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Showing posts with the label व्‍यंग्‍य/यात्रा

एक ज़माना था के चमचों की हनक भी ख़ूब थी

  एक ज़माना था के चमचों की हनक भी ख़ूब थी, आजकल नेताओं तक की भी पुलिस सुनती नहीं।               एक ज़माने में गलीयों की राजनीति करने वाले चमचे भी थानों में जाकर अपने कुर्ते के कलफ़ से ज़्यादा अकड़ दिखा दिया करते थे, वे सीधे मुख्यमंत्री का आदमी होने का दावा करते थे मगर अब सारा माहौल ही बदल गया कुर्ते का कलफ़ ढीला पड़ गया चमचे कमा कर खा रहे हैं कोई बैटरी वाली रिक्शा चला रहा है कोई केले, चाउमीन,या सेव बेच रहा है।जिस पुलिस को वें हड़का दिया करते थे वही पुलिस अब उन्हें हड़का रही है लठिया रही है।अगर कोई पुराना चमचा,किसी ऐसे पुलिस वाले के हत्ते चढ़ जाता है जिसे उसने हड़काया हो तो वह पुलिस वाला उससे सारा पुराना हिसाब चुकता करता है।इस समय पुराने नेताओं की बहुत दुर्गति हुई पड़ी है।बिना पद के किसी नेता का बहुत ही बुरा हाल है वह तो थाने में जाने ही के नाम से इधर-उधर की बातें करने लगता है।पद वाला नेता भी थानों में जाना नहीं चाहता क्योंकि क्या पता कौन सा अफ़सर कैसा हो ज़रा सी देर में बेइज़्ज़ती हो जाए क्या फ़ायदा।उस ज़माने में जेबकतरों को, उठाईगिरों को,लड़कियों को छेड़ने वालों...

दिल खोल कर बोली लगाएं, मन चाहा पुरस्कार पाएं

  अभी तक किसी भी पुरस्कार से वंचित कवियों या शायरों को निराश होने की ज़रूरत नहीं है।उन्हें इस बात की चिन्ता करने की भी ज़रूरत नहीं है कि उनकी रचनाएं पुरस्कार योग्य नहीं है, उन्हें इसकी भी फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है कि लोग उन्हें पकाऊ कहते हैं उनकी रचनाओं को बकवास कहते हैं,सभी पुरस्कार प्यासों में एक ही गुण होना आवश्यक है वह यह कि उसकी जेब भारी हो भले ही दिमाग़ ख़ाली हो। शहर के शायर,कवि,पत्रकार और पता नहीं क्या-क्या सुनील 'उत्सव' को जब किसी मूर्खों की संस्था से लेकर काग़ज़ी संस्था तक ने कोई एज़ाज़, पुरस्कार, सम्मान नहीं दिया तो उसने अपने नाम ही की एकेडमी गढ़ ली "सुनील 'उत्सव' एकेडमी" और उसके द्वारा पुरस्कार बांटने शुरू कर दिए।देखते ही देखते उसका यह गोरखधंधा चल निकला।सबसे बड़ी आसानी यह कि न जीएसटी का झंझट न इन्कम टैक्स का।"पानपीठ" पुरस्कार से लेकर "अझेल" पुरस्कारों की कई तरह की वैराइटी है।जिन सरकारी अफ़सरों ने अपनी ऊपरी कमाई से अपने मन की बातें किताब की शक्ल में छपवा रक्खी हैं उन्हें वह 10 परसेंट की छूट भी देता है।रही पात्रों,अपात्रों,कुपात्रों में से ...

तलवे छुपे हुए हों तो घुटने ही चाट ले

  तलवे छुपे हुए हों तो घुटने ही चाट ले, चमचागिरी का शौक़ भी कितना अजीब है।   वास्तव में चमचागिरी भी एक शौक़ है।अगर किसी के तलवे जूतों में छुपे हों तो आज के चमचे घुटने तक चाटने को तैयार रहते हैं।कई शौक़ की तरह चमचागिरी भी शौक़ है, इस शौक़ को पूरा करने के लिए लोग शानदार कपड़े तक सिलवा लेते हैं।आजकल कई प्रकार के चमचे दिखाई पड़ रहे हैं।मुख्यतः चमचे दो प्रकार के तो होते ही हैं एक अफ़सरों के चमचे दूसरे नेताओं के चमचे।मालिकों के आसपास भी चमचे मंडराते रहते हैं इन चमचों की भी कई वैराइटीयाँ हैं।अफ़सर की चमचागिरी करने वाला चमचा अभूतपूर्व अहंकार से भरा होता है।वह अपनी पत्नी पर भी रौब जमाता है भले ही उसकी पत्नी उसकी ख़बर ले लेती हो।अगर कोई अफ़सर किसी चमचे का ज़्यादा इस्तेमाल करने के लिए कभी चाय पिला दे तो चमचा कई दिनों तक ग्लैड रहता है।जब किसी मोहल्ले में कोई अफ़सर आता है,तो अव्वल दर्जे का चमचा सबसे पहले उसके पास पहुंचता है ताकि पूरा मोहल्ला उसे कुछ समझे।पूरा मोहल्ला उसे कुछ समझे इसके लिए वह अफ़सर से पूंछ हिलाने की मुद्रा में बात करता है।ऐसे चमचे यह जताने की कोशिश करते हैं कि इस मोहल्ले के सबसे ज़्यादा स...

केरल की शारदीय परिक्रमा

नंददुलारे वाजपेयी   कुछ समय पूर्व, जब दिल्‍ली की एक सरकारी समिति में उत्तर भारत से दक्षिण भारत को हिंदी के प्रति सद्भावना-संचार के लिए कुछ साहित्यिकों के भेजे जाने का प्रस्‍ताव किया गया और मेरे सामने यह प्रश्‍न रखा गया कि मैं दक्षिण के किस प्रदेश में जाना चाहूँगा तो मैंने बिना एक क्षण-भर सोचे केरल का नाम लिया था। इसका कारण यह न था कि मुझमें उस समय की केरल की कम्युनिस्‍ट सत्ता के प्रति कोई अभिरुचि या लगवा था परंतु एक पंथ दो काज हो जाएँ तो कम्युनिस्‍ट शासन की गतिविधि को देख लेने में हानि भी क्‍या थी! एक प्रेरणा जो मन के किसी कोने में निहित थी, यह अवश्‍य थी कि इसी बहाने देश के दक्षिण छोर का और मार्ग में समस्‍त दक्षिण-पथ का दर्शन और पर्यटन हो जाएगा। सरकारी खर्च पर खदि यह कार्य हो जाए तो उससे वंचित रहना बुद्धिमानी नहीं जान पड़ी। विश्‍वविद्यालय से बीस-बाईस दिन की छुट्टी लेकर यदि अपने नियमित कार्य में अंझा डाला जाए तो उसके बदले में कुछ तो हासिल होना ही चाहिए और जब एक बार केरल की यात्रा पर निकल ही पड़ा तो दक्षिण के विशाल मंदिरों और तीर्थ-स्थानों को क्‍यों न देखूँ? संभव है, ये सारे इरादे अं...