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राजा भोज का सपना

राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंद   वह कौन-सा मनुष्‍य है जिसने महा प्रतापी राजा भोज महाराज का नाम न सुना हो। उसकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्‍याप रही है और बड़े-बड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही कांप उठते थे और बड़े-बड़े भूपति उसके पांव पर अपना सिर नवाते। सेना उसकी समुद्र की तरंगों का नमूना और खजाना उसका सोने-चांदी और रत्‍नों की खान से भी दूना। उसके दान ने राजा करण को लोगों के जी से भुलाया और उसके न्‍याय ने विक्रम को भी लजाया। कोई उसके राजभर में भूखा न सोता और न कोर्ड उघाड़ा रहने पाता। जो सत्तू मांगने आता उसे मोतीचूर मिलता और जो गजी चाहता उसे मलमल दिया जाता। पैसे की जगह लोगों को अशरफियां बांटता और मेह की तरह भिखारियों पर मोती बरसाता। एक-एक श्‍लोक के लिए ब्राह्मणों को लाख-लाख रुपया उठा देता और एक-एक दिन में लाख-लाख गौ दान करता, सवा लाख ब्राह्मणों को षट्-रस भोजन कराके तब आप खाने को बैठता। तीर्थयात्रा-स्‍नान-दान और व्रत-उपवास में सदा तत्‍पर रहता। बड़े-बड़े चांद्रायण किये थे और बड़े-बड़े जंगल-पहाड़ छांन डाले थे। एक दिन शरद ऋतु में संध्‍या के समय सुदंर फुलवाड़ी के बीच स्‍वच्‍छ पानी के कुंड के त

कसबे का आदमी

कमलेश्वर   सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य साफ़ हो रहे थे, जैसे कोई चित्रित कलाकृति पर से धीरे-धीरे ड्रेसिंग पेपर हटाता जा रहा हो। उसे यह सब बहुत भला-सा लगा। उसने अपनी चादर टाँगों पर डाल ली। पैर सिकोड़कर बैठा ही था कि आवाज़ सुनाई दी, "पढ़ो पटे सित्तारम स़ित्तारम. . . " उसने मुड़कर देखा, तो प्रवचनकर्ता की पीठ दिखाई दी। कोई ख़ास जाड़ा तो नहीं था, पर तोते के मालिक, रूई का कोट, जिस पर बर्फ़ीनुमा सिलाई पड़ी थी और एक पतली मोहरी का पाजामा पहने नज़र आए। सिर पर टोपा भी था और सीट के सहारे एक मोटा-सा सोंटा भी टिका था। पर न तो उनकी शक्ल ही दिखाई दे रही थी और न तोता। फिर वही आवाज़ गूँज उठी, "पढ़ो पटे सित्तारम सित्तारम. . ." सभी लोगों की आँखें उधर ही ताकने लग गईं। आख़िर उससे न रहा गया। वह उठकर उन्हें देखने के लिए खिड़की की ओर बढ़ा। वहाँ तोता भी था और उसका पिंजरा भी, और उसके हाथ में आटे की लोई भी, जिससे वे फुरती से ग

रास्ता इधर से है

रघुवीर सहाय   वह एक वाहियात दिन था। सब कुछ शांत था - यहाँ, इस कमरे में जहाँ किसी के चलने की भी आवाज नहीं सुनाई पड़ सकती थी : इतने मोटे गलीचे बिछे थे : दीवारें जहाँ चिकनी, संगमरमर की-सी शांतिमय, तापमान जहाँ स्थिर, शरीर के अनुकूल था और सबसे बड़ी बात, धूल जहाँ नहीं थी : आप चाहें तो मेज पर आस्‍तीन रख सकते थे। वहाँ नीचे के कमरों की मेजों की तरह नहीं कि उन पर लोग खाने की जूठन पोंछ कर रजिस्‍टर खोल लेते हैं, पर उस कमरे के बावजूद वह दिन एक वाहियात दिन था। एक-एक करके चालीस आदमी उस कमरे में आए। चालीस : अलीबाबा : खुल जा सम-सम। हाँ, एक दरवाजा भी उस कमरे में था आने के लिए और वही जाने के लिए भी। एक और दरवाजा था, उसको खोलने से कोई कहीं जा नहीं सकता था - जो जाता उसे छोटी या बड़ी हाजत रफा करके वापस आना पड़ता। पर उस पर कहीं लिखा न था कि यह कहाँ का दरवाजा है। हर बार जब कोई आदमी वापस जाने लगता तो गलती से यही दरवाजा खोलने लगता और हम पाँच आदमी जो उस कमरे में बैठे थे, असली दरवाजे की ओर उँगली उठा कर एक साथ चिल्‍लाते, "रास्‍ता इधर से है।" दोनों दरवाजे बिल्‍कुल एक-से थे। अगर हम पाँच आदमी दिन-भर भी उस क

डाची

उपेंद्रनाथ अश्क   काट (काट - दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) 'पी सिकंदर' के मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा, 'रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर रहा है?)?' - और उस की छह फुट लंबी सुगठित देह, जो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थी, तन गई और बटन टूटे होने के कारण, मोटी खादी के कुर्ते से उसका विशाल वक्षस्थल और उसकी बलिष्ठ भुजाएँ दृष्टिगोचर हो उठीं। बाकर तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी-नुकीली दाढ़ी और शरअई मूँछों के ऊपर गढ़ों में धँसी हुई दो आँखों में निमिष मात्र के लिए चमक पैदा हुई और जरा मुस्करा कर उसने कहा, 'डाची (साँड़नी) देख रहा था चौधरी, कैसी खूबसूरत और जवान है, देख कर आँखों की भूख मिटती है।' अपने माल की प्रशंसा सुन कर चौधरी नंदू का तनाव कुछ कम हुआ; प्रसन्न हो कर बोला, 'किसी साँड़ (कौन-सी डाची)?' 'वह, परली तरफ से चौथी।' बाकर ने संकेत करते हुए कहा। ओकाँह (एक वृक्ष-विशेष) के एक घने पेड़ की छाया में आठ-दस ऊँट बँधे थे,

जड़ें

इस्मत चुग़ताई अनुवाद - नन्द किशोर विक्रम   सबके चेहरे उड़े हुए थे। घर में खाना तक न पका था। आज छठा दिन था। बच्चे स्कूल छोड़े, घर में बैठे, अपनी और सारे परिवार की जिंदगी बवाल किये दे रहे थे. वही मारपिताई, धौल धप्पा वही उधम, जैसे कि आया ही न हो. कमबख्तों को यह भी ध्यान नहीं कि अँग्रेज चले गये और जाते जाते ऐसा गहरा घाव मार गये जो वर्षों रिसता रहेगा. भारतपर अत्याचार कुछ ऐसे क्रूर हाथों और शस्त्रों से हुआ है कि हजारों धमनियाँ कट गयीं हैं, खून की नदियाँ बह रहीं हैं. किसी में इतनी शक्ति नहीं कि टाँका लगा सके. कुछ दिनों से शहर का वातावरण ऐसा गन्दा हो रहा था कि शहर के सारे मुसलमान एक तरह से नंजरबन्द बैठे थे। घरों में ताले पड़े थे और बाहर पुलिस का पहरा था। और इस तरह कलेजे के टुकड़ों को, सीने पर मूँग दलने के लिए छोड़ दिया गया था। वैसे सिविल लाइंस में अमन ही था, जैसा कि होता है। ये तो गन्दगी वहीं अधिक उछलती है, जहाँ ये बच्चे होते हैं। जहाँ गरीबी होती है वहीं अज्ञानता के घोड़े पर धर्म के ढेर बजबजाते हैं। और ये ढेर कुरेदे जा चुके हैं। ऊपर से पंजाब से आनेवालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थ

रेल की रात

इलाचंद्र जोशी   गाड़ी आने के समय से बहुत पहले ही महेंद्र स्टेशन पर जा पहुँचा था। गाड़ी के पहुँचने का ठीक समय मालूम न हो, यह बात नहीं कही जा सकती। जिस छोटे शहर में वह आया हुआ था, वहाँ से जल्दी भागने के लिए वह ऐसा उत्सुक हो उठा था कि जान-बूझ कर भी अज्ञात मन से शायद किसी अबोध बालक की तरह वह समझा था कि उसके जल्दी स्टेशन पर पहुँचने से संभवत: गाड़ी भी नियत समय से पहले ही आ जायगी। होल्डाल में बँधे हुए बिस्तरे और चमड़े के एक पुराने सूटकेस को प्लेटफार्म के एक कोने पर रखवा कर वह चिंतित तथा अस्थिर-सा अन्यमनस्क भाव से टहलते हुए टिकट-घर की खिड़की के खुलने का इंतजार करने लगा। महेंद्र की आयु बत्तीस-तैंतीस वर्ष के लगभग होगी। उसके कद की ऊँचाई साढ़े पाँच फीट से कम नहीं मालूम होती थी। उसके शरीर का गठन देखने से उसे दुबला तो नहीं कहा जा सकता, तथापि मोटा वह नाम का भी न था। रंग उसका गेहुँआ था, कपोल कुछ चौड़ा, भौंहें कुछ मोटी किंतु तनी हुई, आँखें छोटी पर लंबी, काली मूँछें घनी पर पतली और दोनों सिरों पर कुछ ऊपर को उठी थीं। वह खद्दर का एक लंबा कुरता और खद्दर की धोती पहने था। सर पर टोपी नहीं थी। पाँवों में घड़िया