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Friday, November 22, 2019

‘उग्र’ को फाँसी दी जाए


पांडेय बेचन शर्मा उग्र


 


(हमारे हवाई रिपोर्टर ने येन केन प्रकारेण आगरेवाले, दक्षिण अफरीक़ी, म्‍याऊँ-मुख, पड़पुड़गंडिस्‍ट प्रवर, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के उस भाषण की एक हस्‍तलिखित प्रति, बल्कि, एडवांस कापी पा ली है, जिसे वह राष्‍ट्रभाषा सम्‍मेलन के आगे भाखेंगे। हम भरपूर जिम्‍मेवारी के साथ उसे यहाँ उद्धत करते हैं।)


साधु, सीधे, विश्‍वासी, महात्‍मा सभापतिजी, हिन्‍दी के अज्ञात लेखकों, घासलेट आन्‍दोलन के ज्ञानी समर्थको, विशाल भारत के परिवारियो और परिवारनियो!


मैं जानता हूँ और मैं दावे के साथ जानता हूँ कि मुझसे ज्यादा इस राष्‍ट्र और इस भाषा में कोई भी नहीं जानता। यद्यपि मैं क्‍या जानता हूँ, यह जानना कोई मामूली काम नहीं।


मैं जानता हूँ, भाई घासलेटमंडली को! कि यह राष्‍ट्रभाषा सम्‍मेलन है। यहाँ पर अखिल भारतीय राष्‍ट्र के विद्वान, साहित्यिक, श्रीमान और कलाकार एकत्र हैं। यहाँ पर विख्‍यात बंगाली विद्वान विराज रहे हैं जिनकी भाषा और जिनका साहित्यिक उत्‍कर्ष भारतवर्ष ही की नहीं, वरन् संसार की किसी भी भाषा के पीछे नहीं। यही बात मद्रासी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के एकत्र पंडितों की मातृभाषाओं के बारे में भी कही जानी चाहिए। मगर, दोस्‍तों, मित्रों, फ्रेंडो, बन्‍धुओं, भाइयों, सगो, सम्‍बन्धियों! अ क्‍ख...क्‍ख... खि...खि...खु..., खु...खे...खै... खौ...खं...खं... आप जरा मुझे खाँस लेने दीजिए। मुझे दक्षिण अफरीकी वायु लग गयी है।


भाइयो... मैं कह रहा था कि मैं जानता हूँ, और आप विश्‍वास मानिए - मैं फिर-फिर कह रहा हूँ कि, मैं जानता हूँ तथा मैं जीवन भर इस विशाल भारत में कहता रहूँगा कि मैं जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि यह राष्‍ट्रभाषा सम्‍मेलन है। इसमें अन्‍य भाषाओं के भाखी हमारी भाषा की विशेषता, विभूतियाँ, जानने के लिए आये हैं। मगर, भाइयो! मुझे अपनी भाषा की खूबी के बारे में कुछ भी नहीं कहना है। उसे तो सभापति महोदय कह चुके - या यदि नहीं कह चुके तो कहेंगे। मैं तो आपको अपनी राष्‍ट्रभाषा की 'घास-लेटता' बताने के लिए यहाँ 'ठाढ़भयौं हों सहज सुभाये, जे बिनु काज दाहिने बायें,' जैसा कि गोस्‍वामी श्रीतुलसीदासजी ने साधुओं के वर्णन में कहा है।


आप पूछेंगे यह 'घासलेटता' कौन-सी बला है। इस पर मेरा म्‍याऊँ उत्तर यह है कि घासलेटता 'चाकलेटता' का दूसरा रूप है। मगर यह तो 'मघवा' का अर्थ 'विडौजा' हो गया! अस्‍तु।


जरा बुद्धि की खुरपी उठाकर आप मुझे घासलेटता को परिष्‍कृत करने दें अपने को हिन्‍दी का क्रान्तिकारी कहने वाले साहित्यिक छोकरे 'उग्र' ने - जो सम्‍भवत: मेरे और मेरे महादल के भय से काशी या बनारस अथवा B-E-N-A-R-E-S-C-I-T-Y- भाग गया होगा या अपने दुर्भाग्‍य से शायद इस मजलिस में उपस्थित हो - एक गलीज भद्दी, गैर-जिम्‍मेवार पुस्‍तक लिखी। उसका नाम 'चाकलेट' है। अब उसी के वजन पर यह 'घासलेट' मैंने तैयार किया है। मगर, ठहरिए। मेरे मुँह से एक झूठ सरासर निकला भागा जा रहा है। इस 'घासलेट' में बीज है 'चाकलेट' का, जो 'उग्र' की सृष्टि है, और गर्भ है 'आर्यमित्र' सम्‍पादक पंडित हरिशंकर शर्मा का जो महात्‍मा गांधी तक को जिम्‍मेवाराना ढंग से गाली देने वाले श्रद्धेय महाकवि शंकरजी के S, O, N, हैं। मैं तो केवल इस असुन्‍दर के सुन्‍दर बच्‍चे की 'दाई' मात्र हूँ। मैं इसे पाल-पोस कर बड़ा कर रहा हूँ, इसलिए कि सयाना होकर अपने बाप 'चाकलेट' को मार डाले। और, आप बुरा न मानें, सिद्धान्‍त के लिए बाप तक को मार डालना कोई बुरी बात नहीं है। क्‍योंकि मैंने साबरमती आश्रम में प्रहलाद की कहानी सुनी है।


सज्‍जनों, यह चाकलेट पुस्‍तक बाल व्‍यभिचार-विरोधिनी कहानियों का कलेक्‍शन है। साथ ही, इसकी एक कहानी का शीर्षक है, 'चाकलेट'। वह कहानी, इस कलकत्ता के प्रसिद्ध साप्‍ताहिक 'मतवाला' में सन् 1924 ई. की 31वीं मई को प्रकाशित हुई थी। और उसी सन् में, उसी विषय पर, उसी गंदे गल्‍प–गढ़क द्वारा, चार कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। मुझे मालूम नहीं उस समय मैंने उन कहानियों को पढ़ा था या नहीं, मगर, मुझे यह मालूम है कि उनका विरोध उस समय से लेकर मेरे मुँह खोलने तक किसी ने नहीं किया। और मुझे तो यदि उस समय उन कहानियों की खबर होती तो भी मैं उनका विरोध न करता - क्‍योंकि उस समय मुझे भाषा का ज्ञान नहीं था। साहित्यिक परिष्‍कार का ध्‍यान नहीं था, और श्रीहरिशंकरजी के गर्भ के इस 'घासलेट' का भाग नहीं था। साथ ही, मेरे पाँवों तले विशाल भारत-सा कोई इंटरनेशनल 'चहचहाता चिड़ियाघर' का अड्डा नहीं था।


उसी सन् के लगभग वह गन्‍दा लेखक गोरखपुरी 'स्‍वदेश के' विजयांक में, कुछ राजद्रोह करने के अपराध में, 124 अ. में - गैर जिम्‍मेवाराना ढंग से जेल चला गया। जेल से आने के बाद वह कलकत्ता आया और यहाँ 'मतवाला-मंडल' में मंडित होकर उसने अनेक कथा-पुस्‍तकें लिखीं और प्रकाशित करायीं। यद्यपि मैंने यह बात अपने इंटरनेशल चिड़ियाघर में नहीं प्रकट की है - क्‍योंकि, मैं प्रोपॉगैंडिस्‍ट हूँ और प्रचार की दृष्टि से यह लिखना भूल होती - फिर भी यह सच है, और मेरा जाँचा हुआ सच है, कि, जब मैंने दरियाफ्त किया उस समय राष्‍ट्रभाषा मार्केट में उस 'उग्र' की पुस्‍तकें ऐसी चलती थीं जैसे पंजाब मेल! बस, इसी से तो मेरे कान खड़े हुए और मैं दो-चार तपस्वियों की सलाह से 'चाकलेट' की ओट में, उस दुष्‍ट साहित्‍य-निर्माता पर टूट पड़ा।


पर ध्‍यान रहे! - टूट पड़ने के पूर्व में कई बार उस चाकलेट-विधाता के प्रवासाश्रम पर गया भी था। मैंने उस छोकरे से एकबार कहा -


'कुछ जिम्‍मेवार, सिकुड़-मुख, दढ़ियल और तपस्‍वी तुम्‍हारी रचनाओं के घोर विरोधी हैं - खासकर 'चाकलेट' के और उन कहानियों के जिन का सम्‍बन्‍ध दाढ़ी-चोटी से है। अत:, मैं मौका ढूँढ़कर तुम्‍हारे साहित्‍य का विरोध करना चाहता हूँ। इसे कहे दे रहा हूँ इसलिए कि, जिसमें हमारे सामाजिक प्रेम में बट्टा न लगे। क्‍योंकि यह शुद्ध साहित्‍यिक-विवाद होगा।'


इस पर उस उग्र ने ठठाकर कहा, 'हा हा हा हा! कीजिए विरोध। पर, यह तो बताइये कि आपने मेरी कौन-कौन-सी कृति पढ़ी हैं?'


सज्‍जनों! इसका भला मैं क्‍या उत्तर देता? मैं तो प्रोपोगैंडिस्‍ट हूँ। मैं कुछ पढ़ता थोड़े ही हूँ। फिर, इस 'विशाल भारत' में कोई कितना पढ़ सकता है? मैंने तो दूसरों ही की राय पर अपनी राय चढ़ा रखी थी। जब चन्‍द दाढ़ीदार तपस्‍वी कह रहे हैं कि 'उग्र' की रचनाएँ घासलेट हैं तब वे अवश्‍य ही घासलेट होंगी। मैं उनकी जिम्‍मेवार राय पर सन्‍देह कैसे करता? आखिर वेदों में भी तो लिखा है - 'बाबा वाक्‍यं प्रमाणम्।' अत: मैंने सीधे से स्‍वीकार कर लिया कि मैंने तो तेरी एक भी रचना नहीं पढ़ी। फिर भी ओ दुष्‍ट! मैं तेरा विरोधी हूँ।


इस पर उस पागल ने अपनी सारी कृतियों की एक-एक प्रति मुझे मुफ्त ही में दी। कहा, 'इन्‍हें पढ़कर इनका विरोध कीजिएगा।' पर मैंने उन सबको नहीं पढ़ा। खासकर जिन पुस्‍तकों की हिन्‍दी के अनेक प्रतिष्‍ठितों, विद्वानों, कलाकारों ने प्रशंसा की उन्‍हें तो मैंने छुआ तक नहीं। केवल 'चाकलेट' पढ़कर मस्‍त हो गया और एक ही चावल से राष्‍ट्रभाषा की उस 'उग्र-हाँड़ी' का सारा भेद मेरे पेट में मलमला कर रह गया।


यह मैं अपने 'सत्‍यम् शिवम् सुन्‍दरम्' अनुभव के आधार पर दक्षिण अफ्रीका के पूज्‍य पिता की शपथ खाकर कह सकता हूँ कि प्रोपोगंडिस्‍ट के लिए न तो कोई झूठ झूठ है और न कोई आचरण असत्! अत: 'चाकलेट' की आलू, चना के पूर्व मैंने 'उग्र' के समर्थकों को कागजी घोड़े दौड़ा-दौड़ाकर, कोने-कोने में ढूँढ़-ढूँढ़कर, अपने दल में मिलाने की कोशिश की। मैंने 'प्रताप' वालों को समझाया कि यद्यपि 'चाकलेट' - विषय पर सारे जिम्‍मेवारों के मुँह पर दही जमा रहने पर भी 'उग्र' ही ने पहली आवाज उठायी है, फिर भी, उसका ढंग तो नालायकाना है। आप लोग उसकी रचना को अयोग्‍य कहकर अपनी योग्‍यता के भोंपू अब फूँक दें और उसी में कृपा कर मेरे इस घासलेट स्‍वर को भी मिला लें। 'चाकलेट विरोध' को भी मिला लें। 'चाकलेट विरोध' के लिए मैं काशी गया, प्रयाग गया, कानपुर गया और आगरा तो मेरा घर ही है और उस 'घासलेट' शब्‍द का भी जो चाकलेट से चार कदम आगे बढ़कर इंटरनेशनल हो रहा है।


इसके बाद अपने मन की सारी काई और कालिख बटोरकर मैंने 'चाकलेट' को काला करना आरम्‍भ किया, उस बंगाली मासिक 'चिड़ियाघर' में। सारी पुस्‍तक छोड़ कर मैंने पहले उसकी उस पुरानी कहानी में से राम, कृष्‍ण, सुकरात और शेक्‍सपियर का नाम ढूँढ़ निकाला। आह! उन्‍हें पाते ही मैं फूलकर कुप्‍पा हो गया। मगर, याद रहे, स्‍वच्‍छ गोघृत का। घासलेट-घी का नहीं। मैंने सोचा जनता ज्‍योंही इस अपवित्र प्रसंग में रामादिक का नाम सुनेगी त्‍योंही उस उग्र को फाँसी के तख्‍ते पर लटका देगी। उस समय मैंने यह नहीं विचार किया कि उक्‍त नाम कहानी के पात्रों के मुँह से आये हैं। और वे पात्र, लेखक की तस्‍वीर नहीं, समाज के पठित - धूर्त चाकलेट पन्थियों के चित्र हैं। 'कहि महिष, मानुष, धेनु, खर, अज, खल निशाचर भक्षहीं' में तुलसी के मनोभाव नहीं, बल्कि राक्षसों की साफ छवि है। मगर मुझे तो 'उग्र-साहित्‍य' का, उसकी पुस्‍तकों की बिक्री का, उसकी आर्थिक और सामाजिक उन्‍नति का विरोध करना है। फिर मैं क्‍यों विचारता कि वह राम, कृष्‍ण, सुकरात, शेक्‍सपियर, 'उग्र' के नहीं; बल्कि 'उग्र' की तस्‍वीरों के हैं। फिर मैं 'उग्र' के 'इन्‍द्रधनुष' को उठाकर 'सीता-हरण' में राम की दूसरी उज्‍जवल छवि क्‍यों देखता। मेरी आँखों पर तो प्रोपोगैंडिस्‍ट का चश्‍मा था।


मैंने यह भी पता नहीं लगाया कि 'चाकलेट' के प्रथम संस्‍करण के आवरण पर, 'A Public discussion of this very difficult and delicate subject has become necessary' -Young India. आदि वाक्‍य नहीं थे। उसकी आलोचना में मैंने यह भी नहीं कहा कि ये वाक्‍य 'उग्र' के नहीं, बल्कि बिहार के बाबा सीताराम दास के उस पत्र से लिये गये हैं जो दूसरे संस्‍करण की भूमिका के रूप में है। बस मुझे तो 'उग्र' को बदनाम करना था। अत: राम, कृष्‍ण, के साथ महात्‍माजी का नाम भी जोड़कर और यह लिखकर कि 'गांधी सिगरेट' की तरह यह 'चाकलेट पुस्‍तक' भी महात्‍माजी के नाम पर बेची जा रही है, मैंने अपनी प्रोपॅगेंडा-गाड़ी हाँक दी। मैंने लिख मारा - हमारी सम्‍मति में वे मोहक-भाषा में लिखी हुई 'सुगर कोटेड' संखिया है, 'घासलेट-साहित्‍य' का निकृष्‍ट उदाहरण है और छिछोरी मनोवृत्ति का गन्‍दा नमूना है।' मगर यह लिखने के पूर्व मैंने 'चाकलेट लेखक' के 'कैफयित' के ये शब्‍द नहीं पढ़े - या पढ़कर भी पी गया -


'पढ़ें - समाज के बड़े-बूढ़े पढ़ें, "उग्र" की इस नाटकीय कृति को, कहानी और कला का सुख लेने के लिए नहीं, उसकी प्रतिभा की उड़ान देखने के लिए नहीं, बल्कि अपने बच्‍चों का भविष्‍य उज्‍जवल रखने के लिए। उन्‍हें समाज के भिन्‍न-भिन्‍न रूपधारी दानवों से बचाने के लिए। उनका तेज और ब्रह्मचर्य रक्षित रखने के लिए। उन्‍हें पशुता से दूर और मनुष्‍यता से निकट रखने के लिए।'


'पढ़ें - जीवन की ड्योढ़ी पर खड़े हमारे नवयुवक मित्र मेरी इस काली रचना को अवश्‍य पढ़ें; और इसे पढ़कर अपने हृदय की घृणित छाया को अपने किसी बन्‍धु या मित्र के कोमल हृदय पर डालने से परहेज करें। प्‍यार को शुद्ध प्‍यार की तरह प्‍यार करें और उसके मुख पर वासना की स्‍याही पोतने से हिचकें। अपने हृदय की कोठरी में धुआँ न फैलावें। किसी अबोध मित्र के घर में आग न लगावें।'


'पढ़ें - देश के छोटे-छोटे फूल के खिलौने, सुन्‍दर बच्‍चे भी मेरी इन लकीरों को पढ़ें और शुरू से ही काँप उठें चाकलेट-पन्थियों के षड्यन्‍त्रों से, उनकी धूर्त्तताओं से। इन राक्षसी तस्‍वीरों को देखकर वह राक्षसों को पहचानना सीखें और सीखें उनके आक्रमणों से अपने फूले-फूले गुलाबी गालों को रक्षित रखना, अपने अधर-पल्‍लवों की रक्तिमा को महफ़ूज रखना और हृदय की पवित्रता को साधारण प्रलोभनों से अधिक महत्‍व देना।'


'मुझमें दोष हैं, मेरी कृतियों में भी अवश्‍य ही दोष हैं।' मगर पाठको को उस अमर कवि की इन लकीरों को स्‍मरण कर ही किसी की कृति को देखना चाहिए -


'जड़, चेतन गुण, दोष मय
विश्‍व कीन्‍ह करतार,
सन्‍त हंस गुण गहहिं पय
परिहरि वारि विकार।'


इस तरह सज्जनो! गोकि उस 'उग्र' ने अपनी कृति 'चाकलेट' को स्‍वयं ही कोस लिया है और अपनी खाकसारी से धूल उड़ानेवालों के मुँह में खाक भर रखने की चेष्‍टा की है, मगर मुझे तो उसे साहित्‍य से गिराना है, बदनाम करना है। इसी से मैंने इन बातों को जानबूझकर भुला दिया था। क्‍योंकि, मैं प्रोपोगैंडिस्‍ट हूँ। इसी से मैंने और मेरे पीर पंडित पद्मसिंह शर्मा ने भी 'मतवाला' को उतना नहीं कोसा, जिसमें ये सारी चाकलेटी रचनाएँ छपी हैं, क्‍योंकि हम तो केवल सरकश 'उग्र' का सिर चाहते हैं।


मुझसे यह भी बताया गया है कि आयरिश अंग्रेजी-जीनियस मिस्‍टर आस्‍कर वाइल्‍ड ने एक कहानी - Portrait of Mr. W.H. - लिखकर शेक्‍सपियर को चाकलेटपन्‍थी साबित किया है। मगर मैं इस पर नहीं विश्‍वास करता, क्‍योंकि मैं 'उग्र' का नाश चाहता हूँ। मुझसे यह भी कहा गया है... 'Aristotle advised abstinence from women, and preached sodomy in the place of natural love.' मुझसे यह भी कहा गया है कि - Socrates regarded sodomy as the privilege and sign of higher culture. The male Greeks shared this view and lived in harmony with it. और मुझसे यह कहा गया है कि उक्‍त बातें जर्मनी के किसी विख्‍यात कम्‍युनिस्‍ट दार्शनिक August Bebel की पुस्‍तक Women: Past & Present में हैं। और है अनेक बड़े-बड़े चॉकलेट-पन्थियों की लिस्‍ट कहा गया है कि, 'हैवलाक एलिस' की 'साइकालजी आफ सेक्‍स' नाम्‍नी छह जिल्‍दी पोथी में भी है। साथ ही मैंने यह भी पढ़ा है कि 'उग्र' इस चाकलेट पन्‍थ का विरोधी है - अरस्‍तू और सुकरात की तरह समर्थक नहीं। फिर भी मैं, चाकलेट और 'उग्र' का विरोधी हूँ। क्‍योंकि वह क्रान्तिकारी बनता है; और बिना मूँछ-दाढ़ी निकले ही, तपस्‍वी बने ही, साबरमती आश्रम देखे ही तथा सबसे बड़ी बात यह कि बिना मुझ दक्षिण अफरीकी सन्‍त से पूछे ही।


मैं 'अबलाओं का इन्‍साफ' और 'मनोरमा के पत्र' के लेखकों के भी विरुद्ध हूँ। मगर बाद में हुआ हूँ। जब मुझे यह पता चला कि बिना इन्‍हें भी हथियाए 'उग्र' मारा न जाएगा। पर, 'मनोरमा के पत्र' के लेखक ने, मेरी डाँट सुनते ही, मिनमिना कर मुझसे क्षमा याचना कर ली है। हाँ-हाँ - विश्‍वास न हो तो चलिए चिड़ियाघर में, मैं आपको उनकी 'दन्‍तनिपोर चिट्ठी' तक दिखा दूँ। इसी से मैं उन्‍हें क्षमा कर देने पर तैयार हूँ। पर, सभापति महोदय, और घासलेट-मंडलिको! इस पापी 'उग्र' को अवश्‍य ही फाँसी दी जाए। जैसा कि मेरे साबरमती - शुद्ध खोपड़े 'चाँद' के फाँसी अंक के सिलसिले में लिखा है। 'इन्‍साफ' के प्रकाशक ने चाकलेट नहीं लिखा, साथ ही तपस्वियों की पुस्‍तकें और जीवनियाँ छापकर उसने अपने पाप-पुण्‍य का ब्‍योरा कुछ-कुछ ठीक कर लिया है। अत: उसे आजन्‍म द्वीपान्‍तरवास की सजा ही काफी होगी। मैं अनुचित अत्‍याचार नहीं करना चाहता। क्‍योंकि मैंने बुद्ध, तीर्थंकर महावीर, टाल्‍सटाय, गांधी आदि को पढ़ा भी है और देखा भी है।


यह 'उग्र' क्‍या चीज है मेरे महत्‍व के आगे; सज्‍जनो! मैं तो अपने मित्रवर सम्‍पूर्णानन्‍द को अभिमानी समझता हूँ, क्‍योंकि वह एम.एल.सी. हैं; दक्षिण अफ्रिका के संन्‍यासी भवानीदयाल को व्‍यर्थ समझता हूँ, क्‍योंकि उन्‍होंने भी मेरे 'हेरिडेटरी' अफ्रिका पर पुस्‍तक लिखने की धृष्‍टता की है। पं. जवाहरलाल नेहरू के नाम के आगे से 'त्‍यागमूर्ति' काट फेंकता हूँ, उन्‍होंने मेरे दक्षिण अफरीकी-खाते को ऐसी कड़ाई से जाँचा था जैसे लेनिन ने जार के खातों को। फिर भला यह कल का लड़का 'उग्र' मेरे आगे वैसे ही क्‍यों नहीं झुक जाता जैसे बूढ़े पंडित कृष्‍णकान्‍तजी झुक गये। हाँ, हाँ, कहिए तो चिट्ठी निकालकर दिखा दूँ।


अस्‍तु, सज्‍जनों - बस। मैं आज यहीं समापता हूँ अपने भाषण को। यह सम्‍मेलन मैने केवल 'उग्र' को गिराने के लिए रचा है। इसकी सफलता तभी सम्‍भव है जब आप लोग उस अप्रियवादी को आज ही फाँसी पर टाँग दें। दोहाई है महात्‍मा गांधी की! दोहाई है सारे नेताओं और विद्वानों की!! मेरे मुँह की ओर देखिए, मेरी तपस्‍या की ओर निहारिए, मेरी अफ्रिकी सेवाओं को समझिए और मेरी बात मानिए। उसे अवश्‍य ही फाँसी दीजिए, मैं फाँसी का समर्थक हूँ, मैं अहिंसावादी हूँ। मैं बारह बड़े-बड़े महीनों का अनुभवी जर्नलिस्‍ट हूँ। मैं कई जीवनियों का अनोखा जनक हूँ। भाइयो, बहनो, पुलिसो, सार्जंटो, सम्‍पादको, प्रूफरीडरो, लौंडो-लबाड़ियो! आप मेरी आज्ञा अवश्‍य - अवश्‍य-अवश्‍य मानिए मानिए!


वृद्धावस्था


पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी


 


काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन 'निर्मला' से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूँ।


1916 में जब मैं बी.ए. पास कर मास्टर हो गया तब मैंने दो साल 'विमला' को पढ़ाया था। वह अब मैट्रीकुलेशन पास हो गई तब उससे मेरा संबंध छूट-सा गया। कभी-कभी उससे और उसके भाई के पुत्र आया करते थे। मैंने सुना कि उसका विवाह हो गया है। साहित्य में उसका विशेष अनुराग था। मैं किसी-किसी पत्र में उसकी रचना भी पढ़ता था। साहित्य के संबंध में उससे यदा-कदा पत्र-व्यवहार भी होता था। पर इस तरह संबंध बने रहने पर भी उसको फिर मुझे देखने का अवसर ही नहीं मिला। कुछ ही समय पहले मुझसे एक सात साल की लड़की ने आकर कहा - मैं अंग्रेजी पढूँगी तुम मुझे अंग्रेजी पढ़ाया करो। मैंने कहा - अच्छी बात है। उसने कहा - अच्छी बात मैं नहीं जानती। कल से तुम मेरे घर आना। वह पीला मकान मेरा ही है।


वह पीला मकान नए डॉक्टर साहब का था। मैं उनसे विशेष परिचित नहीं था। वे अभी हाल में आए थे। मैंने कहा-मैं तो आ जाऊँगा, पर तुम्हारे बाबूजी मुझे डाटेंगे तो? उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा है। उसने उत्तर दिया - वे क्यों डाटेंगे! मैंने माँ से पूछ लिया है। कल जरूर आना। मेरा नाम कुसुम है। भूलना मत।


लड़की की बातचीत और व्यवहार से मैं मुग्ध हो गया। दूसरे दिन मैं उसके घर गया। डॉक्टर साहब न थे, पर उनकी पत्नी तुरंत ही बाहर आईं। उन्होंने कहा - आप मुझे नहीं पहचानते। मेरी माँ विमला देवी को आपने पढ़ाया है।


उसकी बात सुनकर मेरे मुँह से हठात निकल पड़ा - तुम विमला की बेटी हो?


उसने हँसकर कहा - हाँ, मैं निर्मला हूँ और यह मेरी कुसुम है।


मैं चकित हो गया। विमला तो अभी तक मेरे हृदय में 16 ही वर्ष की थी और उसकी लड़की 25वर्ष की हो गई तब मुझे सहसा ज्ञात हुआ कि मैं वृद्ध हो गया हूँ।


सचमुच अब इस सत्य में कोई संदेह नहीं रहा कि मैं वृद्ध हूँ। मेरे जीवन का संध्या-काल समीप आ गया है। मुझे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शरीर में अब वह शक्ति नहीं है, नेत्रों में वह ज्योति नहीं है, मन में वह उमंग नहीं है, वह स्फूर्ति नहीं है, वह चाह नहीं है। केश सफेद होते जा रहे है, शरीर शिथिल होता जा रहा है, यह सब होने पर भी मन पर काल की गति का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। मन अपने को बहलाने के लिए, अपनी मोहावस्था को बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ उपाय ढूँढ़ ही लेता है। मेरे इसी नगर में अभी ऐसे कितने ही वयोवृद्ध जन हैं जिनके पास जाकर मैं अपनी वृद्धावस्था भूल जाता हूँ। वे मेरे पिता के समवयस्क हैं। आश्चर्य की बात यह है कि मैं उनमें से कितनों से तरुणावस्था की स्फूर्ति भी देखता हूँ। लाला प्रद्युम्नसिंह में किसी नवयुवक से कम विद्यानुराग नहीं है और वे अभी तक अपनी ज्ञान-वृद्धि के लिए परिश्रम ही करते जा रहे हैं। हीरावल पोद्दार से अधिक संगीतकला का उपासक कोई तरुण नहीं हो सकता। अपने इस कला-प्रेम के कारण वे सदैव मुझे तरुण ही प्रतीत होते हैं। उनकी वाणी में जो मधुरता है, जो शक्ति है वह कितने ही तरुणों में नहीं है। पंडित काशीदत्त झा से अधिक कार्यतत्परता मैंने किसी नवयुवक में नहीं देखी। यदि इन लोगों के समक्ष मैं वृद्धों की आदरणीय पंक्ति में बैठने का साहस करूँ तो उपहासास्पद ही बन जाऊँगा। कर्तव्य-चिंता के भार से अब मैं चाहे अपने को वृद्ध समझूँ या मोह के उल्लास से तरुण, किंतु शारीरिक शक्ति के हृास के कारण कितने ही लोगों को वृद्धावस्था दुखद हो जाती है। परंतु सभी तरह की निर्बलता और शिथिलता का अनुभव करने पर भी मैं यह नहीं समझता कि यह अवस्था स्पृणीय नहीं है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि वृद्धावस्था में जीवन के विकास की जो चरमावस्था आ जाती है उसमें हम लोगों के सभी भाव, रस के रूप में परिणत होकर, आनंदमय हो जाते हैं।


यह सच है कि वृद्धावस्था में शारीरिक-शक्ति क्षीण होती जाती है पर उसके कष्ट जितने कल्पित हैं उतने यथार्थ नहीं हैं। बात यह है कि शक्ति के अभाव का हमें ज्ञान ही नहीं हो पाता। तरुणावस्था में जो शाक्त बाह्य जगत में जाकर विकीर्ण होती है वही अब अंतर्जगत में रहकर एकत्र सी हो जाती है। जिन कामों में शारीरिक शक्ति की विशेष आवश्यकता है उनके प्रति आपसे आप विरक्ति हो जाती हैं। परंतु उससे आनंद की अनुभूति कम नहीं होती। मैं कभी फुटबाल खेला करता था और खैरागढ़ से छुईखदान तक दौड़ लगाया करता था। पर फुटबाल खेलने की ओर जरा भी प्रवृत्ति नहीं होती। अब तो फुटबाल ग्राउंड या क्रिकेट फील्ड में चुपचाप बैठकर देखने में ही आनंद आता है। उस समय 'जितेंद्र' से कैच छूटने पर या'जोधा' से कुछ भूल होने पर हम लोग अपने समय के दिग्गजों की अपूर्वता का वर्णन करने लग जाते हैं।'कस्तूरचंद' और मिनाजुद्दीन के बौलिंग तथा 'युधिष्ठिर' और 'वंशबहादुर' के खेल के वर्णन में वर्तमान तो बिल्कुल क्षुद्र हो जाता है। 'महाराज जी' के बराबर अब कौन 'बैक' खेलेगा! इन्हीं अतीत भव्य बातों का स्मरण कर वर्तमान की ओर इतना उपेक्षा भाव मन में आ जाता है कि उसमें सम्मिलित होने की जरा भी इच्छा नहीं होती। यही वृद्धावस्था का सच्चा लाभ है। यही कारण है कि शारीरिक शिथिलता और हृास का अनुभव करते हुए भी हम यह नहीं समझते कि इसमें कोई अभाव है। संसार के कार्य-क्षेत्र में हम युवकों के लिए आपसे आप स्थान छोड़ देते हैं, क्योंकि उसके लिए स्पृहा नहीं रह जाती। वृद्धावस्था में जो गौरव का भाव आ जाता है वह तारुण्य को तिरस्करणीय कर देता है। तारुण्य की लालसा, महत्वाकांक्षा,क्षिप्रता, अदूरदर्शिता सभी उसके लिए अग्रगण्य हैं।


मैं छात्रों के बीच में रहता आया हूँ। उनके साथ सहानुभूति का भव रख कर भी उनके क्षणिक उत्साह और क्षणि अवसाद से मुझे कौतूहल ही होता है। मैं जानता हूँ कि स्कूल की परीक्षा में उत्तीर्ण होना एक बात है और जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण होना दूसरी बात। मैं अब परिश्रम को महत्त्व देता हूँ,विद्या के प्रति अनुराग की प्रशंसा करता हूँ। पर छात्र एकमात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होने में ही अपनी सफलता समझते हैं। अनुत्तीर्ण होने पर उन्हें जो दुख होता है वह मुझे नहीं होता। मेरे सुख-दुख की सीमा अब विस्तृत हो गई है। वृद्धावस्था में सुख-दुख की भावना परिवर्तित हो जाती है। तरुणावस्था में आडंबर अथवा प्रदर्शन की जो चाह रहती है वह वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। इसी प्रकार न क्षणिक सुखों से वृद्धों को उल्लास होता है और न ही क्षणिक दुःखों से विषाद। न तो कोई सफलता उन्हें उत्तेजित करती है और न कोई असफलता हताश। संसार की कठोरता और कर्तव्य की गुरुता से परिचित हो जाने से उनमें विश्वास के स्थान में अविश्वास आ जाता है। वे संयत होकर भी संशयालु हो जाते हैं। इसी से वे तरुणावस्था के मोह में पड़ना नहीं चाहते।


तरुणावस्था में ज्ञान की वृद्धि होती है और वृद्धावस्था में ज्ञान की परीक्षा। जिनका तारुण्य-काल विद्योपार्जन में नहीं व्यतीत हुआ अथवा जो यथेष्ट ज्ञान अर्जित नहीं कर सके उनके लिए वृद्धकाल में इस अभाव की पूर्ति संभव नहीं है। मैं स्वयं विद्या के क्षेत्र में बी.ए. के आगे नहीं बढ़ सका और मेरे कितने ही छात्र विद्या की चरमकोटि तक पहुँच गए हैं। उनकी असाधारण विद्या और अपूर्व प्रतिष्ठा देखकर उनके समवयस्क लोगों में भले ही कुछ ईर्ष्या का भव हो, पर वृद्ध को यह भाव हो नहीं सकता। अधिकांश की तो यह धारणा रहती है कि यदि वे चाहते तो सब कुछ स्वायत्त कर सकते थे। परंतु उन्होंने इच्छा नहीं की। इसके अतिरिक्त उन्हें संसार का जो अनुभव हो चुका है उसे वे प्रेमचंदजी के 'बड़े भाई साहब' की तरह विद्या की अपेक्षा अधिक गौरव देंगे। ज्ञान के क्षेत्र में अजेय ही रहेंगे। मेरे नगर के कुछ वयोवृद्ध जन न तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके और न खैरागढ़ के बाहर का ही कुछ विशेष अनुभव प्राप्त कर सके हैं। उनके ज्ञान और अनुभव दोनों सीमा-बद्ध होने पर वे केवल अवस्था के कारण एक गौरव प्राप्त कर चुके हैं। यही कारण है कि क्या दर्शनशास्त्र, क्या धर्म-विज्ञान और क्या शिक्षा-तत्त्व, सभी में वे एक विशेषज्ञ की तरह राय देते हैं। यह सच है कि उच्च कुल में जन्म लेने के कारण उन्होंने जो प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है उसके कारण उनकी सभी बातें मान्य हो जाती हैं। पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि वृद्धावस्था भी स्वयं आदरणीय हो जाती है और ज्ञान को उसके आगे नतमस्तक होना पड़ता है।


कुछ लोगों की यह धारणा है कि वृद्धावस्था में धर्म की ओर रुचि हो जाती है। प्राचीन काल में लोग वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम स्वीकार कर संसार से विरक्त हो जाते थे। हिंदू-समाज के इसी आदर्श ने यहाँ लोगों में विश्वास उत्पन्न कर दिया है कि वृद्धावस्था आपसे आप धर्म की भावना ला देती है। यह सच है कि तरुणावस्था में जो चंचलता रहती है वह वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। उसी समय एक स्थिरता, एक दृढ़ता आ जाती है। पाश्चात्य देशों के राजनैतिक क्षेत्रों में वृद्धजन ही नेतृत्व ग्रहण करते हैं और उनसे अधिक संसार क्षेत्र में कोई संलग्न नहीं रहता। सच तो यह है कि वृद्धावस्था में हम जिस बात को अपनाते हैं उसे इतनी दृढ़ता से अपनाते हैं कि मृत्यु ही हमको उस बात से मुक्ति दे सकती है। धर्म,अर्थ काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में जो वृद्ध जिसको स्वीकार कर लेता है वह उसी में लिप्त हो जाता है। कितने ही वृद्ध काम और अर्थ में लिप्त रहकर भी धर्म का अभिनय अवश्य करते हैं, पर यथार्थ में तरुणों से भी अधिक प्रचंड उनकी वासनाएँ होती हैं। वृद्धावस्था में अर्थ-लोभ से प्रेरित होकर जो व्यवसाय करते हैं। उनमें जो कृपणता आ जाती है वह तरुणों में सभव नहीं। यही बात जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कही जा सकती है। वृद्ध नवीन पथ नहीं स्वीकार कर सकते। यदि वे ऐसा करते हैं तो ढोंग ही करते हैं। जीवन भर सांसारिक चिंता में निरत रहकर कोई वृद्धावस्था में सहसा संसार को त्यागकर मुक्ति का मार्ग ग्रहण कर ले, यह एकमात्र भगवान की असीम कृपा का फल हो सकता है। स्वभाव के विरुद्ध काम किसी से हो नहीं सकता। प्रकृति हमको अपने ही पथ पर ले जाती है। कर्तव्य भार की चिंताओं से विमुक्त होकर कोई-कोई धर्म-चिंता में निरत होकर आत्म-विनोद अवश्य कर लेते हैं। पर निश्चिंत अवस्था में यह संभव है।


वृद्धावस्था का सच्चा आनंद है आत्म-संतोष। जिन्हें भविष्य की चिंता है वे वृद्ध नहीं हैं। वे तरुण ही हैं, क्योंकि उन्हें कार्यों की ओर चिंता अवश्य प्रेरित करेगी। जो देश के भविष्य-निर्माण में व्यस्त हैं उन्हें आत्म-संतोष तभी होगा जब वे अपना कार्य समाप्त कर लेंगे और तभी वे वृद्ध होकर अपने अतीत जीवन का स्मरण करेंगे। तब उनके लिए भविष्य की कोई चिंता नहीं रह जाएगी। पं. जवाहरलाल नेहरू की तरह महात्मा गांधी भी तरुण भारत के वरुण नेता हैं। उनमें अदम्य साहस हैं अदम्य स्फूर्ति है और अदम्य उत्साह है। वृद्धावस्था उनके शरीर को जीर्ण कर सकती है, उनके मन को नहीं। पर जो लोग एकमात्र शरीर-सुख को ही अपना लक्ष्य मानते आए हैं उनके लिए शारीरिक शक्ति की क्षीणता के साथ वृद्धावस्था आ जाती है और वे वृद्धावस्था से असंतुष्ट होकर इसके आनंद से भी हाथ धो बैठते हैं। जीवन की संध्या अपने साथ एक अपूर्व श्री लाती है। ज्योति क्षीण हो जाती है, उन्माद नष्ट हो जाता है; मन में भाव का मृदु पवन बहता है, सहानुभूति की मृदु तरंगें उठती हैं, संसार हर्ष के मधुर कलरव से पूर्ण हो जाता है, चिर संचित स्नेह का दीप प्रज्वलित होता है और मन के नभोमंडल में उदीयमान नक्षत्रों की तरह कितनी ही मधुर स्मृतियाँ उदित होती हैं।


आचरण की सभ्यता


सरदार पूर्ण सिंह


 


विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है।


आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।


न काला, न नीला, न पीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्‍तरी, न दक्षिणी, बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान, विशाल आत्‍मा के आचरण से मौन रूपिणी, सुगन्धि सदा प्रसारित हुआ करती है; इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगत का कल्‍याण करके विस्‍तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं। तीक्ष्‍ण गरमी से जले भुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूँदाबाँदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्‍पन्‍न शरद ऋतु क्‍लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगंधमय अटल वसंत ऋतु के आनंद का पान करते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनंद-नृत्‍य से उन्‍मदिष्‍णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्‍य करने लगते हैं। आचरण के मौन व्‍याख्‍यान से मनुष्‍य को एक नया जीवन प्राप्‍त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्‍ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल भर आता है। नये नेत्र मिलते हैं। कुल पदार्थों के साथ एक नया मैत्री-भाव फूट पड़ता है। सूर्य, जल, वायु, पुष्‍प, पत्‍थर, घास, पात, नर, नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुंदर मूर्ति के दर्शन होने लगते हैं।


मौनरूपी व्‍याख्‍यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्‍या मातृभाषा, क्‍या साहित्‍यभाषा और क्‍या अन्‍य देश की भाषा सब की सब तुच्‍छ प्रतीत होती हैं। अन्‍य कोई भाषा दिव्‍य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्‍वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्‍याख्‍यान किस तरह आपके हृदय की नाड़ी-नाड़ी में सुंदरता को पिरो देता है। वह व्‍याख्‍यान ही क्‍या, जिसने हृदय की धुन को - मन के लक्ष्‍य को - ही न बदल दिया। चंद्रमा की मंद-मंद हँसी का तारागण के कटाक्षपूर्ण प्राकृतिक मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में घुसकर देखो। सूर्यास्‍त होने के पश्‍चात श्रीकेशवचंद्र सेन और महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने सारी रात एक क्षण की तरह गुजार दी; यह तो कल की बात है। कमल और नरगिस में नयन देखने वाले नेत्रों से पूछो कि मौन व्‍याख्‍यान की प्रभुता कितनी दिव्‍य है।


प्रेम की भाषा शब्‍द-‍रहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्‍तक की भाषा भी शब्‍द-रहित है। जीवन का तत्‍व भी शब्‍द से परे है। सच्‍चा आचरण - प्रभाव, शील, अचल-स्थित संयुक्‍त आचरण - न तो साहित्‍य के लंबे व्‍याख्‍यानों से गढ़ा जा सकता है; न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से; न अंजील से; न कुरान से; न धर्मचर्चा से; न केवल सत्‍संग से। जीवन के अरण्‍य में धंसे हुए पुरुष पर प्रकृति और मनुष्‍य के जीवन के मौन व्‍याख्‍यानों के यत्‍न से सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों की तरह आचरण का रूप प्रत्‍यक्ष होता है।


बर्फ का दुपट्टा बांधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुंदर, अति ऊंचा और अति गौरवान्वित मालूम होता है; परंतु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु समुद्र के जल में डुबो-डुबोकर और उनको अपने विचित्र हथौड़े से सुडौल करके इस हिमालय के दर्शन कराये हैं। आचरण भी हिमालय की तरह एक ऊंचे कलश वाला मंदिर है। यह वह आम का पेड़ नहीं जिसको मदारी एक क्षण में, तुम्‍हारी आँखों में मिट्टी डालकर, अपनी हथेली पर जमा दे। इसके बनने में अनंत काल लगा है। पृथ्‍वी बन गयी, सूर्य बन गया, तारागण आकाश में दौड़ने लगे; परंतु अभी तक आचरण के सुंदर रूप के पूर्ण दर्शन नहीं हुए। कहीं-कहीं उसकी अत्‍यल्‍प छटा अवश्‍य दिखाई देती है।


पुस्‍तकों में लिखे हुए नुसखों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है। सारे वेद और शास्‍त्र भी यदि घोलकर पी लिए जायँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती। आचरण की प्राप्ति की इच्‍छा रखने वाले को तर्क-वितर्क से कुछ भी सहायता नहीं मिलती। शब्‍द और वाणी तो साधारण जीवन के चोचले हैं। ये आचरण की गुप्‍त गुहा में नहीं प्रवेश कर सकते। वहां इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। वेद इस देश के रहने वालों के विश्‍वासानुसार ब्रह्मवाणी है, परंतु इतना काल व्‍यतीत हो जाने पर भी आज तक वे समस्‍त जगत की भिन्‍न-भिन्‍न जातियों को संस्‍कृत भाषा न बुला सके - न समझा सके - न सिखा सके। यह बात हो कैसे? ईश्‍वर तो सदा मौन है। ईश्‍वरीय मौन शब्‍द और भाषा का विषय नहीं। यह केवल आचरण के कान में गुरुमंत्र फूँक सकता है। वह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है।


किसी का आचरण वायु के झोंके से हिल जाय, तो हिल जाय, परंतु साहित्‍य और शब्‍द की गोलन्‍दाजी और आंधी से उसके सिर के एक बाल तक का बाँका न होना एक साधारण बात है। पुष्‍प की कोमल पंखुड़ी के स्‍पर्श से किसी को रोमांच हो जाय; जल की शीतलता से क्रोध और विषय-वासना शांत हो जायँ; बर्फ के दर्शन से पवित्रता आ जाय; सूर्य की ज्‍योति से नेत्र खुल जायँ - परंतु अंगरेजी भाषा का व्‍याख्‍यान - चाहे वह कारलायल ही का लिखा हुआ क्‍यों न हो - बनारस में पंडितों के लिए रामलीला ही है। इसी तरह न्‍याय और व्‍याकरण की बारीकियों के विषय में पंडितों के द्वारा की गई चर्चाएँ और शास्‍त्रार्थ संस्‍कृत-ज्ञान-हीन पुरुषों के लिए स्‍टीम इंजिन के फप्-फप् शब्‍द से अधिक अर्थ नहीं रखते। यदि आप कहें व्‍याख्‍यानों के द्वारा, उपदेशों के द्वारा, धर्मचर्चा द्वारा कितने ही पुरुषों और नारियों के हृदय पर जीवन-व्‍यापी प्रभाव पड़ा है, तो उत्तर यह है कि प्रभाव शब्‍द का नहीं पड़ता - प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है। साधारण उपदेश तो, हर गिरजे, हर मंदिर और हर मस्जिद में होते हैं, परंतु उनका प्रभाव तभी हम पर पड़ता है जब गिरजे का पादड़ी स्‍वयं ईसा होता है - मंदिर का पुजारी स्‍वयं ब्रह्मर्षि होता है - मसजिद का मुल्‍ला स्‍वयं पैगंबर और रसूल होता है।


यदि एक ब्राह्मण किसी डूबती कन्‍या की रक्षा के लिए - चाहे वह कन्‍या जिस जाति की हो, जिस किसी मनुष्‍य की हो, जिस किसी देश की हो - अपने आपको गंगा में फेंक दे - चाहे उसके प्राण यह काम करने में रहें चाहे जायं - तो इस कार्य में प्रेरक आचरण की मौनमयी भाषा किस देश में, किस जाति में और किस काल में, कौन नहीं समझ सकता? प्रेम का आचरण, दया का आचरण - क्‍या पशु क्‍या मनुष्‍य - जगत के सभी चराचर आप ही आप समझ लेते हैं। जगत भर के बच्‍चों की भाषा इस भाष्‍यहीन भाषा का चिह्न है। बालकों के इस शुद्ध मौन का नाद और हास्‍य ही सब देशों में एक ही सा पाया जाता है।


मनुष्‍य का जीवन इतना विशाल है कि उसमें आचरण को रूप देने के लिए नाना प्रकार के ऊंच-नीच और भले-बुरे विचार, अमीरी और गरीबी, उन्‍नति और अव‍नति इत्‍यादि सहायता पहुंचाते हैं। पवित्र अपवित्रता उतनी ही बलवती है, जितनी कि पवित्र और पवित्रता। जो कुछ जगत में हो रहा है वह केवल आचरण के विकास के अर्थ हो रहा है। अंतरात्‍मा वही काम करती है जो बाह्य पदार्थों के संयोग का प्रतिबिंब होता है। जिनको हम पवित्रात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन कूपों से निकलकर वे अब उदय को प्राप्‍त हुए हैं। जिनको हम धर्मात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन अधर्मों को करके वे धर्म-ज्ञान पा सके हैं। जिनको हम सभ्‍य कहते हैं और जो अपने जीवन में पवित्रता को ही सब कुछ समझते हैं, क्‍या पता है, वे कुछ काल पूर्व बुरी और अधर्म अपवित्रता में लिप्‍त रहे हों? अपने जन्‍म-जन्‍मांतरों के संस्‍कारों से भरी हुई अंधकारमय कोठरी से निकल ज्‍योति और स्‍वच्‍छ वायु से परिपूर्ण खुले हुए देश में जब तक अपना आचरण अपने नेत्र न खोल चुका हो तब तक धर्म के गूढ़ तत्‍व कैसे समझ में आ सकते हैं। नेत्र-रहित को सूर्य से क्‍या लाभ? कविता, साहित्‍य, पीर, पैगंबर, गुरु, आचार्य, ऋषि आदि के उपदेशों से लाभ उठाने का यदि आत्‍मा में बल नहीं तो उनसे क्‍या लाभ? जब तक यह जीवन का बीज पृथ्‍वी के मल-मूत्र के ढेर में पड़ा है, अथवा जब तक वह खाद की गरमी से अंकुरित नहीं हआ और प्रस्‍फुटित होकर उससे दो नये पत्ते ऊपर नहीं निकल आये, तब तक ज्‍योति और वायु किस काम के?


वह आचरण ही धर्म-संप्रदायों के अनुच्‍चारित शब्‍दों को सुनाता है, हम में कहां? जब वही नहीं तब फिर क्‍यों न ये संप्रदाय हमारे मानसिक महाभारतों का कुरुक्षेत्र बनें? क्‍यों न अप्रेम, अपवित्र, हत्‍या और अत्‍याचार इन संप्रदायों के नाम से हमारा खून करें। कोई भी संप्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्‍याणकारक नहीं हो सकता और आचरण वाले पुरुषों के लिए सभी धर्म-संप्रदाय कल्‍याणकारक हैं। सच्‍चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।


आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्‍य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार की सामाग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्‍यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी (सबका) क्‍या एक पुरुष और क्‍या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के संबंध में विचार करना होगा। आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं उन सबको आचरण के संघटनकर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्‍मा क्‍यों न हो, वह निश्‍चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो, और किसी तरह नहीं। आचरण की सभ्‍यता की प्राप्ति के लिए वह सब को एक पथ नहीं बता सकता। आचरणशील महात्‍मा स्‍वयं भी किसी अन्‍य की बनायी हुई सड़क से नहीं आया, उसने अपनी सड़क स्‍वयं ही बनायी थी। इसी से उसके बनाए हुए रास्‍ते पर चलकर हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते। हमें अपना रास्‍ता अपने जीवन की कुदाली की एक-एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना भी पड़ेगा। हर किसी को अपने देश-कालानुसार रामप्राप्ति के लिए अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी।


यदि मुझे ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो ऐसे ज्ञान से क्‍या प्रयोजन? जब तक मैं अपना हथौड़ा ठीक-ठीक चलाता हूँ और रूपहीन लोहे को तलवार के रूप में गढ़ देता हूं तब तक मुझे यदि ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो नहीं होने दो। उस ज्ञान से मुझे प्रयोजन ही क्‍या? जब तक मैं अपना उद्धार ठीक और शुद्ध रीति से किये जाता हूं तब तक यदि मुझे आध्‍यात्मिक पवित्रता का ज्ञान नहीं होता तो न होने दो। उससे सिद्धि ही क्‍या हो सकती है? जब तक किसी जहाज के कप्‍तान के हृदय में इतनी वीरता भरी हुई है कि वह महाभयानक समय में अपने जहाज को नहीं छोड़ता तब तक यदि वह मेरी और तेरी दृष्टि में शराबी और स्‍त्रैण है तो उसे वैसा ही होने दो। उसकी बुरी बातों से हमें प्रयोजन ही क्‍या? आँधी हो - बरफ हो - बिजली की कड़क हो - समुद्र का तूफान हो - वह दिन रात आँख खोले अपने जहाज की रक्षा के लिए जहाज के पुल पर घूमता हुआ अपने धर्म का पालन करता है। वह अपने जहाज के साथ समुद्र में डूब जाता है, परंतु अपना जीवन बचाने के लिए कोई उपाय नहीं करता। क्‍या उसके आचरणों का यह अंश मेरे तेरे बिस्‍तर और आसन पर बैठे-बिठाए कहे हुए निरर्थक शब्‍दों के भाव से कम महत्‍व का है?


न मैं किसी गिरजे में जाता हूं और न किसी मंदिर में, न मैं नमाज पढ़ता हूं और न ही रोजा रखता हूं, न संध्या ही करता हूं और न कोई देव-पूजा ही करता हूं, न किसी आचार्य के नाम का मुझे पता है और न किसी के आगे मैंने सिर ही झुकाया है। तो इससे प्रयोजन ही क्‍या और इससे हानि भी क्‍या? मैं तो अपनी खेती करता हूं, अपने हल और बैलों को प्रात:काल उठकर प्रणाम करता हूं, मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पत्तियों की संगति में गुजरता है, आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है। मैं किसी को धोखा नहीं देता; हाँ यदि कोई मुझे धोखा दे तो उससे मेरी कोई हानि नहीं। मेरे खेत में अन्‍न उग रहा है, मेरा घर अन्‍न से भरा है, बिस्‍तर के लिए मुझे एक कमली काफी है, कमर के लिए लँगोटी और सिर के लिए एक टोपी बस है। हाथ-पाँव मेरे बलवान हैं, शरीर मेरा अरोग्‍य है, भूख खूब लगती है, बाजरा और मकई, छाछ और दही, दूध और मक्‍खन मुझे और बच्‍चों को खाने के‍ लिए मिल जाता है। क्‍या इस किसान की सादगी और सच्‍चाई में वह मिठास नहीं जिसकी प्राप्ति के लिए भिन्‍न-भिन्‍न धर्म संप्रदाय लंबी-चौड़ी और चिकनी-‍चुपड़ी बातों द्वारा दीक्षा दिया करते हैं?


जब साहित्‍य, संगीत और कला की अति ने रोम को घोड़े से उतारकर मखमल के गद्दों पर लिटा दिया - जब आलस्‍य और विषय-विकार की लंपटता ने जंगल और पहाड़ की साफ हवा के असभ्‍य और उद्दंड जीवन से रोमवालों का मुख मोड़ दिया तब रोम न‍रम तकियों और बिस्‍तरों पर ऐसा सोया कि अब त‍क न आप जागा और न कोई उसे जगा सका। ऐंग्‍लोसेक्‍सन जाति ने जो उच्‍च पद प्राप्‍त किया बस उसने अपने समुद्र, जंगल और पर्वत से संबंध रखने वाले जीवन से ही प्राप्‍त किया। जाति की उन्‍नति लड़ने-भिड़ने, मरने-मारने, लूटने और लूटे जाने, शिकार करने और शिकार होने वाले जीवन का ही परिणाम है। लोग कहते हैं, केवल धर्म ही जाति की उन्‍नति करता है। यह ठीक है, परंतु यह धर्मांकुर जो जाति को उन्‍नत करता है, इस असभ्‍य, कमीने पापमय जीवन की गंदी राख के ढेर के ऊपर नहीं उगता है। मंदिरों और गिरजों की मंद-मंद टिमटिमाती हुई मोमबत्तियों की रोशनी से यूरप इस उच्‍चावस्‍था को नहीं पहुँचा। वह कठोर जीवन जिसको देश-देशांतरों को ढूँढ़ते फिरते रहने के बिना शांति नहीं मिलती; जिसकी अंतर्ज्‍वाला दूसरी जातियों को जीतने, लूटने, मारने और उन पर राज रकने के बिना मंद नहीं पड़ती - केवल वहीं विशाल जीवन समुद्र की छाती पर मूँग दलकर और पहाड़ों को फाँदकर उनको उस महानता की ओर ले गया और ले जा रहा है। राबिनहुड की प्रशंसा में जो कवि अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं उन्‍हें तत्‍वदर्शी कहना चाहिए, क्‍योंकि राबिनहुड जैसे भौतिक पदार्थों से ही नेलसन और वेलिंगटन जैसे अंगरेज वीरों की हड्डियां तैयार हुई थीं। लड़ाई के आजकल के सामान - गोला, बारूद, जंगी जहाज और तिजारती बेड़ों आदि - को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे वर्तमान सभ्‍यता से भी कहीं अधिक उच्‍च सभ्‍यता का जन्‍म होगा।


धर्म और आध्‍यात्मिक विद्या के पौधे को ऐसी आरोग्‍य-वर्धक भूमि देने के लिए, जिसमें वह प्रकाश और वायु सदा खिलता रहे, सदा फूलता रहे, सदा फलता रहे, यह आवश्‍यक है कि बहुत-से हाथ एक अनंत प्रकृति के ढेर को एकत्र करते रहें। धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को सदा ही कमर बांधे हुए सिपाही बने रहने का भी तो यही अर्थ है। यदि कुल समुद्र का जल उड़ा दो तो रेडियम धातु का एक कण कहीं हाथ लगेगा। आचरण का रेडियम - क्‍या एक पुरुष का, और क्‍या जाति का, और क्‍या जगत का - सारी प्रकृति को खाद बनाये बिना सारी प्रकृति को हवा में उड़ाये बिना भला कब मिलने का है? प्रकृति को मिथ्‍या करके नहीं उड़ाना; उसे उड़ाकर मिथ्‍या करना है। समुद्रों में डोरा डालकर अमृत निकाला है : सो भी कितना? जरा सा! संसार की खाक छानकर आचरण का स्‍वर्ण हाथ आता है। क्‍या बैठे-बिठाये भी वह मिल सकता है?


हिंदुओं का संबंध यदि किसी प्राचीन असभ्‍य जाति के साथ रहा होता तो उनके वर्तमान वंश में अधिक बलवान श्रेणी के मनुष्‍य होते - तो उनमें भी ऋषि, पराक्रमी, जनरल और धीर-वीर पुरुष उत्‍पन्‍न होते। आजकल तो वे उपनिषदों के ऋषियों के पवित्रतामय प्रेम के जीवन को देख-देखकर अहंकार में मग्‍न हो रहे हैं और दिन पर दिन अधोगति की ओर जा रहे हैं। यदि वे किसी जंगली जाति की संतान होते तो उनमें भी ऋषि और बलवान योद्धा होते। ऋषियों को पैदा करने के योग्‍य असभ्‍य पृथ्‍वी का बन जाना तो आसान है; परंतु ऋषियों की अपनी उन्‍नति के लिए राख और पृथ्‍वी बनाना कठिन है, क्‍योंकि ऋषि तो केवल अनंत प्रकृति पर सजते हैं, हमारी जैसी पुष्‍प-शय्या पर मुरझा जाते हैं। माना कि प्राचीन काल में, यूरप में, सभी असभ्‍य थे, परंतु आजकल तो हम असभ्‍य हैं। उनकी असभ्‍यता के ऊपर ऋषि-जीवन की उच्‍च सभ्‍यता फूल रही है और हमारे ऋषियों के जीवन के फूल की शय्या पर आजकल असभ्‍यता का रंग चढ़ा हुआ है। सदा ऋषि पैदा करते रहना, अर्थात अपनी ऊंची चोटी के ऊपर इन फूलों को सदा धारण करते रहना ही जीवन के नियमों का पालन करना है।


धर्म के आचरण की प्राप्ति यदि ऊपरी आडंबरों से होती तो आजकल भारत-निवासी सूर्य के समान शुद्ध आचरण वाले हो जाते। भाई! माला से तो जप नहीं होता। गंगा नहाने से तो तप नहीं होता। पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती है; आँधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी-अमीरी, को झेलने से तप हुआ करता है। आध्‍यात्मिक धर्म के स्‍वप्‍नों की शोभा तभी भली लगती है जब आदमी अपने जीवन का धर्म पालन करे। खुले समुद्र में अपने जहाज पर बैठकर ही समुद्र की आध्‍यात्मिक शोभा का विचार होता है। भूखे को तो चंद्र और सूर्य भी केवल आटे की बड़ी-बड़ी दो रोटियां से प्रतीत होता है। कुटिया में ही बैठकर धूप, आँधी और बर्फ की दिव्‍य शोभा का आनंद आ सकता है। प्राकृतिक सभ्‍यता के आने पर ही मानसिक सभ्‍यता आती है और तभी वह स्थिर भी रह सकती है। मानसिक सभ्‍यता के होने पर ही आचरण सभ्‍यता की प्राप्ति संभव है, और तभी वह स्थिर भी हो सकती है। जब तक निर्धन पुरुष पाप से अपना पेट भरता है तब तक धनवान पुरुष के शुद्धाचरण की पूरी परीक्षा नहीं। इसी प्रकार जब तक अज्ञानी का आचरण अशुद्ध है तब तक ज्ञानवान के आचरण की पूरी परीक्षा नहीं - तब तक जगत में आचरण की सभ्‍यता का राज्‍य नहीं।


आचरण की सभ्‍यता का देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्‍यात्मिक। न उसमें विद्रोह है, न जंग ही का नामोनिशान है और न वहां कोई ऊँचा है, न नीचा। न कोई वहां धनवान है और न ही कोई वहां निर्धन। वहां प्रकृति का नाम नहीं, वहां तो प्रेम और एकता का अखंड राज्‍य रहता है। जिस समय आचरण की सभ्‍यता संसार में आती है उस समय नीले आकाश से मनुष्‍य को वेद-ध्‍वनि सुनायी देती है, नर-नारी पुष्‍पवत् खिलते जाते हैं, प्रभात हो जाता है, प्रभात का गजर बज जाता है, नारद की वीणा अलापने लगती है, ध्रुव का शंख गूँज उठता है, प्रह्लाद का नृत्‍य होता है, शिव का डमरू बजता है, कृष्‍ण की बाँसुरी की धुन प्रारंभ हो जाती है। जहाँ ऐसे शब्‍द होते हैं, जहां ऐसे पुरुष रहते हैं, वहाँ ऐसी ज्‍योति होती है, वही आचरण की सभ्‍यता का सुनहरा देश है। वही देश मनुष्‍य का स्‍वदेश है। जब तक घर न पहुँच जाय, सोना अच्‍छा नहीं, चाहे वेदों में, चाहे इंजील में, चाहे कुरान में, चाहे त्रिपीटिक (त्रिपिटक) में, चाहे इस स्‍थान में, चाहे उस स्‍थान में, कहीं भी सोना अच्‍छा नहीं। आलस्‍य मृत्‍यु है। लेख तो पेड़ों के चित्र सदृश्‍य होते हैं, पेड़ तो होते ही नहीं जो फल लावें। लेखक ने यह चित्र इसलिए भेजा है कि सरस्‍वती में चित्र को देखकर शायद कोई असली पेड़ को जाकर देखने का यत्‍न करे।


आदि और अंत


निर्मल वर्मा


 


मैं भारत भवन का आभारी हूँ, जिसने मुझे यहाँ 'अंत और आरंभ' विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया। बाद में जब मुझे बताया गया कि मेरा भाषण अज्ञेय स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत आयोजित किया गया है तो मेरे लिए यह एक प्रीतिकर आश्चर्य था। आधुनिक हिंदी लेखकों में जैनेंद्र के बाद अज्ञेय उन कम लेखकों में थे - शायद अकेले - जिन्होंने समय की भूल भुलैया में प्रवेश करने का जोखिम उठाया था। साहित्य अकादमी की प्रथम संवत्सर व्याख्यानमाला का उद्‍घाटन ही उन्होंने अपने भाषण 'स्मृति के परिदृश्य' के शीर्षक से दिया था। यहाँ आने से पहले जब मैं उसे पुन: पढ़ रहा था तो लगा, कितनी सटीक, सीधी-सादी तार्किक प्रांजलता के साथ उन्होंने भारत और पश्चिम की दो विभिन्न लगभग विपरीत समय की अवधारणाओं का विश्लेषण किया था। 'अंत' और 'आरंभ' केवल समय के दो बिंदु ही नहीं हैं, बल्कि उनके बारे में हमारी क्या धारणा होती है, इससे हमारा समूचा जातीय चरित्र प्रभावित होता है।


आज जब हम बीसवीं शताब्दी के कगार पर खड़े हैं तो पीछे मुड़कर गुजरी हुई राह को देखने का सम्मोहन अधिक प्रबल हो उठता है - किंतु यदि हम अपने लेखे-जोखे के नोट्‍स किसी अन्य सह-दर्शक से लगाएँ, तो कुछ आश्चर्य होगा कि पिछले सौ वर्षों में जो कुछ घटा, उसे हम-दुनिया के लोग-एक ही दृष्टि से नहीं देखते। हम वही देखते हैं, जिसने हमें सबसे अधिक प्रभावित किया है। यहाँ तक कि बासवीं शताब्दी के बारे में भी दो मत एक नहीं हैं। यह सही है कि कलेंडर के आधार पर हम उसका 'आरंभ-बिंदु' निर्धारित कर सकते हैं, किंतु बीसवीं शताब्दी केवल समय की श्रंखला नहीं है, उस श्रंखला के भीतर किन ऐतिहासिक दबावों के कारण मानव-चरित्र में परिवर्तन आया है, उसका मानचित्र भी प्रस्तुत करती है। किंतु मानचित्र का यह खाका क्या उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही आरंभ नहीं हो गया था? यदि मैं आपके सामने बिना किसी सोचे-समझे कुछ नाम रखूँ, जिन्होंने बीसवीं शती की जीवन-दृष्टि और भाव-बोध को मूलगामी ढ़ंग से झिंझोड़ दिया था, तो आपको आश्चर्य होगा, अपने-अपने क्षेत्रों में उन्होंने क्रांतिकारी अवदान (फ्रायड को छोड़कर) उन्नीसवीं शताब्दी में ही संपन्न कर दिया था - मार्क्स ने समाजशास्त्र में, नीत्शे ने दर्शन में, बाद्‍लेयर और मलार्मे ने कविता में, सीजाँ ने चित्रकला में। बीसवीं शती यदि यूरोपिय मनुष्य के आधुनिक भाव-बोध के चमत्कारिक आविष्कारों या अपने 'एस्थेटिक एडवेंचर' द्वारा मानी जाती है, तो यह रचनात्मक उत्थान कलेंडर की तारीख की प्रतीक्षा किए बिना उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में ही आने लगा था।


क्या यह इतिहास का एक शाश्वत रहस्य है कि हम परिवर्तन का परिणाम तभी देख पाते हैं जब उसकी प्रतिक्रिया समाप्त हो जाती है? हम आरंभ पर उँगली रख पाएँ, इसके पहले ही वह व्यतीत चुका होता है, कुछ ऐसे रोगों की तरह जो देह पर तभी प्रकट होते हैं जब भीतर देखने के लिए कुछ भी बचा नहीं रहता? संभव है, ऐसा होता हो शायद ऐसा होता ही है, लेकिन मुझे लगता है, इतिहास हो या मनुष्य की देह, होने वाला परिवर्तन नंगी आँखों से न भी दिखाई दे, तो भी उसकी हल्की-सी भनक मिल ही जाती है। लगता है, हवा में कुछ बदल गया है। हम सहसा एक दिन दुनिया को दूसरी निगाहों से देखने लगते हैं... खुद हमारा अपने से नाता बदल जाता है। वह क्या है, हम नहीं जानते, जो जानते हैं, वह बता नहीं सकते। मेरी स्मृति में वे प्रेम-कविताएँ सबसे अमिट हैं, जब कवि ठीक उस क्षण को शब्द में बदलता है, जब प्रेम का अनुभव होता है, लेकिन वह अभी शब्द में प्रकट नहीं हुआ वह जो हमारे अनुभव में 'आरंभ' बनता है, उसका आरंभ कहाँ होता है, क्या इसके रहस्य को कोई भेद सकता है? रूसी गुड़िया की तरह एक आरंभ के नीचे पता नहीं कितने और आरंभ छिपे रहते हैं।


रहस्य अपनी जगह है, लेकिन इसको भेदने के प्रयास भी कम नहीं हुए हैं। इतिहासकार जब काल की अनंतता का अलग-अलग 'पीरियडों' में वर्गीकरण करते हैं तो बात समझ में आती है वह इतिहासकार कैसा जो विभाजन की कला में पारंगत न हो... किंतु जब साहित्यकार उसमें दखल देने लगें तो उनकी बात सुननी पड़ती है, क्योंकि साधारणतया वे ऐसा नहीं करते। मुझे यहाँ वर्जीनिया वुल्फ का (आप कहेंगे, भला और कौन!) वह असाधारण निबंध याद आता है, जब उन्होंने उपन्यासों में होनेवाले नए परिवर्तनों को लक्षित करते हुए कहा था कि 1910 के आसपास मनुष्य के चरित्र, उसके स्वभाव में ऐसा बदलाव आया है, जो विक्टोरियन युग के उपन्यासों में दिखाई नहीं देता। लेकिन 1910 ही में वह क्यों लक्षित किया गया? अपने एक संस्मरण में वह कहती हैं (जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ) कि उन्हें अब भी वह दिन याद है जब उनके युवा मित्र लिटन स्ट्रेची चाय पर उनके घर आए थे। सोफा पर वर्जीनिया वुल्फ की बहन चित्रकार वैनेसा बेल बैठी थीं| उनकी स्कर्ट पर कोई धब्बा देखकर लिटन स्ट्रेची ने अपनी छड़ी की नोक से इशारा करते हुए कहा - Is it semen? "उस शाम के बाद मुझे लगा", वर्जीनिया वुल्फ लिखती हैं, "हमारे भीतर जमी हुई विक्टोरियन वर्जनाएँ अपने आप झर गई।" जिस शब्द को सभ्य समाज में लोग बोलते हुए झिझकते हैं उसको कोई खुलेआम कह दे, और वह भी दो बहनों के सामने, जिसमें अभी एक अविवाहित थी - यह क्या छोटी क्रांति थी?


किंतु आरंभ और अंत के बिंदु एक जगह टिके नहीं रहते, अपनी जगह बदलते रहते हैं। जो घटना किसी युग का अंत जान पड़ती है, वही कालांतर में किसी दूसरे दौर का आरंभ बन जाती है। मुझे याद है, मेरे छात्रावस्था के दिनों में यह माना जाता था कि उन्नीसवीं शती के संसार का असली अंत प्रथम महायुद्ध की विभीषिका में हुआ। स्टीफेन ज्वायग ने अपनी मर्मस्पर्शी आत्मकथा The World of Yesterday में इसका उल्लेख करते हुए कहा है, कि "उस युद्ध के बाद वह सभ्यता समाप्त हो गई, जिसमें हर चीज की अपनी जगह थी, कुछ मानव-मूल्य चिर स्थायी माने जाते थे, हर मनुष्य की अपनी एक विशिष्ट निर्धारित छवि थी, जिस पर उसके वर्ग के संस्कार छपे रहते थे। रातों-रात सब कुछ बदल गया... लगा, हर चीज कितनी क्षणभंगुर है...जिसे हम यथार्थ समझ बैठे थे, वह कितना बड़ा इल्यूजन था..." स्टीफेन ज्वायग ने जिस संक्राति की कुहेलिका का इतना अंतरभेदी विश्लेषण किया था, उसकी गहरी छाया उन्हीं के शहर वियना में रहनेवाले विटगेंश्टाइन, फ्रायड, राबर्ट म्यूसिल जैसे समकालीन लेखकों के चिंतन पर देखी जा सकती है।


क्या यह सचमुच सभ्यता का अंत था? जब कॉलेज के दिनों में मैं मार्क्सवाद के प्रति आकर्षित हुआ तो हमसे कहा गया कि वह सभ्यता नहीं, एक विशिष्ट समाज की रोगग्रस्त अवस्था थी, जिसका मरण अनिवार्य था.. हमें उस 'नए मनुष्य' को गढ़ना है, जो क्रांति के बाद जन्मा है। और तब हमें पता चला कि बासवीं शती के बाकी सब आरंभ झूठ थे, उसका सही और सच्चा आरंभ तो 1900 में नहीं, 1910 में नहीं 1917 में सोवियत क्रांति से हुआ थी। बीच के वर्षों में इस 'नए मनुष्य' पर क्या बीती, मैं उस कहानी में नहीं जाऊँगा। वह शायद हमारी बीती हुई शताब्दी की सबसे देखद त्रासदी है। लेकिन आज में थोड़ा पीछे मुड़कर देखता हूँ तो आश्चर्य और दुख जरूर होता है कि बीसवीं शती के आरंभ की घोषणा जिस 'नए मनुष्य' के जन्मदिन पर की गई थी, वह उस शती का अंत देखने के लिए बचा नहीं रह सका।


लेकिन क्या वह मनुष्य भी बचा रह सका, जो दूसरे महायुद्ध की खंदकों से निकलकर नई शती के उजाले में आया था? हमें थोड़ा ठहरकर इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए, क्योंकि इसका उत्तर पाने के लिए हमें कोई दूसरा आरंभ बिंदु ढूँढ़ना होगा, जहाँ से यूरोपीय मनुष्य की आधुनिक पहचान बनती है, जिसमें वे सब आरंभ बिंदु शामिल हैं, जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है।


आपके सामने शायद यह स्पष्टीकरण करना जरूरी नहीं है, कि यहाँ मैं फिलहाल यूरोपीय मनुष्य की बात कर रहा हूँ - मनुष्य मात्र की नहीं। उन परंपराओं में जन्में मनुष्य की नहीं जो एक भिन्न किस्म के कालबोध में अपनी दुनिया और अपने 'आत्म' की छवि बनाता है। और यदि ज्यादा सफाई से कहूँ तो यूरोपीय मनुष्य की भी उतनी नहीं, जितनी मनुष्य के उस विशिष्ट व्यक्तित्व की, जिसके 'पर्सोना' का अवतार मध्यकाल की समाप्ति और जिसे इतिहासकार यूरोप का नवजागरण युग कहते हैं, उसके आरंभ होने पर प्रकट हुआ था। मैं जान-बूझकर 'प्रकट होने' शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ, ताकि आप यह न भूलें कि हर संस्कृति के कुछ स्थायी बिंब अवश्य होते हैं, किंतु हर इतिहास परिवर्तन के नीचे इन बिंबो का सम्मिश्रण (configuration) बदलता रहता है, जिससे उसका एक नया रूप बनता है, जो अपने में स्थायी नहीं है-इसलिए मैंने उसके लिए 'पर्सोना' का शब्द उपयुक्त किया है। एक तरह का मुखौटा जो चेहरे की स्थायी पहचान नहीं हैं। यहाँ यह शब्द एक अतिरिक्त महत्व प्राप्त कर लेता है क्योंकि पिछले चार सौ वर्षों में जिस यूरोप ने अपने बाहर फैली जिन गैर-यूरोपीयन, गैर-ईसाई सांस्कृतिक परंपराओं - जिनमें भारतीय परंपरा सबसे प्रमुख रही है - को प्रभावित किया, तोड़-फोड़ा, बदला, या कही-कहीं, जैसे लातिन अमरीका में, उनको पूर्णतया नष्ट कर दिया - उसमें यूरोपीय मनुष्य के इस नए रूप या पर्सोना ने सबसे निर्णायक भूमिका अदा की थी। किंतु यह स्वीकार करते हुए भी मैं आपको थोड़ा सचेत कर देना चाहता हूँ कि आप यूरोप के इस आक्रामक तेवर को देखकर उसके आत्म-सशंकित, उद्‍भ्रांत, रोमांटिक, वल्नेबल पक्ष को न भूल जाएँ, जो हमें उसके कला, संगीत और साहित्य में इतना उद्वेलित करता है। शेक्सपीयर के रक्त-रंजित चेहरों के पीछे कितने आँसू छिपे रहते हैं, कौन नहीं जनता। हम चाहें तो कह सकते हैं, कि वह यूरोप का 'दूसरा चेहरा' था या उसी चेहरे का दूसरा पक्ष, द अदर साईड ऑफ यूरोप। इस बात का ध्यान रखना इसलिए भी जरूरी है कि आज हम भारतीय जब अपने 'आधुनिक युग' के आरंभ की बात करते हैं, वह चाहे जहाँ से भी शुरू हुआ हो, वहाँ हमें यूरोप के इन दोनों पक्षों का सामना करना पड़ेगा...गलत नहीं होगा यदि मैं कहूँ, कि अपने को जाँचने के लिए जैसे हम आज हैं, यूरोप के इस अंतर्विरोधी, संश्लिष्ट मानस को जानना जरूरी होगा।


हम स्टीफेन ज्वायग की आत्म-कथा की बात कर रहे थे... उन्होंने यूरोपीय मनुष्य की असुरक्षित, अस्थायी अवस्था की ओर संकेत करते हुए कहा था कि पहली बार उन्हें एक revelation सा हुआ, कि जिन चीजों मूल्यों और भावनाओं को हम 'श्वाश्वत' मानकर चलते हैं, वे कितनी नाजुक, कमजोर नीवों पर आधारित होती हैं... जरा-सा झटका खाते ही वे भरभारकर टूट जाती हैं।


अस्थायीपन सिर्फ वह अवस्था नहीं है जब पैरों तले की जमीन खिसकती दिखाई देती है, किंतु वह डाँवाडोल स्थिति भी है जब मनुष्य को अपने भीतर का संसार - जिसे हम उसका 'सेल्फ' कहें तो बेहतर होगा-वह भी अपनी चूल से डिगता जान पड़ता है। मनुष्य को अपने भीतर सहसा दो अंतर्विरोधी-सी दिखने वाली 'सेंसेशंस' का अनुभव होता है, एक तरफ वह अपने को बहुत हल्का, बोझ हीन, स्वतंत्र, समस्त पुरानी घीसी-पिटी परिपाटियों से मुक्त महसूस करता है - एक वर्जना मुक्त मनुष्य - जिनकी ओर वर्जीनिया वुल्फ ने संकेत किया था, दूसरी ओर उसे लगता था कि वह जो स्वतंत्र और मुक्त है - उसका मैं - आप उसे उसका अहम या ईगों, कुछ कह सकते हैं - वह अपने में ही हर क्षण बदलता, फिसलता, एक स्थायी अस्थिरता में जीता 'जीव' है, जिसकी अपनी परंपरागत पहचान तो लुप्त हो चुकी है, किंतु नई अस्मिता बन नहीं पाई है। येट्‍स ने जिसे बाहरी दुनिया का संकट कहा था, मनुष्य अब उसे अपने भीतर यथार्थ में जीने लगता है-'between two worlds, one dead the other powerless to be born.' एक समय में जो सामाजिक और धार्मिक संस्थाएँ उसे एक 'स्वत्व' का मालिक बनाती थीं, वे इतना धूमिल, भ्रामक, प्रपंचपूर्ण बन गई थीं कि वे उसका 'निजत्व' छिपाती अधिक थी, दिखाती कम थीं और जब हम उन्हें भेदकर उसके निज के अंदरूनी यथार्थ में प्रवेश कर भी पाते थे, तो पाते थे कि यथार्थ तो है, लेकिन उसका कोई केंद्र-बिंदु नहीं, कोई ऐसा वस्तुपरक निकष नहीं है, जिसकी कसौटी पर उसे नापा जा सके... क्या सच है, क्या झूठ, क्या टिकनेवाला है, क्या वह है, जो मिटने वाला है... एक ऐसा यथार्थ जिसे हम सही अर्थ में यथार्थ नहीं कह सकते, क्योंकि उसे अ-यथार्थ से अलग करना असंभव होता जाता है।


तो क्या हम मान लें, कि मनुष्य की अपनी कोई अखंडित, इंटीग्रल इयत्ता नहीं... कोई संपूर्ण इमेज नहीं, जिसे एक फ्रेम में जड़ा, पकड़ा जा सके.... वह सिर्फ बहते, मिटते, बदलते प्रभावों, इम्प्रेशंस, अनुभूतियों का पुंज-मात्र है? मनुष्य के इस विखंडित, विश्रंखलित, केंद्रहीन 'व्यक्तित्व' (यदि इसे व्यक्तित्व कहा जा सके) को जानने की एक ऐसी क्रांतिकारी शुरुआत थी, जिसने यूरोपियन उपन्यास के समूचे कथ्यात्मक ढाँचे को ही हिला दिया था। यदि यह बात सच है कि उपन्यास ने आधुनिक मनुष्य के भीतर होने वाले परिवर्तनों को वैसे ही पूर्वानुमानित (anticipate) किया है, जैसे कुछ जानवर आँधी आने से पहले उसके आसारों को हवा में सूँघ लेते हैं, तो प्रूस्त, जायस, वर्जीनिया वुल्फ के उपन्यासों में यूरोपीय मनुष्य के खंडित आत्मबिंबो की पूरी एक पोर्टरेट गैलरी दिखाई देती है। रेनेसाँ से उन्नीसवीं शताब्दी तक मनुष्य ने जो अपने अपने आत्मकेंद्रित सेल्फ की प्रतिमा बनाई थी, वह दॉस्तोएवस्की से गुजरते हुए हमारे समय तक आते-आते कितनी आहत और लुंज-पुंज हो गई थी, यह उपन्यास उसका जीता-जागता दस्तावेज हैं। क्या मनुष्य के अंदरूनी यूनीवर्स के बारे में प्रूस्त की खोज आइंसटाईन की अंतरिक्ष खोज से कम महत्त्वपूर्ण थी... यदि इन उपन्यासों का कोई एक समान शीर्षक देना चाहे तो शायद वह होगा-आत्म से निष्कासित मनुष्य की गाथा....


मनुष्य की अपनी सेल्फ से विदाई, इसे आरंभ कहें या अंत? यहाँ अंत अर्थ अंग्रेजी शब्द एंड के श्लिष्ट अर्थ 'लक्ष्य' या 'उद्‍देश्य' से भी किया जा सकता है। जब मनुष्य की 'बुनियादी' छवि ('बुनियादी' केवल व्यावहारिक अर्थ में, क्योंकि कौन-सी छवि मनुष्य की प्राथमिक है - आपकी शब्दावली में कहें, कौन-सी ओरीजिनल है और कौन-सी प्रिंट - कहना असंभव है। शायद आत्यांतिक शब्द बेहतर है) - जब उसे अपनी 'आत्यांतिक छवि' पर ही संदेह होने लगता है, तो उसके 'अंत' की अवधारणा में भी अंतर आता है। जब मनुष्य एक जादूगर की तरह अपने 'आरंभ' (origin) के बारे में एक 'मायालोक' रचता है, वह चाहे कितना संदिग्ध और छलनामय क्यों न हो, वह स्वयं अपने 'अंत' का भी एक सुरक्षा-स्थल खोज लेता है, वह चाहे कितना ही काल्पनिक क्यों न हो (ईसाई-यहूदी परंपरा में इसकी एक सुसंगत परिपाटी रही है, जिसकी चर्चा मैं बाद में करूँगा) किंतु जब किन्हीं ऐतिहासिक दबावों तले यह भ्रमलोक टूटता है तो मनुष्य अपने को दोबारा वहीं पाता है, अपनी अकेली अनाथावस्था की ठंड में ठिठुरता हुआ, तार को वस्की की फिल्म स्टाकर के पात्रों की तरह, जो एक लम्बी सुरंग से बाहर आकर जब चैन की साँस लेते हैं, तो हठात पाते हैं, कि वे उसी सुरंग के मुँह पर खड़े हैं, जहाँ से भीतर गए थे। ऐसी अवस्था में आत्म-विश्वास का आखिरी संबल भी छूट जाता है, जो 'ईश्वर' से विलगित होकर उसके पास बचा रह गया था-उसका अपना 'मैं', उसका सेल्फ, उसका आत्म। इससे दारुण विडंबना क्या होगी कि मनुष्य यह तो जानता है कि वह किन परंपराओं, परिपाटियों से मुक्त हुआ है, किंतु स्वयं उस सेल्फ के बारे में आश्वस्ति खो बैठा है, जिसकी मुक्ति के लिए वह स्वतंत्र होना चाहता था। अब उसका 'अंत' भी धूमिल और संशयग्रस्त बन जाता है, वह उसकी बनाई हुई 'नियति' को उजागर नहीं करता - एक लक्ष्य हीन मनुष्य - जो अपनी विवेक-मेधा को छोड़कर दूसरों द्वारा निर्मित लक्ष्यों पर गुजारा करने को विवश होता है। जब मनुष्य के अपने भीतर का देवता मर जाता है, तब वह 'झूठे' देवताओं की शरण में जाता है।


यह बात हमें दूसरी जगह ले जाती है जहाँ हमें यूरोपीय मनुष्य के सबसे विकट विरोधाभास का सामना करना पड़ता है। यूरोपीय संस्कृति, जो अपने वैज्ञानिक चमत्कारों और ज्ञान-प्रसार के आसीम साधनों द्वारा जानी जाती है, वह अपने बुद्धि-वैभव के ही कारण। तर्क, विवेक, ज्ञान, क्रिटिकल रीजन, रैशनेलिटी की जो मेधा यूरोप में प्रस्फुटित हुई थी, जिसने अपने ईर्द-गिर्द पूरी एक पश्चिमी सभ्यता का निर्माण किया था, उसी यूरोप के हृतस्थल में ऐसी मानव-विरोधी विचारधाराओं का जन्म हुआ, जो उसकी समस्त बौद्धिक परंपराओं का उपहास और तिरस्कार करती थीं ऐसा कैसे संभव हो सका?


क्या यह सिर्फ एक भूल थी, रजनीतिक अदूरदर्शिता का फल, आर्थिककारणों का परिणाम, अथवा बीमारी कहीं अधिक गहरी और संघातक थी, जो स्वयं यूरोपीय संस्कृति के भीतर से उत्पन्न हुई थी, स्वयं 'मनुष्य' की अवधारणा से जुड़ी हुई थी? क्या यह सिर्फ संयोग था कि यूरोप जो पश्चिमी सभ्यता का मुख्य प्रेरणा-स्रोत और बौद्धिक नवोत्थान (enlightenment) का ज्वलंत प्रतीक था, जिसमें एक तरह से एक पूरे बौद्धिक अभियान (age of reason) की शुरूआत हुई थी, वहीं यूरोप दो महायुद्धों के नर-संहार, जेनोसाईड, गुलग, यातना-गृहों के लिए भी उत्तरदायी ठहराया जाए? सभ्यता के गौरव-शिखर पर अभूतपूर्व बर्बरता का विस्फोटन, जिसका उदाहरण इतिहास में मिलना असंभव है, इसलिए नहीं कि विनाश और हिंसात्मकता कभी पहले नहीं हुई थी, बल्कि इसलिए कि स्वयं बुद्धि, rationality, ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों के बौद्धिक ढाँचे के बीच बर्बरता का यह अंधकार कुछ वैसा ही अप्रत्याशित जान पड़ता है, जैसे चमकते सूर्य के बीच काला सुराख दिखाई दे जाता है। कहीं यह सुराख यूरोपीय 'रेशनेलिटी' के बीच ही तो नहीं कीड़े की तरह छिपा था? बुद्धि और बर्बरता के बीच पर्दा कितना झीना होता है - वह कभी-भी फट सकता है - जो नीचे दबा है, वह कभी भी ऊपर आकर समूची सभ्यता के आवरण को हटाकर मनुष्य को एक ऐसे यथार्थ से साक्षात् करा सकता है, जिसके अस्तित्व से वह बेखबर तो नहीं था, किंतु जिससे वह आँख मिलाने का साहस नहीं जुटा सकता था।


कैसा था वह यथार्थ? मैं समझता हूँ, वह मनुष्य के संपूर्णत्व का बोध था, जिसे यूरोपीय मानस ने 'आधुनिक' होने की लम्बी प्रक्रिया में अपनी विस्मृति में फेंक डाला था क्योंकि प्रगति, विकास और वैभव के रास्ते पर वह बोध ही उसका सबसे बड़ा शत्रु, सबसे बड़ा व्यवधान, सबसे घातक कंटक था। आधुनिकता की बलिवेदी पर अपने 'संपूर्णत्व' को चढ़ाकर ही वह एक स्वतंत्र व्यक्ति बनने का वरदान पा सकता था। यह एक तरह से चेतना का 'चढ़ावा' बुद्धि की वेदी पर था। किंतु देवी से जो वरदान मिला था, उसमें प्रसाद के कण भी थे - जो उस पर चढ़ाए गए थे - जैसा अक्सर होता है ये मनुष्य की चेतना में तब भी धड़क्कते हैं, जब ऊपर बुद्धि का वैभव अपराजेय दिखाई देता है। अपने खोए हुए संपूर्णत्व की स्मृति के कण्। मनुष्य अब एक ऐसी विभाजित स्थिति में जीने के लिए अभिशप्त है, जहाँ वह न एक का हो पाता है, न दूसरे का, रात के अँधेरे में वह अपना 'प्राकृतिक' जीवन जीता है, जो कभी उसका था, दिन के उजाले में वह अपना सभ्य जीवन बिताता है, जिसमें वह खुद अपने को अजनबी पाता है। आधुनिक यूरोपीय मनुष्य की भविष्य-रेखा पहली बार एक ऐसे ही आत्मसशंकित, आत्मविभाजित व्यक्ति की हथेली पर उजागर हुई थी। आज अक्सर इतिहास के अंतकी, आइडियोलॉजी के अंत की, यहाँ तक कि कला के अंत की भविष्यवाणियाँ की जाती हैं। मुझे नहीं मालूम, उनमें कितनी सच्चाई है, किंतु मुझे लगता है, ये सब अंत अगर सच है, तो 'व्यक्ति' के अवसान से जुड़े हैं, जिसने इतिहास के आतंक और आइडियोलॉजी के ज्वर को अपनी नंगी त्वचा पर झेला था, उसके अद्वीतीय असाधारण अनुभव को अपनी अवसादपूर्ण कला में अभिव्यक्त किया था। यूरोपीय साहित्य एक अर्थ में इसी 'संपूर्णबोध' के विस्मृत हो जाने का विलाप गीत माना जा सकता है। किंतु जो विस्मृत है, वह मृत नहीं हो जाता; एक बार जो अनुभव हो चुका है, वह हमेशा बना रहता है, जीवन में नहीं तो स्मृति में, नींद में, स्वप्न में, अवचेतन में। यदि इतिहास उसे अपने छद्‍अम उजाले से निष्कासित कर देता है तो वह आत्मा के अंधेरे में - जो असली है - शरण पा लेता है। काफ्का ने कहा था, हमारे सबसे मधुर गीत हमारे भीतर नीचले, दबे, गुह्मातम नरक से बाहर आते हैं - एक ऐसी विस्थापित आत्मा की पुकार, जो हमें बीथोवन के अंतिम क्वाट्रेट्‍स में रिल्के और होल्डरलिन की कविताओं मे, टामस मान के अभिशप्त कलाकार-नायकों की गाथाओं में सुनाई देती है। हर युग अपने पद चिन्ह दूसरे युग की आत्मा में लहूलुहान खरोंचों की तरह छोड़ जाता है।


यह कौन से युग की विदाई का गीत था? किसका अंत? मुझे लगता है, युग से अधिक वह एक विशिष्ट भावबोध - सेंसीबिलिटी - का अवसान था, जिसे इतिहाकार प्राय: मध्य युग कहकर एक खास काल-खंड में डाल देते हैं। उसे हम वह भाव बोध भी कह सकते हैं, जो 'आधुनिकता' के आक्रामण से पहले यूरोप में जीवित था - पूर्व आधुनिक काल। किंतु शायद उससे भी सही और सार्थक नाम वह होगा जो इतिहास के काल खंडों से मुक्त होकर खुद अपनी 'स्पेस' निर्धारित कर सके। मैं उसे मधयकाल की कोटि से उठाकर 'परंपरा की स्पेस' में लाना चाहूँगा। यह इतिहास का ऐसा निर्णयक मोड़ था, दो रास्तों का बॉर्डर पोस्ट, जिस पर जो निर्देशन तख्ती लगी थी उस पर दो तीरों के निशान खुदे थे - दो विपरीत दिशाओं की ओर निर्देश करते हुए - एक परंपरालोक की ओर मुड़ता हुआ, दूसरा आधुनिक संसार की ओर जाता हुआ। पहले संकेत के आगे लिखा था - परंपरालोक, जिस पर ईशवर का राज्य है - Kingdom of God, दूसरा, मनुष्य लोक, जिसमें व्यक्ति सर्वेसर्वा है। यह वह सीमा रेखा थी, जहाँ मनुष्य की संस्कृति में पहली बार लौकिक और अलौकिक के बीच फाँक पड़ी थी।


अगर आप ज्यादा ध्यान से सोचें, तो आपको कुछ आश्चर्य होगा कि यह 'सीमा-विभाजन' - मनुष्य के मानस को दो खंडों में विभाजित करने की घटना - जिसने यूरोप की संस्कृति को आधुनिकता की दोहरी पर लाकर खड़ा कर दिया था - कोई बहुत पुरानी नहीं है। मुश्किल से चार-पाँच सौ साल पुरानी, जो भला मनुष्य की सुदीर्घ यात्रा में क्या महत्व रखती है? लेकिन जरा देखिए, मनुष्य की वर्तमान प्रतिमा को गढ़ने में वह इतनी अधिक समर्थ रही कि आज वह सनातन प्रतिमा लगती है जैसे 'मनुष्य' हमेशा से ऐसा ही था, दुनिया की विभिन्न परंपराओं में गढ़ी मनुष्य की मूर्तियों को मिटाकर आज वह एक मॉडल मूर्ति की तरह कायम है। यदि आज आप किसी से कहें कि आधुनिक मनुष्य का यह व्यक्तिनुमा मॉडल, जिसे आज आप देखते हैं, चार सौ साल पहले यूरोप में नहीं पाया जाता था, तो वह आपकी बात हँसी में टाल देगा और यदि आप उससे कहें कि आज भी कुछ ऐसी संस्कृतियाँ, परंपरागत समाज हैं, जहाँ मनुष्य कुछ दूसरे ढाँचे में ढला है, जिसकी स्मृतियाँ और संस्कार कुछ दूसरे मिट्टी-गारे के बने हैं - हालाँकि देखने-सुनने में वह पेरिस-न्यूयार्क में चलते मनुष्य की तरह ही दिखता है, जो 'आज' के मनुष्य की छवि से बहुत अलग है, किंतु उनकी शक्ल-सूरत मनुष्य जैसी है - तो उसे विश्वास होगा या नहीं, आश्चर्य जरूर होगा।


कुछ संस्कृतियों के इतिहास में ऐसे मर्मघाती परिवर्तन आते हैं जो मानव इतिहास में भले ही बहुत 'ब्रेक थ्रू' माने जाएँ मनुष्य की मनीषा में एक फाँक-सी खींच जाते हैं। मध्य युग का अंत कुछ ऐसा ही था - एक पारंपरिक परिवेश में जीनेवाले मनुष्य की आस्थाओं का विघटन। हमने उसे ऊपर 'ईशवरीय लोक' (Kingdom of God) कहा था, सो इसलिए नहीं कि वहाँ ईश्वर वास करता था, मनुष्य जब भी उसके विलगाव के मरुस्थल में जीता था, बल्कि इसलिए कि वह अभी वह उसके सानिध्य-भाव को भूला नहीं था, उसे लगता था, ईश्वर चला तो गया है लेकिन बहुत दूर नहीं गया है, इतनी दूर नहीं गया है जहाँ मनुष्य की आवाज उस तक और ईश्वर का संदेश मनुष्य तक न पहुँच पाए, मनुष्य अब भी 'ईश्वरीय संरक्षण' के नीचे जीता था, इसलिए सुखी न भी हो, आधुनिक मनुष्य की तुलना में अपने को कहीं सुरक्षित महसूस करता था। आप इसे एक अंधविश्वास कह सकते हैं - कहते ही हैं - लेकिन जब सारे अंधविश्वास एक सुसंगत श्रंखला में जुड़ते हैं, तो वे अंधे हों, न हों, एक गहरी सांस्कृतिक अर्थवत्ता प्राप्त कर लेते हैं। यह अर्थवत्ता मनुष्य की 'रेशनेलिटि' को काटती नहीं, लेकिन उसके कटघरों में बंदी भी नहीं है, किसी समाज को रचने का दंभ भी नहीं करती, वह उसमें रहती है, जो पूर्व-प्रदत्त है, मानव-निर्मित नहीं। यह पूर्व-प्रदत्त दुनिया ईश्वर के नियमों पर चलती है - एक डिवाईन ऑर्डर में - जो 'अलौकिक' होकर भी लौकिक व्यवहार को पवित्रता प्रदान करते हैं। डिवाइन ऑर्डर रेशनेलिटी के तर्क-विधान पर नहीं, बिंबो और प्रतीकों की संरचना करता है-प्रतीक, जो इस दुनिया के होते हुए भी दूसरी दुनिया को निरंतर अपने में प्रतिबिंबित, प्रतिध्वनित करते रहते हैं। यह अकारण नहीं है, कि आनंद कुमार स्वामी आरम्भिक क्रिश्चियन कला और मिस्टिक-चिंतकों-भक्तों को भारतीय कला के इतना निकट पाते थे। भारतीय कला पर मनन करते हुए वह अक्सर मध्यकालीन यूरोप के दृष्टांतों को सामने रखते थे। दोनों संस्कृतियों के बीच बहुत-सी असमानताएँ थीं, लेकिन जो एक चीज समान थी, वह मूल्यवान थी - दोनों ही परंपरालोक के आलोक मंडल में रहती थीं, इस विश्वास के आधार पर रहती थीं केवल 'प्रतीकात्मक भाषा' में ही संपूर्ण सत्य ultimate reality, को जाना जा सकता है। ऑडेन प्रतीकों को अंधे की छड़ी कहा करते थे, जिसके सहारे वह अपना रास्ता टोह लेता है, कुछ वैसी ही भूमिका वे परंपरागत मानस में भी अदा करते हैं - मनुष्य लोक के चौराहे पर ईश्वर की दशा की ओर निर्देश करते हुए। कोई चौराहा ऐसा नहीं था जिसके केंद्र में ईश्वर की अनुभूति अनुपस्थित हो। किंतु सबसे उल्लेखनीय बात, जो इस 'परंपरालोक' को आधुनिक समाज से अलग करती थी, वह यह कि मनुष्य वहाँ सृष्टि के केंद्र में न होकर समूची सृष्टि को अपने केंद्र में - जो उसका आत्म था - लेकर जीता था। ब्रह्मांड में पिंड-मात्र, किंतु पिंड में ब्राह्मांड झलकता हुआ, जिसके आलोक में समूचा संसारी कार्य-कलाप एक दैवी कृपा divine sanction, प्राप्त कर लेता था। मनुष्य का जीवन इस धरती पर क्षणभंगुर भले ही हो, उसे अपने कर्म का दायित्व-बोध इसी 'सैक्शन' से प्राप्त होता था, जो मृत्यु के बाद भी सनातन रहता था, इसलिए सनातन परंपराओं में उसे धर्म बोध माना गया। वह एक ऐसी अखंडित संपूर्ण समदृष्टि से आप्लावित था, जो भारतीय अथवा यूरोपीय परंपराओं में आबद्ध न होकर मनुष्य मात्र के भीतर प्रवाहित होती थी। वहाँ प्रश्न यह नहीं था, किस 'धर्म' में कौन-सा ईश्वर पूजा जाता है, प्रश्न अगर पूछा जाता था तो यह कि वह ख्याल कहाँ से आता है, जिसके आगे माथा झुक जाता है। यह 'ख्याल' अगर यूरोप में दांते की डिवाईन कॉमेडी, मिस्टिक संतों की वाणी, एक हार्ट के चिंतन में ध्वनित होता था, तो भारत में तुलसी, मीरा, तुकाराम और कबीर काव्य-कर्म में भी उज्ज्वल होता था, क्योंकि दोनों ही की काव्य-परंपराओं में अभी तक आत्म का अन्य से दृश्य का अदृश्य से, आकार का निराकार से विच्छेद नहीं हुआ था। इसलिए वहाँ 'ईश्वर' की परिभाषा भी आज के ईश्वर से कुछ भिन्न थी, जिसकी सुंदर व्याख्या सिमोन वेल ने उपनिषद को उद्धृत करते हुए दी है। वह लिखती हैं, 'ईश्वर वह नहीं है, जो शब्द में गोचर होता है, बल्कि वह है, जिससे शब्द गोचर होता है, ईश्वर वह है जिसके द्वारा हर चीज गोचर होती है किंतु जो चीज किसी से गोचर नहीं होती, वह संकेतक द्वारा चिह्नित अंक नहीं है, किंतु 'वह' है, जिसके द्वारा सही अंक चिहिन्न किए जाते हैं।"


क्या यहाँ हम एक क्षण ठहरकर सोच सकते हैं, कैसे चिह्नित अंकों का यह 'प्रतीक लोक', जिससे एक समय में लाखों लोग जीने-मरने का अर्थ प्राप्त करते थे-एकाएक चरमरा कर ढह गया? यह भी एक अंत था या कहें यह भी एक तरह के मनुष्य का अन्त था। रेनेसा से यूरोप के 'उत्थान' का एक नया युग आरंभ होता है, इसकी गौरवगाथा तो बहुत गाई जाती है, किंतु उसकी इमारत के नीचे कितने विश्वासों के आस्थाओं अंतर्दृष्टियों की अस्थियाँ दबी हैं, क्या कोई इसकी कल्पना कर सकता है? आज हमें उसके अवशेष जरूर दिखाई देते हैं-गिरजे, ईसाई मठ, मिशनरी संस्थाएँ-वे अमेरिका के उन रिजर्वेशन फार्मस की याद दिलाते हैं, जहाँ इडियन कबीलों के बचे-खुचे लोगों को प्रदर्शन के लिए रखा जाता है, ताकि हम यह जान सकें कि एक समय ये आदिवासी ही इस धरती के असली निवासी थे। किंतु आज आपको लुप्त लोक के निवासी कहाँ मिलेंग, जहाँ 'ईश्वरीय बोध' धर्म प्रतिष्ठानों में, सामान्य जन-मानस में, उसकी मांस-मज्जा में रचा-बसा था? यह एक या दो विश्वासों का नहीं, यह आस्था पर आधारित पूरे एक सांस्कृतिक लोक का विस्मृति में चले जाना था।


खंडहरों के बीच जो बचा रह गया था, वह 'ईश्वर' था, किंतु क्या यह वही ईश्वर था, जिसे हमने उपनिषद के उपयुक्त उद्धरण में देखा था? खुद अगोचर होता हुआ भी सृष्टि को गोचर होता हुआ, समूची सृष्टि के आकार को अपने अनाकार से चमकता हुआ - दोनों के बीच भेद गिराता हुआ। मुझे डर है, वह 'ईश्वर' भी अब उतना ही अपने घर से निर्वासित था, जितना मनुष्य। किसी समाज के प्रतीक-मंडल में ही एक विशिष्ट ईश्वर का आवास होता है, ज्यों ही किन्हीं कारणों से वह प्रतीक-योजना छिन्न-भिन्न होती है, ईश्वर की छवि धूमिल पड़ जाती है, रहता वह अब भी है, किंतु अब समूची सृष्टि की जगह वह एक विशिष्ट धर्म-प्रतिष्ठान, एक विशिष्ट थियोलोजिकल आइडियोलॉजी का संरक्षक, देवता, दाता बनकर। क्या क्रिश्चियन मिस्टिक संतों का ईश्वर वही था, जिसकी प्रतिमा बाद में रोमन चर्च और वेटिकन ने अपने भव्य गिरजों में स्थापित की थी? दांते ने डिवाईन कॉमेडी में जिस ईश्वर की परिकल्पना की थी, उसका संत आगस्ताईन के Kingdom of God से दूर का नाता भी नहीं था; एक में ईश्वर का ख्याल था, जो कविता में आया था, दूसरे में धर्म की आइडियोलॉजी थी, जिसने कैथोलिक चर्च को जन्म दिया था। यह इतिहास में जन्मा ईश्वर था। उन्नीसवीं शती के छोर पर जब नीत्शे ने ईश्वर के मरण की घोषणा की थी वह यही ऐतिहासिक ईश्वर था। एक तरह से वह उस समूची ईसाई-यूरोपीय परंपरा को चुनौती देना था, जिसने उसकी ऐतिहासिक छवि को यूरोपीय अंतरिक्ष में अंकित किया था।


ईश्वर की छवि बनंती कैसे है? वह बनती नहीं, बनाई नहीं जाती, हर संस्कृति उसे अपने भीतर से उद्‍घाटित करती है वह अवधारणा नहीं, अवतार, है... सृष्टि और मनुष्य के बीच अवतरित होता हुआ वह अपना वैसा ही बिंब, इमेज, रूप सिरजता जाता है, जैसे मनुष्य प्रकृति या सृष्टि के साथ जुड़ता जाता है, या उससे अलग दिखता जाता है। इसलिए उसका एक रूप नहीं है। इसीलिए हमें भारतीय परंपरा में दी गई ईश्वर की परिकल्पना उससे इतनी भिन्न दिखाई देती है, जो उसका रूप हमें यहूदी-ईसाई परंपरा में दिखाई देता है। ईश्वर के एक विशेष बिंब-मंडल में हमें मनुष्य संस्कृति का विशिष्ट चरित्र उद्‍घाटित होता दिखाई देता है...


खास इस बिंदु पर 'आरंभ' की अवधारणा एक ऐतिहासिक महत्तव प्राप्त कर लेती है। मनुष्य यदि किसी स्वर्ग-वाटिका - Garden of Eden - से निष्कासित होकर ही इस धरती पर आया था, जो उसका पतन था, तो यह धरती भी उसके पाप से दूषित हो जाती है। उसका धरती पर आना ही ईश्वर से दूर होना है। यदि मनुष्य का इतिहास 'गिरने से आरंभ होता है तो उसका उठना उद्धार होना भी एक ऐसे आदर्श स्वर्गीय लोक में ही हो सकता है, जो हू-ब-हू न सही, कुछ वैसा हो, जिससे वह निष्कासित किया गया है, जहाँ कभी वह सुरक्षित और सुखी था, किसी भी पाप-बोध से मुक्त था। अगर वह वापस मुड़कर अपनी मिथकीय वाटिका में नहीं जा सकता, तो इस लौकिक समय में, जो इतिहास ने उसे प्रदान की है, अपने खोए हुए सुरक्षा-स्थल को प्राप्‍त तो कर सकता है। एलियट ने कहा था, मेरे अंत में ही मेरा प्रारंभ है... संस्कृति के आरंभ में उसका अंत निहित रहता है... दोनों बिंदु एक ही परंपरा-संस्कार से उपजते हैं। क्या मनुष्य के समस्त परिकल्पित सेक्यूलर यूटोपिया एक तरह से उस खोए हुए 'पैराडाइस' को पुननिर्मित करने की आकांक्षा नहीं है? एक ऐसे अंत को पाना, जो उसे उस आरंभ से मिला दे, जहाँ से वह स्खलित हुआ था ! और यदि इस आकांक्षा के पीछे इतिहास की शक्ति भी सक्रिय तो क्या मनुष्य का वर्तमान ही बीच का रोड़ा नहीं है, एक व्यवधान जिसे कुचलकर ही आकांक्षित भविष्य पाया जा सकता है? विरोधाभास यह है कि जो ज्ञान-इतिहास बोध-मनुष्य को निषिद्ध फल खाने से प्राप्त हुआ था, वही उसकी आकांक्षापूर्ति का सबसे कारगर साधन बनकर प्रस्तुत होता है - कुछ वैसे ही जैसे एक रात अचानक मेफिस्टोफिलिस फाउस्ट के अध्ययन कक्ष में प्रकट हुआ था? इतिहास की पाप-भूमि से स्वयं इतिहास का हाथ पकड़कर उबरना-क्या यह अपने में त्रासद विडंबना नहीं है।


भारतीय परंपरा यदि अपने को इस दुष्चक्र से पतन और उद्धार (fall and redemption) की त्रासद प्रक्रिया से मुक्त रख सकी तो इसलिए कि वहाँ 'आरंभ' और 'अंत' किसी खास ऐतिहासिक बिंदु पर अंकित नहीं किए जाते। यह नहीं कि उसमें मनुष्य के सृजन (creation) और अंत की परिकल्पनाएं नहीं हैं, किंतु वे ईश्वर और मनुष्य के बीच किए अनुबंध से, या उसे अनुबंध से, या उसे अनुबंध से, या उसे भंग करने के अपराध-बोध से उत्पन्न नहीं होतीं। इसीलिए भारतीय मानस पर, संस्कृति के बिंबो पर, कला और साहित्य के भावनात्मक जगत पर संस्कृति के बिंबों पर, कला और साहित्य के भावनात्मक जगत पर 'आरंभ' और 'अंत की अवधारणाएँ उस तरह का ऐतिहासिक हस्तक्षेप नहीं करतीं, जैसा हम पश्चिम की ईसाई-यहूदी परंपरा में देखते हैं। पश्चिमी परंपरा में यह विचार असंभव लगता है, कि समय का आरंभ उतना ही आरंभहीन हो सकता है, जितना उसका 'अंत' अंतहीन। चूंकि मनुष्य का अपना जीवन जन्म और मृत्यु के बीच सीमित है, वह हर प्रवाह की अनंतता को नकारते हुए उसे आरंभ और अंत के बीच आबद्ध करने को व्याकुल रहता है। विराट और असीम की रहस्यमयता में 'मनुष्य'को देख पाना, जैसा कि हम वैदिक ऋचाओं अथवा पौराणिक कथाओं में देखते हैं, एक बात है। किंतु उसकी अनंतता से आतंकित भी हुआ जा सकता है। आतंक से छुटकारा तभी पाया जा सकता है, जब असीम को इतिहास के आदमकद चौखटे में वर्गीकृत किया जा सके। ईश्वर को मनुष्य के रूप में अथवा मनुष्य को ईश्वर की इमेज में घटाने के पीछे भी यही कामना कार्यरत रहती है।


मिथक और इतिहास के बीच जो अंतर है, एक तरह से वह पश्चिमी संस्कृति और भारतीय परंपरा के बीच भी परिलक्षित होता है। इतिहास अपने चौखटों के भीतर काल की अंधी, अंतहीन गतिमयता को बाँधने का प्रयास है ताकि उसे किसी प्रकार की क्रमशीलता, सोद्‍देश्यता, अर्थवत्ता प्रदान की जा सके - अपने ज्ञान के मापदंड से वह उसकी अनंतता को भेद कर कहता है, यह आरंभ है, यह अंत और इस तरह उसे एक मानवोनुकूल, anthropomorphic, दिशा देने का प्रयत्न करता है, उस 'अंत' की ओर मोड़ता हुआ जहाँ उसका कोई अर्थ, कोई पैटर्न, कोई संगति निकल सके - और उसके अनुरूप मनुष्य अपनी 'नियति' (destiny), निर्धारित कर सके। इसी अर्थ में उसे messiahanic time जाता है-जहाँ किसी मसीहा की दृष्टि ही मानव नियति का प्रतीक बन जाती है। इसके विपरीत मिथक एक उल्टी दिशा निर्देशित करता है-वह मनुष्य को अपनी 'मानवीकृत' सीमाओं से उठाकर एक ऐसे सनातन बोध की ओर ले जाता है, जहाँ मनुष्य अपने 'होने' की अर्थवत्ता काल को खंडित करके नहीं, उसे अतीत और भविष्य में विभाजित करके नहीं बल्कि स्वयं उसकी अनंत प्रवाहमयता के भीतर संलग्नता (Connectedness) खोजने में निहित रहती है। संलग्नता के इस भाव में मनुष्य अपने भीतर जिस ईश्वर से सम्पर्क करता है, वह, वह ईश्वर नहीं है, जिसका कोई रूप निर्धारित किया जाए क्योंकि जैसा एक बौद्ध पाठ में कहा गया है, "ईश्वर को स्वयं नहीं मालूम, वह क्या है, क्योंकि वह कोई क्या नहीं है।" ईश्वर के बारे में यह अंतर्निर्दिष्ट वास्तव में उस असृजित, uncreated की ओर संकेत करती है, जो पश्चिमी परंपरा के केंद्रीय भाव से बहुत भिन्न है, जहाँ सृष्टि के 'क्रियेशन' को इतना महत्व दिया गया है। जो अनास्तित्व है, आरंभहीन है, उसका अनुभव कारण-कार्य की सांसारिक श्रंखला द्वारा निर्मित नहीं हो सकता।


विचित्र बात यह लगती है - जो सचमुच में विचित्र नहीं है कि समग्रता का यह संलग्न भाव पश्चिमी परंपरा के अवचेतन में हमेशा से विद्यमान रहा है, वर्ना हम उसे एकहार्ट, दांते, ब्लेक और गोएटे के सृजन और चिन्तन में कैसे देख पाते। यह एक जीवन-दृष्टि का दूसरी परंपरा में सेंध लगाकर आना नहीं है, बल्कि उसी 'दृष्टि' को बार-बार पाना है जो इतिहास की उन्मत्त 'विकास यात्रा' में बार-बार धुँधला जाती है। मनुष्य अपने भीतर एक काल-बोध नहीं, अनेक समय-संसार लेकर चलता है। क्षण में 'एटर्निटी' देखने का अनुभव सिर्फ एक कवि का दुर्लभ अनुभव नहीं होता, न ही वह एक परंपरा का विशिष्ट वरदान है। निष्कासन की पीड़ा, अधूरेपन और अलगाव की अनाथावस्था मनुष्य-जीवन का उतना ही सच्चा अनुभव है, जितना उसे अतिक्रमण करने की अदम्य, शाश्वत आकांक्षा। मनुष्य का 'आरंभ' किसी भी परंपरा में कैसा भी हो, वह अपने को आरंभ हर बार एक ऐसी आत्म-चेतन अवस्था में करता है, जहाँ दोनों की काल चेतनाएँ एक-दूसरे में अंतर्गुम्फित हैं। यदि 'आधुनिक' होने का अर्थ आत्म-विभाजित मानसिकता का बोध है, उसकी अपरिहार्य पीड़ा से गुजरना है, तो शायद ऐसा कोई युग नहीं था, जब मनुष्य आधुनिक नहीं था। ईश्वर के न होने की पीड़ा और उसके अस्तित्व में आस्था, दोनों ही एक आध्यात्मिक अनुभव के दो पहलू हैं। आधुनिक युग का अभिशाप यह रहा है, कि उसने स्वयं परंपरा के शाश्वत बोध को खंडित किया है, उसने आस्था की अभाव-पीड़ा को शून्यता के आत्महीन बोध में परिणत किया है। अत: प्रश्न आधुनिकता से छुटकारा पाना नहीं है, बल्कि स्वयं आधुनिक-बोध को उसकी ऐतिहासिकता से मुक्त करना है। शून्यता-बोध वह नहीं है, जिसे बौद्ध दर्शन में void माना गया है - जिसका अपना अस्तित्व है- आत्म-रिक्तता की ऐसी स्थिति है, जब मनुष्य स्वयं अपने स्वत्व से खाली हो जाता है, जो उसका सेल्फ था, उसका आधारमंच। इतावली नाटककार पिरांडेलो के शब्दों में, "मनुष्य एक ऐसा फिल्म-अभिनेता-सा बन जाता है, जो न केवल मंच से, बल्कि अपने से निर्वासित हो गया है। वह एक बेचैन-सा कर देनेवाला खालीपन महसूस करता है। उसकी देह अपनी मांसलता खो देती है, वह हवा में उड़ जाती है, वह अपनी वास्तविकता, अपना जीवन अपनी आवाज खो देती है, सिर्फ एक गूँगी इमेज में बदल जाती है, जो एक परदे पर झिलमिल कर खामोशी में खो जाती है। प्रोजेक्टर पब्लिक के सामने उसकी छाया से खेलेगा, जबकि स्वयं अभिनेता को कैमरे के सामने ही अपने खेल से संतोष कर लेना पड़ेगा।"


अब वह ऐसा मनुष्य नहीं, जो अपने को मनुष्य कह सके, अब वह इतिहास के पर्दे पर मनुष्य की छाया है, एक क्षण चमककर अँधेरे में लोप होती हुई। यदि हम सार्त्र के इस कथन को मान लें कि 'मनुष्य की कोई प्रकृति नहीं, सिर्फ उसका इतिहास है' तो मनुष्य का कोई ऐसा आदि रूप और नार्म नहीं बचा रहता, जिसके आधार पर हम यह जाँच सकें कि इतिहास की लैबोरेट्री से जो 'छवि' बनकर आएगी, उसे 'मनुष्य' की संज्ञा दे सकें।


क्या इस बिंदु पर आकर हमें सब अंतों के अंत में 'मनुष्य मात्र का अंत' नहीं दिखाई देता? कुमारस्वामी यदि आधुनिक कला के इतने तीव्र आलोचक थे, तो इसलिए कि उन्हें उसमें मनुष्य के अंत की रिक्तता दिखाई देती थी, एक ऐसी कला जिसने अपने को समूचे प्रतीक-मंडल से निर्वासित कर लिया था, जो पारंपरिक कला के बिंबो को एक दैवी आलोक में प्रतिबिंबित करता था। अधिकांश आधुनिक कला के बारे में उनकी धारणा मुझे सही जान पड़ती है, किंतु मुझे लगता है, कि आधुनिक कला का एक दूसरा पक्ष रहा है - उसका प्रच्छन्न पक्ष - जिसकी ओर मैंने कुछ देर पहले संकेत किया था। यह मनुष्य को 'अपने भीतर और अपने परे' देखने के लिए उन्मेषित करती है, जहाँ आरंभ और अंत के बिंदु किसी ऐतिहासिक क्षितिज के दो छोरों पर नहीं, स्वयं अपने भीतर के अनुभव-खंडों में एक-दूसरे के भीतर स्पंदित होते हैं। बीसवीं शती के मध्य में युंग ने एक पुस्तक लिखी थी - Man in Search of his Soul… आप उसे 'सोल' कहें या उसका सेल्फ, या आत्म, आधुनिक कला अपने सर्वोत्तम क्षणों में इस खोई हुई 'चीज' के सत्य, essence, से साक्षात करती है। कला में मनुष्य के तत्त्व उसके essence की खोज एक तरह से पूर्वी परंपरा का आधुनिक कला में उद्‍घाटन है। अपनी अमूर्तता में वह निराकार के उन बिंबो को खोजती है, जो सिर्फ मनुष्य की छवि में घटकर चुक नहीं जाते, बल्कि उसके परे विश्व और स्पेस के असंख्य अंतर्संबंधों को उद्‍घाटित करते हैं। वह अपने प्रतीकों और बिंबो में सेक्युलर युग की रिक्तता का अतिक्रमण करती हुई 'परम' का स्पर्श करती है -अनुभव के उस आयाम को स्पर्श करती है, जिसे सिर्फ 'पवित्र' का नाम दिया जा सकता है। आधुनिक कला के महान प्रवर्तक पिकासो ने पवित्र भाव-बोध के इसी उपेक्षित पक्ष की याद दिलाते हुए कभी अपने मित्र ब्राक से कहा था, "हमें इसे (पवित्र), इस शब्द को, या इसी तरह के शब्द को कहना चाहिए, लेकिन लोग इसे गलत समझेंगे और उसे वह अर्थ देंगें जो उसका है नहीं। हमें कहना चाहिए, कि इस या उस पेंटिंग में शक्ति की गरिमा इसलिए है क्योंकि वह 'ईश्वर-स्पर्श' से दीप्त है। लोग इसका गलत अर्थ लगा सकते हैं, किंतु यही हमारे लिए सबसे निकट का सत्य है।"


कला का यह क्षण ही मनुष्य की मृत्यु, उसके अंत को नहीं, उसे दुबारा पाने को है, ठीक वहाँ, जहाँ वह खो गया था, आधुनिक युग के मरुस्थल में।


आज बीसवीं शती के अंत में जब उत्तर आधुनिकता की बात करते हैं तो मनुष्य के आधुनिक बोध के इस आध्यात्मिक पक्ष को बिल्कुल भुला देते हैं, एक ऐसा बोध जिसकी संभावनाएँ कभी पूर्ण रूप से यूरोप में उद्‍घाटित नहीं हो पाईं। असली उत्तर आधुनिकता वह होती, जो आधुनिक मनुष्य की अधूरी, बीच में टूटी हुई यात्रा में परम का वह अंश जोड़ पाती। उस बीहड़ तनाव के बीच रास्ता बना पाती जो आधुनिक कला के आत्मसंघर्ष की आधार-भूमि थी। यह करने के बजाय उसने एक सुविधाजनक रास्ता अपनाया-स्वयं तनाव के केंद्रीय भाव से आँखें मोड़ ली। इसलिए उत्तर आधुनिकता की विचारधारा में जो बहुलता दिखाई देती है, वह खुलापन नहीं ढीलापन है-विश्रंखलता जो केंद्रहीनता से उत्पन्न होती है। आधुनिक मनुष्य के अंतर्विरोधों की पीड़ा और उनका अतिक्रमण करने का आध्यात्मिक गौरव-वह दोनों के प्रति निरपेक्ष जान पड़ती है। आत्म-विभाजित मानस में उद्‍बोधन के किसी भी चरण में अपने अखंडित संपूर्णत्व की ओर मुड़ने की आशा बनी रहती है, लक्ष्यहीन बहुलता की अवस्था में वह आशा भी लुप्त हो जाती है।


किंतु एक दूसरा रास्ता भी है। उसे ढूँढ़ने के लिए हमें कहीं अपने से दूर नहीं जाना होगा, क्योंकि मनुष्य की अंतहीन यात्रा में वह ठीक वहाँ उजागर होता है, जो उसका वर्तमान है, उसकी अपनी जमीन जो उसे धरोहर में मिली है, सँकरी, असुरक्षित, हर क्षण फिसलती हुई, किंतु यही उसका आवास स्थल भी है - एक ऐसी जगह, जहाँ मनुष्य देवता और पशु के बीच निरंतर अपनी अधूरी पहचान को पूर्ण करने का स्वप्न देखता है, अपने को परिभाषित और पुन: परिभाषित करने का कभी न खत्म होने वाला आत्म-अभिमान। यह अभियान उस पक्षी की तरह है, जो हवा के खिलाफ उड़ान लेने से पहले अपने पेरों से तौलता है, और तभी उसे पहली बार अपने पक्षीत्व का बोध होता है। दुनियाँ में कितनी परंपराएँ ऐसी हैं, जो आरंभ की अवधारणा 'पतन'से नहीं, 'उड़ान' से परिभाषित करती हैं? मनुष्य एक पापग्रस्त प्राणी नहीं, एक सतत विद्रोही, एक नकारवादी, निहिलिस्ट व्यक्ति नहीं। हमारा आदि विद्रोही मनुष्य यदि उसके आधुनिक विद्रूप से कुछ अलग है तो इसलिए कि वह केवल 'नकार' में जीवन की सार्थकता नहीं ढूँढ़ता, बल्कि वह अपने से बाहर दी हुई परिभाषाओं को इसलिए नकारता है, क्योंकि उनके चौखटों में उसका 'स्वत्व' नहीं समा पाता। यह महज संयोग नहीं है कि हर देश में रोमांटिक कवियों का प्रिय मिथकीय नायक प्रमथ्यु था, जो देव लोक से अग्नि को चुराकर धरती पर लाया; आदर्श पुरुष, जो आदि विद्रोही था। जिस ज्ञान के कारण मनुष्य स्वर्ग-वाटिका से निष्कासित हुआ था, उस ज्ञान को पाने की खातिर एक दूसरे आदि मानव ने स्वर्ग-लोक के देवताओं के प्रभुत्व को चुनौती देने का दुस्साहस किया था। दोनों को ही अपनी सीमा का उल्लंघन करने की घोर सजा मिली थी।


किंतु इस सजा का औचित्य क्या है? क्यों मनुष्य को अपने स्वाधीन कर्म के लिए देवताओं के कोप का भाजन बनना पड़ता है? इसमें क्या गलत या अनुचित है कि मनुष्य अपने को जिस अवस्था में पाता है, उससे असंतुष्ट होकर उसमें कोई ऐसा परिवर्तन लाने का प्रयास करे जो उसे एक बेहतर स्थिति में लाने में समर्थ हो? 'बेहतर स्थिति' से हमारा अभिप्राय है, जहाँ मनुष्य और जगत के बीच एक ऐसा सामंजस्य बन सके, जो दोनों के बीच फैली दूरी और अजनबीयत को पूरी तरह नष्ट नहीं तो कुछ कम कर सके। मानव-संस्कृति का विकास एक तरह से उत्तरोत्तर अधिक अर्थपूर्ण सामंजस्य हासिल करने का इतिहास रहा है। संगीत, साहित्य, कला और कुछ नहीं, मनुष्य की उस निराकार आकांक्षा को साकार करने का प्रयत्न है, जहाँ वह अपने और विश्व के बीच एक लय, एक संगीत, एक संवाद स्थापित करने में सक्षम हो सके। यह संवाद सतत्‍‍ है-न कहीं से शुरू होता है, न कहीं समाप्त होता है... सिर्फ कभी-कभी उसका बोध होता है, चेतना के अंतहीन प्रवाह में आत्मचेतन होने का क्षण।


ठेले पर हिमालय


धर्मवीर भारती


 


ठेले पर हिमालय' - खासा दिलचस्‍प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्‍यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्‍डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्‍म स्‍थान अल्‍मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे और खोए-खोए से ही बोले, 'यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।' और तत्‍काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, 'ठेले पर हिमालय'। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नए कवि हों तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें शीर्षक मौजूँ है, और अगर नई कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाटे, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्‍दरों की तरह क्‍यों चढ़े बैठे हो? ओ नए कवियो। ठेले पर लदो। पान की दूकानों पर बिको। [1]


ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आईं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बताईं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं उनके मन को खरोंच गई है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीले आकाश में हिमालय की शिखर रेखा को चाँद तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुँधली हलके नीले जाल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है, उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ, क्‍योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।


सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गए थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी। कोसी से एक सड़क अल्‍मोड़े चली जाती है, दूसरी कौसानी। कितना कष्‍टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरुप है वह रास्‍ता। पानी का कहीं नाम निशान नहीं, सूखे भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर बनाये हुए टेढ़े मेढ़े रास्‍ते पर अल्‍मोड़े का एक नौसिखिया और लापरवाह ड्राइबर जिसने बस के तमाम मुसाफिरों की ऐसी हालत कर दी कि जब हम कोसी पहुँचे तो सभी के चेहरे पीले पड़ चुके थे। कौसानी जाने वाले सिर्फ हम दो थे, वहाँ उतर गए। बस अल्‍मोड़े चली गई। सामने के एक टीन के शेड में काठ की बेंच पर बैठकर हम वक्‍त काटते रहे। तबीयत सुस्‍त थी और मौसम में उमस थी। दो घंटे बाद दूसरी लारी आकर रुकी और जब उसमें से प्रसन्‍न बदन शुक्‍ल जी को उतरते देखा तो हम लोगों की जान में जान आई। शुक्‍ल जी जैसा सफर का साथी पिछले जन्‍म के पुण्‍यों से ही मिलता है। उन्‍होंने हमें कौसानी आने का उत्‍साह दिलाया था। और खुद तो कभी उनके चेहरे पर थकान या सुस्‍ती दीखी ही नहीं, पर उन्‍हें देखते ही हमारी भी सारी थकान काफूर हो जाया करती थी।


पर शुक्‍ल जी के साथ यह नई मूर्ति कौन है? लंबा दुबला शरीर, पतला साँवला चेहरा, एमिल जोला सी दाढ़ी, ढीला ढाला पतलून, कंधे पर पड़ी हुई ऊनी जर्किन, बगल में लटकता हुआ जाने थर्मस या कैमरा या बाइनाकुलर। और खासी अटपटी चाल थी। बाबूसाहब की। यह पतला दुबला मुझ जैसा ही सींकिया शरीर और उस पर आपका झूमते हुए आना। मेरे चेहरे पर निरंतर घनी होती हुई उत्‍सुकता को ताड़कर शुक्‍ल जी ने कहा - ''हमारे शहर के मशहूर चित्रकार हैं सेन, अकादमी से इनकी कृतियों पर पुरस्‍कार मिला है। उसी रुपए से घूमकर छुट्टियाँ बिता रहे हैं।'' थोड़ी ही देर में हम लोगों के साथ सेन घुल मिल गया, कितना मीठा था हृदय से वह। वैसे उसके करतब आगे चलकर देखने में आए।


कोसी से बस चली तो रास्‍ते का सारा दृश्‍य बदल गया। सुडौल पत्‍थरों पर कल-कल करती हुई कोसी, किनारे के छोटे-छोटे सुंदर गाँव और हरे मखमली खेत। कितनी सुंदर है सोमेश्‍वर की घाटी। हरी भरी। एक के बाद एक बस स्‍टेशन पड़ते थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने, चाय की दूकाने और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी नालों पर बने हुए पुल। कहीं-कहीं सड़क निर्जन चीड़ के जंगलों से गुजरती थी। टेढ़ी-मेढ़ी, ऊपर नीचे रेंगती हुई कँकरीली पीठ वाले अजगर सी सड़क पर धीरे-धीरे बस चली जा रही थी। रास्‍ता सुहावना था और उस थकावट के बाद उसका सुहावनापन हमें भी तंद्रालस बना रहा था। पर ज्‍यों-ज्‍यों बस आगे बढ़ रही थी, हमारे मन में एक अजीब सी निराशा छाती जा रही थी अब तो हम लोग कौसानी के नजदीक हैं, कोसी से 18 मील चले आए, कौसानी सिर्फ छह मील है, पर कहाँ गया वह अतुलित सौंदर्य, वह जादू जो कौसानी के बारे में सुना जाता था। आते समय मेरे एक सहयोगी ने कहा था कि कश्‍मीर के मुकाबले में उन्‍हें कौसानी ने अधिक मोहा है, गाँधी जी ने यहीं अनासक्ति योग लिखा था और कहा था कि स्विट्रजरलैंड का आभास कौसानी में ही होता है। ये नदी, घाटी, खेत, गाँव सुंदर हैं किंतु इतनी प्रशंसा के योग्य तो नहीं ही हैं। हम कभी-कभी अपना संशय शुक्‍ल जी से व्‍यक्‍त भी करने लगे और ज्‍यों-ज्‍यों कौसानी नजदीक आता गया त्‍यों-त्‍यों अधैर्य, फिर असंतोष और अंत में तो क्षोभ हमारे चेहरे पर, झलक आया। शुक्‍ल जी की क्‍या प्रतिक्रिया थी हमारी इन भावनाओं पर, यह स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया क्‍योंकि वे बिलकुल चुप थे। सहसा बस ने एक बहुत लंबा मोड़ लिया और ढाल पर चढ़ने लगी।


सोमेश्‍वर की घाटी के उत्तर में जो ऊँची पर्वतमाला है, उस पर, बिलकुल शिखर पर, कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसनी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिलकुल उजड़ा-सा गाँव और बर्फ का तो कहीं नाम निशान नहीं। बिलकुल ठगे गए हम लोग। कितना खिन्‍न था मैं। अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्‍थर की मूर्ति सा स्‍तब्‍ध खड़ा रहा गया। कितना अपार सौंदर्य बिखरा था सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कल्‍यूर की रंग बिरंगी घाटी छिपा रही है, इसमें किन्‍नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुंदर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्‍ते, जिनके किनारे सफेद-सफेद पत्‍थरों की कतार और इधर उधर से आकर आपस में उलझा जाने वाली बेले की लड़ियाँ सी नदियाँ। मन में बेसाख्‍ता यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँख, आँखों से लगा लूँ। अकस्‍मात हम एक दूसरे लोक में चले आए थे। इतना सुकुमार, इतना सुंदर, इतना सजा हुआ और इतना निष्‍कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। धीरे धीरे मेरी निगाहों ने इस घाटी को पार किया और जहाँ ये हरे खेत और नदियाँ और वन, क्षितिज के धुँधलेपन में, नीले कोहरे में धुल जाते थे, वहाँ पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास अनुभव किया, उसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं। कुछ देर उन बादलों में निगाह भटकती रही कि अकस्‍मात फिर एक हलका सा विस्‍मय का धक्‍का मन को लगा। इन धीरे-धीरे खिसकते हुए बादलों में यह कौन चीज है जो अटल है। यह छोटा-सा बादल के टुकड़े-सा-और कैसा अजब रंग है इसका, न सफेद, न रुपहला, न हलका नीला... पर तीनों का आभास देता हुआ। यह है क्‍या? बर्फ तो नहीं है। हाँ जी। बर्फ नहीं है तो क्‍या है अकस्‍मात बिजली सा यह विचार मन में कौंधा कि इसी घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वतसम्राट हिमालय है, इन बादलों ने उसे ढाँक रखा है, वैसे वह क्‍या सामने है, उसका एक कोई छोटा-सा बाल स्‍वभाव वाला शिखर बादलों की खिड़की से झाँक रहा है। मैं हर्षातिरेक से चीख उठा, ''बरफ। वह देखों।'' शुक्‍ल जी, सेन, सभी ने देखा, पर अकस्‍मात वह फिर लुप्‍त हो गया। लगा, उसे बाल-शिखर जान किसी ने अंदर खींच लिया। खिड़की से झाँक रहा है, कहीं गिर न पड़े।


पर उस एक क्षण के हिम दर्शन ने हममें जाने क्‍या भर दिया था। सारी खिन्‍नता, निराशा, थकावट सब छू मंतर हो गई। हम सब आकुल हो उठे। अभी ये बादल छँट जाएँगे और फिर हिमालय हमारे सामने खड़ा होगा-निरावृत्त... असीम सौंदर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना घूँघट धीरे से खिसका देगी और..और तब? और तब? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। शुक्‍ल जी शांत थे, केवल मेरी ओर देखकर कभी-कभी मुस्‍करा देते थे, जिसका अभिप्राय था, 'इतने अधीर थे, कौसानी आया भी नहीं और मुँह लटका लिया। अब समझे यहाँ का जादू?'' डाक बँगले के खानसामे ने बताया कि, ''आप लोग बड़े खुशकिस्‍मत हैं साहब। 14 टूरिस्‍ट आकर हफ्ते भर पड़ रहे, बर्फ नहीं दीखी। आज तो आपके आते ही आसार खुलने के हो रहे हैं।''


सामान रख दिया गया। पर, सभी बिना चाय पिए सामने के बरामदे में बैठे रहे और एकटक सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नए-नए शिखरों की हिम-रेखाएँ अनावृत हो रही थीं। और फिर सब खुल गया। बाईं ओर से शुरू होकर दाईं ओर गहरे शून्‍य में धँसती जाती हुई हिमशिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्‍यमयी, रोमांचक श्रृंखला। हमारे मन में उस समय क्‍या भावनाएँ उठ रही थीं यह अगर बता पाता तो यह खरोंच, यह पीर ही क्‍यों रह गई होती। सिर्फ एक धुँधला सा संवेदन इसका अवश्‍य था कि जैसे बर्फ की सिल के सामने खड़े होने पर मुँह पर ठंडी-ठंडी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है और सारे संघर्ष, सारे अंतर्द्वंद्व, सारे ताप जैसे नष्‍ट हो रहे हैं। क्‍यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक‍ कष्‍टों को ताप कहा था और उसे शमित करने के लिए वे क्‍यों हिमालय जाते थे यह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था। और अकस्‍मात एक दूसरा तथ्‍य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी कितनी पुरानी है यह हिमराशि। जाने किस आदिम काल से यह शाश्‍वत अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ है। कुछ विदेशियों ने इसीलिए हिमालय की इस बर्फ को कहा है-चिरन्‍तन हिम (एटर्नल स्‍नो)। सूरज ढल रहा था और सुदूर शिखरों पर दर्रें, ग्‍लेशियर, ढाल, घाटियों का क्षीण आभास मिलने लगा था। आतंकित मन से मैंने यह सोचा था कि पता नहीं इन पर कभी मनुष्‍य का चरण पड़ा भी है या नहीं या अनन्‍त काल से इन सूने बर्फ ढँके दर्रों में सिर्फ बर्फ के अंधड़ हू-हूँ करते हुए बहते रहे हैं।


सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्‍लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी। बर्फ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी, घाटियाँ गहरी पीली हो गईं। अँधेरा होने लगा तो हम उठे और मुँह-हाथ धोने और चाय पीने में लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम, जैसे सबका कुछ छिन गया हो, या शायद सबको कुछ ऐसा मिल गया हो जिसे अंदर ही अंदर सहेजने में सब आत्‍मलीन हों या अपने में डूब गए हों। थोड़ी देर में चाँद निकला और हम फिर बाहर निकले... इस बार सब शांत था। जैसे हिम सो रहा हो। मैं थोड़ा अलग आरामकुर्सी खींचकर बैठ गया। यह मेरा मन इतना कल्‍पनाहीन क्‍यों हो गया है? इसी हिमालय को देखकर किसने किसने क्‍या-क्‍या नहीं लिखा और यह मेरा मन है कि एक कविता तो दूर, एक पंक्ति, एक शब्‍द भी तो नहीं जानता। पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा लग रहा है इस हिमसम्राट के समक्ष। पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अंदर भी बादल थे जो छँट रहे हैं। कुछ ऐसा उभर रहा है जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है जो इसी ऊँचाई पर उठने की चेष्‍टा कर रहा है ताकि इनसे इन्‍हीं के स्‍तर पर मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़ गया है, और मुझे-छोटे भाई को-नीचे खड़ा हुआ, कुंठित और लज्जित देखकर थोड़ा उत्‍साहित भी कर रहा है, स्‍नेह भरी चुनौती भी दे रहा है - ''हिम्‍मत है? ऊँचे उठोगे?''


और सहसा सन्‍नाटा तोड़कर सेन रवींद्र की कोई पंक्ति गा उठा और जैसे तंद्रा टूट गई। और हम सक्रिय हो उठे-अदम्‍य शक्ति, उल्‍लास, आनंद जैसे हम में छलक पड़ रहा था। सबसे अधिक खुश या सेन, बच्‍चों की तरह चंचल, चिड़ियों की तरह चहकता हुआ बोला, ''भाई साहब, हम तो बण्‍डरस्‍ट्रक हैं कि यह भगवान का क्‍या-क्‍या करतूत इस हिमालय में होता है।'' इस पर हमारी हँसी मुश्किल से ठंडी हो पाई थी कि अकस्‍मात वह शीर्षासन करने लगा। पूछा गया तो बोला, 'हम नए पर्सपेक्टिव से हिमालय देखेगा।'' बाद में मालूम हुआ कि वह बंबई की अत्‍या‍धुनिक चित्रशैली से थोड़ा नाराज है और कहने लगा, ''ओ सब जीनियस लोग शीर का बल खड़ा होकर दुनिया को देखता है। इसी से हम भी शीर का बल हिमालय देखता है।''


दूसरे दिन घाटी में उतरकर 12 मील चलकर हम बैजनाथ पहुँचे जहाँ गोमती बहती है। गोमती की उज्‍जवल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। पता नहीं, उन शिखरों पर कब पहुँचूँ, पर उस जल में तैरते हुए हिमालय से जी भरकर भेंटा, उसमें डूबा रहा।


आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर वे मेरे मित्र उपन्‍यासकार जिस तरह स्‍मृतियों में डूब गए उस दर्द को समझता का ही बहाना है। वे बर्फ की ऊँचाईयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे ही क्षण में, ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने नहीं कहा था '' ...कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो... मैं क्‍या कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्‍तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर?'' और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी के हाथ संदेशा भेज दूँ... ''नहीं बंधु... आऊँगा। मैं फिर लौट-लौट कर वहीं आऊँगा। उन्‍हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है... मैं करूँ तो क्‍या करूँ?''


रसमादन


शिवप्रसाद सिंह


 


गरमी की छुट्टी हो, या किसी पर्व-त्योहार का समय, जहाँ भी नियमित ढंग से चलते हुए कार्यों से बचने का मौका हाथ लगे, मेरे मन के भीतर सोया ईहामृग तुरत गाँव की डगर पकड़ना चाहता है। शहर की एकरस, बदरंग जिंदगी की शाश्वत वितृष्णा मुझे बरबस उन रास्तों पर झोंक देती है, जो धान-खेतों, हरियाली के लदे सीवानों या रंग-बिरंगी चैती फसलों से उफने भूमि-खंडों के बीच अपना अस्तित्व बनाते गाँव की बाहरी बँसवारियों में आकर भूलभुलैया का खेल खेलने लगते हैं।


पहले जब पाँव इन रास्तों पर पड़ते थे, तब एक अजीब किस्म की गुदगुदी, उल्लास और स्मृतिजाल से सारा शरीर पुलकित हो जाता था। शाम को इन रास्तों पर घर लौटते ढोरों की घंटियाँ टुनटुनाती थी, भैंसों के पीठ पर बैठे हुए चरवाहे थकान और दिन भर की परिक्रमा की गत्वरता से विरत होकर विरहा की तानें छोड़ देते थे और वे तानें थी कि जैसे कौंधे की तरह लपककर रास्ते के हर पार्श्व में अपनी अदृश्य किंतु अनुभवगम्य उपस्थिति से पशुओं को एक कतार में, बिना इधर-उधर विदके-भड़के चुपचाप मौज में चलते जाने की चेतावनी देती थीं, चरवाहे जैसे अपने गीतों की इस जादुई शक्ति से परिचित हों, इसी कारण पशुओं के आगे-पीछे फैले पशुओं की लंबी कतार में रहते हुए भी उससे अपने को अलग और निश्चिंत करके आँखें मूँदकर कानों में उँगली डाले, गाते चले जाते थे :


रसवा के भेजली भँवरवा के संगिया
                 रसवा ले अइले हो थो----र।
अतना हि रसवा में केकरा के बँटबों
                 सगरि नगरि हित मोर---र।


सारी दुनिया में घूम-घूमकर भौंरा रस इकट्ठा करता है। हे मित्र, मैंने उसी को भेजा था कि मेरे लिए रस ले आए। रस तो वह ले आया, पर इतने रस को मैं किसको-किसको बाँटूँ। सारी ग्राम नगरी ही तो मेरी हितू है।


तब मुझे लगता था कि ग्राम-संस्कृति के इस थोड़े-से रस में ही यह लोक-गायक सबको तृप्त कर देगा, क्योंकि इस रस में सहज और निश्छल हृदय का जो उल्लास है, जो घुमड़ता दर्द है और इसके साथ ही रस को सबमें बाँटने की जो महत सदिच्छा है, वह खुद में एक सभी प्राणियों को तृप्त करनेवाली व्यापक शक्ति से ओतप्रोत है।


मुझसे कोई पूछे कि इस ग्राम-संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता आपको क्या दिखाई पड़ती है, तो मैं निस्संकोच कहूँगा अपने इकट्ठे किए हुए रस में अपने मन को, तन को, जिह्वा को मधुर कर लेना हमारी संस्कृति की मूल भावना है। अथर्ववेद में कहा गया है :


जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वा मूले मधूलकम्म
मदेह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।


आज न तो हमारे जिह्वा के अग्र में मधु है, न जिह्वा-मूल में मिठास है। न अपने किये हुए कार्यों में माधुर्य है, न अपने चित्त में माधुर्य। आखिर ऐसा क्यों हुआ? मैं बार-बार पूछता हूँ कि आर्यों के पूर्वज जिस मधुरता को अपने जीवन का सबसे आवश्यक तत्व मानकर उसकी भरपूर प्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना किया करते थे, उनकी संततियाँ इस प्रकार के माधुर्य से वंचित क्यों हो गईं।


जब प्राचीन भारत की ओर आँख उठाकर देखते हैं तो एक अजीब किस्म का करिश्मा सब ओर अठखेलियाँ खेलता हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसा कहनेवाले कि हिंदुस्तानी जन्म से आध्यात्मिक होते हैं, असल में कहना चाहते हैं कि हिंदुस्तानी जन्म से दरिद्र और अतृप्त होते हैं। प्राचीन भारत को देखिए और आपकी आँख खुल जाएगी। हिंदुस्तान जब समृद्ध था तभी उसके यहाँ अध्यात्म भी अपनी अंतिम चोटी पर पहुँचा। हिंदुस्तान में जब वेदांत सूत्र लिखा गया तब कामसूत्र रचा जा चुका था। हिंदुस्तान में जब तुलसी और सूर पैदा हुए तब भुवनेश्वर और खजुराहो के मंदिर बन चुके थे। हिंदुस्तानी अध्यात्म ने कभी भी भौतिक आनंद की गहराइयों में उतरने से हिंदुस्तानी को रोका नहीं। क्योंकि हिंदुस्तान की आत्मा की यह विशेषता है कि वह जीवन के खूब जरूरी दो अतिवादी छोरों के बीच अच्छा समन्वय कर लेती है। हिंदुस्तानी न सिर्फ भौतिक मधु को लगातार इकट्ठा करता रहा, बल्कि उसे उपभोग में लाने के सूक्ष्म तरीके खोजता रहा। इस मधु का आस्वादन कितनी मुद्राओं और कितने आसनों से संभव है, उससे पूछ लीजिए। पुराना हिंदुस्तानी इसीलिए कम से कम सौ शरद जीने की कामना करता था ताकि वह इस मधु का छककर पान कर सके।


जब से आधुनिकता आई है, न रस रहा, न मधु। एक हवस बच गई है जो बेशुमार छटपटाहटों से भरी हुई है। आप बहुत बेचैन हैं, नई पीढ़ी के छोकरे कितने पागल हो गए हैं। एक बुजुर्गवार ने कहा है, 'सालों को लाज-हया भी नहीं। कातिक के पिल्ले-पिल्लियों की तरह सड़क पर सटे-सटे चलते हैं।'


असल में इन बुजुर्गवार साहब के लार टपक रही थी। लंका बनारस यूनिवर्सिटी का बाजार है। होटल सुवेला में चीनी किस्म के भोजन और पेय मिलते हैं। यहाँ जानेवालों को बदनामी का परचा बिना माँगे ही मिल जाता है। इसी के कहवा घर में एक नवयुवक अध्यापक बैठे थे। उनके साथ एक लड़की भी थी। अब यह लड़की कौन है? प्रश्न बेकार है। उनकी शिष्या हो सकती है, दोस्त हो सकती है, परिचिता हो सकती है। वे दोनों हाल में कला-भवन में चलनेवाली चित्र-प्रदर्शनी पर बात कर रहे थे। न अध्यापक को लड़की से, और न लड़की को अध्यापक से अनजानियत थी। इसलिए वे एक-दूसरे का व्याकरण भूलकर चित्रकला पर बात कर रहे थे; पर उसी के बगल में एक बुजुर्गवार प्रोफेसर बैठे थे। वैसे हैं वे आदमी साइन्स फैकल्टी के; पर कहवा लेकर यों बैठे हैं जैसे फिलासफी के 'एडवांस स्टडी सेंटर' में काम करते हों। बड़ी चिंतनशील मुद्रा थी।


अध्यापक से लड़की ने कहा, 'क्या आप इन्हें पहचानते हैं?'


'नहीं तो, क्यों?'


'अपने यहाँ के अध्यापक हैं।'


'होंगे, आठ सौ अध्यापक हैं, सबको पहचान पाना मुश्किल है।'


'मुश्किल यह नहीं है,' लड़की बोली, 'मुश्किल यह है कि यह सज्जन मुझे कॉफी का प्याला समझ रहे हैं और लगातार यों देख रहे हैं कि बेयरे ने क्रीम ठीक मिलाया है या नहीं।'


नवयुवक अध्यापक खिलखिलाकर हँस पड़ा‌ - 'तुमको भी इससे अच्छा लगता होगा, वरना वाटिक कला पर बात करते-करते तुम्हें बेयरा कैसे याद आ गया?'


लड़की झेंपी नही, बोली, 'असल में ये लोग बड़ी भूखी आँखों के इनसान हैं। आपने कभी भूखे आदमी की आँखों में झाँककर देखा है। वहाँ एक बड़ी सड़ी-सड़ी-सी मार्बिड किस्म की कशिश होती है जैसे छिपकली की आँखों में पतंगे के लिए। असल में ऐसे लोगों के कारण जो पचासा पार करने पर भी इतने अतृप्त और परेशान हैं गलियों से निकलना मुश्किल हो जाता है।'


बात आई-गई हो गई। मुझे अपने एक मित्र की याद आ गई। वह बड़े मर्यादित अध्यापक माने जाते हैं। स्वस्थ शरीर की तारीफ करने में गर्व का अनुभव करते हैं, पर हर बार परीक्षा में फेल होते हैं यानी यदि उनके पास कोई स्वस्थ शरीरवाली लड़की पहुँच जाए तो लगातार सूँघने की कोशिश करते हैं। असल में हुआ यह है कि हवस और अतृप्ति के कारण लोगों के पास सुंदरता को कुछ देर तक सहने की शक्ति ही नहीं बची है। ये बेचारे तो 'माखन के मुनि' की तरह 'हुताशन' में हवन करने की कोशिश में ही गले जाते हैं।


प्राचीन भारत में ऐसा नहीं था। वहाँ छक कर मधुपान था इसलिए छककर सौंदर्य देखने का साहस और शक्ति थी। एक-एक कवि अध्याय पर अध्याय सौंदर्य की मादकता का वर्णन करता चला जाता है, वह उसके एक-एक मन-भावना पक्ष को उभारता है और भाषा के लालित्य में बाँधकर छंद बना देता है, नया छंद ढालता है। छंद प्रदान कर देता है पर एक मिनट के लिए भी उसका मन फिसलता नहीं। वह मांसलता के छल से छला नहीं जाता। वह छंद से कभी भी छंदित नहीं होता।


महाश्वेता पुंडरीक के कानों पर रखी नंदन की मंजरी-गंध से पागल होकर पूछ देती है कि यह किस चीज का फूल है।


'अरे कुतुहलिनि, पसंद है तो ले ले, पूछने की बात क्या?' ऋषिपुत्र अपनी मंजरी महाश्वेता को दे देता है और हलकी छुवन जानमारू प्रेमराग में बदल जाती है। पुंडरीक मर जाता है, वह महीनों उस सौंदर्य को सहने की कोशिश करता है, करता जाता है, पर कहीं से गलता नहीं, विगलित नहीं होता। वह जानता है कि सौंदर्य को कैसे जिया जाता है और सौंदर्य कैसे मरा जाता है; पर एक बार भी वह कोशिश नहीं करता कि वह जाने कि सौंदर्य को कैसे ठगा जाता है और कैसे अपनी सड़ी छिपकली-धर्मा बुभुक्षा के चुंबकीय दबाव में सौंदर्य को मसला जाता है। यह था प्राचीन भारत का रसायन। यह था उनका रस को बटोरने का तरीका।


फिर इस रसमादन में अचानक कमी क्यों आ गई। ऐसा क्या हुआ कि भारतीय चित्त से रसमादन का लोप हो गया और उसकी जगह अफाट मुर्दनी, नीरसता और ऊब ने ले ली। प्रश्न स्वाभाविक है, पर उत्तर कहीं अलग नहीं। जहाँ रसमादन था, वहीं उसके लोप का कारण भी खोजना होगा। अर्थात हमें बदलते हुए भारतीय चित्त का विश्लेषण करना होगा।


रस आखिर है क्या? चैतन्य का चमत्कार ही तो। कहते हैं कि परब्रह्म जो अद्वितीय, चैतन्यस्वरूप और ज्योतिर्मय है, उसका सहज आनंद, चमत्कार और प्रकाश ही एकाकार होकर रस बनता है। यानी रस उसी में होगा जो अपने कार्यों से आनंद, चेतना और प्रकाश दे। क्या ये गुण ही इस बात का प्रमाण नहीं हैं कि हमारे अंदर इन तीनों ही चीजों का परम अभाव हो गया है। यह कहना कि विदेशी संस्कृतियों के संपर्क से ऐसा हुआ, वस्तु को गलत कोण से प्रस्तुत करना हो जाएगा। संस्कृति कोई बुरी नहीं होती। आखिर संस्कृति है क्या? एक विद्वान ने कहा था कि तमाम उच्चकोटि की चीजें पढ़ने पर जो भूल जाए - वह पढ़ाई है, जो याद रह जाए - वह संस्कृति है। यानी कि संस्कृति किसी भी कौम को अच्छी से अच्छी चीज की उसके सदस्यों के व्यक्तित्व में बची हुई सुगंध हैं। संस्कृतियाँ कौमों की अपनी आत्मा का आनंद, चमत्कार और प्रकाश होती हैं, जैसी जिस कौम की आत्मा होगी, वैसी ही उसकी संस्कृति होगी, इसलिए हमें दूसरों की संस्कृतियों को कोसने की आदत छोड़ देनी चाहिए। असल में दूसरी संस्कृतियों के संपर्क से शक्तिशाली संस्कृति और भी समृद्ध होती है, कमजोर संस्कृति उसके भार से दबकर लँगड़ी हो जाती है। किंतु किसी की संस्कृति की नकल निःसंदेह बुरी होती है क्योंकि वह हमें लंगड़ी नहीं 'खेत का धोख' बना देती है। एक बहरूपिया और जनखा बना कर छोड़ देती है। भारत बहुत सी संस्कृतियों के संपर्क में आया। चूँकि उसकी संस्कृति हमेशा ही सशक्त रही है, अब भी है, इसलिए वह समृद्ध ही होता गया। पर जब से उसने विदेशी संस्कृति की नकल शुरू की है वह विराट की जगह 'मिनी' हो गया है।


मुगलकाल को ही लीजिए। मुगल-संस्कृति को भारतीय संस्कृति ने नकल की चीज नहीं मानी। न मुगल बादशाहों या उनके गोयंदों ने ही भारतीय संस्कृति की नकल की, बस दोनों में परंपरावलंबन के जरिए आदान-प्रदान और मिश्रण शुरू हुआ। नतीजा सामने आया कि हिंदुस्तान को स्थापत्य में ताजमहल मिला, तानसेन मिले, मुगल शैली की चित्रकला मिली और इन सबसे अलग एक ऐसा रसमादन मिला कि पूरा मुल्क प्राचीन भारतीयों की तरह नए माहौल में अपनी आत्मा की पुरानी खूबी को नए सिरे से जी सका।


वस्तुतः मुगलों में अकबर ऐसा आदमी था जो रसमादन का जन्मजात प्रेमी था। हँसने-हँसाने की कला को वह पसंद करता था, वह जिह्वामूल के माधुर्य की दाद देता था, इसीलिए तानसेन उसके मनभावन संगीतकार बने। वह रस की कलाएँ जानता था, मजलिस और रसाल उसके लिए एक ही सिक्के के दो पहलू थे। इसी कारण जब उसी के आगे कवि पीथल यानी पृथ्वीसिंह, तानसेन, बीरबल जुदा हो गए तब उसने बड़े गम के साथ कहा -


पीथल सों मजलिस गई तानसेन सों राग
हसिबाँ, रमिबाँ, बोलिबाँ गया बीरबल साथ


और तो और, इतना नीरस कहा जाने वाला औरंगजेब भी रसमादन का महत्व समझता था।


वैसे वह कट्टर मुल्लाओं की तरह रहता था, पर सभी को मुल्ला बना डालने के सख्त खिलाफ था। 'मआसिर आलमगीरी' में एक दास्तान आती है कि जब औरंगजेब दक्षिण में था तब बंगाल का एक नवयुवक मुसलमान उसके पास आया और बोला कि मुझे अपना शिष्य बना लें ताकि मैं दरवेश बन सकूँ। सुनकर औरंगजेब मुस्कराया और बोला -


टोपी लेंदे बावरी देंदे खरे निलज्ज
चूहा खांदा माबली तू लत बंधे छज्ज


दरवेशों की टोपी लेगा, सुंदर काकुल कटा देगा अरे निर्लज्ज तेरा घर तो चूहा खाए जा रहा है और तू ऊपर से छप्पर बाँधने की बात क्यों करता है। यह चूहा है नकली बाना धारण करनेवाली अवसरवादिता का। इसी ने हिंदुस्तान की रूह को कुतर कर रख दिया है।


चूहे कागज, रोटी या खाने लायक चीजें ही नहीं कुतरते। वे ईंट और पत्थर भी कुतर डालते हैं। पर आज के नवयुवक के भीतर एक ऐसा भी चूहा फड़फड़ा रहा है जो वेणी तक कुतर डालता है।


ऐसी ही अतृप्ति में डूबे बनारस के एक छोकरे ने एक हिप्पिन की चोटी काट ली। बड़ा तूफान हुआ। राम-राम खुले चौराहे, ऐसा काम करते इसे शर्म नहीं आई। मुझे अचानक तेनालीराम की कहानी याद आ गई। राजा ने अपनी प्रजा में से सबको एक-एक घोड़ा दिया और कहा कि यदि घोड़े कमजोर हुए तो जुर्माना होगा, मोटे हुए तो इनाम मिलेगा। तेनालीराम ने हिसाब लगाया कि एक साल में घोड़े को मोटा बनाने में जितनी गिजा दी जाएगी, इनाम की रकम शायद उससे भी कम हो। लिहाजा उन्होंने उसे ऐसे दरवाजे-रहित कमरे में बंद कर दिया जिसमें सिर्फ एक छोटी खिड़की थी। उसी खिड़की से वह एक मुट्ठी घास हफ्ते में एक दिन घोड़े की ओर बढ़ा देते। एक वर्ष बाद उन्होंने राजा से कहा कि मेरा घोड़ा ऐसा तगड़ा हो गया है कि लाया ही नहीं जा सकता। राजा ने अपनी अश्वपालक अफसर को, जो मुसलमान था, देखने भेजा। तिनाली ने कहा, 'मियाँ साहेब, मेरी तो हिम्मत नहीं पड़ती कि पीछे का दरवाजा खोलूँ। आप खिड़की में से झाँककर देख लीजिए।' मियाँ ने ज्यों ही खिड़की में सिर डाला कि घोड़े ने घास समझकर उनकी दाढ़ी पकड़ ली, खींचा-तानी में क्या हुआ, पता नहीं, पर मियाँ साहिब ने घोड़े के तगड़े होने का अनुभूत प्रमाण राजा को पेश कर दिया।


मुझे नहीं मालूम कि बनारस का छोकरा तेनालीराम के घोड़े से कम तगड़ा है कि ज्यादा। मगर मेरा पूरा विश्वास है कि वह एक मुट्ठी घास के लोभ को छोड़ने में कतई असमर्थ है। हाय रे देश, कहाँ गया वह रस, वह रसमादन। कहते हैं कि राजा उदयन ने नाग कन्या की चोटी काट ली तो उन्हें सर्वांग सुंदरी कन्या, नागमंजुषा नागदमनक और नागवल्ली यानी तांबूल मिला और अब?


इस रस के समाप्त हो जाने से पूरा भारत मर गया है। जीवन के नाम पर जो कुछ बचा है वह सड़ांध है, नकल है। मन तो रस आखेटक बना समुद्रपार की यात्रा कर रहा है। पश्चिमी साहित्य की नई-नवेलियों से परिचय कर रहा है। उनकी यादों में लार टपकाता है, पूरा न पड़ने पर गौड़ीय वैष्णवों या सहजिया संप्रदाय के पिछ्ले खेवे के कवियों को पुकारता है कि हे विष गारुड़ी, तुम मेरे भीतर के इस जहर को सोख लो, मुझे फिर से ताजा कर दो; किंतु वह नहीं जानता कि पश्चिमी सभ्यता की भुजंगिनी से डँसा हुआ मन पूरबी सभ्यता की भुजंगिनी के विष-दंश से ही दूर होगा। नागिन के विष को नागिन ही खींचती है। आज हिंदुस्तान एक नई हवा में नई धरती पर खड़ा हुआ है या होने जा रहा है। अब उसे पश्चिमी सभ्यता की नकल पर चलने की जरूरत नहीं है। हमें अपने मन से कहना होगा कि अब तक तू नीले समुद्र पर तैरता हुआ रस की खोज में बहुत भटक चुका। आ अब लौट चल, तू लौट आ उन नील समुद्रों से, तू लौट आ उस परदेशी धूसर अंतरिक्ष से ताकि तेरी मरी हुई देह को फिर से जिलाया जा सके। अपने क्षय होते प्राणों के लिए ही लौट आ।


वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   ...