धर्मवीर भारती ठेले पर हिमालय' - खासा दिलचस्प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्म स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे और खोए-खोए से ही बोले, 'यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।' और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, 'ठेले पर हिमालय'। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नए कवि हों तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें शीर्षक मौजूँ है, और अगर नई कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाटे, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो? ओ नए कवियो। ठेले पर लदो। पान की दूकानों पर बिको। [1] ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आईं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बताईं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह मुझे लगा कि