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रामावतार त्यागी: एक अतुलनीय कवि

बालस्वरूप राही  ज़्यादातर लोग होते हैं महज़ होने के लिए। बहुत कम लोग होते हैं जिनका होना महसूस किया जाता है। रामावतार त्यागी उन्हीं चंद लोगों में से हैं जो जहां मौजूद होते हैं वहां पूरी तरह मौजूद होते हैं। उपस्थिति की ख़ास अदा मेरे विचार से त्यागी जी की एक प्रमुख पहचान है। यह हो ही नहीं सकता कि वे किसी सभा, समारोह में जाएं और वहां कोई संस्मरण न छोड़ आएं। हां, वह संस्मरण कैसा भी हो सकता है। वह उन्हें प्रशंसा का पात्र भी बनवा सकता है और ऐतराज़ का भी। वे अपने दोस्तों और आलोचकों पर समान रूप से मेहरबान रहते हैं। वे दोनों ही के लिए समान रूप से चर्चा की सामग्री मुहैया करते रहते हैं। उनके संपर्क में आने वाले किसी व्यक्ति को शायद ही कभी यह शिक़ायत भी रही हो कि उनके बारे में कहने के लिए उसके पास कुछ नहीं है। त्यागी जी में बहुत कुछ ऐसा है जो परिष्कृत होने से, सांचे में ढल कर सुगढ़ बनने से इंकार करता रहा है। हालात ने उन्हें हमवार करने की बड़ी कोशिशें कीं लेकिन उनका बांका तेवर आज तक बरक़रार है। उनकी उपस्थिति उनकी कविता में भी बड़ी तेज़ी के साथ अनुभव की जा सकती है। यों, यह बात आज के फैशन के ख़िलाफ़ है। लोग

चिरंतन प्रश्न: सामयिक उत्तर

 रामावतार त्यागी अपने उन अनेेक काव्य-पे्रमियों के आग्रह पर जिन्होंने बार-बार मेरी रचनाओं को संकलित रूप में पढ़ने की इच्छा व्यक्त की है, अपनी कुछ कविताएं आपको भेंट कर रहा हूं-यों मेरी आपकी जान-पहचान तो पुरानी है। जानता हूूं अपने बारे में कुछ कहना शिष्टाचार की बात नहीं है, किंतु पूछे जाने पर मौन रहना भी कम असभ्यता की बात नहीं होती। मुझे मालूम है कि आप मेरा वक्तव्य सुनने की बजाए अपने प्रश्नों के उत्तर सुनना अधिक पसंद करेंगे। हां, काव्य-प्रेेमियों के भी कुछ प्रश्न होते हैं। मैंने उन्हें अपने ढंग से समझने का यत्न किया है, क्योंकि एक कवि को काव्य-पारखी का हर प्रश्न समझना भी चाहिए। इस सिलसिले में कुछ नया न लिखकर एक प्रश्नकर्ता के प्रश्न और उसको दिए गए अपने उत्तरों को उद्धृत कर देने से मेरा कार्य अधिक सरल हो जाता है। तो लीजिए मैं हाज़िर हूं। इंटरव्यू: नोट - (केवल बौैद्धिक वयस्कों और जोे कविताएं न पढ़ना चाहें उनके लिएद्ध पिछले कुुछ दिनों से कविता-क्षेत्र में इतना अधिक कोलाहल क्यों है? कवि अधिक हैं, पुराने भी नए भी, वादी भी विवादी भी। अच्छे कितनेे हैं, मालूम नहीं लेकिन महाकवि अधिक हैं। अधिक कहन

नजीबाबाद और नवाब नजीबुद्दौला

अमन कुमार त्यागी मुरादाबाद-सहारनपुर रेल मार्ग पर एक रेलवे जंकशन है - नजीबाबाद। जब भी आप इस रेलमार्ग पर यात्रा कर रहे हों तब नजीबाबाद के पूर्व में लगभग तीन किलोमीटर और रेलवे लाइन के उत्तर में लगभग 200 मीटर दूरी पर एक विशाल किला देख सकते हैं। सुल्ताना डाकू के नाम से मशहूर यह किला रहस्य-रोमांच की जीति जागती मिसाल है। अगर आपने यह किला देखा नहीं है, तो सदा के लिए यह रहस्य आपके मन में बना रहेगा कि एक डाकू ने इतना बड़ा किला कैसे बनवाया ? और यदि आपसे कहा जाए कि यह किला किसी डाकू ने नही, बल्कि एक नवाब ने बनवाया था। तब भी आप विश्वास नहीं करेंगे, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति आपको बताएगा कि इस किले में कभी सुल्ताना नामक डाकू रहा करता था। बात सच भी है। भाँतू जाति का यह डाकू काफी समय तक इस किले में रहा। तब बिजनौर, मुरादाबाद जनपद का हिस्सा होता था और यहां यंग साहब नाम के एक पुलिस कप्तान तैनात थे, जिन्होंने सुल्ताना डाकू को काँठ के समीपवर्ती रामगंगा खादर क्षेत्र से गिरफ्तार कर इस किले में बसाने का प्रयास किया था। उन दिनों देश में आजादी के लिए देशवासी लालायित थे। जगह-जगह अंगे्रजों से लड़ाइयां चल रही थीं। ब

पीड़ा के कवि रामावतार त्यागी

अमन कुमार त्यागी रामावतार त्यागी पर जितना जानने का प्रयास किया जाए उतना कम ही है। उनका एक प्रसिद्ध गीत है - एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले। मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले।। ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है? तेरे दामन में बता मौत से ज़्यादा क्या है? ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है? इस गीत को बचपन से सुनता आ रहा हूं। कितनी ही बार इस गीत को सुनो मन ही नहीं भरता है। वेदना का यह गीत घोर निराशा से आशा की ओर ले जाता है। काल की बात करें तो यह वह समय था जब सिनेमा में निराशा भरे जीवन में साहस का संचार करने वाले कई गीत लिखे गए थे, जिन्होंने दर्शकों और श्रोताओं में नया उत्साह उत्पन्न किया। फ़िल्म ‘ज़िंदगी और तूफ़ान’ (1975) के इस गीत में विशेष बात यह रही कि इसमें कवि रामावतार त्यागी ने जीवन की उस सच्चाई का प्रदर्शन किया है, जिसे स्वीकारने से तत्कालीन समाज डरता रहा। यह विशेष प्रकार का और निडर प्रयोग था। उन्होंने समाज के तथाकथित सभ्य समाज की आंखों में आंखें डाल कर बात की। अवैध संतान पैदा करने वालों और फिर उस संतान को सभ्य समाज द्वारा ठोकरे मारने वालों को कटघरे में खड़ा कर दि

भारतीय परिदृष्य में मीडिया में नारी चित्रण / डाॅ0 गीता वर्मा

  डाॅ0 गीता वर्मा एसोसिऐट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, बरेली कालेज, बरेली।    “नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में। पीयूशस्त्रोत सी बहा करो, अवनि और अम्बर तल में।।“ महिलाएं पत्रकारिता में मानवीय पक्ष को उजागर करती हैं। जय शंकर प्रसाद के अनुसार ‘नारी की करुणा अंतर्जगत का उच्चतम बिंब है जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए है’। आकाश की ऊँचाइयों पर प्रगति के पर फैलाकर नारी आश्चर्यजनक उड़ान भरने लगी है। हमें उस पर गर्व है परंतु प्रगति का अर्थ अपनी मर्यादा तथा संस्कृति को भूलना नहीं है। आधुनिकता की शर्मनाक आग से अपने को बचाकर रखना भारतीय नारी की प्रथम जिम्मेदारी है। प्राचीनकाल से नारी और लज्जा का अटूट संबंध रहा है यहाँ तक कि शास्त्रों में लज्जा को नारी का आभूषण माना गया हैं भारतीय “नारी“ शब्द से एक सुंदर सी कंचन काया की साम्राज्ञी लजती सकुचाती सी एक संपूर्ण स्त्री की छवि आँखों के समक्ष उभर कर आती है। जिस नारी के हर भाव में मोहकता है, मादकता नहीं। आकर्षण है, अंगडाई नहीं। जिस्म के उतार-चढ़ाव को उसके आँचल में महसूस कर सकते हैं, उसके लिए दिखावे की कोई आवश्यकता नहीं परंतु अब समय ने करवट बद

पं. पद्मसिंह शर्मा और ‘भारतोदय’

  - अमन कुमार ‘त्यागी’ पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म सन् 1873 ई. दिन रविवार फाल्गुन सुदी 12 संवत् 1933 वि. को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टेशन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नंगला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके एक छोटे भाई थे जिनका नाम था श्री रिसाल सिंह। वे 1931 ई. से पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। पं. पद्मसिंह शर्मा की तीन संतान थीं। इनमें सबसे बड़ी पुत्री थी आनंदी देवी, उनसे छोटे पुत्र का नाम श्री काशीनाथ था तथा सबसे छोटे पुत्र रामनाथ शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा के पिता आर्य समाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रति उनकी अत्यंत श्रद्धा थी। इसी कारण उनकी रुचि विशेष रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया। जब ये 10-11 वर्ष के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पंडित अध्यापकों से संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी, और रघुवंश आदि का अध्ययन किया तथा एक मौलवी साहब से उर्दू व फारसी की भी शिक्षा ली। सन्

क्रांति का बीजपत्र : आंचलिक पत्रकरिता

  - अरविंद कुमार सिंह ‘‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’’ गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम की रेती से जब ये क्रांतिकारी पंक्तियां अकबर इलाहाबादी की शायरी से जनमानस के दिलों में उतर रही थीं; तो प्रयाग वैसा नहीं था, जैसा आज दिखता है। तीर्थराज की यह धरती क्रांतिकारियों की संगम स्थली थी तो देश की राजनीति की एक प्रमुख धुरी। आनंद भवन, खुसरो बाग और कंपनी गार्डेन का अतीत भारत के महान क्रांतिकारियों की जीवंत कहानियों की कथाभूमि थी। राजकीय संग्रहालय की प्राचीरों के मध्य असंख्य साहित्य की अमर सर्जनाएं और कथाएं जन्मीं। जो देश और दुनिया के मानस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आज भी जमी हैं और विश्वास है कि क़यामत तक लोगों के दिलों में स्पंदन करती रहंेगी। महान शायर अकबर इलाहाबादी ने ‘तोप’ जैसे घातक हथियार का भी मुकाबला ‘अख़बार’ से करने की बात की तो निश्चित ही इसमें ‘तोप’ से ज़्यादा घातक और मारक क्षमता होगी। अख़बार की यह क्षमता है कि वह व्यक्ति ही नहीं बल्कि व्यवस्था को बदल सकता है। तोप और गोली का लक्ष्य सीमित है लेकिन अख़बार समाज का मानस होता है। वह उसका शिक्षक और प