। चौधरी की आख़िरी खुवाहिश थी कि उन्हें दफ़न के बजाय चिता पर रख के जलाया जाए और उनकी राख को गाँव की नदी में बहा दिया जाए, जो उनकी ज़मीन सींचती है। मुल्ला पढ़ के चुप रहा। चौधरी ने दीन मज़हब के लिए बड़े काम किए थे गाँव में। हिन्दु-मुसलमान को एकसा दान देते थे। गाँव में कच्ची मस्