पृथ्वीराज कपूर दरियागंज की एक छोटी-सी गली में, एक छोटे-से मकान की, एक छोटी सी बैठक के छोटे-से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी-सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख, मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा, बस, खड़ा-खड़ा-सा ही रह गया। मूर्ति की पीठ मेरी ओर थी। शरद जो मुझे वहाँ लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा प्रणाम कर बोले 'पृथ्वीराज आए हैं'। मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने विशाल कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए - शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा - 'मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है!' शरद मेरी ओर देखने लगे। उसकी आँखें कह रही थी कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है? मैं स्वयं विचारमग्न हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घूमे और दो बड़ी-बड़ी आँखें मेरे चेहरे पर रुक गईं जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते-चलते एक मोड़ पर अचानक कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी बत्तियाँ आपके मुँह पर गाड़ दे - हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रोशनी की उष्णता जला दे, और चमक आँखों को चुंधिया दे, किंतु