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राम, कृष्ण और शिव

राममनोहर लोहिया   दुनिया के देशों में हिंदुस्‍तान किंवदंतियों के मामले में सबसे धनी है। हिंदुस्‍तान की किंवदंतियों ने सदियों से लोगों के दिमाग पर निरंतर असर डाला है। इतिहास के बड़े लोगों के बारे में, चाहे वे बुद्ध हों या अशोक, देश के चौथाई से अधिक लोग अनभिज्ञ हैं। दस में एक को उनके काम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी होगी और सौ में एक या हजार में एक उनके कर्म और विचार के बारे में कुछ विस्‍तार से जानता हो तो अचरज की बात होगी। देश के तीन सबसे बड़े पौराणिक नाम - राम, कृष्‍ण और शिव - सबको मालूम हैं। उनके काम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी प्राय: सभी को, कम से कम दो में एक को तो होगी ही। उनके विचार व कर्म, या उन्‍होंने कौन-से शब्‍द कब कहे, उसे विस्‍तारपूर्वक दस में एक जानता होगा। भारतीय आत्‍मा के लिए तो बेशक और कम से कम अब तक के भारतीय इतिहास की आत्‍मा के लिए और देश के सांस्‍कृतिक इतिहास के लिए, यह अपेक्षाकृत निरर्थक बात है कि भारतीय पुराण के ये महान लोग धरती पर पैदा हुए भी या नहीं। राम और कृष्‍ण शायद इतिहास के व्‍यक्ति थे और शिव भी गंगा की धारा के लिए रास्‍ता बनानेवाले इंजीनियर रहे हों और स

भाषा बहता नीर

कुबेरनाथ राय   'भाषा बहता नीर'। भाषा एक प्रवाहमान नदी। भाषा बहता हुआ जल। बात बावन तोले पाव रत्ती सही। कबीर की कही हुई है तो सही होनी ही चाहिए। कबीर थे बड़े दबंग और उनका दिल बड़ा साफ था। अतः इस बात के पीछे उनके दिल की सफाई और सहजता झाँकती है, इससे किसी को भी एतराज नहीं हो सकता। बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति है कबीर की उक्ति की भी, ''संस्‍कृत कूप जल है, पर भाषा बहता नीर।'' भाषा तो बहता नीर है। पर 'नीर' को एक व्‍यापक संदर्भ में देखना होगा। साथ ही संस्‍कृत मात्र कूप जल कभी नहीं है। कबीर के पास इतिहास-बोध नहीं था अथवा था भी तो अधूरा था। इतिहास-बोध उनके पास रहता तो 'अत्‍याचारी' और 'अत्‍याचारग्रस्‍त' दोनों को वह एक ही लाठी से नहीं पीटते। खैर, इस अवांतर प्रसंग में न जाकर मैं इतना ही कहूँगा कि संस्‍कृत की भूमिका भारतीय भाषाओं और साहित्‍य के संदर्भ में 'कूपजल' से कहीं ज्यादा विस्‍तृत है। वस्‍तुतः उनके इस वाक्‍यांश, 'संस्‍कृत भाषा कूपजल' का संबंध भाषा, साहित्‍य से है ही नहीं। यह वाक्‍यांश पुरोहित तंत्र के‍ खिलाफ ढेलेबाजी भर है जिसका प्रतीक

शरद पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर   किसी भी पूर्णिमा की रात मुझे उल्लास और मस्ती से भर देती है, फिर उस दिन तो थी शरद पूर्णिमा की रात। उन्मद, खिलखिलाती और पूरे जग को अपने आँचल में समेटे उमड़ी पड़ती-सी! फिर मैं मध्य भारत की आनन्दपूर्ण यात्रा से लौटता हुआ और निर्बन्ध तो नहीं पर निर्बाध दौड़ी चली जा रही देहरा एक्सप्रेस पर सवार! यह छोटा सा मोडक स्टेशन, जहाँ मध्य भारत की उर्वरा श्यामा धरित्री राजस्थान की रक्त-संचित पथरीली पृथ्वी से गले मिलती है। राजस्थानी इतिहास के रोमांचकारी पृष्ठों और चाँदनी की अठखेलियों में आँखमिचौनी-सी खेलता मैं अपनी खिड़की पर बैठा हूँ। दूर पर पहाड़ियाँ हैं, बीच में जंगल हैं, मैदान हैं, कहीं-कहीं छोटे झरनों का धीमा प्रवाह है और पुराने किलों की टूटी चारदीवारियाँ, चौकियों की बुर्जियाँ बिखरी पड़ी हैं। कोई कहने-बताने की बात है कि ये जड़ खण्डहर हैं - निर्जीव निरे पत्थर, पर क्या यह भी कोई कहने-बताने की बात है कि इन खण्डहरों में हरेक का एक जीवित व्यक्तित्व है - बोलता जागता, प्राणों की धड़कनों से स्पन्दित होता, पुकारता और ललकारता व्यक्तित्व! हमारे कहानीकारों को प्लाट नहीं मिलते, लेखकों क

साहित्य-देवता

माखनलाल चतुर्वेदी   मैं तुम्हारी एक तसवीर खींचना चाहता हूँ। ''परंतु भूल मत जाना कि मेरी तसवीर खींचते-खींचते तुम्हारी भी एक तसवीर खिंचती चली आ रही है।'' अरे, मैं तो स्वयं ही अपने भावी जीवन की एक तस्वीर अपने अटेचीकेस में रखे हुए हूँ। तुम्हारी तस्वीर बना चुकने के बाद मैं उसे प्रदर्शनी में रखने वाला हूँ। किंतु, मेरे मास्टर, मैं यह पहले देख लेना चाहता हूँ कि मेरे भावी-जीवन को किस तरह चित्रित कर तुमने अपनी जेब में रख छोड़ा है। ''प्रदर्शनी में रक्खो तुम अपनी बनाई हुई, और मैं अपनी बनाई हुई रख दूँ, केवल तुम्हारी तस्वीर।'' ना सेनानी, मैं किसी भी आईने पर बिकने नहीं आया। मैं कैसा हूँ, यह पतित होते समय खूब देख लेता हूँ। चढ़ते समय तो तुम्हीं, केवल तुम्हीं,दीख पड़ते हो। ''क्या देखना है?'' तुम्हें; और तुम कैसे हो यह कलम के घाट उतराने के समय, यह हरगिज नहीं भूल जाना है कि तुम किसके हो। ''आज चित्र खींचने की बेचैनी क्यों हैं?'' कल तक मैं तुम्हारा मोल-तोल कूता करता था। आज अपनी इस वेदना को लिखने के आनंद का भार मुझसे नहीं सँभलता। ''सचमुच

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है

भारतेंदु हरिश्चंद्र   आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुलफजल, बीरबल,टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अप

मैं नास्तिक क्यों हूँ

भगत सिंह   एक नई समस्‍या उठ खड़ी हुई है – क्‍या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान सर्वव्‍यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर विश्‍वास नहीं करता हूँ? मैंने कभी कल्‍पना भी न की थी कि मुझे इस समस्‍या का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने दोस्‍तों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कुछ दोस्‍त, यदि मित्रता का मेरा दावा गलत न हो, मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए उत्‍सुक हैं कि मैं ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्‍यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्‍वास के लिए उकसाया है। जी हाँ, यह एक गंभीर समस्‍या है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्‍य हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। एक कमजोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार मेरे स्‍वभाव का अंग है। अपने कामरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्‍यक्ति कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्‍त श्री बी.के. दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्‍वेच्‍छाचारी कहकर मेरी निन्‍दा भी की गई। कुछ दोस्‍तों को