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Showing posts with the label निबंध

मजदूरी और प्रेम

- सरदार पूर्ण सिंह हल चलाने वाले का जीवन हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्रायः स्वभाव से ही साधु होते हैं। हल चलाने वाले अपने शरीर का हवन किया करते हैं। खेत उनकी हवनशाला है। उनके हवनकुंड की ज्वाला की किरणें चावल के लंबे और सुफेद दानों के रूप में निकलती हैं। गेहूँ के लाल-लाल दाने इस अग्नि की चिनगारियों की डालियों-सी हैं। मैं जब कभी अनार के फूल और फल देखता हूँ तब मुझे बाग के माली का रुधिर याद आ जाता है। उसकी मेहनत के कण जमीन में गिरकर उगे हैं और हवा तथा प्रकाश की सहायता से मीठे फलों के रूप में नजर आ रहे हैं। किसान मुझे अन्न में, फूल में, फल में आहुति हुआ सा दिखाई पड़ता है। कहते हैं, ब्रह्माहुति से जगत् पैदा हुआ है। अन्न पैदा करने में किसान भी ब्रह्मा के समान है। खेती उसके ईश्वरी प्रेम का केंद्र है। उसका सारा जीवन पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में, फल-फल में बिखर रहा है। वृक्षों की तरह उसका भी जीवन एक प्रकार का मौन जीवन है। वायु, जल, पृथ्वी, तेज और आकाश की निरोगता इसी के हिस्से में है। विद्या यह नहीं पढ़ा; जप और तप यह नहीं करता; संध्या-वंदनादि इसे नहीं आते; ज्ञान, ध्यान का इसे पता नहीं; मंदि

कन्या-दान

- सरदार पूर्ण सिंह   नयनों की गंगा धन्य हैं वे नयन जो कभी कभी प्रेम-नीर से भर पाते हैं। प्रति दिन गंगा-जल में तो स्नान होता ही है परंतु जिस पुरुष ने नयनो की प्रेम-धारा में कभी स्नान किया है वही जानता है कि इस स्नान से मन के मलिनभाव किस तरह बह जाते हैं; अंतःकरण कैसे पुष्प की तरह खिल जाता है; हृदय-ग्रन्थि किस तरह खुल जाती है; कुटिलता और नीचता का पर्वत कैसे चूर-चूर हो जाता है । सावन-भादों की वर्षा के बाद वृक्ष जैसे नवीन नवीन कोपलें धारण किये हुए एक विचित्र मनोमोहिनी छटा दिखाते हैं उसी तरह इस प्रेम-स्नान से मनुष्य की आन्तरिक अवस्था स्वच्छ, कोमल और रसभीनी हो जाती है। प्रेम-धारा के जल से सींचा हुआ हृदय प्रफुल्लित हो उठता है । हृदयस्थली में पवित्र भावों के पौधे उगते; बढ़ते और फलते हैं। वर्षा और नदी के जल से तो अन्न पैदा होता है; परन्तु नयनों की गंगा से प्रेम और वैराग्य के द्वारा मनुष्य-जीवन को आग और बर्फ से बपतिस्मा मिलता है अर्थात् नया जन्म होता है मानों प्रकृति ने हर एक मनुष्य के लिए इस नयन-नीर के रूप में मसीहा भेजा है, जिससे हर एक नर-नारी कृतार्थ हो सकते हैं । यही वह यज्ञोपवीत है जिसके धार

सच्ची वीरता

पूर्ण सिंह सच्चे वीर पुरुष धीर, गम्भीर और आज़ाद होते हैं । उनके मन की गम्भीरता और शांति समुद्र की तरह विशाल और गहरी या आकाश की तरह स्थिर और अचल होती है । वे कभी चंचल नहीं होते । रामायण में वाल्मीकि जी ने कुंभकर्ण की गाढ़ी नींद में वीरता का एक चिह्न दिखलाया है । सच है, सच्चे वीरों की नींद आसानी से नहीं खुलती । वे सत्वगुण के क्षीर समुद्र में ऐसे डूबे रहते हैं कि उनको दुनिया की खबर ही नहीं होती । वे संसार के सच्चे परोपकारी होते हैं । ऐसे लोग दुनिया के तख्ते को अपनी आंख की पलकों से हलचल में डाल देते हैं । जब ये शेर जागकर गर्जते हैं, तब सदियों तक इनकी आवाज़ की गूँज सुनाई देती रहती है और सब आवाज़ें बंद हो जाती है । वीर की चाल की आहट कानों में आती रहती है और कभी मुझे और कभी तुझे मद्मत करती है । कभी किसी की और कभी किसी की प्राण-सारंगी वीर के हाथ से बजने लगती है । देखो, हरा की कंदरा में एक अनाथ, दुनिया से छिपकर, एक अजीब नींद सोता है । जैसे गली में पड़े हुए पत्थर की ओर कोई ध्यान नहीं देता में, वैसे ही आम आदमियों की तरह इस अनाथ को कोई न जानता था । एक उदारह्रदया धन-सम्पन्ना स्त्री की की वह नौकरी क

आचरण की सभ्यता

   - सरदार पूर्ण सिंह विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है। आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और

रामावतार त्यागी

- डाॅ. सुरेश गौतम - डाॅ वीणा गौतम प्रयोगवादी धारा के पश्चात् हिंदी गीतिधारा मे गीतकारों का जो वर्ग साहित्यिक मंच पर उभर कर सामने आया उनमें रामावतार त्यागी का स्वर अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न सुनाई पड़ता है। गीति-क्षेत्र की जिस परंपरा से आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर त्यागी जी चले उसमें वे निस्संदेह सफल हुए हैं। ये नई अनुभूति के समृद्ध गीत-कवि हैं। उन्होंने जीवन मे सौंदर्य और विकृति दोनों को महत्त्व दिया है। उनके गीतों में चित्रात्मकता है। उन्होंने समाज की पीड़ा, तिरस्कार और घृणा को संवेदना की भूमि में अनुभूत किया है। उन्हें अपने अहं पर आस्था है। उनके कतिपय गीत गाए जाने के लिए हैं और कुछ पढ़े जाने के लिए। जीवन का भोगा हुआ संदर्भ त्यागी की रचनाओं में निर्लिप्त रूप से प्रकट है। त्यागी का व्यक्ति और त्यागी का कवि एक-दूसरे के साथ इस प्रकार घुले-मिले हैं कि उनमें किसी की भी अपेक्षा कर दूसरे को जाना ही नहीं जा सकता चूंकि त्यागी ने जो कुछ देखा, जिया, सहा, झेला और भोगा है, मान उसी को वाणी दी है। ‘न उसकी अनुभूति ‘उधार’ की है न अभिव्यक्ति, न उसने अपने आपको आधुनिक सिद्ध करने के लिए झूठी भाषा का प्रयोग क