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वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   .... आमतौर पर कोई मुझे इस बेबाकी से इस शहर में नहीं बुलाता क्योंकि एक लंबा अरसा गुजारने के बाद भी   इस शहर से मेरा रिश्ता बड़ा औपचारिक सा ही है... न तो मैंने और न ही इस शहर ने कभी मुझे अपना बनाना चाहा पर खैर ...... हलके आश्चर्य के साथ सौजन्यतावश मैंने पलटकर देखा --------हाँ ...मै अर्चना ही हूँ पर माफ़ करें मैंने आपको पहचाना नहीं . मेरे सामने लगभग मेरी ही हमउम्र एक महिला खडी थी , हल्का भरा शरीर , गोरी रंगत , गंभीर आँखें पर किंचित हल्की मुस्कान लिए ..नीले रंग के परिधान में जो उसपर बहुत फब रहा था , तुमने मुझे पहचाना नहीं , मै वैशाली हूँ .....वैशाली आर्या .....याद आया ..... हम कॉलेज में साथ थे . स्मृतियों के लम्बे गलियारे का दरवाज़ा कुछ ही पलों में ख़ट   करके खुल गया .....मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी ....मैंने उसे तुरंत ही पहचान लिया ......अरे वैशाली .....तुम ..यहाँ ? मुझे ख़ुशी भी थी और कुछ आश्चर्य भी . पहचान लिए जाने की सुकून भरी मुस्कुराहट के साथ उसने

कंचन

  रविन्द्रनाथ टैगोर  मैं विदेश लौटकर छोटा नागपुर के एक चन्द्रवंशीय राजा के दरबार में नौकरी करने लगा। उन्हीं दिनों मेरी देशव्यापी कीर्ति की पटल पर अचानक एक छोटी-सी कहानी खिल उठी। उन दिनों गगन टेसू की रक्तिमाभा से विभोर था। शाल वृक्ष की टहनियों पर मंजरियां झूल रही थीं। मधुमक्खियों के समूह मंडराते फिर रहे थे। व्यापारी लोगों का लाख संग्रह का समय आ गया था। बेर और शहतूत के पत्तों से रेशम के कीड़े इकट्ठे किए जा रहे थे। संथाल जाति महुए बीनती हुई फिर रही थी। नूपुर की झंकार के समान गूंजती हुई नदी वहीं पर बही जा रही थी। मैंने स्नेह से उस नदी का नाम रखा था- 'तनिका'। उस समय का वातावरण अनोखे आवेश से परिपूर्ण था। उसका मेरे मन पर भी अधिकार हो गया था। जिससे कार्य की गति मंथर पड़ गई थी। तब मैं अपने पर ही खीझ उठा था। दिन ढल रहा था। एक स्थान पर दोआबा बनाती हुई नदी दो शाखाओं में विभक्त होकर चली गई है। उसी बालू के टीले पर बगुलों की पंक्ति शान्त बैठी थी। अपनी झोली में रंग-बिरंगे पत्थरों को भरे मैं कोठी को लौट रहा था। यह सोचकर कि अपनी विज्ञान-शाला में इनकी परीक्षा करूंगा। निर्जन वन में अकेले आदमी का समय