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Saturday, February 15, 2020

बाबा नागार्जुन को पढ़ते हुए


इन्द्रदेव भारती



भिखुआ उजरत लेके आया, बहुत दिनों के बाद
झोपड़िया ने दिया जलाया, बहुत दिनों के बाद


खाली डिब्बे और कनस्तर फूले नहीं समाये
नून, मिरच, घी, आटा आया, बहुत दिनों के बाद


हरिया हरी मिरच ले आया, धनिया, धनिया लाई
सिल ने बट्टे से पिसवाया, बहुत दिनों के बाद


चकला, बेलन, तवा, चीमटा खड़के बहुत दिनों में
चूल्हा चन्दरो ने सुलगाया, बहुत दिनों के बाद


फूल के कुप्पा हो गयी रोटी, दाल खुशी से उबली
भात ने चौके को महकाया, बहुत दिनों के बाद


काली कुतिया कूँ-कूँ करके आ बैठी है दुआरे
छक कर फ़ाक़ो ने फिर खाया, बहुत दिनों के बाद


दिन में होली, रात दीवाली, निर्धनिया की भैया
घर-भर ने त्योहार मनाया, बहुत दिनों के बाद



ए-3, आदर्श नगर, नजीबाबाद-246763 (बिजनौर) उप्र


Tuesday, January 7, 2020

देश यही पागल बदलेगा


लगभग चालीस साल पहले प्रकाशित इन्‍द्रदेव भारती जी की कविता 'देश यही पागल बदलेगा' हाथ लगी तो सोचने पर मजबूर कर दिया. आप भी आनन्‍द लीजिए और झाडू वाले नेता के बारे में चालीस साल पहले की कल्‍पना का चमत्‍कार भी देखिए.


कविता के कॉपीराइट लेखक के पास है  



इन्‍द्रदेव भारती


Monday, December 16, 2019

सात ग़ज़लेें


अल्लामा ताजवर नजीबाबादी



1.


बम चख़ है अपनी शाहे रईयत पनाह से


 



बम चख़ है अपनी शाहे रईयत पनाह से
इतनी सी बात पर कि 'उधर कल इधर है आज' ।
उनकी तरफ़ से दार-ओ-रसन, है इधर से बम
भारत में यह कशाकशे बाहम दिगर है आज ।
इस मुल्क में नहीं कोई रहरौ मगर हर एक
रहज़न बशाने राहबरी राहबर है आज ।
उनकी उधर ज़बींने-हकूमत पे है शिकन
अंजाम से निडर जिसे देखो इधर है आज ।


(२ मार्च १९३०-वीर भारत
(लाहौर से छपने वाला रोज़ाना अखबार)
(रईयत पनाह=जनता को शरण देने वाला, दार-ओ-रसन=फांसी का फंदा, कशाकशे- बाहम दिगर=आपसी खींचतान, रहरौ=रास्ते का साथी, रहज़न=लुटेरा, ज़बींने=माथा,शिकन=बल)


 


2.


ऐ आरज़ू-ए-शौक़ तुझे कुछ ख़बर है आज


 


ऐ आरज़ू-ए-शौक़ तुझे कुछ ख़बर है आज
हुस्न-ए-नज़र-नवाज़ हरीफ़-ए-नज़र है आज


हर राज़दाँ है हैरती-ए-जलवा-हा-ए-राज़
जो बा-ख़बर है आज वही बे-ख़बर है आज


क्या देखिए कि देख ही सकते नहीं उसे
अपनी निगाह-ए-शौक़ हिजाब-ए-नज़र है आज


दिल भी नहीं है महरम-ए-असरार-ए-इश्क़ दोस्त
ये राज़दाँ भी हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज


कल तक थी दिल में हसरत-ए-अज़ादी-ए-क़फ़स
आज़ाद आज हैं तो ग़म-ए-बाल-ओ-पर है आज


 



3.


ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं


 



ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं
फ़ज़ा बहारीं है जिस के जल्वों से वो हरीफ़-ए-बहार हूँ मैं


खटक रहा हूँ हर इक की नज़रों में बच के चलती है मुझ से दुनिया
ज़हे गिराँ-बारी-ए-मोहब्बत कि दोश-हस्ती पे बार हूँ मैं


कहाँ है तू वादा-ए-वफ़ा कर के ओ मिरे भूल जाने वाले
मुझे बचा ले कि पाएमाल-ए-क़यामत-ए-इंतिज़ार हूँ मैं


तिरी मोहब्बत में मेरे चेहरे से है नुमायाँ जलाल तेरा
हूँ तेरे जल्वों में महव ऐसा कि तेरा आईना-दार हूँ मैं


वो हुस्न-ए-बे-इल्तिफ़ात ऐ 'ताजवर' हुआ इल्तिफ़ात-फ़रमा
तो ज़िंदगी अब सुना रही है कि उम्र-ए-बे-एतिबार हूँ मैं


 



4.


मोहब्बत में ज़बाँ को मैं नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ कर लूँ


 



मोहब्बत में ज़बाँ को मैं नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ कर लूँ
शिकस्ता दिल की आहों को हरीफ़-ए-ना-तवाँ कर लूँ


न मैं बदला न वो बदले न दिल की आरज़ू बदली
मैं क्यूँ कर ए'तिबार-ए-इंक़लाब-ए-ना-तवाँ कर लूँ


न कर महव-ए-तमाशा ऐ तहय्युर इतनी मोहलत दे
मैं उन से दास्तान-ए-दर्द-ए-दिल को तो बयाँ कर लूँ


सबब हर एक मुझ से पूछता है मेरे होने का
इलाही सारी दुनिया को मैं क्यूँ कर राज़-दाँ कर लूँ


 



5.


मोहब्बत में ज़ियाँ-कारी मुराद-ए-दिल न बन जाए


 



मोहब्बत में ज़ियाँ-कारी मुराद-ए-दिल न बन जाए
ये ला-हासिल ही उम्र-ए-इश्क़ का हासिल न बन जाए


मुझी पर पड़ रही है सारी महफ़िल में नज़र उन की
ये दिलदारी हिसाब-ए-दोस्ताँ दर-दिल न बन जाए


करूँगा उम्र भर तय राह-ए-बे-मंज़िल मोहब्बत की
अगर वो आस्ताँ इस राह की मंज़िल न बन जाए


तिरे अनवार से है नब्ज़-ए-हस्ती में तड़प पैदा
कहीं सारा निज़ाम-ए-काएनात इक दिल न बन जाए


कहीं रुस्वा न हो अब शान-ए-इस्तिग़ना मोहब्बत की
मिरी हालत तुम्हारे रहम के क़ाबिल न बन जाए


 



6.


हश्र में फिर वही नक़्शा नज़र आता है मुझे


 



हश्र में फिर वही नक़्शा नज़र आता है मुझे
आज भी वादा-ए-फ़र्दा नज़र आता है मुझे


ख़लिश-ए-इश्क़ मिटेगी मिरे दिल से जब तक
दिल ही मिट जाएगा ऐसा नज़र आता है मुझे


रौनक़-ए-चश्म-ए-तमाशा है मिरी बज़्म-ए-ख़याल
इस में वो अंजुमन-आरा नज़र आता है मुझे


उन का मिलना है नज़र-बंदी-ए-तदबीर ऐ दिल
साफ़ तक़दीर का धोका नज़र आता है मुझे


तुझ से मैं क्या कहूँ ऐ सोख़्ता-ए-जल्वा-ए-तूर
दिल के आईने में क्या क्या नज़र आता है मुझे


दिल के पर्दों में छुपाया है तिरे इश्क़ का राज़
ख़ल्वत-ए-दिल में भी पर्दा नज़र आता है मुझे


इबरत-आमोज़ है बर्बादी-ए-दिल का नक़्शा
रंग-ए-नैरंगी-ए-दुनिया नज़र आता है मुझे


 



7.


हुस्न-ए-शोख़-चश्म में नाम को वफ़ा नहीं


 



हुस्न-ए-शोख़-चश्म में नाम को वफ़ा नहीं
दर्द-आफ़रीं नज़र दर्द-आश्ना नहीं


नंग-ए-आशिक़ी है वो नंग-ए-ज़िंदगी है वो
जिस के दिल का आईना तेरा आईना नहीं


आह उस की बे-कसी तू न जिस के साथ हो
हाए उस की बंदगी जिस का तू ख़ुदा नहीं


हैफ़ वो अलम-नसीब जिस का दर्द तू न हो
उफ़ वो दर्द-ए-ज़िंदगी जिस की तू दवा नहीं


दोस्त या अज़ीज़ हैं ख़ुद-फ़रेबियों का नाम
आज आप के सिवा कोई आप का नहीं


अपने हुस्न को ज़रा तू मिरी नज़र से देख
दोस्त! शश-जहात में कुछ तिरे सिवा नहीं


बे-वफ़ा ख़ुदा से डर ताना-ए-वफ़ा न दे
'ताजवर' में और ऐब कुछ हों बे-वफ़ा नहीं


Tuesday, December 10, 2019

तफ़ाउत


अख़्तर-उल-ईमान


 


हम कितना रोए थे जब इक दिन सोचा था हम मर जाएँगे
और हम से हर नेमत की लज़्ज़त का एहसास जुदा हो जाएगा
छोटी छोटी चीज़ें जैसे शहद की मक्खी की भिन भिन
चिड़ियों की चूँ चूँ कव्वों का एक इक तिनका चुनना
नीम की सब से ऊँची शाख़ पे जा कर रख देना और घोंसला बुनना
सड़कें कूटने वाले इंजन की छुक छुक बच्चों का धूल उड़ाना
आधे नंगे मज़दूरों को प्याज़ से रोटी खाते देखे जाना
ये सब ला-यानी बेकार मशाग़िल बैठे बैठे एक दम छिन जाएँगे
हम कितना रोए थे जब पहली बार ये ख़तरा अंदर जागा था
इस गर्दिश करने वाली धरती से रिश्ता टूटेगा हम जामिद हो जाएँगे
लेकिन कब से लब साकित हैं दिल की हंगामा-आराई की
बरसों से आवाज़ नहीं आई और इस मर्ग-ए-मुसलसल पर
इन कम-माया आँखों से इक क़तरा आँसू भी तो नहीं टपका


आख़िरी मुलाक़ात


अख़्तर-उल-ईमान



आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम


आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के
है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार
वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम


सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए
इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम


तन्हाई में


अख़्तर-उल-ईमान


मेरे शानों पे तिरा सर था निगाहें नमनाक
अब तो इक याद सी बाक़ी है सो वो भी क्या है?
घिर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में
सर हथेली पे धरे सोच रहा हूँ बैठा
काश इस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आ कर
किसी आज़ुर्दा तबीअत का फ़साना कहता!
इक धुँदलका सा है दम तोड़ चुका है सूरज
दिन के दामन पे हैं धब्बे से रिया-कारी के
और मग़रिब की फ़ना-गाह में फैला हुआ ख़ूँ
दबता जाता है सियाही की तहों के नीचे
दूर तालाब के नज़दीक वो सूखी सी बबूल
चंद टूटे हुए वीरान मकानों से परे
हाथ फैलाए बरहना सी खड़ी है ख़ामोश
जैसे ग़ुर्बत में मुसाफ़िर को सहारा न मिले
उस के पीछे से झिजकता हुआ इक गोल सा चाँद
उभरा बे-नूर शुआओं के सफ़ीने को लिए
मैं अभी सोच रहा हूँ कि अगर तू मिल जाए
ज़िंदगी गो है गिराँ-बार प इतनी न रहे
चंद आँसू ग़म-ए-गीती के लिए, चंद नफ़स
एक घाव है जिसे यूँ ही सिए जाते हैं
मैं अगर जी भी रहा हूँ तो तअज्जुब क्या है
मुझ से लाखों हैं जो ब-सूद जिए जाते हैं
कोई मरकज़ ही नहीं मेरे तख़य्युल के लिए
इस से क्या फ़ाएदा जीते रहे और जी न सके
अब इरादा है कि पत्थर के सनम पूजूँगा
ताकि घबराऊँ तो टकरा भी सकूँ मर भी सकूँ
ऐसे इंसानों से पत्थर के सनम अच्छे हैं
उन के क़दमों पे मचलता हो दमकता हुआ ख़ूँ
और वो मेरी मोहब्बत पे कभी हँस न सकीं
मैं भी बे-रंग निगाहों की शिकायत न करूँ
या कहीं गोशा-ए-अहराम के सन्नाटे में
जा के ख़्वाबीदा फ़राईन से इतना पूछूँ
हर ज़माने में कई थे कि ख़ुदा एक ही था
अब तो इतने हैं कि हैरान हूँ किस को पूजूँ?
अब तो मग़रिब की फ़ना-गाह में वो सोग नहीं
अक्स-ए-तहरीर है इक रात का हल्का हल्का
और पुर-सोज़ धुँदलके से वही गोल सा चाँद
अपनी बे-नूर शुआओं का सफ़ीना खेता
उभरा नमनाक निगाहों से मुझे तकता हुआ
जैसे खुल कर मिरे आँसू में बदल जाएगा
हाथ फैलाए इधर देख रही है वो बबूल
सोचती होगी कोई मुझ सा है ये भी तन्हा
आईना बन के शब ओ रोज़ तका करता है
कैसा तालाब है जो इस को हरा कर न सका?
यूँ गुज़ारे से गुज़र जाएँगे दिन अपने भी
पर ये हसरत ही रहेगी कि गुज़ारे न गए
ख़ून पी पी के पला करती है अँगूर की बेल
गर यही रंग-ए-तमन्ना था चलो यूँही सही
ख़ून पीती रही बढ़ती रही कोंपल कोंपल
छाँव तारों की शगूफ़ों को नुमू देती रही
नर्म शाख़ों को थपकते रहे अय्याम के हाथ
यूँही दिन बीत गए सुब्ह हुई शाम हुई
अब मगर याद नहीं क्या था मआल-ए-उम्मीद
एक तहरीर है हल्की सी लहू की बाक़ी
बेल फलती है तो काँटों को छुपा लेती है
ज़िंदगी अपनी परेशाँ थी परेशाँ ही रही
चाहता ये था मिरे ज़ख़्म के अँगूर बंधें
ये न चाहा था मिरा जाम तही रह जाए!
हाथ फैलाए इधर देख रही है वो बबूल
सोचती होगी कोई मुझ सा है ये भी तन्हा
घिर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में
कैसा तालाब है जो इस को हरा कर न सका
काश इस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आकर
मेरे शानों को थपकता ग़म-ए-तन्हाई में


सिलसिले


अख़्तर-उल-ईमान


 


शहर-दर-शहर, क़र्या-दर-क़र्या
साल-हा-साल से भटकता हूँ
बार-हा यूँ हुआ कि ये दुनिया
मुझ को ऐसी दिखाई दी जैसे
सुब्ह की ज़ौ से फूल खिलता हो
बार-हा यूँ हुआ कि रौशन चाँद
यूँ लगा जैसे एक अंधा कुआँ
या कोई गहरा ज़ख़्म रिसता हुआ
मैं बहर-ए-कैफ़ फिर भी ज़िंदा हूँ
और कल सोचता रहा पहरों
मुझ को ऐसी कभी लगन तो न थी
हर जगह तेरी याद क्यूँ आई


शीशे का आदमी


अख़्तर-उल-ईमान


 


उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें
हमारी उम्र का इक और दिन तमाम हुआ
ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज के दिन भी
न कोई वाक़िआ गुज़रा न ऐसा काम हुआ
ज़बाँ से कलमा-ए-हक़-रास्त कुछ कहा जाता
ज़मीर जागता और अपना इम्तिहाँ होता
ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज का दिन भी
उसी तरह से कटा मुँह-अँधेरे उठ बैठे
प्याली चाय की पी ख़बरें देखीं नाश्ता पर
सुबूत बैठे बसीरत का अपनी देते रहे
ब-ख़ैर ओ ख़ूबी पलट आए जैसे शाम हुई
और अगले रोज़ का मौहूम ख़ौफ़ दिल में लिए
डरे डरे से ज़रा बाल पड़ न जाए कहीं
लिए दिए यूँही बिस्तर में जा के लेट गए


राह-ए-फ़रार


अख़्तर-उल-ईमान


 


इधर से न जाओ
इधर राह में एक बूढ़ा खड़ा है
जो पेशानियों और चेहरों
पे ऐसी भभूत एक मल देगा सब झुर्रियाँ फट पड़ेंगी
सियह, मार जैसे, चमकते हुए काले बालों
पे ऐसी सपीदी उमँड आएगी कुछ तदारुक नहीं जिस का कोई
कोई रास्ता और ढूँडो
कि इस पीर-ए-फ़र्तूत की तेज़ नज़रों से बच कर
निकल जाएँ और इस की ज़द में न आएँ कभी हम
इधर से न जाओ
इधर मैं ने इक शख़्स को जाते देखा है अक्सर
जवानों को जो राह में रोक लेता है उन से
वहीं बातें करता है मिल कर
जो सुक़रात करता था यूनान के मनचलों से
यक़ीनन उसे एक दिन ज़हर पीना पड़ेगा
इधर से न जाओ
इधर रौशनी है
कहीं आओ छुप जाएँ जाकर तमाम आफ़तों से
मुझे एक तह-ख़ाना मालूम है ख़ुशनुमा सा
जो शाहान-ए-देहली ने बनवाया था इस ग़रज़ से
कि अबदालियों, नादिरी फ़ौज की दस्तरस से
बचें और बैठे रहें सारे हंगामों की ज़द से हट कर
ये दर-अस्ल मीरास है आप की मेरी सब की
सलातीन-ए-देहली से पहले किसी और ने इस की बुनियाद रक्खी थी लेकिन
वो अब क़ब्ल-ए-तारीख़ की बात है कौन जाने
इधर से न जाओ
इधर शाह-नादिर नहीं आज कोई भी लेकिन
वही क़त्ल-ए-आम आज भी हो रहा है
ये मीरास है आप की मेरी सब की
ये सौग़ात बैरूनी हाकिम हमें दे गए हैं
चलो सामने के अंधेरे में घुस कर
उतर जाएँ तह-ख़ाने की ख़ामुशी में
ये सब खिड़कियाँ बंद कर दें
कोई चीख़ने बैन करने की आवाज़ हम तक न आए
कोई ख़ून की छींट दामन पे आकर न बैठे
कभी तुम ने गाँजा पिया है?
कोई भंग का शौक़, कोई जड़ी-बूटी खाई
न कोकेन अफ़यून कुछ भी
कभी कोई नश्शा नहीं तुम ने चक्खा
न अग़लाम-ए-अमर्द-परस्ती से रिश्ता रहा है
कोई तजरबा भी नहीं ज़िंदगी का?
फ़सादात देखे थे तक़्सीम के वक़्त तुम ने
हवा में उछलते हुए डंठलों की तरह शीर-ख़्वारों को देखा था कटते
और पिस्ताँ-बुरीदा जवाँ लड़कियाँ तुम ने देखी थीं क्या बैन करते?
नहीं ये तो नश्शा नहीं तजरबा भी नहीं ऐसा कोई
ये इक सानेहा है
फ़रामोश-गारी का एहसान मानो
ये सब कल की बातें हैं, बोसीदा बातें
जिन्हें भूल जाना बेहतर
फ़रामोश-गारी भी
इक नेमत-ए-बे-बहा है
इधर से न जाओ
कोई राह में रोक लेगा
नया कोई ख़तरा नया मसअला कोई जिस को
न सोचा न समझा न एहसास है जिस का अब तक
कोई ऐसी सूरत निकालो
ये सब आफ़तें अपना दामन न पकड़ें
कोई और राह-ए-फ़रार ऐसी ढूँडो
कि हम ज़िंदगी के जहन्नम को जन्नत समझ लें!


हम मतवाले


डा. वीरेंद्र पुष्पक

 

हम मतवाले टोली लेकर, निकले स्वच्छ बनाने को।

सुंदर वतन रहे अपना, सन्देश यही पहुँचाने को।

बच्चे दिल के होते सच्चे,

सन्देश लिए मन से अच्छे,

माना होते हैं ये कच्चे,

निर्मल इन्हें बनाने को।

तन स्वच्छ रहे मन स्वच्छ रहे,

भारत को स्वच्छ बनाने को।

हम मतवाले टोली लेकर निकले स्वच्छ बनाने को।

सुंदर वतन रहे अपना सन्देश यही पहुंचाने को।।

देश को जागरूक करने खातिर,

स्वच्छ भारत अभियान चला है,

शौच खुले में कहां भला है,

बीमारी का खुला निमन्त्रण,

टाले भला ये कहीं टला है। 

बस यही बात समझाने को।

हम मतवाले टोली लेकर निकले स्वच्छ बनाने को।

सुंदर वतन रहे अपना सन्देश यही पहुंचाने को।।

गांव गांव खुशहाली होगी, 

खेतों में हरियाली होगी, 

खिल उठेगा चमन हमारा,

प्रफुल्लित हर डाली होगी, 

घर, पड़ौस, गलियां महकेंगी,

निकले चमन बनाने को।।

हम मतवाले टोली लेकर निकले स्वच्छ बनाने को।

सुंदर वतन रहे अपना सन्देश यही पहुंचाने को।।

तब्दीली


अख़्तर-उल-ईमान


 


इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं


जो मुझे राह चलते को पहचान ले


और आवाज़ दे बे सर-फिरे


दोनों इक दूसरे से लिपट कर वहीं


गिर्द-ओ-पेश और माहौल को भूल कर


गालियाँ दें हँसें हाथा-पाई करें


पास के पेड़ की छाँव में बैठ कर


घंटों इक दूसरे की सुनें और कहें


और इस नेक रूहों के बाज़ार में


मेरी ये क़ीमती बे-बहा ज़िंदगी


एक दिन के लिए अपना रुख़ मोड़ ले


एक लड़का




अख़्तर-उल-ईमान


 


दयार-ए-शर्क़ की आबादियों के ऊँचे टीलों पर


कभी आमों के बाग़ों में कभी खेतों की मेंडों पर


कभी झीलों के पानी में कभी बस्ती की गलियों में


कभी कुछ नीम उर्यां कमसिनों की रंगरलियों में


सहर-दम झुटपुटे के वक़्त रातों के अँधेरे में


कभी मेलों में नाटक-टोलियों में उन के डेरे में


तआक़ुब में कभी गुम तितलियों के सूनी राहों में


कभी नन्हे परिंदों की नहुफ़्ता ख़्वाब-गाहों में


बरहना पाँव जलती रेत यख़-बस्ता हवाओं में


गुरेज़ाँ बस्तियों से मदरसों से ख़ानक़ाहों में


कभी हम-सिन हसीनों में बहुत ख़ुश-काम दिल-रफ़्ता


कभी पेचाँ बगूला साँ कभी ज्यूँ चश्म-ए-ख़ूँ-बस्ता


हवा में तैरता ख़्वाबों में बादल की तरह उड़ता


परिंदों की तरह शाख़ों में छुप कर झूलता मुड़ता


मुझे इक लड़का आवारा-मनुश आज़ाद सैलानी


मुझे इक लड़का जैसे तुंद चश्मों का रवाँ पानी


नज़र आता है यूँ लगता है जैसे ये बला-ए-जाँ


मिरा हम-ज़ाद है हर गाम पर हर मोड़ पर जौलाँ


इसे हम-राह पाता हूँ ये साए की तरह मेरा


तआक़ुब कर रहा है जैसे मैं मफ़रूर मुल्ज़िम हूँ


ये मुझ से पूछता है अख़्तर-उल-ईमान तुम ही हो






ख़ुदा-ए-इज़्ज़-ओ-जल की नेमतों का मो'तरिफ़ हूँ मैं


मुझे इक़रार है उस ने ज़मीं को ऐसे फैलाया


कि जैसे बिस्तर-ए-कम-ख़्वाब हो दीबा-ओ-मख़मल हो


मुझे इक़रार है ये ख़ेमा-ए-अफ़्लाक का साया


उसी की बख़्शिशें हैं उस ने सूरज चाँद तारों को


फ़ज़ाओं में सँवारा इक हद-ए-फ़ासिल मुक़र्रर की


चटानें चीर कर दरिया निकाले ख़ाक-ए-असफ़ल से


मिरी तख़्लीक़ की मुझ को जहाँ की पासबानी दी


समुंदर मोतियों मूँगों से कानें लाल-ओ-गौहर से


हवाएँ मस्त-कुन ख़ुशबुओं से मामूर कर दी हैं


वो हाकिम क़ादिर-ए-मुतलक़ है यकता और दाना है


अँधेरे को उजाले से जुदा करता है ख़ुद को मैं


अगर पहचानता हूँ उस की रहमत और सख़ावत है


उसी ने ख़ुसरवी दी है लईमों को मुझे नक्बत


उसी ने यावा-गोयों को मिरा ख़ाज़िन बनाया है


तवंगर हिर्ज़ा-कारों को किया दरयूज़ा-गर मुझ को


मगर जब जब किसी के सामने दामन पसारा है


ये लड़का पूछता है अख़्तर-उल-ईमान तुम ही हो






मईशत दूसरों के हाथ में है मेरे क़ब्ज़े में


जुज़ इक ज़ेहन-ए-रसा कुछ भी नहीं फिर भी मगर मुझ को


ख़रोश-ए-उम्र के इत्माम तक इक बार उठाना है


अनासिर मुंतशिर हो जाने नब्ज़ें डूब जाने तक


नवा-ए-सुब्ह हो या नाला-ए-शब कुछ भी गाना है


ज़फ़र-मंदों के आगे रिज़्क़ की तहसील की ख़ातिर


कभी अपना ही नग़्मा उन का कह कर मुस्कुराना है


वो ख़ामा-सोज़ी शब-बेदारियों का जो नतीजा हो


उसे इक खोटे सिक्के की तरह सब को दिखाना है


कभी जब सोचता हूँ अपने बारे में तो कहता हूँ


कि तू इक आबला है जिस को आख़िर फूट जाना है


ग़रज़ गर्दां हूँ बाद-ए-सुब्ह-गाही की तरह लेकिन


सहर की आरज़ू में शब का दामन थामता हूँ जब


ये लड़का पूछता है अख़्तर-उल-ईमान तुम ही हो


ये लड़का पूछता है जब तो मैं झल्ला के कहता हूँ


वो आशुफ़्ता-मिज़ाज अंदोह-परवर इज़्तिराब-आसा


जिसे तुम पूछते रहते हो कब का मर चुका ज़ालिम


उसे ख़ुद अपने हाथों से कफ़न दे कर फ़रेबों का


इसी की आरज़ूओं की लहद में फेंक आया हूँ


मैं उस लड़के से कहता हूँ वो शोला मर चुका जिस ने


कभी चाहा था इक ख़ाशाक-ए-आलम फूँक डालेगा


ये लड़का मुस्कुराता है ये आहिस्ता से कहता है


ये किज़्ब-ओ-इफ़्तिरा है झूट है देखो मैं ज़िंदा हूँ




Tuesday, December 3, 2019

अँधेरे में शब्द


ओमप्रकाश वाल्मीकि


 


रात गहरी और काली है
अकालग्रस्त त्रासदी जैसी


जहां हजारों शब्द दफन हैं
इतने गहरे
कि उनकी सिसकियाँ भी
सुनाई नहीं देतीं


समय के चक्रवात से भयभीत होकर
मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की
तमाम कोशिशें
हो जाएँगी नाकाम
जिसे नहीं पहचान पाएगी
समय की आवाज भी


ऊँची आवाज में मुनादी करने वाले भी
अब चुप हो गए हैं
'गोद में बच्चा
गाँव में ढिंढोरा'
मुहावरा भी अब
अर्थ खो चुका है


पुरानी पड़ गई है
ढोल की धमक भी


पर्वत कन्दराओं की भीत पर
उकेरे शब्द भी
अब सिर्फ
रेखाएँ भर हैं


जिन्हें चिह्नित करना
तुम्हारे लिए वैसा ही है
जैसा 'काला अक्षर भैंस बराबर'
भयभीत शब्द ने मरने से पहले
किया था आर्तनाद
जिसे न तुम सुन सके
न तुम्हारा व्याकरण ही


कविता में अब कोई
ऐसा छन्द नहीं है
जो बयान कर सके
दहकते शब्द की तपिश


बस, कुछ उच्छवास हैं
जो शब्दों के अंधेरों से
निकल कर आए हैं
शून्यता पाटने के लिए !


बिटिया का बस्ता घर से निकल रहा था
दफ्तर के लिए
सीढ़ियां उतरते हुए लगा
जैसे पीछे से किसी ने पुकारा
आवाज परिचित आत्मीयता से भरी हुई
जैसे बरसों बाद सुनी ऐसी आवाज
कंधे पर स्पर्श का आभास


मुड़ कर देखा
कोई नहीं
एक स्मृति भर थी


सुबह-सुबह दफ्तर जाने से पहले
जैसे कोई स्वप्न रह गया अधूरा
आगे बढ़ा
स्कूटर स्टार्ट करने के लिए
कान में जैसे फिर से कोई फुसफुसाया


अधूरी किताब का आखिरी पन्ना लिखने पर
पूर्णता का अहसास
जैसे पिता की हिलती मूँछें
जैसे एक नए काम की शुरुआत
नया दिन पा जाने की विकलता


रात की खौफनाक, डरावनी प्रतिध्वनियों
और खिड़की से छन कर आती पीली रोशनी से
मुक्ति की थरथराहट
भीतर कराहते
कुछ शब्द
बचे-खुचे हौसले
कुछ होने या न होने के बीच
दरकता विश्वास


कितना फर्क है होने
या न होने में


सब कुछ अविश्वसनीय-सा
जोड़-तोड़ के बीच
उछल-कूद की आतुरता
तेज, तीखी प्रतिध्वनि में
चीखती हताशा


भाषा अपनी
फिर भी लगती है पराई-सी
विस्मृत सदियों-सी कातरता
अवसादों में लिपटी हुई


लगा जैसे एक भीड़ है
आस-पास, बेदखल होती बदहवास
चारों ओर जलते घरों से उठता धुआँ
जलते दरवाजे, खिड़कियाँ
फर्ज, अलमारी
बिटिया का बस्ता
जिसे सहेजकर रखती थी करीने से
एक-एक चीज
पेंसिल, कटर, और रबर
कॉपी, किताब
हेयर-पिन, फ्रेंडिशप बैंड


बस्ता नहीं एक दुनिया थी उसकी
जिसमें झांकने या खंगालने का हक
नहीं था किसी को


जल रहा है सब कुछ धुआँ-धुआँ
बिटिया सो नहीं रही है
अजनबी घर में
जहाँ नहीं है उसका बस्ता
गोहाना की चिरायंध
फैली है हवा में
जहाँ आततायी भाँज रहे हैं
लाठी, सरिये, गंड़ासे,
पटाखों की लड़ियाँ
दियासलाई की तिल्ली
और जलती आग में झुलसता भविष्य


गर्व भरे अट्टहास में
पंचायती फरमान
बारूदी विस्फोट की तरह
फटते गैस सिलेंडर
लूटपाट और बरजोरी


तमाशबीन
शहर
पुलिस
संसद
खामोश
कानून
किताब
और
धर्म


कान में कोई फुसफुसाया -
सावधान, जले मकानों की राख में
चिनगारी अभी जिन्दा है !


परिंदों की आवाज़


अमन कुमार 


परिंदों के कूकने, कूलने
या चहचहाने की आवाज़
मुझे सोचने पर कर देती है मजबूर
उनके फड़फड़ाने, 
दिवार से टकराने की आवाज़
दिवारें, 
दो वस्तुओं के बीच की नहीं
बुलन्द इमारतों की खंडहर दिवारें
शान्ति मिलती है इन भूतहा दिवारों में
जैसे  कोइ आत्मा,
अस्तित्व तलाशती है दिवारों में
आह!
हवा का तेज़ और ठंडा झौंका
भारी पत्थरों से टकराता हुआ
धूल से जैसे कोई लिखता इबारत  
अपढ और रहस्यमयी इबारत
पढ लेती है बस खंडहर इमारत
घटनाओं - दुर्घटनाओं की कहानी
पाप और पुण्य की अंतर कहानी
इन दिवारों को लाॅघती हुई
फैल जाती है दावानल की भाँति
काल जिसे रोक नहीं पाता 
और इन कहानियों का,
छोटी-बड़ी कहानियों का
खंडहर हुई दिवारों का 
विशाल इतिहास बन जाता।


ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं


कृष्ण बिहारी नूर


 


ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं


इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं


सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं


जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नहीं


 


किसानों की ईद


काज़ी नज़रुल इस्लाम


अनुवाद - सुलोचना


 


बिलाल ! बिलाल ! हिलाल निकला है पश्चिम के आसमान में,
छुपे हुए हो लज्जा से किस मरुस्थल के कब्रिस्तान में।
देखो ईदगाह जा रहे हैं किसान, जैसे हों प्रेत-कंकाल
कसाईखाने जाते देखा है दुर्बल गायों का दल ?
रोजा इफ्तार किया है किसानों ने आँसुओं के शर्बत से, हाय,
बिलाल ! तुम्हारे कंठ में शायद अटक जा रही है अजान।
थाली, लोटा, कटोरी रखकर बंधक देखो जा रहे हैं ईदगाह में,
सीने में चुभा तीर, ऋण से बँधा सिर, लुटाने को खुदा की राह में।


जीवन में जिन्हें हर रोज रोजा भूख से नहीं आती है नींद
मुर्मुष उन किसानों के घर आज आई है क्या ईद ?
मर गया जिसका बच्चा नहीं पाकर दूध का महज एक बूँद भी
क्या निकली है बन ईद का चाँद उस बच्चे के पसली की हड्डी ?
काश आसमान में छाए काले कफन का आवरण टूट जाए
एक टुकड़ा चाँद खिला हुआ है, मृत शिशु के अधर-पुट में।
किसानों की ईद ! जाते हैं वह ईदगाह पढ़ने बच्चे का नमाज-ए-जनाजा,
सुनते हैं जितनी तकबीर, सीने में उनके उतना ही मचता है हाहाकार।
मर गया बेटा, मर गई बेटी, आती है मौत की बाढ़
यजीद की सेना कर रही है गश्त मक्का मस्जिद के आसपास।


कहाँ हैं इमाम? कौन सा खुत्बा पढ़ेंगे वह आज ईद में ?
चारों ओर है मुर्दों की लाश, उन्हीं के बीच जो चुभता है आँखों में
जरी वाले पोशाकों से ढक कर शरीर धनी लोग आए हैं वहाँ
इस ईदगाह में आप इमाम, क्या आप हैं इन्हीं लोगों के नेता ?
निचोड़ते हैं कुरआन, हदीस और फिकह, इन मृतकों के मुँह में
क्या अमृत कभी दिया आपने? सीने पर रखकर हाथ कहिये।
पढ़ा है नमाज, पढ़ा है कुरआन, रोजे भी रखे हैं जानता हूँ
हाय रट्टू तोता ! क्या शक्ति दे पाए जरा सी भी?
ढोया है फल आपने, नहीं चखा रस, हाय री फल की टोकरी,
लाखों बरस झरने के नीचे डूबकर भी रस नहीं पाता है बजरी।


अल्लाह-तत्व जान पाए क्या, जो हैं सर्वशक्तिमान?
शक्ति जो नहीं पा सके जीवन में, वो नहीं हैं मुसलमान।
ईमान ! ईमान ! कहते हैं रात दिन, ईमान क्या है इतना आसान?
ईमानदार होकर क्या कोई ढोता है शैतानी का बोझ ?


सुनो मिथ्यावादी ! इस दुनिया में है पूर्ण जिसका ईमान,
शक्तिधर है वह, बदल सकता है इशारों में आसमान।
अल्लाह का नाम लिया है सिर्फ, नहीं समझ पाए अल्लाह को।
जो खुद ही अंधा हो, वह क्या दूसरों को ला सकता है प्रकाश की ओर?
जो खुद ही न हो पाया हो स्वाधीन, वह स्वाधीनता देगा किसे?
वह मनुष्य शहद क्या देगा, शहद नहीं है जिसके मधुमक्खियों के छत्ते में ?


कहाँ हैं वो शक्ति-सिद्ध इमाम, जिनके प्रति पदाघात से
आबे जमजम बहता है बन शक्ति-स्रोत लगातार ?
जिन्होंने प्राप्त नहीं की अपनी शक्ति, हाय वह शक्ति-हीन
बने हैं इमाम, उन्हीं का खुत्बा सुन रहा हूँ निशिदिन।
दीन दरिद्र के घर-घर में आज करेंगे जो नई तागिद
कहाँ हैं वह महा-साधक लाएँगे जो फिर से ईद ?
छीन कर ले आएँगे जो आसमान से ईद के चाँद की हँसी,
हँसी जो नहीं होगी खत्म आजीवन, कभी नहीं होगी बासी।
आएँगे वह कब, कब्र में गिन रहा हूँ दिन ?
रोजा इफ्तार करेंगे सभी, ईद होगी उस दिन।


hindisamay.com से


दूसरा बनवास


क़ैफ़ी आज़मी


 


राम बनवास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए


रक़्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा


इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए
जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां


प्‍यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राह गुज़र से आए


धर्म क्‍या उनका है क्‍या ज़ात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्‍हें रात में पहचानता कौन


घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आए
शाकाहारी है मेरे दोस्‍त तुम्‍हारा ख़ंजर


तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्‍थर
है मेरे सर की ख़ता जख़्म जो सर में आए


पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहां खून के गहरे धब्‍बे


पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राजधानी की फ़िजां आई नहीं रास मुझे


छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे


आराम से भाई जिंदगी


भवानीप्रसाद मिश्र


 


आराम से भाई जिंदगी
जरा आराम से


तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब
इतना कसकर किया आलिंगन
जरा ज्यादा है जर्जर इस शरीर को


आराम से भाई जिंदगी
जरा आराम से
तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं
ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या
महल-अटारियों पर भी


न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना
बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर


और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे
जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर


जो हो जाएँगे राख
छूकर सवेरे की किरन


सुबह हुए जाना है मुझे
आराम से भाई जिंदगी
जरा आराम से !


प्रेम शिशु


अर्चना राज


 


अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को 
बूँद-बूँद बरसता है प्रेम रगों मे जज़्ब होने के लिए 
लहू स्पंदित होता है -धमनियाँ तड़कने लगती हैं 
तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से  
पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ़ 
समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए,


बिजलियाँ ख़ुद में महसूस होती हैं 
तुरंत बाद एक ठहराव भी हल्के चक्कर के साथ, 


स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं 
लकीरों मे जुगनू उग आते हैं और नदी नग़मे में बदल जाती है 
ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद ख़ामोशी से एक प्रेम शिशु का ख़ुद में,


तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं 
महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना,


अब और किसी की दरकार नहीं,
बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना 
अकेले ही ...... !!!


 


क़तरा-क़तरा दर्द से


क्योंकि सपना है अभी भी


धर्मवीर भारती


 


...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी


...क्योंकि सपना है अभी भी!
तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी


....क्योंकि सपना है अभी भी!
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!


वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   ...