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Showing posts with the label निबंध

‘उग्र’ को फाँसी दी जाए

पांडेय बेचन शर्मा उग्र   (हमारे हवाई रिपोर्टर ने येन केन प्रकारेण आगरेवाले, दक्षिण अफरीक़ी, म्‍याऊँ-मुख, पड़पुड़गंडिस्‍ट प्रवर, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के उस भाषण की एक हस्‍तलिखित प्रति, बल्कि, एडवांस कापी पा ली है, जिसे वह राष्‍ट्रभाषा सम्‍मेलन के आगे भाखेंगे। हम भरपूर जिम्‍मेवारी के साथ उसे यहाँ उद्धत करते हैं।) साधु, सीधे, विश्‍वासी, महात्‍मा सभापतिजी, हिन्‍दी के अज्ञात लेखकों, घासलेट आन्‍दोलन के ज्ञानी समर्थको, विशाल भारत के परिवारियो और परिवारनियो! मैं जानता हूँ और मैं दावे के साथ जानता हूँ कि मुझसे ज्यादा इस राष्‍ट्र और इस भाषा में कोई भी नहीं जानता। यद्यपि मैं क्‍या जानता हूँ, यह जानना कोई मामूली काम नहीं। मैं जानता हूँ, भाई घासलेटमंडली को! कि यह राष्‍ट्रभाषा सम्‍मेलन है। यहाँ पर अखिल भारतीय राष्‍ट्र के विद्वान, साहित्यिक, श्रीमान और कलाकार एकत्र हैं। यहाँ पर विख्‍यात बंगाली विद्वान विराज रहे हैं जिनकी भाषा और जिनका साहित्यिक उत्‍कर्ष भारतवर्ष ही की नहीं, वरन् संसार की किसी भी भाषा के पीछे नहीं। यही बात मद्रासी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के एकत्र पंडितों की मातृभाषाओं के बारे

वृद्धावस्था

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी   काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन 'निर्मला' से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूँ। 1916 में जब मैं बी.ए. पास कर मास्टर हो गया तब मैंने दो साल 'विमला' को पढ़ाया था। वह अब मैट्रीकुलेशन पास हो गई तब उससे मेरा संबंध छूट-सा गया। कभी-कभी उससे और उसके भाई के

आचरण की सभ्यता

सरदार पूर्ण सिंह   विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है। आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और उसक

आदि और अंत

निर्मल वर्मा   मैं भारत भवन का आभारी हूँ, जिसने मुझे यहाँ 'अंत और आरंभ' विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया। बाद में जब मुझे बताया गया कि मेरा भाषण अज्ञेय स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत आयोजित किया गया है तो मेरे लिए यह एक प्रीतिकर आश्चर्य था। आधुनिक हिंदी लेखकों में जैनेंद्र के बाद अज्ञेय उन कम लेखकों में थे - शायद अकेले - जिन्होंने समय की भूल भुलैया में प्रवेश करने का जोखिम उठाया था। साहित्य अकादमी की प्रथम संवत्सर व्याख्यानमाला का उद्‍घाटन ही उन्होंने अपने भाषण 'स्मृति के परिदृश्य' के शीर्षक से दिया था। यहाँ आने से पहले जब मैं उसे पुन: पढ़ रहा था तो लगा, कितनी सटीक, सीधी-सादी तार्किक प्रांजलता के साथ उन्होंने भारत और पश्चिम की दो विभिन्न लगभग विपरीत समय की अवधारणाओं का विश्लेषण किया था। 'अंत' और 'आरंभ' केवल समय के दो बिंदु ही नहीं हैं, बल्कि उनके बारे में हमारी क्या धारणा होती है, इससे हमारा समूचा जातीय चरित्र प्रभावित होता है। आज जब हम बीसवीं शताब्दी के कगार पर खड़े हैं तो पीछे मुड़कर गुजरी हुई राह को देखने का सम्मोहन अधिक प्रबल हो उठता है - किंतु यदि ह

ठेले पर हिमालय

धर्मवीर भारती   ठेले पर हिमालय' - खासा दिलचस्‍प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्‍यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्‍डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्‍म स्‍थान अल्‍मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे और खोए-खोए से ही बोले, 'यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।' और तत्‍काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, 'ठेले पर हिमालय'। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नए कवि हों तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें शीर्षक मौजूँ है, और अगर नई कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाटे, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्‍दरों की तरह क्‍यों चढ़े बैठे हो? ओ नए कवियो। ठेले पर लदो। पान की दूकानों पर बिको। [1] ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आईं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बताईं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह मुझे लगा कि

रसमादन

शिवप्रसाद सिंह   गरमी की छुट्टी हो, या किसी पर्व-त्योहार का समय, जहाँ भी नियमित ढंग से चलते हुए कार्यों से बचने का मौका हाथ लगे, मेरे मन के भीतर सोया ईहामृग तुरत गाँव की डगर पकड़ना चाहता है। शहर की एकरस, बदरंग जिंदगी की शाश्वत वितृष्णा मुझे बरबस उन रास्तों पर झोंक देती है, जो धान-खेतों, हरियाली के लदे सीवानों या रंग-बिरंगी चैती फसलों से उफने भूमि-खंडों के बीच अपना अस्तित्व बनाते गाँव की बाहरी बँसवारियों में आकर भूलभुलैया का खेल खेलने लगते हैं। पहले जब पाँव इन रास्तों पर पड़ते थे, तब एक अजीब किस्म की गुदगुदी, उल्लास और स्मृतिजाल से सारा शरीर पुलकित हो जाता था। शाम को इन रास्तों पर घर लौटते ढोरों की घंटियाँ टुनटुनाती थी, भैंसों के पीठ पर बैठे हुए चरवाहे थकान और दिन भर की परिक्रमा की गत्वरता से विरत होकर विरहा की तानें छोड़ देते थे और वे तानें थी कि जैसे कौंधे की तरह लपककर रास्ते के हर पार्श्व में अपनी अदृश्य किंतु अनुभवगम्य उपस्थिति से पशुओं को एक कतार में, बिना इधर-उधर विदके-भड़के चुपचाप मौज में चलते जाने की चेतावनी देती थीं, चरवाहे जैसे अपने गीतों की इस जादुई शक्ति से परिचित हों, इसी कारण