Friday, May 27, 2022

सच्ची वीरता



पूर्ण सिंह


सच्चे वीर पुरुष धीर, गम्भीर और आज़ाद होते हैं । उनके मन की गम्भीरता और शांति समुद्र की तरह विशाल और गहरी या आकाश की तरह स्थिर और अचल होती है । वे कभी चंचल नहीं होते । रामायण में वाल्मीकि जी ने कुंभकर्ण की गाढ़ी नींद में वीरता का एक चिह्न दिखलाया है । सच है, सच्चे वीरों की नींद आसानी से नहीं खुलती । वे सत्वगुण के क्षीर समुद्र में ऐसे डूबे रहते हैं कि उनको दुनिया की खबर ही नहीं होती । वे संसार के सच्चे परोपकारी होते हैं । ऐसे लोग दुनिया के तख्ते को अपनी आंख की पलकों से हलचल में डाल देते हैं । जब ये शेर जागकर गर्जते हैं, तब सदियों तक इनकी आवाज़ की गूँज सुनाई देती रहती है और सब आवाज़ें बंद हो जाती है । वीर की चाल की आहट कानों में आती रहती है और कभी मुझे और कभी तुझे मद्मत करती है । कभी किसी की और कभी किसी की प्राण-सारंगी वीर के हाथ से बजने लगती है ।

देखो, हरा की कंदरा में एक अनाथ, दुनिया से छिपकर, एक अजीब नींद सोता है । जैसे गली में पड़े हुए पत्थर की ओर कोई ध्यान नहीं देता में, वैसे ही आम आदमियों की तरह इस अनाथ को कोई न जानता था । एक उदारह्रदया धन-सम्पन्ना स्त्री की की वह नौकरी करता है । उसकी सांसारिक प्रतीष्ठा एक मामूली ग़ुलाम की सी है । पर कोई ऐसा दैवीकरण हुआ जिससे संसार में अज्ञात उस ग़ुलाम की बारी आई । उसकी निद्रा खुली । संसार पर मानों हज़ारों बिजलियां गिरी । अरब के रेगिस्तान में बारूद की सी आग भड़क उठी । उसी वीर की आंखों की ज्वाला इंद्रप्रस्थ से लेकर स्पेन तक प्रज्जवलित हुई । उस अज्ञात और गुप्त हरा की कंदरा में सोने वाले ने एक आवाज़ दी । सारी पृथ्वी भय से कांपने लगी । हां, जब पैगम्बर मुहम्मद ने “अल्लाहो अकबर” का गीत गाया तब कुल संसार चुप हो गया और कुछ देर बाद, प्रकृति उसकी आवाज़ को सब दिशाओं में ले उड़ी । पक्षी अल्लाह गाने लगे और मुहम्मद के पैग़ाम को इधर उधर ले उड़े । पर्वत उसकी वाणी को सुनकर पिघल पड़े और नदियाँ “अल्लाह अल्लाह” का आलाप करती हुई पर्वतों से निकल पड़ी । जो लोग उसके सामने आए वे उसके दास बन गए । चंद्र और सूर्य ने बारी बारी से उठकर सलाम किया । उस वीर का बल देखिए कि सदियों के बाद भी संसार के लोगों का बहुत सा हिस्सा उसके पवित्र नाम पर जीता है और अपने छोटे से जीवन को अति तुच्छ समझकर उस अनदेखे और अज्ञात पुरुष के, केवल सुने-सुनाए नाम पर कुर्बान हो जाना अपने जीवन का सबसे उत्तम फल समझता है । सत्वगुण के समुद्र में जिसका अंतःकरण निमग्न हो गया वे ही महात्मा, साधु और वीर हैं । वे लोग अपने क्षुद्र जीवन का परित्याग कर ऐसा ईश्वरीय जीवन पाते हैं कि उनके लिए संसार के सब अगम्य मार्ग साफ हो जाते हैं । आकाश उनके ऊपर बादलों के छाते लगाता है । प्रकृति उनके मनोहर माथे पर राज-तिलक लगाती है । हमारे असली और सच्चे राजा ये ही साधु पुरुष हैं । हीरे और लाल से जड़े हुए, सोने और चाँदी से ज़र्क-वर्क पर सिंहासन पर बैठने वाले दुनिया के राजाओं को तो, जो ग़रीब किसानों की कमाई हुई दौलत पर पिण्डोपजीवी हैं, लोगों ने अपनी मूर्खता से वीर बना रखा है । ये जरी, मखमल और ज़ेवरों से लदे हुए मांस के पुतले तो हरदम कांपते रहते हैं । इन्द्र के समान ऐश्वर्यवान और बलवान होने पर भी दुनिया के ये छोटे “जॉर्ज” बड़े कायर होते हैं । क्यों न हों, इनकी हुकूमत लोगों के दिलों पर नहीं होती । दुनिया के राजाओं के बल की दौड़ लोगों के शरीर तक है । हां, जब कभी किसी अकबर का राज लोगों के दिलों पर होता है तब कायरों की बस्ती में मानों एक सच्चा वीर पैदा होता है ।

एक बागी ग़ुलाम और एक बादशाह की बातचीत हुई । यह ग़ुलाम क़ैदी दिल से आज़ाद था । बादशाह ने कहा – मैं तुमको अभी जान से मार डालूंगा । तुम क्या कर सकते हो ? ग़ुलाम बोला – “हां, मैं फाँसी पर तो चढ़ जाऊँगा, पर तुम्हारा तिरस्कार तब भी कर सकता हूं ।” बस इस ग़ुलाम ने दुनिया के बादशाहों के बल की हद दिखला दी । बस इतने ही ज़ोर, इतनी ही शेखी पर ये झूठे राजा शरीर को दुःख देते और मारपीट कर अनजान लोगों को डराते हैं । भोले लोग उनसे डरते रहते हैं । चूँकि सब लोग शरीर को अपने जीवन का केंद्र समझते हैं, इसीलिए जहां किसी ने उनके शरीर पर ज़रा ज़ोर से हाथ लगाया वहीं वे डर के मारे अधमरे हो जाते हैं । शरीर रक्षा के निमित्त ये लोग इन राजाओं की ऊपरी मन से पूजा करते हैं । जैसे ये राजा वैसा उनका सत्कार । जिनका बल शरीर को ज़रा-सी रस्सी से लटका कर मार देने भर का है, भला उनका और उन बलवान और सच्चे राजाओं का क्या मुकाबला जिनका सिंहासन लोगों के हृदय-कमल की पंखुडियों पर है? सच्चे राजा अपने प्रेम के ज़ोर से लोगों के दिलों को सदा के लिए बाँध देते हैं । दिलों पर हुकूमत करने वाली फ़ौज, तोप, बंदूक आदि के बिना ही वे शहंशाह-ज़माना होते हैं । ऐसे वीर पुरुषों का लक्षण अमेरिका के ऋषि अमरसन ने इस तरह लिखा है :-

"The hero is a mind of such balance that no disturbances can shake his will, but pleasantly, and as if it were imerrily, he advances to his own music, alikein frightful alarms and in the tipsy mists of universal dissoluteness."

(वीर का मस्तिष्क इतना सन्तुलित होता है कि कोई भी बाधा उसकी इच्छा-शक्ति को डिगा नहीं सकती; आनन्द-पूर्वक, हँसते-खेलते वह अपनी ही धुन में मस्त भयानक चेतावनी और मादक विश्वव्यापी विषयासक्ति के बीच समानरूप से निर्लिप्त आगे बढ़ा चला जाता है।)

मंसूर ने अपनी मौज में आकर कहा – “मैं खुदा हूं।” दुनिया कै बादशाह ने कहा– “यह क़ाफ़िर है।” मगर मंसूर ने अपने कलाम को बंद ना किया । पत्थर मार-मार कर दुनिया ने उसके शरीर की बुरी दशा की, परन्तु उस मर्द के हर बाल से ये ही शब्द निकले – “अनहलक़” – “अहं ब्रह्मास्मी” – “मैं ही ब्रह्मा हूं । सूली पर चढ़ना मंसूर के लिए सिर्फ एक खेल था । बादशाह ने समझा कि मंसूर मारा गया ।

शम्स तबरेज़ को भी ऐसा ही क़ाफ़िर समझकर बादशाह ने हुक्म दिया कि इसकी खाल उतार दो । शम्स ने खाल उतारी और बादशाह को दरवाज़े पर आए हुए कुत्ते की तरह भिखारी समझकर, वह खाल खाने के लिए दे दी । खाल देकर वह अपनी यह ग़ज़ल बराबर गाता रहा –

“भीख माँगने वाला तेरे दरवाज़े पर आया है,

ऐ शाह-ए-दिल! कुछ इसको दे दे ।”

खाल उतार कर फेंक दी! वाह रे सत्पुरूष!

भगवान शंकर जब गुजरात की तरफ़ यात्रा कर रहे थे तब एक कापालिक हाथ जोड़े सामने आकर खड़ा हुआ । भगवान ने कहा – “माँग, क्या माँगता है?” उसने कहा – “हे भगवान, आजकल के राजा बड़े कंगाल हैं । उनसे अब हमें दान नहीं मिलता । आप ब्रह्मज्ञानी और सबसे बड़े दानी हैं । आप कृपा करके मुझे अपना सिर दान करें जिसकी भेंट चढ़ाकर मैं अपनी देवी को प्रसन्न करूंगा और अपना यज्ञ पूरा करूंगा ।” भगवान शंकर ने मौज में आकर कहा – “अच्छा, कल यह सिर उतार कर ले जाना और अपना काम सिद्ध कर लेना।”

एक दफ़े दो वीर पुरुष अकबर के दरबार में आए । वे लोग रोज़गार की तलाश में थे । अकबर ने कहा – “अपनी-अपनी वीरता का सबूत दो” बादशाह ने कैसी मूर्खता की! वीरता का भला क्या सबूत देते? परंतु दोनों ने तलवारें निकाल लीं और एक-दूसरे के सामने कर उनकी तेज़ धार पर दौड़ गए और वहीं राजा के सामने क्षण भर में अपने खून में ढेर हो गए ।

ऐसे वीर, रूपया, पैसा, माल, धन का दान नहीं दिया करते । जब ये दान देने की इच्छा करते हैं तब अपने आप को हवन कर देते हैं । बुद्ध महाराज ने जब एक राजा को मृग मारते देखा तब अपना शरीर आगे कर दिया जिससे मृग बच जाए, बुद्ध का शरीर चाहे चला जाए । ऐसे लोग कभी बड़े मौकों का इंतज़ार नहीं करते, छोटे मौकों को ही बड़ा बना देते हैं ।

जब किसी का भाग्योदय हुआ और उसे जोश आया तब जान लो कि संसार में एक तूफ़ान आ गया । उसकी चाल के सामने फिर कोई रूकावट नहीं आ सकती । पहाड़ों की पसलियां तोड़ कर ये लोग हवा के बगोले की तरह निकल जाते हैं, उसके बल का इशारा भूचाल देता है । और उसके दिल की हरकत का निशान समुद्र का तूफ़ान ला देता है । क़ुदरत की और कोई ताक़त उसके सामने फटक् नहीं सकती । सब चीज़ें थम जाती हैं । विधाता भी साँस रोककर उनकी राह को देखता है ।

यूरोप में जब पोप का ज़ोर बहुत बढ़ गया था तब उसका मुक़ाबला कोई भी बादशाह न कर सकता था । पोप की आंखों के इशारे से यूरोप के बादशाह तख़्त से उतार दिए जा सकते थे । पोप का सिक्का यूरोप के लोगों के दिलों में ऐसा बैठ गया था कि उसकी बात को लोग ब्रह्म वाक्य से भी बढ़कर समझते थे और पोप को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे । लाखों ईसाई साधू-संन्यासी और यूरोप के तमाम गिर्जे पोप के हुक्म की पाबंदी करते थे । जिस तरह चूहे की जान बिल्ली के हाथ होती है, उसी तरह पोप ने यूरोपवासियों की जान अपने हाथ में कर ली थी । इस पोप का बल और आतंक बड़ा भयानक था । मगर जर्मनी के एक छोटे से मंदिर के कंगाल पादरी की आत्मा जल उठी । पोप ने इतनी लीला फैलाई थी कि यूरोप में स्वर्ग और नर्क के टिकट बड़े-बड़े दामों पर बिकते थे । टिकट बेच-बेचकर यह पोप बड़ा विषयी हो गया था । लूथर के पास जब टिकट बिक्री होने को पहुँचे तब उसने पहले एक चिट्ठी लिखकर भेजी कि ऐसे काम झूठे तथा पापमय हैं और बंद होने चाहिए । पोप ने इसका जवाब दिया – “लूथर! तुम इस गुस्ताख़ी के बदले आग में ज़िंदा जला दिए जाओगे ।” इस जवाब से लूथर की आत्मा की आग और भी भड़की । उसने लिखा – “अब मैंने अपने दिल में निश्चय कर लिया है कि तुम ईश्वर के तो नहीं, शैतान के प्रतिनिधि हो । अपने आप को ईश्वर के प्रतिनिधि कहने वाले मिथ्यावादी ! जब मैंने तुम्हारे पास सत्यार्थ का संदेश भेजा तब तुमने आग और जल्लाद के नामों से जवाब दिया । उससे साफ़ प्रतीत होता है कि तुम शैतान की दलदल पर खड़े हो, न कि सत्य की चट्टान पर । यह लो! तुम्हारे टिकटों के गट्ठे (Emparchmented Lies) मैंने आग में फेंके ! मुझे जो करना था मैंने कर दिया, जो अब तुम्हारी इच्छा हो, करो । मैं सत्य की चट्टान पर खड़ा हूं ।” इस छोटे से संन्यासी ने वह तूफ़ान यूरोप में पैदा कर दिया जिसकी एक लहर से पोप का सारा जंगी बेड़ा चकनाचूर हो गया । तूफ़ान में एक तिनके की तरह वह न मालूम कहां उड़ गया ।

महाराज रणजीत सिंह ने फ़ौज से कहा – “अटक के पार जाओ” अटक चढ़ी हुई थी और भयंकर लहरें उठी हुईं थी । जब फ़ौज ने कुछ उत्साह प्रकट न किया तो तब उस वीर को ज़रा जोश आया । महाराज ने अपना घोड़ा दरिया में डाल दिया । कहा जाता है कि अटक सूख गई और सब पार निकल गए ।

दुनिया में जंग के सब सामान जमा हैं । लाखों आदमी मरने-मारने को जमा हो रहे हैं । गोलियां पानी की बूंदों की तरह मूसलाधार बरस रही हैं । यह देखो ! वीर को जोश आया । उसने कहा – “हाल्ट” (ठहरो) । तमाम फ़ौज निःस्तब्ध होकर सकते की हालत में खड़ी हो गई । एल्प्स के पहाड़ों पर फ़ौज ने चढ़ना असंभव समझा त्यों ही वीर ने कहा – “एल्प्स है ही नही ।” फ़ौज को निश्चय हो गया कि एल्प्स नहीं है और सब लोग पार हो गए !

एक भेड़ चराने वाली और सतोगुण में डूबी हुई युवती के दिल में जोश आते ही कुल फ़्रांस एक भारी शिकस्त से बच गया ।

अपने आपको हर घड़ी और हर पल महान् से भी महान् बनाने का नाम वीरता है। वीरता के कारनामे तो एक गौण बात हैं। असल वीर तो इन कारनामों को अपनी दिनचर्या में लिखते भी नहीं। दरख्त तो जमीन से रस ग्रहण करने में लगा रहता है । उसे यह ख्याल ही नहीं होता कि मुझमें कितने फल या फूल लगेंगे और कब लगेंगे। उसका काम तो अपने आपको सत्य में रखना है सत्य को अपने अंदर कूट कूट कर भरना है और अंदर ही अंदर बढ़ना है । उसे इस चिंता से क्या मतलब कि कौन मेरे फल खायगा या मैंने कितने फल लोगों को दिये ।

वीरता का विकास नाना प्रकार से होता है । कभी तो उसका विकास लड़ने-मरने में, खून बहाने में, तलवार तोप के सामने जान गँवाने में होता है; कभी प्रेम के मैदान में उनका झंडा खड़ा होता है । कभी साहित्य और संगीत में वीरता खिलती है। कभी जीवन के गूढ़ तत्त्व और सत्य की तलाश में बुद्ध जैसे राजा विरक्त न [?] होकर वीर हो जाते हैं। कभी किसी आदर्श पर और कभी किसी पर वीरता अपना फरहरा लहराती है। परंतु वीरता एक प्रकार का इलहाम (Inspiration) है । जब कभी इसका विकास हुआ तभी एक नया कमाल नजर आया; एक नया जलाल पैदा हुआ; एक नई रौनक, एक नया रंग, एक नई बहार, एक नई प्रभुता संसार में छा गई । वीरता हमेशा निराली और नई होती है । नयापन भी वीरता का एक खास रंग है । हिन्दुओं के पुराणों का वह आलङ्कारिक खयाल, जिससे पुराणकारों ने ईश्वरावतारों को अजीब अजीब और भिन्न भिन्न लिबास दिये हैं, सच्ची मालूम होती है; क्योंकि वीरता का एक विकास दूसरे विकास से कभी किसी तरह मिल नहीं सकता । वीरता की कभी नकल नहीं हो सकती; जैसे मन की प्रसन्नता कभी कोई उधार नहीं ले सकता । वीरता देश-काल के अनुसार संसार में जब कभी प्रकट हुई तभी एक नया स्वरूप लेकर आई, जिसके दर्शन करते ही सब लोग चकित हो गये-कुछ बन न पड़ा और वीरता के आगे सिर झुका दिया।

जापानी वीरता की मूर्ति पूजते हैं । इस मूर्ति का दर्शन वे चेरी के फूल (Cherry flower) की शांत हँसी में करते हैं। क्या ही सच्ची और कौशलमयी पूजा है ! वीरता सदा जोर से भरा हुआ ही उपदेश नहीं करती । वीरता कभी कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है; ऐसी सुंदरता देखकर लोग मोहित हो जाते हैं । जब कोमलता और सुंदरता के रूप में वह दर्शन देती है तब चेरी-फूल से भी ज्यादा नाजुक और मनोहर होती है। जिस शख्स ने यूरप को 'क्रुसेड्ज' (Crusades) के लिये हिला दिया वह उन सबसे बड़ा वीर था जो लड़ाई में लड़े थे। इस पुरुष में वीरता ने आँसुओं और आहों जारियों का लिबास लिया । देखो, एक छोटा सा मामूली आदमी योरप में जाकर रोता है कि हाय हमारे तीर्थ हमारे वास्ते खुले नहीं और पालिस्टन के राजा योरप के यात्रियों को दिक करते हैं । इस आँसू- भरी अपील को सुनकर सारा योरप उसके साथ रो उठा । यह आला दरजे की वीरता है।

नौटिंगगेल (Florence Nightingale) के साये को बीमार लोग सब दवाइयों से उत्तम समझते थे। उसके दर्शनों ही से कितने ही बीमार अच्छे हो जाते थे । वह आला दर्जे का सच्चा परन्द है जो बीमारों के सिरहाने खड़ा होकर दिन-रात गरीबों की निष्काम सेवा करता है और गंदे जख्मों को जरूरत के वक्त से चूसकर साफ करता है। लोगों के दिलों पर ऐसे प्रेम का राज्य अटल है। यह वीरता पर्दानशीन हिन्दुस्तानी औरत की तरह चाहे कभी दुनिया के सामने न आवे, इतिहास के वर्को के काले हर्फ़ों में न आये, तो भी संसार ऐसे ही बल से जीता है ।

वीर पुरुष का दिल सबका दिल हो जाता है। उसका मन सबका मन हो जाता है। उसके ख्याल सबके ख्याल हो जाते हैं। सबके संकल्प उसके संकल्प हो जाते हैं। उसका बल सबका बल हो जाता है । वह सबका और सब उसके हो जाते हैं।

वीरों के बनाने के कारखाने कायम नहीं हो सकते । वे तो देवदार के दरख़्तों की तरह जीवन के अरण्य में खुद-ब-खुद पैदा होते है और बिना किसी के पानी दिए, बिना किसी के दूध पिलाए, बिना किसी के हाथ लगाए, तैयार हो जाते हैं । दुनिया के मैदान में अचानक ही सामने आकर वे खड़े हो जाते हैं, उनका सारा जीवन भीतर ही भीतर होता है । बाहर तो जवाहरात की खानों की ऊपरी ज़मीन की तरह कुछ भी दृष्टि में नहीं आता । वीर की ज़िंदगी मुश्किल से कभी-कभी बाहर नज़र आती है । उसका स्वभाव तो छिपे रहने का है ।

"I was a gem concealed,

Me my burning ray revealed."

(मैं एक छिपा हुआ रत्न था, मुझे मेरी देदीप्यमान किरणों ने प्रकट किया।)

वह लाल गुदड़ियों के भीतर छिपा रहता है । कन्दराओं में, गारों में, छोटी-छोटी झोपड़ियों में बड़े-बड़े वीर महात्मा छिपे रहते हैं । पुस्तकों और अख़बारों को पढ़ने से या विद्वानों के व्याख्यानों को सुनने से तो बस ड्राइंग-हॉल (Drawing Hall Knights) के वीर पैदा होते हैं, उनकी वीरता अनजान लोगों से अपनी स्तुति सुनने तक ख़त्म हो जाती है । असली वीर तो दुनिया की बनावट और लिखावट के मखौलों के लिए नहीं जीते ।

"It is not in your markets that the heroes carry their blood too."

"I enjoy my own freedom at the cost of my own reputation."

(वीरों के रक्त का मूल्य आपके बाजारों में नहीं लग सकता ।

अपने सम्मान का बलिदान कर मैं आत्म-स्वातंत्र्य का आनन्द भोगता हूँ।)

हर दफे दिखावे और नाम की ख़तिर छाती ठोंक कर आगे बढ़ना और फिर पीछे हटना पहले दर्ज़े की बुज़दिली है । वीर तो यह समझता है कि मनुष्य का जीवन एक ज़रा सी चीज़ है । वह सिर्फ एक बार के लिए काफ़ी है । मानो इस बंदूक में एक ही गोली है । हाँ, कायर पुरुष इसको बड़ा ही क़ीमती और कभी न टूटने वाला हथियार समझता है । हर घड़ी आगे बढ़कर, और यह दिखाकर कि हम बड़े है, वे फिर पीछे इस गरज से हट जाते हैं कि उनका अनमोल जीवन किसी और अधिक काम के लिए बच जाए । बादल गरज-गरज कर ऐसे ही चले जाते हैं परंतु बरसने वाले बादल ज़रा देर में बारह इंच तक बरस जाते हैं ।

कायर पुरुष कहते हैं – “आगे बढ़े चलो ।” वीर कहते हैं – “पीछे हटे चलो ।” कायर कहते हैं – “उठाओ तलवार ।” वीर कहते हैं – “सिर आगे करो ।” वीर का जीवन प्रकृति ने फ़िज़ूल खो देने के लिए नहीं बनाया है । वीर पुरुष का शरीर कुदरत की कुल ताक़तों का भण्डार है । कुदरत का यह मरक़ज हिल नहीं सकता । सूर्य का चक्कर हिल जाए तो हिल जाए, परंतु वीर के दिल में जो दैवी केंद्र (Divine Centre) है, वह अचल है । कुदरत के और पदार्थों की पालिसी चाहे आगे बढ़ने की हों, अर्थात् अपने बल को नष्ट करने की हो, मगर वीरों की पालिसी, बल हर तरह से इकट्ठा करने और बताने की होती है । वीर तो अपने अंदर ही “मार्च” करते हैं, क्योंकि ह्रदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते है ।

बेचारी मरियम का लाड़ला, खूबसूरत जवान, अपनी मद में मतवाला और अपने आपको शाहजहाँ हक़ीक़ी कहने वाला ईसा मसीह क्या उस समय कमज़ोर मालूम होता है जब भारी सलीब पर उठकर कभी गिरता, कभी ज़ख़्मी होता और कभी बेहोश हो जाता है ? कोई पत्थर मारता है, कोई ढेला मारता है, कोई थूकता है मग़र उस मर्द का दिल नहीं हिलता । कोई क्षुद्र हृदय और कायर होता तो अपने बादशाहत के बल की गुत्थियां खोल देता, अपनी ताक़त को नष्ट कर देता और और संभव है कि एक निगाह से उस सल्तनत के तख़्ते को उलट देता और और मुसीबत को टाल देता, परंतु जिसको हम मुसीबत जानते हैं उसको वह मखौल समझता था । “सूली मुझे है सेज पिया की, सोने दो मीठी-मीठी नींद है आती ।” अमर ईसा को भला दुनिया के विषय विकार में डूबे लोग क्या जान सकते थे ? अगर चार चिड़िया मिलकर मुझे फाँसी का हुक़्म सुना दें और मैं उसे सुनकर रो दूँ या डर जाऊँ तो मेरा गौरव चिड़ियों से भी कम हो जाए । जैसे चिड़िया मुझे फाँसी देकर उड़ गईं वैसे ही बादशाह और बादशाहतें भी आज ख़ाक़ में मिल गईं है ।

सचमुच ही वह छोटा सा बाबा लोगों का सच्चा बादशाह है । चिड़ियाओं और जानवरों की कचहरी के फ़ैसले से जो डरते या मरते हैं वे मनुष्य नहीं हो सकते। राणा जी ने ज़हर के प्याले से मीराबाई को डराना चाहा, मग़र वाह री सच्चाई ! मीरा ने उस ज़हर को भी अमृत मानकर पी लिया । वह शेर और हाथी के सामने की गई, मग़र वाह रे प्रेम ! मस्त हाथी और शेर ने देवी के चरणों की धूल को अपने मस्तक पर मला और अपना रास्ता लिया । इस वास्ते वीर पुरुष आगे नहीं, पीछे जाते हैं । भीतर ध्यान करते हैं । मारते नहीं, मरते हैं ।

वह वीर क्या जो टीन के बर्तन की तरह झट गरम और झट ठंडा हो जाता है । सदियों नीचे आग जलती रहे तो भी शायद ही वीर गरम हो और हज़ारों वर्ष बर्फ उस पर जमी रहे तो भी क्या मजाल जो उसकी वाणी तक ठंडी हो । उसे ख़ुद गर्म और सर्द होने से क्या मतलब? कारलायल को जो आज की सभ्यता पर गुस्सा आया तो दुनिया में एक नई शक्ति और एक नई जवानी पैदा हुई । कारलायल अंग्रेज़ ज़रूर है, पर उसकी बोली सबसे निराली है । उसके शब्द मानों आग की चिंगारियां है, जो आदमी के दिलों में आग सी जला देते हैं । अब कुछ बदल जाए मगर, कारलायल की गर्मी कभी कम न होगी । यदि हज़ार वर्ष दुनिया में दुखड़े और दर्द रोएं जाएँ तो भी बुद्ध की शांति और दिल की ठंडक एक दर्ज़ा भी इधर-उधर न होगी । यहां आकर भौतिक विज्ञान (Physics) के नियम रो देते हैं । हज़ारों वर्ष आग जलती रहे तो भी थर्मामीटर जैसा का तैसा ।

बाबर के सिपाहियों ने और लोगों के साथ गुरूनानक को भी बेगार में पकड़ लिया । उनके सिर पर बोझ रक्खा और कहा – “चलो!” आप चल पड़े । दौड़, धूप, बोझ, बेगार में पकड़ी हुई औरतों का रोना, शरीफ़ लोगों का दुःख, गांव के गांव जलना सब किस्म की दुखदायी बातें हो रही हैं । मगर किसी का कुछ असर नहीं हुआ । गुरूनानक ने अपने साथी मर्दाना से कहा – “सारंगी बजाओ, हम गाते हैं ।” उस भीड़ में सारंगी बज रही है और आप गा रहे हैं । वाह री शांति ।

अगर कोई छोटा सा बच्चा नेपोलियन के कंधे पर चढ़कर उसके सिर के बाल नोचे तो क्या नेपोलियन इसको अपनी बेइज्ज़ती समझकर उस बालक को ज़मीन पर पटक देगा, जिसमें लोग उसको बड़ा वीर कहें? इसी तरह जब सच्चे वीर, जब उनके बाल दुनिया की चिड़िया नोचती है, तब कुछ परवाह नहीं करते, क्योंकि उनका जीवन आसपास वालों के जीवन से निहायत ही बढ़-चढ़ कर ऊंचा और बलवान होता है । भला ऐसी बातों पर वीर कब हिलते हैं! जब उनकी मौज आई, तभी मैदान उनके हाथ है ।

जापान के एक छोटे से गांव की एक झोपड़ी में एक छोटे क़द का एक जापानी रहता था । उसका नाम ओशियो था । यह पुरुष बड़ा अनुभवी और ज्ञानी था । बड़े कड़े मिजाज़ का, स्थिर, धीर और अपने ख़यालात के समुद्र में डूबे रहने वाला पुरूष था । आसपास रहने वाले लोगों के लड़के इस साधु के पास आया-जाया करते थे । यह उनको मुफ़्त पढ़ाया करता था । जो कुछ मिल जाता वही खा लेता था । दुनिया की व्यावहारिक दृष्टि से वह एक निखट्ठू था क्योंकि इस पुरुष ने दुनिया में कोई बड़ा काम नहीं किया था । उसकी सारी उम्र शांति और सत्वगुण में गुज़र गई थी । लोग समझते थे कि वह एक मामूली आदमी है । एक दफ़ा इत्तेफ़ाक से दो तीन फसलों के न होने से इस फ़कीर के आसपास के मुल्क़ में दुर्भिक्ष पड़ गया । दुर्भिक्ष बड़ा भयानक था । लोग बड़े दुःखी हुए । लाचार होकर इस नंगे, कंगाल फ़कीर के पास मदद माँगने आए । उसके दिल में कुछ ख़याल हुआ । उनकी मदद करने को वह तैयार हो गया । पहले वह ओसाको नामक शहर के बड़े-बड़े धनाढ्य और भद्र पुरुषों के पास गया और उनसे मदद माँगी । इन भले मानसों ने वादा तो किया पर उसे पूरा न किया ।

ओशियो फिर उनके पास कभी न गया । उसने बादशाह के वज़ीरों को पत्र लिखे कि इन किसानों को मदद देनी चाहिए, परंतु बहुत दिन गुज़र जाने पर भी जवाब न आया । ओशियो ने अपने कपड़े और किताबें नीलाम कर दीं । जो कुछ मिला, मुट्ठी भर उन आदमियों की तरफ फेंक दिया । भला इससे क्या हो सकता था ? परंतु ओशियो का दिल इससे शिवरूप हो गया । यहां इतना ज़िक़्र कर लेना काफ़ी होगा कि जापान के लोग अपने बादशाह को पिता की तरह पूजते हैं । उनके हृदय की यह एक वासना है । ऐसी कौम के हज़ारों आदमी इस वीर के पास जमा हैं । ओशियो ने कहा – “सब लोग हाथ में बाँस लेकर तैयार हो जाओ और बग़ावत का झंडा खड़ा कर दो ।” कोई भी चूं-चर्रा न कर सका । बग़ावत का झंडा खड़ा हो गया । ओशियो एक बाँस पकड़कर सबके आगे की ओर जाकर बादशाह के क़िले पर हमला करने के लिए चल पड़ा । इस फ़क़ीर जनरल की की फ़ौज की चाल को कौन रोक सकता था ? जब शाही क़िले के सरदार ने देखा तो तब उसने रिपोर्ट की और आज्ञा माँगी कि ओशियो और उसकी बाग़ी फ़ौज पर बंदूकों की बाढ़ छोड़ी जाए ? हुक़्म हुआ कि – “नहीं, ओशियो तो क़ुदरत के सब्ज़ बर्क़ों को पढ़ाने वाला है । वह किसी ख़ास बात के लिए चढ़ाई करने आया होगा । उसको हमला करने दो और आने दो ।” जब ओशियो क़िले में दाखिल हुआ तब वह सरदार मस्त जनरल को पकड़कर बादशाह के पास ले गया । उस वक्त ओशियो ने कहा – “वे राजभण्डार जो अनाज से भरे हुए हैं, ग़रीबों की मदद के लिए क्यों नहीं खोल दिए जाते ?”

जापान के राजा को डर सा लगा । एक वीर उसके सामने खड़ा था जिसकी आवाज़ में दैवी शक्ति थी । हुक़्म हुआ कि शाही भण्डार खोल दिएं जाएं और सारा अन्न दरिद्र किसानों को बाटा जाए । सब सेना और पुलिस धरी की धरी रह गई । मंत्रियों के दफ़्तर लगे रहे । ओशियो ने जिस काम पर कमर बाँधी उसको कर दिखाया । लोगों की विपत्ती कुछ दिनों के लिए दूर हो गई । ओशियो के हृदय की सफ़ाई, सच्चाई और दृढ़ता के सामने भला कौन ठहर सकता था ? सत्य की सदा जीत होती है । यह भी वीरता का एक चिह्न है । रूस के जार ने सब लोगों को फ़ांसी दे दी । किन्तु टाॅल्सटाय को वह दिल से प्रणाम करता था । उनकी बातों का आदर करता था । जय वहीं होती है जहां कि पवित्रता और प्रेम है । दुनिया किसी कूड़े के ढेर पर नहीं खड़ी है कि जिस मुर्गे ने बांग दी वही सिद्ध हो गया । दुनिया धर्म और अटल आध्यात्मिक नियमों पर खड़ी है । जो अपने आपको उन नियमों के साथ अभिन्नता करके खडा हुआ वह विजयी हो गया । आजकल लोग कहते हैं कि काम करो, काम करो । पर हमें तो यह बातें निरर्थक मालूम होती है । पहले काम करने का बल पैदा करो – अपने अंदर ही अंदर वृक्ष की तरह बढ़ो ।

आजकल भारतवर्ष में परोपकार करने का बुखार फैल रहा है । जिसको 105 डिग्री का बुखार चढ़ा वह आजकल के भारतवर्ष का ऋषि हो गया । आजकल भारतवर्ष में अखबारों की टकसाल में गढ़े हुए वीर दर्जनों मिलते हैं । जहां किसी ने एक दो काम किए और आगे बढ़कर छाती दिखाई तहां हिंदुस्तान के अखबारों ने हीरो’ और ‘महात्मा’ की पुकार मचाई । बस एक नया वीर तैयार हो गया । ये तो पागलपन की लहरें हैं । अखबार लिखने वाले मामूली सिक्के के मनुष्य होते हैं । उनकी स्तुति और निंदा पर क्यों मरे जाते हो ? अपने जीवन को अखबारों के छोटे छोटे पैराग्राफों के ऊपर क्यों लटका रहे हो ? क्या यह सच नहीं है कि हमारे आजकल के वीरों की जानें अखबार के लेखों में है ? जहां इन्होंने रंग बदला कि हमारे वीरों के रंग बदले, ओंठ सूखे और वीरता की आशाएँ टूट गईं ।

प्यारे, अंदर के केंद्र की ओर अपनी चाल उलटो और इस दिखावटी और बनावटी जीवन की चंचलता में अपने आप को न खो दो । वीर नहीं तो वीरों के अनुगामी बनों, और वीरता के काम नहीं तो धीरे धीरे अपने अंदर वीरता के परमाणुओं को जमा करो ।

जब हम कभी वीरों का हाल सुनते हैं तब हमारे अन्दर भी वीरता की लहरें उठती हैं और वीरता का रंग चढ़ जाता है ।  परन्तु वह चिर- स्थायी नहीं होता। इसका कारण सिर्फ यही है कि हममें भीतर वीरता का मलवा (Suttle ) तो होता नहीं। सिर्फ खयाली महल उसके दिखलाने के लिये बनाना चाहते हैं । टीन के बरतन का स्वभाव छोड़कर अपने जीवन के केंद्र में निवास करो और सचाई की चट्टान पर दृढ़ता से खड़े हो जाओ। अपनी जिन्दगी किसी और के हवाले करो ताकि जिन्दगी के बचाने की कोशिशों में कुछ भी समय जाया न हो । इसलिए बाहर की सतह को छोड़कर जीवन की अंदर की तहों में घुस जावो; तब नये रंग खुलेंगे। नफरत और द्वैतदृष्टि छोड़ो, रोना छूट जायगा । प्रेम और आनन्द से काम लो; शान्ति की वर्षा होने लगेगी और दुखड़े दूर हो जायेंगे । जीवन के तत्व को अनुभव करके चुप हो जावो; धीर और गम्भीर हो जावोगे । वीरों की, फकीरों की, पीरों की यह कूक है-हटो पीछे, अपने अन्दर जावो, अपने आपको देखो, दुनिया और की और हो जायगी । अपनी आत्मिक उन्नति करो।

आचरण की सभ्यता

  


- सरदार पूर्ण सिंह


विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है।

आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।

न काला, न नीला, न पीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्‍तरी, न दक्षिणी, बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान, विशाल आत्‍मा के आचरण से मौन रूपिणी, सुगन्धि सदा प्रसारित हुआ करती है; इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगत का कल्‍याण करके विस्‍तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं। तीक्ष्‍ण गरमी से जले भुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूँदाबाँदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्‍पन्‍न शरद ऋतु क्‍लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगंधमय अटल वसंत ऋतु के आनंद का पान करते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनंद-नृत्‍य से उन्‍मदिष्‍णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्‍य करने लगते हैं। आचरण के मौन व्‍याख्‍यान से मनुष्‍य को एक नया जीवन प्राप्‍त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्‍ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल भर आता है। नये नेत्र मिलते हैं। कुल पदार्थों के साथ एक नया मैत्री-भाव फूट पड़ता है। सूर्य, जल, वायु, पुष्‍प, पत्‍थर, घास, पात, नर, नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुंदर मूर्ति के दर्शन होने लगते हैं।

मौनरूपी व्‍याख्‍यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्‍या मातृभाषा, क्‍या साहित्‍यभाषा और क्‍या अन्‍य देश की भाषा सब की सब तुच्‍छ प्रतीत होती हैं। अन्‍य कोई भाषा दिव्‍य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्‍वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्‍याख्‍यान किस तरह आपके हृदय की नाड़ी-नाड़ी में सुंदरता को पिरो देता है। वह व्‍याख्‍यान ही क्‍या, जिसने हृदय की धुन को - मन के लक्ष्‍य को - ही न बदल दिया। चंद्रमा की मंद-मंद हँसी का तारागण के कटाक्षपूर्ण प्राकृतिक मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में घुसकर देखो। सूर्यास्‍त होने के पश्‍चात श्रीकेशवचंद्र सेन और महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने सारी रात एक क्षण की तरह गुजार दी; यह तो कल की बात है। कमल और नरगिस में नयन देखने वाले नेत्रों से पूछो कि मौन व्‍याख्‍यान की प्रभुता कितनी दिव्‍य है।

प्रेम की भाषा शब्‍द-‍रहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्‍तक की भाषा भी शब्‍द-रहित है। जीवन का तत्‍व भी शब्‍द से परे है। सच्‍चा आचरण - प्रभाव, शील, अचल-स्थित संयुक्‍त आचरण - न तो साहित्‍य के लंबे व्‍याख्‍यानों से गढ़ा जा सकता है; न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से; न अंजील से; न कुरान से; न धर्मचर्चा से; न केवल सत्‍संग से। जीवन के अरण्‍य में धंसे हुए पुरुष पर प्रकृति और मनुष्‍य के जीवन के मौन व्‍याख्‍यानों के यत्‍न से सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों की तरह आचरण का रूप प्रत्‍यक्ष होता है।

बर्फ का दुपट्टा बांधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुंदर, अति ऊंचा और अति गौरवान्वित मालूम होता है; परंतु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु समुद्र के जल में डुबो-डुबोकर और उनको अपने विचित्र हथौड़े से सुडौल करके इस हिमालय के दर्शन कराये हैं। आचरण भी हिमालय की तरह एक ऊंचे कलश वाला मंदिर है। यह वह आम का पेड़ नहीं जिसको मदारी एक क्षण में, तुम्‍हारी आँखों में मिट्टी डालकर, अपनी हथेली पर जमा दे। इसके बनने में अनंत काल लगा है। पृथ्‍वी बन गयी, सूर्य बन गया, तारागण आकाश में दौड़ने लगे; परंतु अभी तक आचरण के सुंदर रूप के पूर्ण दर्शन नहीं हुए। कहीं-कहीं उसकी अत्‍यल्‍प छटा अवश्‍य दिखाई देती है।

पुस्‍तकों में लिखे हुए नुसखों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है। सारे वेद और शास्‍त्र भी यदि घोलकर पी लिए जायँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती। आचरण की प्राप्ति की इच्‍छा रखने वाले को तर्क-वितर्क से कुछ भी सहायता नहीं मिलती। शब्‍द और वाणी तो साधारण जीवन के चोचले हैं। ये आचरण की गुप्‍त गुहा में नहीं प्रवेश कर सकते। वहां इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। वेद इस देश के रहने वालों के विश्‍वासानुसार ब्रह्मवाणी है, परंतु इतना काल व्‍यतीत हो जाने पर भी आज तक वे समस्‍त जगत की भिन्‍न-भिन्‍न जातियों को संस्‍कृत भाषा न बुला सके - न समझा सके - न सिखा सके। यह बात हो कैसे? ईश्‍वर तो सदा मौन है। ईश्‍वरीय मौन शब्‍द और भाषा का विषय नहीं। यह केवल आचरण के कान में गुरुमंत्र फूँक सकता है। वह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है।

किसी का आचरण वायु के झोंके से हिल जाय, तो हिल जाय, परंतु साहित्‍य और शब्‍द की गोलन्‍दाजी और आंधी से उसके सिर के एक बाल तक का बाँका न होना एक साधारण बात है। पुष्‍प की कोमल पंखुड़ी के स्‍पर्श से किसी को रोमांच हो जाय; जल की शीतलता से क्रोध और विषय-वासना शांत हो जायँ; बर्फ के दर्शन से पवित्रता आ जाय; सूर्य की ज्‍योति से नेत्र खुल जायँ - परंतु अंगरेजी भाषा का व्‍याख्‍यान - चाहे वह कारलायल ही का लिखा हुआ क्‍यों न हो - बनारस में पंडितों के लिए रामलीला ही है। इसी तरह न्‍याय और व्‍याकरण की बारीकियों के विषय में पंडितों के द्वारा की गई चर्चाएँ और शास्‍त्रार्थ संस्‍कृत-ज्ञान-हीन पुरुषों के लिए स्‍टीम इंजिन के फप्-फप् शब्‍द से अधिक अर्थ नहीं रखते। यदि आप कहें व्‍याख्‍यानों के द्वारा, उपदेशों के द्वारा, धर्मचर्चा द्वारा कितने ही पुरुषों और नारियों के हृदय पर जीवन-व्‍यापी प्रभाव पड़ा है, तो उत्तर यह है कि प्रभाव शब्‍द का नहीं पड़ता - प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है। साधारण उपदेश तो, हर गिरजे, हर मंदिर और हर मस्जिद में होते हैं, परंतु उनका प्रभाव तभी हम पर पड़ता है जब गिरजे का पादड़ी स्‍वयं ईसा होता है - मंदिर का पुजारी स्‍वयं ब्रह्मर्षि होता है - मसजिद का मुल्‍ला स्‍वयं पैगंबर और रसूल होता है।

यदि एक ब्राह्मण किसी डूबती कन्‍या की रक्षा के लिए - चाहे वह कन्‍या जिस जाति की हो, जिस किसी मनुष्‍य की हो, जिस किसी देश की हो - अपने आपको गंगा में फेंक दे - चाहे उसके प्राण यह काम करने में रहें चाहे जायं - तो इस कार्य में प्रेरक आचरण की मौनमयी भाषा किस देश में, किस जाति में और किस काल में, कौन नहीं समझ सकता? प्रेम का आचरण, दया का आचरण - क्‍या पशु क्‍या मनुष्‍य - जगत के सभी चराचर आप ही आप समझ लेते हैं। जगत भर के बच्‍चों की भाषा इस भाष्‍यहीन भाषा का चिह्न है। बालकों के इस शुद्ध मौन का नाद और हास्‍य ही सब देशों में एक ही सा पाया जाता है।

मनुष्‍य का जीवन इतना विशाल है कि उसमें आचरण को रूप देने के लिए नाना प्रकार के ऊंच-नीच और भले-बुरे विचार, अमीरी और गरीबी, उन्‍नति और अव‍नति इत्‍यादि सहायता पहुंचाते हैं। पवित्र अपवित्रता उतनी ही बलवती है, जितनी कि पवित्र और पवित्रता। जो कुछ जगत में हो रहा है वह केवल आचरण के विकास के अर्थ हो रहा है। अंतरात्‍मा वही काम करती है जो बाह्य पदार्थों के संयोग का प्रतिबिंब होता है। जिनको हम पवित्रात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन कूपों से निकलकर वे अब उदय को प्राप्‍त हुए हैं। जिनको हम धर्मात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन अधर्मों को करके वे धर्म-ज्ञान पा सके हैं। जिनको हम सभ्‍य कहते हैं और जो अपने जीवन में पवित्रता को ही सब कुछ समझते हैं, क्‍या पता है, वे कुछ काल पूर्व बुरी और अधर्म अपवित्रता में लिप्‍त रहे हों? अपने जन्‍म-जन्‍मांतरों के संस्‍कारों से भरी हुई अंधकारमय कोठरी से निकल ज्‍योति और स्‍वच्‍छ वायु से परिपूर्ण खुले हुए देश में जब तक अपना आचरण अपने नेत्र न खोल चुका हो तब तक धर्म के गूढ़ तत्‍व कैसे समझ में आ सकते हैं। नेत्र-रहित को सूर्य से क्‍या लाभ? कविता, साहित्‍य, पीर, पैगंबर, गुरु, आचार्य, ऋषि आदि के उपदेशों से लाभ उठाने का यदि आत्‍मा में बल नहीं तो उनसे क्‍या लाभ? जब तक यह जीवन का बीज पृथ्‍वी के मल-मूत्र के ढेर में पड़ा है, अथवा जब तक वह खाद की गरमी से अंकुरित नहीं हआ और प्रस्‍फुटित होकर उससे दो नये पत्ते ऊपर नहीं निकल आये, तब तक ज्‍योति और वायु किस काम के?

वह आचरण ही धर्म-संप्रदायों के अनुच्‍चारित शब्‍दों को सुनाता है, हम में कहां? जब वही नहीं तब फिर क्‍यों न ये संप्रदाय हमारे मानसिक महाभारतों का कुरुक्षेत्र बनें? क्‍यों न अप्रेम, अपवित्र, हत्‍या और अत्‍याचार इन संप्रदायों के नाम से हमारा खून करें। कोई भी संप्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्‍याणकारक नहीं हो सकता और आचरण वाले पुरुषों के लिए सभी धर्म-संप्रदाय कल्‍याणकारक हैं। सच्‍चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।

आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्‍य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार की सामाग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्‍यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी (सबका) क्‍या एक पुरुष और क्‍या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के संबंध में विचार करना होगा। आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं उन सबको आचरण के संघटनकर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्‍मा क्‍यों न हो, वह निश्‍चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो, और किसी तरह नहीं। आचरण की सभ्‍यता की प्राप्ति के लिए वह सब को एक पथ नहीं बता सकता। आचरणशील महात्‍मा स्‍वयं भी किसी अन्‍य की बनायी हुई सड़क से नहीं आया, उसने अपनी सड़क स्‍वयं ही बनायी थी। इसी से उसके बनाए हुए रास्‍ते पर चलकर हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते। हमें अपना रास्‍ता अपने जीवन की कुदाली की एक-एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना भी पड़ेगा। हर किसी को अपने देश-कालानुसार रामप्राप्ति के लिए अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी।

यदि मुझे ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो ऐसे ज्ञान से क्‍या प्रयोजन? जब तक मैं अपना हथौड़ा ठीक-ठीक चलाता हूँ और रूपहीन लोहे को तलवार के रूप में गढ़ देता हूं तब तक मुझे यदि ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो नहीं होने दो। उस ज्ञान से मुझे प्रयोजन ही क्‍या? जब तक मैं अपना उद्धार ठीक और शुद्ध रीति से किये जाता हूं तब तक यदि मुझे आध्‍यात्मिक पवित्रता का ज्ञान नहीं होता तो न होने दो। उससे सिद्धि ही क्‍या हो सकती है? जब तक किसी जहाज के कप्‍तान के हृदय में इतनी वीरता भरी हुई है कि वह महाभयानक समय में अपने जहाज को नहीं छोड़ता तब तक यदि वह मेरी और तेरी दृष्टि में शराबी और स्‍त्रैण है तो उसे वैसा ही होने दो। उसकी बुरी बातों से हमें प्रयोजन ही क्‍या? आँधी हो - बरफ हो - बिजली की कड़क हो - समुद्र का तूफान हो - वह दिन रात आँख खोले अपने जहाज की रक्षा के लिए जहाज के पुल पर घूमता हुआ अपने धर्म का पालन करता है। वह अपने जहाज के साथ समुद्र में डूब जाता है, परंतु अपना जीवन बचाने के लिए कोई उपाय नहीं करता। क्‍या उसके आचरणों का यह अंश मेरे तेरे बिस्‍तर और आसन पर बैठे-बिठाए कहे हुए निरर्थक शब्‍दों के भाव से कम महत्‍व का है?

न मैं किसी गिरजे में जाता हूं और न किसी मंदिर में, न मैं नमाज पढ़ता हूं और न ही रोजा रखता हूं, न संध्या ही करता हूं और न कोई देव-पूजा ही करता हूं, न किसी आचार्य के नाम का मुझे पता है और न किसी के आगे मैंने सिर ही झुकाया है। तो इससे प्रयोजन ही क्‍या और इससे हानि भी क्‍या? मैं तो अपनी खेती करता हूं, अपने हल और बैलों को प्रात:काल उठकर प्रणाम करता हूं, मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पत्तियों की संगति में गुजरता है, आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है। मैं किसी को धोखा नहीं देता; हाँ यदि कोई मुझे धोखा दे तो उससे मेरी कोई हानि नहीं। मेरे खेत में अन्‍न उग रहा है, मेरा घर अन्‍न से भरा है, बिस्‍तर के लिए मुझे एक कमली काफी है, कमर के लिए लँगोटी और सिर के लिए एक टोपी बस है। हाथ-पाँव मेरे बलवान हैं, शरीर मेरा अरोग्‍य है, भूख खूब लगती है, बाजरा और मकई, छाछ और दही, दूध और मक्‍खन मुझे और बच्‍चों को खाने के‍ लिए मिल जाता है। क्‍या इस किसान की सादगी और सच्‍चाई में वह मिठास नहीं जिसकी प्राप्ति के लिए भिन्‍न-भिन्‍न धर्म संप्रदाय लंबी-चौड़ी और चिकनी-‍चुपड़ी बातों द्वारा दीक्षा दिया करते हैं?

जब साहित्‍य, संगीत और कला की अति ने रोम को घोड़े से उतारकर मखमल के गद्दों पर लिटा दिया - जब आलस्‍य और विषय-विकार की लंपटता ने जंगल और पहाड़ की साफ हवा के असभ्‍य और उद्दंड जीवन से रोमवालों का मुख मोड़ दिया तब रोम न‍रम तकियों और बिस्‍तरों पर ऐसा सोया कि अब त‍क न आप जागा और न कोई उसे जगा सका। ऐंग्‍लोसेक्‍सन जाति ने जो उच्‍च पद प्राप्‍त किया बस उसने अपने समुद्र, जंगल और पर्वत से संबंध रखने वाले जीवन से ही प्राप्‍त किया। जाति की उन्‍नति लड़ने-भिड़ने, मरने-मारने, लूटने और लूटे जाने, शिकार करने और शिकार होने वाले जीवन का ही परिणाम है। लोग कहते हैं, केवल धर्म ही जाति की उन्‍नति करता है। यह ठीक है, परंतु यह धर्मांकुर जो जाति को उन्‍नत करता है, इस असभ्‍य, कमीने पापमय जीवन की गंदी राख के ढेर के ऊपर नहीं उगता है। मंदिरों और गिरजों की मंद-मंद टिमटिमाती हुई मोमबत्तियों की रोशनी से यूरप इस उच्‍चावस्‍था को नहीं पहुँचा। वह कठोर जीवन जिसको देश-देशांतरों को ढूँढ़ते फिरते रहने के बिना शांति नहीं मिलती; जिसकी अंतर्ज्‍वाला दूसरी जातियों को जीतने, लूटने, मारने और उन पर राज रकने के बिना मंद नहीं पड़ती - केवल वहीं विशाल जीवन समुद्र की छाती पर मूँग दलकर और पहाड़ों को फाँदकर उनको उस महानता की ओर ले गया और ले जा रहा है। राबिनहुड की प्रशंसा में जो कवि अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं उन्‍हें तत्‍वदर्शी कहना चाहिए, क्‍योंकि राबिनहुड जैसे भौतिक पदार्थों से ही नेलसन और वेलिंगटन जैसे अंगरेज वीरों की हड्डियां तैयार हुई थीं। लड़ाई के आजकल के सामान - गोला, बारूद, जंगी जहाज और तिजारती बेड़ों आदि - को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे वर्तमान सभ्‍यता से भी कहीं अधिक उच्‍च सभ्‍यता का जन्‍म होगा।

धर्म और आध्‍यात्मिक विद्या के पौधे को ऐसी आरोग्‍य-वर्धक भूमि देने के लिए, जिसमें वह प्रकाश और वायु सदा खिलता रहे, सदा फूलता रहे, सदा फलता रहे, यह आवश्‍यक है कि बहुत-से हाथ एक अनंत प्रकृति के ढेर को एकत्र करते रहें। धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को सदा ही कमर बांधे हुए सिपाही बने रहने का भी तो यही अर्थ है। यदि कुल समुद्र का जल उड़ा दो तो रेडियम धातु का एक कण कहीं हाथ लगेगा। आचरण का रेडियम - क्‍या एक पुरुष का, और क्‍या जाति का, और क्‍या जगत का - सारी प्रकृति को खाद बनाये बिना सारी प्रकृति को हवा में उड़ाये बिना भला कब मिलने का है? प्रकृति को मिथ्‍या करके नहीं उड़ाना; उसे उड़ाकर मिथ्‍या करना है। समुद्रों में डोरा डालकर अमृत निकाला है : सो भी कितना? जरा सा! संसार की खाक छानकर आचरण का स्‍वर्ण हाथ आता है। क्‍या बैठे-बिठाये भी वह मिल सकता है?

हिंदुओं का संबंध यदि किसी प्राचीन असभ्‍य जाति के साथ रहा होता तो उनके वर्तमान वंश में अधिक बलवान श्रेणी के मनुष्‍य होते - तो उनमें भी ऋषि, पराक्रमी, जनरल और धीर-वीर पुरुष उत्‍पन्‍न होते। आजकल तो वे उपनिषदों के ऋषियों के पवित्रतामय प्रेम के जीवन को देख-देखकर अहंकार में मग्‍न हो रहे हैं और दिन पर दिन अधोगति की ओर जा रहे हैं। यदि वे किसी जंगली जाति की संतान होते तो उनमें भी ऋषि और बलवान योद्धा होते। ऋषियों को पैदा करने के योग्‍य असभ्‍य पृथ्‍वी का बन जाना तो आसान है; परंतु ऋषियों की अपनी उन्‍नति के लिए राख और पृथ्‍वी बनाना कठिन है, क्‍योंकि ऋषि तो केवल अनंत प्रकृति पर सजते हैं, हमारी जैसी पुष्‍प-शय्या पर मुरझा जाते हैं। माना कि प्राचीन काल में, यूरप में, सभी असभ्‍य थे, परंतु आजकल तो हम असभ्‍य हैं। उनकी असभ्‍यता के ऊपर ऋषि-जीवन की उच्‍च सभ्‍यता फूल रही है और हमारे ऋषियों के जीवन के फूल की शय्या पर आजकल असभ्‍यता का रंग चढ़ा हुआ है। सदा ऋषि पैदा करते रहना, अर्थात अपनी ऊंची चोटी के ऊपर इन फूलों को सदा धारण करते रहना ही जीवन के नियमों का पालन करना है।

धर्म के आचरण की प्राप्ति यदि ऊपरी आडंबरों से होती तो आजकल भारत-निवासी सूर्य के समान शुद्ध आचरण वाले हो जाते। भाई! माला से तो जप नहीं होता। गंगा नहाने से तो तप नहीं होता। पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती है; आँधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी-अमीरी, को झेलने से तप हुआ करता है। आध्‍यात्मिक धर्म के स्‍वप्‍नों की शोभा तभी भली लगती है जब आदमी अपने जीवन का धर्म पालन करे। खुले समुद्र में अपने जहाज पर बैठकर ही समुद्र की आध्‍यात्मिक शोभा का विचार होता है। भूखे को तो चंद्र और सूर्य भी केवल आटे की बड़ी-बड़ी दो रोटियां से प्रतीत होता है। कुटिया में ही बैठकर धूप, आँधी और बर्फ की दिव्‍य शोभा का आनंद आ सकता है। प्राकृतिक सभ्‍यता के आने पर ही मानसिक सभ्‍यता आती है और तभी वह स्थिर भी रह सकती है। मानसिक सभ्‍यता के होने पर ही आचरण सभ्‍यता की प्राप्ति संभव है, और तभी वह स्थिर भी हो सकती है। जब तक निर्धन पुरुष पाप से अपना पेट भरता है तब तक धनवान पुरुष के शुद्धाचरण की पूरी परीक्षा नहीं। इसी प्रकार जब तक अज्ञानी का आचरण अशुद्ध है तब तक ज्ञानवान के आचरण की पूरी परीक्षा नहीं - तब तक जगत में आचरण की सभ्‍यता का राज्‍य नहीं।

आचरण की सभ्‍यता का देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्‍यात्मिक। न उसमें विद्रोह है, न जंग ही का नामोनिशान है और न वहां कोई ऊँचा है, न नीचा। न कोई वहां धनवान है और न ही कोई वहां निर्धन। वहां प्रकृति का नाम नहीं, वहां तो प्रेम और एकता का अखंड राज्‍य रहता है। जिस समय आचरण की सभ्‍यता संसार में आती है उस समय नीले आकाश से मनुष्‍य को वेद-ध्‍वनि सुनायी देती है, नर-नारी पुष्‍पवत् खिलते जाते हैं, प्रभात हो जाता है, प्रभात का गजर बज जाता है, नारद की वीणा अलापने लगती है, ध्रुव का शंख गूँज उठता है, प्रह्लाद का नृत्‍य होता है, शिव का डमरू बजता है, कृष्‍ण की बाँसुरी की धुन प्रारंभ हो जाती है। जहाँ ऐसे शब्‍द होते हैं, जहां ऐसे पुरुष रहते हैं, वहाँ ऐसी ज्‍योति होती है, वही आचरण की सभ्‍यता का सुनहरा देश है। वही देश मनुष्‍य का स्‍वदेश है। जब तक घर न पहुँच जाय, सोना अच्‍छा नहीं, चाहे वेदों में, चाहे इंजील में, चाहे कुरान में, चाहे त्रिपीटिक (त्रिपिटक) में, चाहे इस स्‍थान में, चाहे उस स्‍थान में, कहीं भी सोना अच्‍छा नहीं। आलस्‍य मृत्‍यु है। लेख तो पेड़ों के चित्र सदृश्‍य होते हैं, पेड़ तो होते ही नहीं जो फल लावें। लेखक ने यह चित्र इसलिए भेजा है कि सरस्‍वती में चित्र को देखकर शायद कोई असली पेड़ को जाकर देखने का यत्‍न करे।

Wednesday, May 25, 2022

रोहिल्ला गुलाम कादिर का आतंक, अमानुषिकता और अंत !





-राजगोपाल सिंह वर्मा  


रोहिल्लाओं के सिरमौर नजीबुदौला का रूहेलखण्ड के इतिहास में एक अलग ही स्थान है। वह वीर, पराक्रमी और कूटनीतज्ञ था, पर उसके बेटे जाबिता खान और फिर पौत्र के संबंध में यह धारणा नहीं बनाई जा सकती। विशेष रूप से उसका महत्त्वाकांक्षी पौत्र गुलाम कादिर इतिहास में एक बदनुमा धब्बे की तरह जाना जाता है। उसने धन-दौलत की हवस में तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की आँखें नुचवा ली थीं और तमाम अमानुषिक अत्याचार किये थे।  मेरी पुस्तक ‘बेगम समरू का सच’ में इस प्रकरण पर विस्तार से चर्चा है। पूरे संदर्भों के लिए पुस्तक पद्धनी होगी। भाई अमन कुमार त्यागी जी के निर्देश पर किताब के वेअंश प्रस्तुत हैं-




सन १७८७ के आखिरी दिनों में एक और तूफान आने की राह देख रहा था. सहारनपुर का शासक रुहेला  बागी सरदार जाबिता खां का बेटा गुलाम कादिर हुआ करता था. उसने इस अफरा-तफरी के माहौल का फायदा उठा कर दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा करने के अपने ख्वाब को अमली जामा पहनाना शुरू किया. 

जुलाई १७८७ में लालसोट में महादजी की पराजय के बाद से गुलाम कादिर मराठों के विनाश की पटकथा के तथाकथित निर्णायक अध्याय लिखने में व्यस्त था. वह लम्बे समय से पहले अपने पितामह नजीबुदौल्ला के इलाके दोआब और बाद में दिल्ली के क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की रणनीति पर काम कर रहा था. २१ अगस्त १७८७ को गुलाम कादिर अपनी सेना के साथ बागपत पहुंचा. यह उसकी हिम्मत और आत्मविश्वास की अति थी कि उसने मुगल सम्राट को अपने आने की सूचना भिजवा कर निमन्त्रण प्राप्त करने की भी अपेक्षा की थी. 

यह वही गुलाम कादिर था, जिसके पिता जाबिता खान को समरू साहब ने शिकस्त दी थी. पर अब जबकि मुगल सत्ता दुर्बल हो गई थी, उसके अच्छे दिन आ गये लगते थे. अपनी योजनानुसार एक दिन वह अपनी सेना को लेकर किले के उस पार यमुना नदी के मुहाने तक पहुँच गया था. गुलाम कादिर खां को अपनी जीत का भरोसा इसलिए भी बन गया था, कि उसके साथ मुगलों का एक बड़ा दरबारी, उनका नाजिर, मंजूर अली इस षड्यंत्र में पूरी वफादारी के साथ आ मिला था. 

मुगल सेना ने रुहेला सरदार की सेना की ताकत को आंकने में थोड़ा लापरवाही कर दी. शाहदरा में शाह निजामुद्दीन ने  एक छोटी सैन्य टुकड़ी को यमुना पार उनके अड्डे पर भेजकर ललकारा. लेकिन उसका असर उल्टा हुआ. रुहेला सेना ने मुगलों की इस छोटी सेना को तहस-नहस कर दिया. कहा जाता है कि कादिर की प्रशिक्षित सेना के विरुद्ध यह अकौशलपूर्ण आक्रमण था, इसलिए मुगल सेना का परास्त होना अवश्यंभावी था. न जाने कितने लोग हताहत हुए, और बंदी बनाये गये. तब तक मुगल सेनापति निजामुद्दीन भी नाजिर अली की बेवफाई और गद्दारी को समझ गया था. उसने समझदारी से काम लेते हुए, दिल्ली से २२ मील दूर दक्षिण में स्थित बल्लभगढ़ किले में शरण लेकर वहीं से रुहेलों के विरुद्ध मोर्चा लेने की रणनीति बनाई.

दिल्ली की मुगल सल्तनत के गौरवशाली इतिहास में यह बड़ा खराब समय था. शिंदे ग्वालियर में फंसे थे, निजामउद्दीन को बल्लभगढ़ में शरण लेनी पड़ी थी. उधर रुहेलों के पास नाजिर अली जैसा जानकार भेदिया आ मिला था. यूँ कहिये मुगल दरबार रुहेलों की दया पर निर्भर हो गया था, और सल्तनत उसकी गोद में आ गिरी, बिना किसी प्रतिरोध या बचाव की कोशिशों के. 

इस प्रकार एक सुबह रुहेला नवाब आराम से अपने सैनिकों के साथ यमुना नदी के मुहाने से पार कर एक वीरान और असहाय मुगल दरबार की ओर बिना किसी रुकावट के कूच कर गया. मुगल सल्तनत का इतना बेबस शहंशाह शायद ही इस तवारीख में कभी कोई रहा होगा. पराजित सम्राट ने विद्रोहियों से मैत्री की बातचीत आरंभ कर दी थी. 

१८ जुलाई १७८८ की तारीख दिल्ली के मुगल दरबार के एक तवारीखी तारीख के रूप में जानी जाती है. लाल किले का लाहौरी दरवाजा अपनी मजबूती के कारण फौलादी दरवाजा भी कहलाता था. इस दिन जब तक कोई समझ पाता, या उन्हें रोकने की सोचता भी, इसी दरवाजे से गुलाम कादिर और इस्माइल बेग ने अपने लगभग दो हजार सैनिकों के साथ प्रवेश कर लिया. उन में से कुछ सैनिक दीवान-ए-खास के संगमरमरी हाल में छा गये, बाकी लाल किले के अन्य भागों में. वरांडों, बाग-बगीचों , छत और आरामगाहों तक में बड़ी दाढ़ी वाले अफगानी रोहिल्ला सैनिक दिखते थे. अपनी म्यान में और खुली तेज धारदार तलवार लहराते हुये, ढाल-वस्त्र धारण कर अपने हथियारों से लैस उन आततायी योद्धाओं ने इस राजप्रासाद का कोई हिस्सा नहीं छोड़ा था, जहाँ उनकी मौजूदगी न हो. जैसे-जैसे गुलाम कादिर की सेना आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे ही मुगल सैनिक इधर-उधर छिपते गये. रुहेलों को ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी पडी. यूँ कहें कि किला ऐसे वीरान हुआ कि जैसे उसमें शाह आलम के अलावा कोई और हो ही न. जब वह शाह आलम के दरबार में पहुंचा, तो मुगल वारिस चुपचाप अपने तख्त-ओ-ताज पर बैठा किस्मत के इस रूप पर खुद ही तरस खा रहा था.

कहते हैं कि शाह आलम के उन्नीस बेटे उस समय लाल किले के परिसर में ही मौजूद थे, जिन्हें धकेल कर मोती मस्जिद में इकट्ठा किया गया. यह वही मोती मस्जिद थी, जिसमें केवल राजपरिवार को ही नमाज अता करने की सहूलियत थी. उस समय लाल किले में १८०० के आसपास नौकर-चाकर और अन्य कारिंदे मौजूद थे, जो मीना बाजार और किले की गलियों से होते ऐसे गुम हुए, जैसे यहाँ कभी रहते ही न हों. जो बचे थे, उनको समझा दिया गया कि जैसा कहा गया है वैसा करो, या फिर भुगतने को तैयार रहो. 

आज बदमिजाज रुहेला शासक अपने स्वप्न को साकार करता शाह आलम के सामने उसी के किले में, उस दरबार में आ खड़ा था, जहाँ आम मौकों पर उसकी आवाजाही भी नहीं हो सकती थी.  यह वही सम्राट शाह आलम था जिसके पुरखे बाबर, हिमांयू,अकबर महान, शाहजहाँ और औरंगजेब हुआ करते थे. ये वो लोग थे, जिन्होंने एक समय में पूरे हिन्दुस्तान को अपना बना कर इतिहास में जो जगह दर्ज की थी, वह अन्य किसी भी राजवंश के लिए ईर्ष्या का कारण  हो सकती थी. पर, आज उसी साम्राज्य के इस वंशज की दशा दयनीय हो गई थी. बात यह भी थी कि  यह वही रुहेला था जिसका बाप मुगलों से बगावत कर हार बैठा था, और दादा नजीबुदौल्ला मुगल सल्तनत के लिए सलाम बजा लाता रहा था. 

नाजिर ने गुलाम कादिर को सम्राट से मिलवाया जरूर, पर स्थिति फिलहाल सम्राट के नहीं, इस रुहेले आततायी की ओर अधिक दिखती थी. रुहेला सरदार कम ही सही, पर चतुर था. उसने सलाम किया शहंशाह को, पर इज्जत के भाव नहीं, उपहास के भाव दिखते थे उसकी भूरी आँखों में. उसने तख्त-ए-ताज पर बैठे शहंशाह को धकेल कर एक ओर किया, और नजदीक आ बैठा. हुक्के में तम्बाकू भरा था, और आग भी सुलग रही थी. एक कश लेकर उसने शाह आलम के मुंह पर धुवें का गुबार छोड़ा और मुस्कुराते हुए कहा,

“देखा, तुम्हारी क्या हैसियत कर दी है मैंने. और सुनो, आज से मैं अमीर-उल-उमरा हूँ.”

शाह आलम के पास कोई विकल्प नहीं था. उसने उस रुहेला पठान की आँखों में झाँक कर देखा जहाँ  धूर्तता ही धूर्तता दिख रही थी. पर, उस धूर्त का माकूल जवाब देने की कूवत भी नहीं शेष बची थी फिलहाल शाह आलम में.

“अब तुम आ ही गये हो तो जो मर्जी हो करो”, 

उदास शाह आलम ने हिकारत के भाव से कहा.

“अब शिंदे का क्या भरोसा कि वह लौट कर ना ही आये... वहीं तबाह हो चुका हो शायद!”,

बोल कर और कडुवाहट दिखाई उसने.

शाह आलम दिल का साफ था. वह उसके प्रति भी व्यक्तिगत बैर भाव नहीं रखता था, तथा अपनी रियाया के लिए माकूल चिंता भी करता था. फिर, शिंदे तो उसका सबसे विश्वसनीय व्यक्ति था, जो उसी की सहमति से सैनिक अभियान में बागियों को कुचलने गया था. ऐसे वफादार सलाहकार को गुमनामी के अंधेरों में सौंप कर इस आतंकी को अपना प्रमुख दरबारी बनाने का खयाल भी उसके लिए एक नापाक इरादे-सा था. पर, रुहेला सरदार की बेचैनी को भी शहंशाह महसूस कर सकता था.

“आखिर तुम निकले वही... जिस से तुम्हारे वंश को पहचाना जाता है कादिर...! इस गुलामियत की पेशकश से तुमने अपनी हैसियत तो आंक ली, पर क्या यह भी सोचा कि जिस शहंशाह के पास शिंदे जैसा हीरा हो, वह गुलाम भला मुगल सल्तनत को क्या सलाह देगा?”,

कहकर सम्राट ने गुलाम कादिर को बेहद हिकारत की निगाह से देखा.

“जनाब... हमें गुलाम कहलाने पर कोई आपत्ति नहीं. पर आप भी अब इस नाचीज के गुलाम बन चुके हैं, यह भी दिमाग में रखिये३ वक्त का भरोसा नहीं होता! अब हमारा वक्त है”, 

बेशर्म कादिर ने अहंकार भरे शब्दों में शहंशाह की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में कहा.

शाह आलम उठ खड़े हुए. आँखों में खून उतर आया था, पर वक्त का तकाजा कुछ और था. लेकिन इस धूर्त इंसान की महत्वाकांक्षाएं पूरी होने का भी वक्त नहीं आया था. उसे किसी अकूत खजाने की तलाश थी. 

उधर, जैसे ही बेगम समरू को खबर पहुंची कि गुलाम कादिर की सेना ने जमुना के पार पड़ाव डाला है, और कुछ बड़ी गड़बड़ का अंदेशा है, ऐसे ही बेगम ने दिल्ली चलने के लिए फौज को तैयार करने का हुक्म दिया. बेगम की सारी सेना इस समय पानीपत में प्रताप सिंह के विरुद्ध पड़ाव डाले थी. पर, शाह आलम को उनकी खोयी हुई प्रतिष्ठा वापिस दिलाना और गुलाम कादिर को सबक सिखाना बनिस्पत ज्यादा जरूरी था.

हालांकि उन दिनों खबरों के लिए तेज साधन उपलब्ध नहीं थे, जितनी खबरें उडती थी, उस से कई गुनी अफवाहों का बाजार गर्म रहता था. लेकिन दो बातें साफ थी-- एक, गुलाम कादिर ने दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा कर लिया है, और दिल्ली दरबार के शहंशाह शाह आलम को कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. दूसरे, यह कि इस सब के विरोध के लिए न सिंधिया, और न उनका नायब वहां मौजूद हैं.

कहते हैं कि तब बेगम ने जानकारी मिलते ही बिना वक्त गँवाए ‘चलो दिल्ली’ का नारा दिया. खुद चूड़ीदार पायजामे, कसी पोशाक व जैकेट पहन कर, घोड़े पर तलवार सम्भाले अपनी सेना के साथ बेगम ने दिल्ली की तरफ कूच कर दिया. पर वास्तव में वह उस समय टप्पल में थी. इसलिए उसे सरधना के रास्ते दिल्ली पहुँचने में वक्त लगा. वह यह भी जानती थी कि गुलाम कादिर जरूर पूरी तैयारी और चालबाजी से दिल्ली पर धावा बोलने की हिम्मत कर पाया होगा, और यह कि उसके मुकाबले में बेगम की सेना परास्त भी हो सकती थी. पर, अब बात जज्बात की आ पहुंची थी. बेगम यूँ भी शाह आलम की बहुत इज्जत करती थी, और यह अभियान सिर्फ जमीर की आवाज पर ‘मरो या मार दोश् की तर्ज पर उठाया गया था. 

गुलाम कादिर दिल्ली दरबार में बेगम की इज्जत और रुतबे से तो वाकिफ था ही, उसे बेगम की फौज की तैयारियों की भी जानकारी थी. जैसे ही उसे बेगम के दिल्ली कूच की खबर मिली, कादिर की हालत पतली हो गई. उसने अपने सिपहसालारों से मशवरा किया, जो खुद बेगम की फौज के आने से खौफजदा हो गये थे. आखिरकार तय किया गया कि बेगम से मिलकर ऐसी पेशकश की जाए जो दोनों लोगों के फायदे में हो.

रुहेला  सरदार गुलाम कादिर अपने दो साथियों के साथ लाल किले के उस पार बेगम की फौज के पड़ाव के स्थान पर पहुंचा. 

“बेगम साहिबा से अर्ज करो कि दिल्ली दरबार का बड़ा वजीर, और उनका छोटा भाई गुलाम कादिर बेगम की खिदमत में इज्जत नवाजने आया है”, 

रुहेला  रियासतदार ने पहरेदारों से कहलवाया.

उसे बगल के तंबू में इतजार करने को कहा गया. लगभग आधे घंटे की बेचैनी के लम्हों के बाद बुलावा आया. तब तक न जाने कितने तरह के ख्याल उसके मन में घुमड़ते रहे. 

बेगम अपने अस्थायी डेरे में एक ऊंची और बड़ी कुर्सी पर मसनदों के सहारे विराजमान थी. वह फौजी पोशाक में थी. सर पर साफा भी बंधा था. चार फौजी अंगरक्षक और एक वजीर उनके इर्द गिर्द मुस्तैद खड़े थे. 

गुलाम कादिर ने झुक कर सलाम किया. वह एक निगाह बेगम को देखता ही रह गया. उसने नाम तो अकसर सुना था, पर देखने का मौका यूँ मिलेगा, इसका गुमान भी न था. बेगम ने उसे इशारे से दूर रखी एक साधारण कुर्सी पर बैठने को कहा.

“कहो..गुलाम?”, 

थोड़ा तल्खी और बेरुखी से बेगम ने कहा. 

बेगम इस रुहेला  रियासतदार की हरकत से बेहद नाराज थी. वह शहंशाह शाह आलम की दिल से इज्जत करती थी, और उसके दरबार पर कब्जा कर जबरन उनसे वजीर-ए-खास की पदवी हथियाने का गुलाम कादिर का तरीका बेग को बिल्कुल पसंद नहीं आया था. वह सुनना चाहती थी कि क्या अर्ज करने आया था यह शातिर गुलाम कादिर.

“बेगम हुजूर... कुछ पेशकश करनी है आपके दरबार में, गर बुरा न मानें तो”, 

अपनी कंजी आँखों में थोड़े गहरे भाव लिए गुलाम कादिर ने बेगम से कहा. 

बेगम के मन में कादिर के लिए हिकारत के भाव हावी थे, पर दूरी बहुत थी, उन दोनों के बीच की. या तो कादिर पढ़ नहीं पाया, या बेगम ने वह भाव उभरने ही नहीं दिए, मन के मन में रखे. इतना तो उन्हें आता था.

“कहो३ क्या है तुम्हारे मन में?”, 

बेगम ने सपाट भाव से पूछा. 

“हुजूर कहें तो...बुरा न मानें तो... हम लोग साथ-साथ काम करें. आप इस सल्तनत की मलिका बनें ...आधा-आधा बांट लेंगे पूरा हिंदुस्तान हम. आपको तो पता है कि शाह आलम इतने कमजोर हैं अब कि न वो, और न उनकी फौज हम लोगों का विरोध कर पाएगी.”

मारे गुस्से के बेगम समरू की मुट्ठियाँ तन गई. धमनियों में रुधिर का प्रवाह तेज हो चला, धडकनें असंयत हुई, पर उन्होंने स्वयं को नियंत्रित रखा. चेहरे के भाव प्रभावित न हो पायें, इतना तो नियंत्रण था उनका अपने ऊपर. बोली,

“कैसे संभव है यह नामुमकिन काम ?”

“कुछ भी नामुमकिन नहीं हुजूर... बस मेरे ऊपर छोड़ दें. सब पलक झपकते होगा...! समरू साहब इस मुल्क के आका न बन पाए तो क्या... आपको यह ताज मिलेगा, तभी तो उनकी रूह को सुकूं मिलेगा बेगम साहिबा!”,

ऐसे कहा गुलाम कादिर ने, जैसे बेगम इसी मौके की तलाश में हों. कहते हैं न कि धोखेबाज आदमी हमेशा प्रपंच की ही बात करता है. न जाने कब किसकी पीठ में छुरा घोंप दे. ऐसे चालबाजों के लिए न रिश्ता कोई मायने रखता है, न किसी से मुहब्बत, या मुल्क से वफादारी. बस षड्यंत्र, धोखा, और निजी स्वार्थ३! ऐसे लोगों से संबंध रखना बेगम का उसूल नहीं था. फिर भी, जब यह इंसान हिम्मत कर डेरे तक आया था, यह जानते हुए भी कि बेगम अपनी फौज के साथ उसको पछाड़ने के इरादे से आई हैं, तो उसके आने का असली मकसद यानी उसके मन में पनप रहे जहर को जानने में कोई हर्ज भी नहीं था. धूर्त इंसान को धूर्तता से परास्त करना भी बेहतर कूटनीति ही तो है. 

“यह होगा कैसे ?”, 

बेगम ने थोड़ा अविश्वास और थोड़ी लापरवाही से पूछा.

“वो सब आप मुझ पर छोडिये. बस साथ चाहिए मुझे... आपका और आपकी फौज का. बहन कहा है तो हक अदा करूँगा इस रिश्ते का. उस परवरदिगार का वास्ता”, 

उसने अपने दोनों कानों को हाथों से छू कर, फिर खुदा की इबादत में दोनों हाथ ऊपर की ओर उठा दिए. 

बेगम को प्रभावित न होना था, सो नहीं हुई. पर ऊपरी तौर पर उनमें उत्सुकता बनी रही. वह गुलाम कादिर की आँखों में नीचता, बगावत और कपटीपन की चमक महसूस कर सकती थी. बोली, 

“तफसील में समझाओ!”,

इसी बीच दो बांदियां आकर कुछ सूखे मेवों की तश्तरियां और तरह-तरह के फल तथा गुलाब का शरबत लेकर हाजिर हुई. बेगम ने इशारा किया तो बांदियों ने सब सामान मेहमान की मेज पर सजा दिया. खुद सिर्फ शर्बत का एक गिलास उन्होंने लिया.

“हुजूर... अर्ज है...”, 

कहा ही था गुलाम ने, कि बेगम ने कहा, 

“तखलिया”,

और अगले ही पल उनकी देखभाल में खड़े फौजी, और तमाम बांदियां, तंबू से बाहर हो चले.

“हां, अब बोलो. तुम्हारा राज भी तो राज ही रहना चाहिए गुलाम कादिर...”, 

थोड़ा आश्वस्त किया बेगम ने अपने इस बिन बुलाये मेहमान को.

रुहेला  सरदार बेगम की जर्रानवाजी और मेहमाननवाजी से पहले ही खुश था, अब वह और भी भरोसेमंद हो चला था. उसको दिल्ली की डगर बहुत आसान दिखने लगी थी, यह उसके चेहरे के भावों से भी दिख रहा था.

“जी साहिबा. होना यह है कि आप अपनी फौज के साथ किले पर धावा बोलेंगी और मैं शाह आलम हुजूर की तरफ से आपसे समझौते की बात करूंगा३ बाकी तो आप को पता ही है”,

गुलाम कादिर ने अपना तीर छोड़ दिया था.  

३ और रणनीति तय हो गई. 

भोर तडके गुलाम कादिर को अपनी फौज के साथ बेगम और उनकी फौज का जमुना के उस पार खैरमकदम करना था. ८५ सिपाहियों और गोला बारूद तथा युद्ध के नये तरीकों से ट्रेनिंग शुदा कादिर की यह पलटन तय समय पर निकल पडी. अब यह कोई नहीं जानता था कि उनकी किस्मत में क्या बदा था. ३यूँ कहिये कि शिकारी बहुत आराम से खुद जाल में फंस गया था. 

उसकी सैनिक टुकड़ी के अंतिम सैनिक के आते ही बेगम ने अपनी एक पलटन के कुछ अदद गिने-चुने सिपाहियों और असलहों के जोर पर गुलाम कादिर और उसकी पलटन के वापिसी के सब रास्तों को बंद करा दिया. उसके सपने टूट गये. वह ऐसी शिकस्त के लिए तैयार नहीं था.

शाह आलम को पता चला तो खुशी से उसकी आँखों में आंसू छलक गये. उसे बेगम से जिस दिलेरी की उम्मीद थी, वह उन्होंने कर दिखाया था. नाजुक वक्त पर उन्होंने सल्तनत के लिए वफादारी का सबूत दिया था. दिल्ली के तख्ते-ताज के आका यह भी जानते थे कि यदि बेगम समरू दिल की जगह दिमाग से काम लेती तो शायद अकूत संपत्ति की मालकिन तो होती ही, लाल किले के तख्त पर बैठ कर अपना हुक्म भी चला रही होती.

ऐसे नाजुक समय पर बेगम का वफादार बने रहना उसके चरित्र की उच्चता और शुद्धता को दर्शाता था. शहंशाह शाह आलम ने बेगम समरू को उनके इस कृत्य के लिए ‘जेब-उन-निसा”, यानी ‘मेरी प्रिय बेटी’ के खिताब से नवाजा. बेगम ने घोषणा भी की कि उसकी बाकी जिंदगी भी अगर दिल्ली दरबार के किसी काम आ सके, तो इससे बड़े सुकूं की बात उसके लिए कुछ और नहीं हो सकती. बेगम ने अपनी फौज को सम्राट और किले की सुरक्षा में लगा दिया था .

उधर रुहेला  सरदार गुलाम कादिर अपने उस वक्त को कोस रहा था, जब वह बेगम की बातों में आ गया था. उसने यमुना के पार अपने डेरे से दिल्ली की सल्तनत के सरताज शाह आलम को एक हरकारे के हाथों सन्देश भेजा. संदेश में लिखा था कि शहंशाह तत्काल बेगम समरू और उसकी फौज को वहां से बेदखल करे. ऐसा न करने के एवज में युद्ध के लिये तैयार रहने की भी चेतावनी दी गई थी. शाह आलम ने उसके इस संदेशे को उसी हिकारत की निगाह से रद्दी की टोकरी में फेंक दिया, जहाँ उसकी सही जगह थी. 

गुलाम कादिर में अभी भी हिम्मत बची थी. उसने अपनी सेना को फिर से तैयार किया और लाल किले की ओर बढ़ चला. यहाँ पहुँच कर उसने अपनी तोपों का मुंह किले की ओर कर गोले दागने के हुक्म भी दिए, पर उससे पहले ही बेगम की सेनाओं और उनकी तोपों की हलचल से कादिर की फौजों के हौसले पस्त हो गये. 

उधर इसी बीच खबर मिली कि शहजादा मिर्जा जवां बख्त एक बड़ी फौज लेकर राजधानी की तरफ बढे आ रहे हैं. इस खबर को जब उसके नाजिर ने गुलाम कादिर को बताया तो वह गहरी चिंता में पड़ गया. सोचने का समय नहीं था. अगर शहजादे की फौज आ गई, और उधर से मुगलों की बची फौज के साथ बेगम समरू की मजबूत फौज और गोला-बारूद का मतलब... क्या परिणाम बनता, यह वह अच्छे से महसूस कर सकता था. अंततः  उसने अपने नाजिर की सलाह मानते हुए एक चाल चली. 

इस सलाह के अनुसार, गुलाम कादिर ने अपनी ‘नासमझी’ और ‘गलतियों’ के लिए शहंशाह से माफी माँगी. उसने एक पेशकश के जरिये भारी मात्रा में खजाना भी वापिस किया, और छल से हथियाए गये दोआब के उन हिस्सों को भी दिल्ली की सल्तनत को वापिस कर दिया जो उसके लिए आमदनी का एक बेहतर जरिया थे. नाजिर के बार-बार इल्तिजा और खुशामद करने पर शहंशाह ने आखिरकार उसकी पेशकश स्वीकार कर ली. गुलाम कादिर के जमुना पार के डेरे पर उसके लिए शाही पोशाक भेजकर शर्तें मंजूर करने की सहमति दी गई. रुहेला  सरदार ने भी तुरंत दिल्ली छोड़ कर अपनी रियासत सहारनपुर के लिए कूच करने में ही भलाई समझी.

बेगम समरू यह सोच कर अपनी जागीर में लौट गई थी कि अब शायद दिल्ली की हुकूमत के बेहतर दिन आ जायेंगे. पर कुछ और ही लिखा था इस वंश के इतिहास में. बेगम समरू सम्राट को बुरा-भला समझाने के लिए दिल्ली में नहीं थी, और सम्राट के वारिस को नाजिर ने उनसे दूर करा दिया था. ऐसे में इस दरबार का खुदा ही मालिक था. न फौज मजबूत थी, और न राजा. ऐसे में दुश्मनों का सर उठाना लाजिमी था. 

इस समय सभी पठानों ने गुलाम कादिर के नेतृत्व में राजपूतों के सहयोग से पानीपत से पहले का अपना पूरा खेल पुनः आरम्भ कर दिया था. उन्होंने उत्तर भारत से मराठों को खदेड़ने के लिए काबुल के शाह को निमंत्रित किया था. इस प्रयास में दिल्ली के बादशाह की गुजरे जमाने की प्रिय बेगम वृद्धा मलिका जमानी भी उनके साथ आ गई थी. ऐसे में महाद जी ने अफगानों के शत्रु सिख रियासतों से मैत्री को बढ़ावा दिया, और उन्हें काफी समय तक सिंधु पार करने से रोके रखा था. मराठा योद्धा महाद जी शाह आलम की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे. इसी क्रम में उसने सम्राट को रेवाड़ी के अपने स्थान पर सुरक्षित लाने की भी व्यवस्था की. परन्तु शाह आलम को अब महाद जी की क्षमता पर संशय हो गया था, सो वह उसे साथ चलने के लिए राजी नहीं कर पाया. तब महाद जी अभागे सम्राट को भाग्याधीन छोड़ कर दिल्ली के समस्त इलाकों का त्याग करने के लिए विवश हो गया. दिसम्बर १७८७ में वह स्वयं चंबल के दक्षिण में वापिस चला गया, ताकि वह स्वयं को सुरक्षित रख सके. इस समय वैसे भी इस इलाके में केवल आगरा तथा अलीगढ़ की रक्षा करने वाली दुर्गस्थ मराठा सेनाएं ही रह गई थी. 

सन १७८८ के प्रथम तीन मासों में शिंदे को एक क्षण का भी विश्राम नसीब नहीं हुआ. अपनी सेनाओं को चंबल तक वापिस हटाकर उसने नये सिरे से व्यापक आक्रमण की धुआंधार तैयारियां शुरू कर दी थी. उसे अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करना था. नाना फडनवीस द्वारा भेजी गई सेनाओं के अतिरिक्त उसने अपनी जन्मभूमि जामगांव से एक नवीन सेना की टुकड़ी पहुँचाने की पूर्व में ही इजाजत दे दी थी. नाना की सेनायें १६ मार्च १७८८ को पहुँची तथा रणनीति के अंतर्गत अप्रैल के प्रथम सप्ताह में उसने अपना आक्रमण आरम्भ कर दिया. रणजीत सिंह जाट, राना खां, और मछेरी के राव राजा की मदद से इस्माइल को परास्त किया गया देवजी गाऊली, डी बॉन  तथा रायजी पाटिल ने मिलकर मथुरा जिले पर पुनः अधिकार कर लिया गया. अब यमुना को पार कर गुलाम कादिर का पीछा करते हुए दोआब में प्रवेश कर लिया गया. पठानों ने आगरा के समीप डटकर सामना किया परन्तु जीवबा बख्शी तथा खाण्डेराव हरि ने संयुक्त सैन्य अभियान में उनका सफलतापूर्वक दमन कर दिया.

बाईस अप्रैल को चकसन के निकट भयानक युद्ध हुआ, परन्तु वह अनिर्णीत रहा. गुलाम कादिर को भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी. इस्माइल बेग अकेला रह गया था और १८ जून को आगरा के उपनगर बाग देहरा में यमुना के तट पर  बुरी तरह हार गया. 

एक जुलाई १७८८ को मुगम साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण कर्ता-धर्ता इस्माइल बेग अपने नेतृत्व वाली मुगल सेना के साथ दिल्ली के सम्मुख यमुना के दूसरे तट पर गुलाम कादिर के दरबार में उपस्थित हो गया. दोनों में समझौता हुआ जिसके अनुसार राजकोष तथा सम्राट की भूमियों पर अधिकार करने में गुलाम कादिर के लिए दो भाग तथा बेग के लिए एक भाग के अनुपात में परस्पर विभाजन करना नियत पाया गया. 

गुलाम कादिर मराठों को दिल्ली से भगा देने की प्रतिज्ञा कर दिल्ली में यमुना नदी के पार अपने शिविर में चला गया था. बाद में वह  दो हजार सैनिकों को लेकर वह पुनः उपस्थित हुआ और सम्राट को मीर बख्शी के पद के साथ ही प्रथानुसार वस्त्र सहित अमीरुलउमरा तथा रुक्नुदौला बहादुर की उपाधियाँ भी देने पर विवश कर दिया. १७ फरवरी १७८८ को उसने अलीगढ़ पर अधिकार कर लिया. शिंदे की १८ जून को बाग देहरा में हुई विजय पर गुलाम कादिर अत्यंत क्रोधित था. किस्मत से इस्माइल बेग उसी समय इस रोहिल्ले बागी के पास पहुंचा वह भी तब महाद जी शिंदे के कारण ही बहुत दुखी और दुरावस्था में था. 

रुहेला जागीरदार  गुलाम कादिर इस फिराक में था कि सल्तनत कमजोर हो, और वह अपने मंसूबे पूरे करने के लिए चोट पहुंचाए. हुकुमत के नाजिर मंजूर अली से यूँ भी उसका दोस्ताना था. ऐसे ही एक दिन उसने गुलाम की सेना को आराम से किले के भीतर आने की राह आसान कर दी. इन दोनों बागियों ने अपने रंग दिखाए और शहंशाह से खजाने की चाभियाँ माँगी. शाह आलम ने गुलाम कादिर को यकीन दिलाने की कोशिश की कि उसका खजाना बिल्कुल खाली है, लेकिन कादिर ने उसकी एक न सुनी, उल्टे और गुस्से में भर गया. उनको धकिया कर कारागार में बंद कर दिया गया.

गुलाम कादिर के सपने में दिल्ली का लाल किला वह जगह थी जहाँ सोने की अनगिनत छड़ें खजाने में दमक रही होंगी, मोतियों के संदूक भरे होंगे, हीरे-जवाहरात और अशर्फियों का अनगिनत खजाना मौजूद होगा, माणिक और पन्ने के बड़े-बड़े बक्सों की निगरानी की जाती होगी-- और यह सब खजाना उसका होना था. जब उसे इस खजाने का कोई रास्ता नहीं मिला तो क्रोध से पागल हुए इस लालची जागीरदार ने लाल किले के गुप्त कमरों के फर्शों की भी गहरी खुदाई कराई. पर जो नहीं था, वह मिलता कैसे! 

कमजोर, पीड़ित और सहमे हुए शहंशाह शाह आलम को कारागार से निकाल कर बुलाया गया. उसे फर्श पर बिठा कर फिर पूछताछ की गई. ठीक इसी समय बादलों से गरजती तेज आवाजों और गडगडाहटों के बीच मूसलाधार बारिश ने अपना तांडव दिखाया. लगता था कि यह खुदा ने गुलाम कादिर के अत्याचारों की नापसंदगी को दिखाने का अपना तरीका प्रदर्शित किया था. पर, गुलाम कादिर निहायत ही जल्लाद किस्म का इंसान था. उसे इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उसने चीख कर कहा,

“बाखुदा, अगर तुमने अभी भी खजाने का पता नहीं बताया तो तुम्हें अपने इन्हें हाथों से मार डालूँगा..!”

इस पर इस्माइल बेग ने कादिर खां के गुस्से को सम्भाला. बूढ़े शहंशाह पर दया कर उनके ही इस  पुराने वफादार मुलाजिम ने, जो बागियों से जा मिला था, गुलाम कादिर को इस बात के लिए तय करा लिया कि उसे बंधक बनाये गये बेटों के पास मोती मस्जिद में ही कैद कर दिया जाए. 

रोहिल्लों की कार्ययोजनाओं का मुख्य समर्थक सम्राट का विश्वस्त सेवक, अंतःपुर का अध्यक्ष तथा शिंदे का घोर शत्रु मंसूर अली था. अगली सुबह फिर कहर बन कर आई थी. आज फिर शहंशाह को दीवान-ए-खास में तलब किया गया. फिर गुलाम कादिर ने छिपे खजाने की तहकीकात की. फिर वही चीख-पुकार, क्रोध और बदतमीजी के दौर. और फिर मुगल सम्राट की वही कसमें, कि उसके पास कुछ भी नहीं है. 

इसी बीच कादिर खां ने अपने एक सिपहसलाहकार को सलीमगढ़ जाने का हुक्म दिया. जमुना के उस पार एक टापू में स्थित सलीमगढ़ के इस किले को जेल की भांति इस्तेमाल किया जा रहा था. उस जेल से पूर्व शहंशाह अहमद शाह के वारिस बड़े बेटे बिदार बख्त को लाया गया. यह मुगल वंशज अपने जीवन का अधिकांश समय जेल की कोठरी में बिता कर ही बूढा हुआ जा रहा था. उसने फटी आँखों से खुद को अचानक ‘जहाँ शाह-- हिंदुस्तान का बादशाह’ के रूप में तख्त-ए-ताज पर बैठा पाया. जिसका अभी तक इस तख्त पर वाकई हक था, उसे अपदस्थ किया जा चुका था.  

एक प्रताड़ना और दमन के रूप में हाल ही में अपदस्थ किये गये मुगल शहंशाह और उसके बेटे सलीमगढ़ जेल में बंदी बना कर सींखचों के पीछे डाल दिए गये थे. वे तीन दिन से वहां भूखे-प्यासे बंद थे. इसी बीच नये शहंशाह ने अपने को नई भूमिका के खांचे में ढाल लिया था. वह किले में घूम-घूम कर कारिंदों पर हुक्म चलाने लगा. पर उसके हुक्म को मानने वाले लोग वहां नहीं थे, बल्कि हिकारत की निगाह से देखने वाले लोग बहुतायत में थे. 

लाहौरी गेट को थोड़ी अवधि के लिए खुला रखा गया. इस गेट से आक्रमणकर्ता की फौज के वे सिपाही भीतर लिए गये, जो किन्हीं कारणों से बाहर ही रह गये थे. हालांकि बादशाह जहाँ शाह था, पर सिक्का गुलाम कादिर का चल रहा था. उसने आतंक, बर्बरता और क्रूरता का ऐसा माहौल बनाया हुआ था, कि लोग थरथरा उठे. यह ऐसी बर्बरता थी जिसका दुनिया के इतिहास में कम ही विवरण दर्ज होगा. हर कमरे, तहखाने, सन्दूकों और उन जगहों को खाली किया गया जहाँ खजाना छिपा होने की उम्मीद थी. शाही महल, उनमें बने दरबारियों और अधिकारियों के आवास, नौकरों के रहने के कमरे और यहाँ तक कि शाही बावर्चीखाने को भी नहीं बख्शा गया.  

इसके बाद जनानखाने को तहस-नहस करने की बारी थी. अभी तक लोग नादिर शाह और अहमद शाह दुर्रानी को आततायी और जालिम मानते थे, पर गुलाम कादिर ने वह हदें भी पार कर दी थी जिनका उन लुटेरों ने सम्मान किया था. उसने वहां रह रही शाही खानदान की दो मलिकाओं और खूबसूरत स्त्रियों के साथ हर वो नापाक हरकत की जो कोई भला आदमी सोच भी नहीं सकता था. पर पहली बार की लूट में कुछ हाथ न लगा. 

तब गुलाम कादिर ने दोबारा जनाना महल की तलाशी का हुक्म दिया. वहां की औरतों की जामा तलाशी और दीवारों तथा फर्श को भी खोद कर छिपा खजाना निकालने का हुक्म हुआ. इस बार तलाशी के लिए जिन बर्बर लुटेरों को लगाया गया था, उन्हें थोड़ी सफलता मिली. दरअसल यह सफलता उनकी कम, और धूर्तता तथा चालाकी का परिणाम अधिक थी. अपदस्थ शहंशाह की दो बूढी बेगमों ने इस तलाशी का जिम्मा लिया, बशर्ते कि लूट के इस माल में उन्हें भी थोड़ा हिस्सा मिले. 

जिस शहंशाह के पास खाने के लाले हों, और वह वाकई में बहुत गरीबी में गुजर-बसर कर रहा हो, उसके जनानखाने में खजाने का मिलना एक बड़ी बात था. पर सच्चाई यही थी, कि शहंशाह का उस तथाकथित खजाने से कुछ लेना-देना नहीं था. 

यह वह खजाना था जिसे हर औरत अपने शौहर की जानकारी या बिना जानकारी के जोड़ा करती है. पर मामला चूँकि शाही खानदान की स्त्रियों से जुडा था, तो यह माल इतना भी कम नहीं था. विलाप करती औरतों की आँखों के सामने से उनके चुनींदा गहनों, अशर्फियों, जवाहरातों आदि को एक जगह पर इकठ्ठा किया गया. अभी तक न तो नादिर शाह और न ही अहमद शाह अब्दाली जैसे लुटेरों ने इस तरह सोचा था. पर गुलाम कादिर इन सब से आगे बढ़ चुका था. इसलिए उसके लिए कोई हदें शेष नहीं बची थी.

शाह आलम ने अगली बार फिर भी जब किसी छिपे खजाने होने की बात से इन्कार किया तो उसने उन शहजादियों को पेश करने को कहा. पहले उन्हें बेनकाब किया गया, फिर एक-एक कर कपडे उतरवाने को मजबूर किया. रोहिल्लाओं को खुश करने के लिए उनसे अपने पिता की आँखों के सामने उनसे नग्न नृत्य कराया गया. कुछ शहजादियाँ इतनी ग्लान हुई कि उन्होंने पास ही बह रही यमुना नदी में छलांग लगा दी. शाह आलम दुःख और क्रोध मिश्रित भावनाओं में डूबे सर झुकाए बैठे रहे. पर खजाने को लेकर, अभी भी उनका उत्तर वही था. चूँकि उनको वाकई किसी खजाने का इल्म नहीं था.

हालांकि इस्माइल बेग इस शाही लूट में गुलाम कादिर के साथ था, पर इस तरह की बर्बरता के नंगे नाच से वह भी आहत हो चला था. शाही खानदान की बेटियों के साथ किये गये इस अमानवीय बर्ताव का उसने विरोध तो किया ही, अपना आक्रोश भी दर्ज कराया. जब उसकी नहीं सुनी गई तो उसने अपनी सैन्य टुकड़ी को लाल किले से हटा लिया, खुद उसके साथ निजामुद्दीन की दरगाह के पास डेरा डाल  दिया. कुछ रोहिल्ला लड़ाका भी इस कृत्य के विरोध में थे, पर किसी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह अपना विरोध दर्ज करा पाते. 

कहते हैं कि इस्माइल बेग सम्राट के विरुद्ध गुलाम कादिर के कठोर कृत्यों तथा विवश सम्राट और उसके परिवार के अपमान का कभी भी हृदय से समर्थन नहीं करता था. परन्तु यह भी उतना ही सही है कि यदि बेग गुलाम कादिर का साथ न देता तो उसे पठानों के नाम पर सदा-सर्वदा के लिए कलंक का टीका लगाने वाले अमानुषी अत्याचार करने का साहस नहीं हो सकता था.  

पर गुलाम कादिर के जुल्म की इन्तहा अभी होनी बाकी थी. 

यह समय गुलाम कादिर के आतंक का मुंहतोड़ जवाब देने का था. पर दुर्भाग्य था कि महादजी शिंदे और बेगम समरू दोनों ही आसपास नहीं थे. महाद जी शिंदे मथुरा में डेरा डाले थे, जबकि बेगम जॉर्ज  थॉमस के साथ टप्पल को सुलझाने में उलझी थी. एक से अधिक कारणों से शिंदे तत्काल मथुरा छोड़कर अपनी सेना को लेकर लाल किले तक पहुँचने की स्थिति में नहीं था. पर उसको एक उपाय सूझा. शिंदे ने बेगम समरू के पास अपना सन्देश भिजवाया. उसने अनुरोध किया कि संकट की इस घड़ी में चूँकि वह दूर है, अतः बेगम उसकी जगह शहंशाह को स्थिति से उबारने में मदद करे. 

फरजाना उर्फ बेगम समरू टप्पल की नई जागीर को संभालने में व्यस्त थी. टप्पल उन दिनों एक उजड्ड इलाका था, जो व्यवहारिक तौर पर डाकुओं और लुटेरों के कब्जे में था. उसको संभालना आसान नहीं था. उधर बेगम को नहीं पता था कि गुलाम कादिर ने लाल किले में जाकर क्या-क्या गुल खिलाये हैं. जॉर्ज थॉमस के साथ वह टप्पल की स्थिति, उसके किले, भूगोल और लोगों से वाकिफ हो रही थी. टप्पल के किले को रहने लायक बनाने में बहुत खर्चा आना था, उसका आकलन किया जा रहा था. कहाँ से कितना महसूल वसूला जा सकता था, इस पर भी विचार किया जा रहा था. और यह सब इतना आसान भी नहीं था, क्योंकि टप्पल की स्थिति सरधना से काफी भिन्न थी. 

जॉर्ज थॉमस की बात अलग थी. वह ऐसे जंगली और रेतीली इलाकों से मुहब्बत करता था. साथ ही इलाके में डकैतों की भरमार से उसे कुछ दुस्साहसी लोगों से मुकाबले का रोमांच भी आकर्षक लग रहा था. बेगम का सोचना अलग था. वह इस जागीर को लेकर दुविधा में थी. यह वह जगह थी जिसका कोई मालिक नहीं था. ऐसा इसलिए था कि यह न इलाका न जाने कितनी भुखमरियों और लूटों का गवाह रह चुका था. यहाँ का वातावरण लम्बे समय तक रुक कर, और सख्ती से ही सही किया जा सकता था. काफी पैसा झोंक कर स्थानीय दुर्ग को रहने लायक बनाया जाना था. इलाके में इतनी निर्धनता और कम जनसंख्या थी कि खेतों में न कोई फसल थी, और न ही नहरों में पानी. गाँवों के लोग हमेशा डकैतों के डर के साए में रहते थे. 

जॉर्ज पारखी था. इस जागीर में वह अपना भविष्य देख रहा था. उसने बेगम से अनुरोध किया. पर बेगम को अभी भी हिचकिचाहट थी. टप्पल सरधना से कोई नजदीक न था. अभी जिस यात्रा को कर वह यहाँ आई थी, उसकी थकान अब तक भी उसके शरीर में मौजूद थी. वह समझ सकती थी कि सरधना के साथ इसको संभालना कितनी बड़ी चुनौती हो सकती थी. थॉमस के अनुरोध पर अनमने ढंग से ही सही, बेगम उसे टप्पल की इस जागीर का गवर्नर बनाने के लिए राजी हो गई. शाह आलम ने पहले ही इस जागीर को स्वीकृति दे दी थी. बीच में महाद जी शिंदे का दिल्ली पहुँचने का सन्देश भी बेगम को मिला था, परन्तु कुछ भी स्पष्ट नहीं था. इसलिए टप्पल की जागीर पर कोई अंतिम निर्णय किये बिना वहां से आने की बेगम की कोई तात्कालिक योजना नहीं दिखती थी. 

उधर लाल किले में गुलाम कादिर का आतंक जारी था. उसने शाह आलम से फिर कहा,

“मुझे स्वर्ण भंडार, हीरे-जवाहरात और मुद्राएँ चाहियें३ वरना यकीन मानो कि तुम यहाँ से मुर्दा ही ले जाए जाओगे!”

शाह आलम तन और मन से कमजोर हो चला था, पर उसका स्वाभिमान अभी भी जिंदा था.  उसकी आँखों में अंगार बरस रहा था, उसी अंगार को भाव में बदलते हुए उस दिन अपमानित शाह आलम ने दहाड़ते हुए कहा,

“मेरी जिंदगी तुम्हारे हाथ में है गुलाम. चलाओ तलवार और कर दो मेरी गर्दन धड से अलग. वैसे भी तुम्हारे अधीन जिंदगी गुजारने से ज्यादा तौहीन की बात और कुछ हो भी नहीं सकती मेरे लिए!”

नजीबुदौल्ला का पौत्र मूलतः अफगानी रोहिल्ला वंश का प्रमुख गुलाम कादिर पठान वंश का मुखिया था, इसलिए उसमें एक पठान के नैसर्गिक गुण होने स्वाभाविक थे. दया, लज्जा, अथवा सत्यप्रियता का उसमें अभाव था.अपने पितामह और पानीपत के युद्ध के चर्चित योद्धा नजीबुदौल्ला की षड्यंत्रकारी प्रतिभा तो उसे उत्तराधिकार में मिली थी, परन्तु निश्चित रूप से उस जैसी बुद्धि या पूर्वदृष्टि उसके इस पोते के पास नहीं थी. अपने पिता की रियासत पर अधिकार प्राप्त करते ही उसने अपने वृहद परिवार के उन अनेक व्यक्तियों को प्राण दंड दे दिया था जो उसके सामने किसी न किसी रूप में चुनौती बन कर सामने आ सकते थे. अवगुणों में से एक मदिरा का अभ्यासी होना भी उसकी महत्त्वाकांक्षाओं का निषेध करने में सहायक था. वह पिता जाबिता खान से अधिक पितामह नजीबुदौल्ला का अनुकरण करना चाहता था. उसको यह गलतफहमी अहंकार की सीमा तक हो चली थी कि ईश्वर ने उसको अपने वीर अफगान-जाति भाइयों की सहायता द्वारा मुगल राजवंश से समस्त हिन्दू प्रभाव निकालकर उनको शुद्ध करने के लिए ही जन्म दिया है. जब तक वह साम्राज्यवादियों द्वारा अपने घर तथा राजधानी से अपहृत प्रत्येक वस्तु प्राप्त न कर ले, उसकी अफगानी प्रतिशोध-भावना शांत होने वाली नहीं थी. यही कारण है कि मुगल सम्राट के राजपरिवार की महिलाओं के साथ की गई बर्बरताओं, अकथनीय यातनाओं और अपमानों की समता करने वाली ऐसी घटनाएँ इस्लाम के रक्तरंजित इतिहास में भी ढूंढे से नहीं मिलेंगी. 

बेबस और घायल शहंशाह के मुंह से ऐसे शब्द सुनकर गुलाम कादिर का गुस्सा वैसे ही सातवें आसमान पर पहुँच गया. वह छलांग मारकर उसके सीने पर चढ़ बैठा. उसके दो सिपहसलारों ने शाह आलम के हाथ और पैर कस कर पकड़ लिए. गुलाम कादिर के कहने पर उनमे से एक-- कंधारी खां ने राजा की एक आँख नोच ली. असह्य दर्द की पीड़ा से छटपटाते शहंशाह पर किसी को दया नहीं आई. अब बिलबिलाते शाह आलम की दूसरी आँख भी नोच ली गई. बेबस शहंशाह दर्द से चिंघाड़ उठा. उसकी बर्बरता यहीं नहीं रुकी. गुलाम कादिर ने तत्काल एक चित्रकार को बुलाये जाने का हुक्म दिया. आदेश दिया गया कि वह सम्राट के सीने पर चढ़े कादिर खां की उसकी आँखों को नोचने की मुद्रा की एक अच्छी पेंटिंग बनाए. 

गुलाम कादिर की इन वहशियाना हरकतों से आजिज पश्चाताप की आग में जल रहे इस्माइल बेग की दुविधाएं दोतरफा थीं.  पर अब उसने  आततायी का साथ छोड़ने का मन बना लिया था. बेग ने अब सीधे महाद जी शिंदे को संदेशा भिजवाया, जिसमें गुलाम कादिर की बर्बरता का हवाला दिया गया. अपनी गलतियों और भूमिका की क्षमा याचना भी की और यकीन दिलाया कि इस आततायी के विरुद्ध किसी भी अभियान में वह मराठा सैनिकों के साथ होगा. अब उसने लाल किले  में हो रहे तांडव की गतिविधियों से अनभिज्ञ दिल्ली की जनता को इस अभियान के लिए एकजुट करना भी शुरू किया. 

संदेशा मिलते ही शिंदे ने दिल्ली कूच की तैयारी की. हालांकि बरसात के मौसम में सेना का आवागमन सबसे दुरूह काम था. उसके सिपाही अपनी बकाया तनख्वाह मिले बिना मथुरा छोड़ने को तैयार नहीं थे. शिंदे खुद बीमार था, और बाद में दिल्ली पहुंचना चाहता था. फिर भी उसने अपने विश्वस्त सैन्य अधिकारी डी बॉन के नेतृत्व में एक तेज तर्रार बटालियन को तत्काल दिल्ली रवाना कर दिया. 

बेगम समरू और जॉर्ज थॉमस ने लाल किले के घटनाक्रम से वाकिफ होते ही टप्पल छोड़ दिया. पर वह भी बारिश, कीचड़ और बरसाती पानी की बाधाओं से परेशान थे. बस एक अच्छी बात यह थी कि टप्पल और आसपास के इलाकों के रेतीले होने के कारण वहां पानी का बहाव कम था. इसके अलावा रेन्हार्ट समरू और फिर उनकी बेगम ने स्वयं समय-समय पर इलाके में सरधना की तरह बाँध बनवाये थे, तथा पानी निकासी की व्यवस्थायें सुनिश्चित कराई थी. वे सभी बाधाओं को पार करते हुए तेजी से सरधना पहुंचे जहाँ उन्हें सेना की तीन बटालियनें तैयार करनी थी. सरधना के सिपाही जमुना के पश्चिम तट के रास्ते दिल्ली में सेंध लगा चुके थे. इस प्रकार गहरे कत्थई रंग की वर्दी में बेगम समरू की फौज के सिपाही भी दिल्ली की सीमा पर आ पहुंचे थे.

लाल किले के शाही महल में गुलाम कादिर का कब्जा था. उसने अपने ऐशो आराम के सब साधन जुटा लिए थे. शाही खानदान की स्त्रियों के साथ जो भी बेहूदा हरकतें हो सकती थी, की जा रही थीं. दुर्भाग्य यह भी था कि यह सब अंधे, बीमार, व्यथित और बेबस मुगल सम्राट शाह आलम की आँखों के सामने किया जा रहा था. बिदार बख्त को भी बेइज्जत कर बेदखल कर दिया गया था.  शाही परिवार की कुछ औरतें और पुरुष सदमे से, कुछ चोटों से, कुछ भूख से और कुछ आत्महत्या कर जान गँवा चुके थे. 

चैबीस जुलाई को ही शाह आलम को इस रुहेले आक्रांता की तमाम गैर-जरूरी मांगों को स्वीकार कर लिया था. अनमने ढंग से ही सही. सम्राट ने वचन पालन करने के लिए अपने प्रिय पुत्र सुलेमान शिकोह को शरीर-बंधक रूप में गुलाम कादिर को सौंप दिया था. गुलाम कादिर तथा इस्माइल बेग ने दुर्ग तथा शाही महल पर अधिकार करके शाह आलम को एक छोटी-सी मस्जिद में बंद कर दिया था. राजकोष से हर उस वस्तु को लूटा जा रहा था, जो किसी मूल्य की रही थी. कुल ६८ दिनों तक यह तांडव होता रहा. भारत के एक समय सत्ता का केंद्र रहे लाल किले और मुगल परिवार के मुखिया शहंशाह शाह आलम और उसकी सल्तनत सीधे ऐसे निशाने पर थी जिससे आम जनता नावाकिफ-सी थी. 

दस अगस्त को शाह आलम की आँखें नोंचने के बाद नन्हे-नन्हे बच्चों और असहाय स्त्रियों को कई-कई दिनों तक अन्न-जल नहीं दिया गया. शहजादों को सरेआम बेंत लगाए जाते, शहजादियों के साथ बलात्कार किये गये और कारिंदों को तब तक पीटा जाता रहा, जब तक कि वह मर न गये. गुप्त धन का पता लगाने के लिए राजभवन का सारा क्षेत्र तथा नगर में धनिकों के सब घर गहरे खोद डाले गए. इस सुंदर लालकिले, राजभवन और शहर में इन नौ सप्ताह तक नरकीय दृश्य दिखने आम थे. रुहेलों की कामपिपासा को शांत करने के लिए अल्पव्यस्क सुन्दरियों का बलिदान कर दिया गया. दासियों को यातनाएं दी गई, और हिजड़ों को मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने गुप्त धन नहीं बताया था. जो मर गये, उनके अंतिम संस्कार तक नहीं हुए. मलिका जमानी और साहिबा महल के प्रासाद भी खोद दिए गये. सम्राट की उन प्रिय बेगमों का सर्वसाधारण के समक्ष नग्न प्रदर्शन किया गया. इस तांडव में कुल इक्कीस व्यक्तियों की मृत्यु दर्ज की गई. 

अब काफी समय हो चुका था. धीरे-धीरे राजधानी में इन खबरों की हलचलें होने लगी थी. उधर महाद जी शिंदे को भी घटनाक्रम की स्पष्ट जानकारी प्राप्त हो चुकी थी. यह २८ सितम्बर की तारीख थी. इस्माइल बेग, महाद जी शिंदे और बेगम समरू की सेनाओं ने शाहजहांनाबाद के सारे दरवाजों को घेर लिया. यह वही जगह थी जिसे आज हम पुरानी दिल्ली के इलाके के नाम से जानते हैं. यह पूरा अभियान मराठा जनरल राणा खां के नेतृत्व में चलाया गया. उसे ऐसे अवसरों का बेहतर अनुभव था. अगले दिन उसने अपनी सेनाओं को शहर में सारे महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर तैनात भी कर दिया था. 

तब तक सितम्बर का अंतिम सप्ताह आ चुका था. हालांकि बारिश का पानी कम हो रहा था, पर यमुना नदी अभी भी उफान पर थी. फिलहाल यमुना पार कर लाल किले तक पहुंचना असंभव था. बेगम ने जुगत भिड़ाई. उसको वहां जाना था, इसलिए रास्ता निकालना ही था. अंततः दिल्ली से बमुश्किल २५ मील उत्तर दिशा में पुराने बागपत शहर में एक कटान से उस पार जाने का बेहतर मार्ग दिखाई दिया. जितनी नावें मिल सकती थी, मंगाई गई, और सिपाहियों, अधिकारियों तथा घोड़ों की जान जोखिम में डाल कर नदी पार करा दी गई. 

शिंदे ने भी अपनी मजबूत सेना के साथ दोआब के इलाके में प्रवेश कर लिया था. जब उसे इन दर्दनाक घटनाओं की जानकारी मिली तो शिंदे ने बिना वक्त जाया किये अपनी फौज के जनरल राणा खां को सम्राट को बागियों के चंगुल से छुडाने के लिए रवाना किया. उधर बेगम समरू की फौज ने भी कमर कस रखी थी. कादिर के आतंक की हुकूमत अब अधिक देर नहीं ठहरनी थी. गुलाम कादिर को समझ आ गया था कि अब उसका वक्त खत्म होने को है. किले में लगातार रहने का अर्थ होता युद्ध-- और किसी बड़े युद्ध के लिए वह तैयार नहीं था. सो, उसने जो भी बहुमूल्य सामान हाथ लगा, उसके साथ हडबडाहट में मेरठ के रास्ते लौटने की तैयारी की. उसका कठपुतली सम्राट और कुख्यात नाजिर भी साथ ही था. 

वह गुलाम कादिर की खुशनसीबी ही थी कि वह आनन-फानन में दिल्ली का लाल किला खाली कर भाग निकला था. गुलाम कादिर द्वारा किये हुए अत्याचारों का समय २९ जुलाई से लालकिले के बारूदखाने में आग लगने वाले दिन, अर्थात १० अक्टूबर १७८८ तक बताया जता है. मराठा फौज के जनरल राणे खां ने जितना जल्दी हो सकता था, लाल किले पहुंचकर शहंशाह शाह आलम को बेड़ियों से मुक्त कराया. उनको फिर से सम्राट घोषित किया. महाराजा के शानो-शौकत के सभी पुख्ता इंतजाम फिर से बहाल किये और उनकी आँखों के इलाज की भी व्यवस्था की. फिर उसने बागियों की घेराबंदी की योजना को अंजाम दिया. शिंदे के निर्देश थे कि गुलाम कादिर को जिंदा पकड़ कर उसके पापों की मुकम्मिल सजा दी जाएगी.

कुछ लोग महाद जी शिंदे और बेगम समरू द्वारा दिल्ली पहुँचने में हुए विलंब के इस प्रकरण को संदेह की दृष्टि से देखते हैं. कहते हैं कि शिंदे ने दिल्ली पहुँचने में जान-बूझ कर विलंब किया. उसके कई कारण बताये गये. खास तौर से यह आज तक कोई नहीं जान पाया कि क्या वह वाकई ही बीमार था. पर कोई इस निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंचा कि मुगल सम्राट को दिल से मान देने वाला यह योद्धा क्यों संकट के समय उसकी मदद नहीं करना चाहता था. बेगम समरू तो वाकई उस समय टप्पल में थी, पर क्या टप्पल को उस हाल में छोड़कर सम्राट को संकट से उबारने नहीं आया जा सकता था? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है.

दस अक्टूबर को रुहेले सिपाहियों की लापरवाही से किले के बारूदखाने में विस्फोट हुआ था. इसे अशुभ संकेत मानकर गुलाम कादिर ने लूट के माल को लेकर किला खाली कर दिया. अगले ही दिन, यानि ग्यारह अक्टूबर को राणा खां, हिम्मत बहादुर गोसाईं, तथा रानाजी शिंदे ने लाल किला में प्रवेश किया. उन्होंने भूखे निवासियों को भोजन दिया तथा महल में रहने वालों के लिए यथाशक्ति सभी आवश्यक सुविधाएँ मुहैय्या कराई. सोलह अक्टूबर को राणा खां अंधे सम्राट के सम्मुख उपस्थित हुआ. उसने सम्राट को राजगद्दी पर बिठाया और उसके नाम से पुनः खुतबा पढ़ाया गया. 

भागते हुए रुहेले आततायियों का पीछा किया गया. पर वह लोग इधर-उधर हो गये थे. मराठों ने २० अक्टूबर को अलीगढ़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया. राणा खां दो सप्ताह तक लाल किले की व्यवस्थाएं सुचारू करने और पीड़ितों को सहायता पहुंचाने में व्यस्त रहा. वह फिर से भगोड़े रुहेलों का पीछा करने के लिए तीन नवम्बर को दिल्ली से रवाना हुआ. २७ नवम्बर को अली बहादुर भी इस अभियान में राणा खां के साथ हो लिया. वह महाद जी शिंदे की ओर से संदेश लाया था कि ‘दिल्ली के लुटेरे’ को पकड़ने का श्रेय यथासंभव अली बहादुर को दिया जाए. 

दोआब से भागता हुआ गुलाम कादिर चार नवम्बर को मेरठ पहुंचा. वह वहां के गढ़ में शरण लेकर अत्यंत साहस से अपनी रक्षा करता रहा. मेरठ के समस्त मार्ग रोक दिए गये. लगभग छह सप्ताह तक उसने मराठा आक्रमणों का भरपूर प्रतिरोध किया. अंत में असुरक्षित तथा असमर्थ जान गुलाम कादिर  १७ दिसम्बर को चुपचाप गढ़ से भाग निकला तथा शामली के तीन मील दक्षिण-पश्चिम गाँव बामनौली में एक ब्राह्मण के घर अपने कुछ अनुचरों के साथ छिप गया. गुलाम कादिर के दो साथी-- मंसूर अली खां नाजिर तथा उसकी अंगरक्षक सेना का कमांडर मनियार सिंह मेरठ में पकड लिए गये. ब्राह्मण ने गुलाम कादिर के गुप्त स्थान का पता अली बहादुर को पहुंचा दिया. 

१९ दिसम्बर को गुलाम कादिर तथा उसके सहोगियों को पकड़ लिया गया. अन्य बंदियों के साथ उसे ३१ दिसम्बर को पहले मथुरा स्थित महाद जी के शिविर में पहुंचाया गया. दो महीने तक महाद जी ने प्रयत्न किया कि वह बंदियों से बलपूर्वक यथासंभव धन तथा अन्य जानकारी प्राप्त करें. महाद जी ने इस बीच गुलाम कादिर को दिए जाने वाले दंड पर भी विचार किया. हालांकि महाद जी उसे मृत्यु दंड नहीं देना चाहता था, परन्तु बाद की परिस्थितियाँ ऐसी हुई कि उसे भयानक दंड देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा.

उसे लोहे के आदमकद पिंजरे में डाल दिया गया. उसको लाने की सवारी बैलगाड़ी को बनाया गया. उसमें लाद कर गुलाम को दिल्ली लाया गया. उसके पैरों, हाथों और गर्दन में लोहे की भारी-भारी सांकलें मजबूती से डाली गई थीं. एक हजार घुड़सवार और दो फौजी बटालियनों की सुरक्षा में लाये गये गुलाम कादिर की पेशी अंधे सम्राट के सामने उसी लाल किले में हुई जहाँ उसने बर्बरता का तांडव किया था.  

गुलाम कादिर की जुबान जैसे हलक में अटक गई हो. वह थर-थर काँप रहा था. महाद जी शिंदे भी वहीँ थे. उन्होंने कहा,

“तुम जैसे अहसान फरामोश आदमी की सूरत मुझे बार-बार देखनी पड़ रही है, इस बात का भी अफसोस है मुझे..! बोल, क्या सुलूक किया जाए तेरे साथ?”

पर, गुलाम कादिर की हिम्मत के साथ-साथ उसकी जुबान भी साथ नहीं दे पा रही थी. उसने एक झलक कातर निगाहों से देखा, फिर नजरें जमीन की ओर गड़ा ली. आखिरकार शिंदे को ही कहना पडा, 

“मुंह काला करो इस नामुराद का!”

और देखते ही देखते उसके मुंह को काला कर दिया गया. 

भुतहा बने गुलाम कादिर की शक्ल किसी जानवर-सी हो गई थी. 

“तुमको अपने लिए अच्छी बातें सुनने का बहुत शौक है न...? सिपाहियों... काट दो इसके दोनों कान!”,

शिंदे ने सिपाहियों को हुक्म दिया. 

३ और उसके दोनों कानों को चेहरे से अलग कर दिया गया. एक भयानक चिंघाड़ के साथ, गुलाम कादिर दर्द से बिलबिलाता रहा, लेकिन किसी की भी हमदर्दी उसके साथ न थी.

अब उसको शिंदे के डेरे के इर्द-गिर्द घुमाया गया. इतने पर भी शिंदे का मन नहीं भरा. उसने गुलाम कादिर को पूरे शहर में घुमाने का हुक्म दिया ताकि लोग देखें कि बगावत, बर्बरता, बे-अमनी  और लालच का क्या हश्र होता है!

शहर भर के लोगों ने गुलाम कादिर को इस रूप में भी देखा. 

अगले दिन फिर गुलाम कादिर को पेश किया गया. 

आज उसकी नाक और ऊपरी होंठ को उखाड़ कर अलग किया गया. शहर भर में फिर से उसकी परेड कराई गई. 

तीसरे दिन उसको जमीन पर फेंक दिया गया तथा वही सुलूक किया गया जो उसने शहंशाह शाह आलम के साथ किया था. उसकी दोनों आँखें नोच ली गई. फिर डुगडुगी बजा कर उसे पूरे शहर में घुमाया गया. 

बाद में उसके हाथ काटे गये, फिर दोनों पैरों को शरीर से अलग किया गया. उसकी चिंघाड़ दूर-दूर तक सुनी जा सकती थी. 

आखिरकार गुलाम कादिर का धड़ शरीर से अलग कर दिया गया. उसकी रूह आजाद हो गई थी. बाद में शिंदे ने अपने मालिक शहंशाह शाह आलम को गुलाम कादिर के नाक-कान और कटे हुए सर की सौगात पेश की. 

धूर्त नाजिर जो गुलाम कादिर का भेदिया और साथी था, को भी हाथी के पैरों तले कुचलने की सजा सुनाई गई. सम्राट ने बिदार बख्त का भी कत्ल करने का हुक्म दिया, जिसे गुलाम कादिर ने दिल्ली के तख्त पर बिठा दिया था. शाह आलम ने महाद जी को हार्दिक धन्यवाद दिया. मथुरा तथा वृन्दावन के तीर्थस्थलों का शासन महाद जी शिंदे को दिए जाने की घोषणा से उनको पुरुस्कृत भी किया गया. सम्राट को इस बात का अफसोस रहा कि उसके नियन्त्रण में न होने के कारण प्रयाग, बनारस तथा गया के तीर्थस्थान महाद जी के नाम नहीं किये जा सके. 

उधर गुलाम कादिर की माता तथा उसके भाई लूट का माल लेकर सिखों की शरण प्राप्त करने की इच्छा से कुंजपुरा की ओर भाग निकले थे. रायजी पाटिल तथा अली बहादुर ने उनका पीछा किया तथा वह सब बहुमूल्य सामान बरामद करने में सफलता प्राप्त कर ली, जो कादिर ने लाल किले के शाही परिवार से धोखे और बल से प्राप्त किया था. इसी प्रकार घौसगढ़, अलीगढ़ तथा सहारनपुर के रुहेला अधिकृत प्रदेशों पर अधिकार करके वहां मराठा सेनायें रख दी गई. गुलाम कादिर के विभिन्न सहयोगी सरदारों का पता लगाकर उन्हें दण्डित किया गया.  

गुलाम कादिर का मामला धीरे-धीरे शांत हो गया था, लाल किले में बहुत कुछ घटित हुआ था. पर अब वहां भी शांति थी. इस पूरे समय में बेगम समरू ने मुगल सम्राट शाह आलम को समर्पण भाव से साथ दिया. 


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रामावतार त्यागी

- डाॅ. सुरेश गौतम

- डाॅ वीणा गौतम


प्रयोगवादी धारा के पश्चात् हिंदी गीतिधारा मे गीतकारों का जो वर्ग साहित्यिक मंच पर उभर कर सामने आया उनमें रामावतार त्यागी का स्वर अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न सुनाई पड़ता है। गीति-क्षेत्र की जिस परंपरा से आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर त्यागी जी चले उसमें वे निस्संदेह सफल हुए हैं। ये नई अनुभूति के समृद्ध गीत-कवि हैं। उन्होंने जीवन मे सौंदर्य और विकृति दोनों को महत्त्व दिया है। उनके गीतों में चित्रात्मकता है। उन्होंने समाज की पीड़ा, तिरस्कार और घृणा को संवेदना की भूमि में अनुभूत किया है। उन्हें अपने अहं पर आस्था है। उनके कतिपय गीत गाए जाने के लिए हैं और कुछ पढ़े जाने के लिए। जीवन का भोगा हुआ संदर्भ त्यागी की रचनाओं में निर्लिप्त रूप से प्रकट है। त्यागी का व्यक्ति और त्यागी का कवि एक-दूसरे के साथ इस प्रकार घुले-मिले हैं कि उनमें किसी की भी अपेक्षा कर दूसरे को जाना ही नहीं जा सकता चूंकि त्यागी ने जो कुछ देखा, जिया, सहा, झेला और भोगा है, मान उसी को वाणी दी है। ‘न उसकी अनुभूति ‘उधार’ की है न अभिव्यक्ति, न उसने अपने आपको आधुनिक सिद्ध करने के लिए झूठी भाषा का प्रयोग किया है न स्वयं को ‘बड़ा’ कवि मनवाने के लिए ऐसी कविताएं लिखी हैं जो पाठक तो दूर स्वयं कवि की भी समझ में नहीं आती। इन्होंने नारों और प्रचार के बल पर स्वयं को प्रतिस्थापित करने का प्रयास भी नहीं किया। उनके गीत किसी व्यक्ति विशेष का रुदन-ह्रास न होकर पूरे मध्यवित्त समाज की स्थिति को बिंबित कर अपनी अलग दृष्टि रेखांकित करते हैं। उसकी चेतना स्वाभिमान की आंच में तपकर कुंदन बन निखरी है इसीलिए वह व्यक्ति तो क्या, समूचे राष्ट्र की भत्र्सना निर्भीक होकर करता है। जब उसकी आंखें देश में काम के स्थान पर प्रदर्शन, जुलूस, और नारी से प्रभावित अपग आस्था को देखती हैं, उसकी विश्वस्त चेतना कराह उठती है।

स्वाभिमान

त्यागी जी के गीतों में उनकी प्राण-चेतना समाई हुई है, उनका व्यक्तित्व गीतों की पंक्तियों में इस प्रकार रच-बस गया है कि उनके गीत उनके व्यक्तित्व को उभार कर उनकी प्राणवानता सिद्ध करते हैं। उनके व्यक्तित्व के मूल गुण स्वाभिमान तथा स्वच्छंदता अनेकाधिक गीतों में प्रमुख स्वर के रूप में तीव्रता से व्यंजित हुई है। कलाकार के गौरवमय अहं की स्पष्ट अभिव्यक्ति त्यागी के गीतों की अतिरिक्त विशेषता है।

कवि में स्वाभिमान की गति अदम्य है। इस अनुपम शक्ति के बल पर वह किसी के आगे अपने अधिकारों की भिक्षा नहीं मांगता, उसे अपनी आत्मिक शक्ति पर सुदृढ आस्था है। आपदाओं और कष्टों के अथाह समुद्र में अपनी जीवन-नौका के डूब जाने अथवा डावाडोल होने की उसे लेशमात्र भी चिंता नहीं है, चाहे कितने ही प्रभंजन परीक्षा कर देख लें, वह तो अपने आत्मविश्वास से दीपित स्वाभिमान की डोर थामे है। इसलिए उसे किसी की दान-दक्षिणा अथवा अनुकंपा की किसी भी स्थिति में आवश्यकता नहीं है।

यदि माझी में तूफ़ानों से टकराने का आत्मविश्वास से परिपूरित साहस है तब सहस्त्रों प्रभंजन भी उसका कुछ नहीं कर सकते। स्वाभिमान की विपुलता के कारण कदाचित् कवि के स्वभाव में अक्खड़पन उत्पन्न हो गया है। यह किसी भी स्थिति के अनुकूल अपने स्वाभिमान को न तो झुकाना जानता है और न ही किसी प्रकार के समझौते का पक्षधर है। जबकि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था उसे ऐसा करने को बाध्य करती है, परिणामस्वरूप कवि जो मान-सम्मान पाने की आकांक्षा मन में संजोता है वह उसे प्राप्त नहीं होता। मान-सम्मान न प्राप्त कर पाने के कारण कवि-मन विद्रोह करता है और उसके गीत शिक़ायत के स्वर में परिवर्तित होकर परिवार, समाज यहां तक कि शासन-तंत्र के प्रति भी मुखर और प्रखर हो उठते हैं।

स्वाभिमान तथा शिक़ायत में टकराव की स्थिति उत्पन्न होने पर नया संघर्ष प्रारंभ होता है जो कवि हृदय भूमि पर क्रांति के बीज रोपित कर उसके चिंतन को परिवर्तन की ओर उन्मुख करता है, परिणाम होता है जड़ शासनतंत्र के विरुद्ध विद्रोह। कवि इस तथ्य का निभ्र्रांत शब्दों में उदघोष करता है। जड़ और अनुपयोगी व्यवस्था में परिवर्तन जीवन अनिवार्य-धर्म होने के कारण अवश्यंभावी है।

बलिदान

क्रांति-समर्थकों को सिद्धि सरलता से नहीं प्राप्त होती, उसे प्राप्त करने के लिए न जाने आपदाओं, कष्टों के कितने दुर्गम पर्वत लांघ अनेक उत्सर्ग करने पड़ते हैं, कवि ऐसे ही लोगों का चारण है जो काटों से भरे हुए पथ पर चल अपने चरणों को रक्त से लथ-पथ कर बलिदान करना जानते हैं। विवश स्थितियों के वात्यचक्र में उलझकर उत्सर्ग करना बलिदान नहीं है, समर्पण में तो एक तीव्र ललक हर्ष की निराली चमक है। वंदना, अर्चना भी ऐसे ही मुस्करा कर अस्तित्व निर्मूल करने वालों की होती है जिनका अर्थ और इति ख़ुशी-ख़ुशी बलिदान होने की भावना में समाहित है जिन्हें त्याग कर किसी फल प्राप्ति की अपेक्षा नहीं होती।

स्वातंत्र्य एवं जिजीविषा

अंततः बलिदान की परिणति स्वातंत्र्य एवं जिजीविषा में त्राण पाती है। जिस व्यक्ति में हसते मुस्कराते हुए अधिकार त्यागने की सामथ्र्य है, अपने अधिकारों को रक्षित करने के लिए संघर्ष के वज्र-वक्ष मे छिद्र करने का साहस भी वही रखता है। स्वातंत्र्य मनुष्य का जन्मसिद्ध सर्वप्रथम अधिकार है, त्यागी जी इससे एक क्षण के लिए भी विमुख नहीं हैं चूंकि उनके लिए स्वतंत्रता आध्यात्मिक महत्त्व की वस्तु है।

जीवन का अदम्य वेग, जोखिमों, विपत्तियों से टकराने की अद्भुत क्षमता कवि में विद्यमान है। जीवन के प्रति उसका जीवन-दर्शन स्वस्थ है, इसीलिए वह संपूर्ण आस्था से दुःखों एवं सुखों का समान रूप से आलिंगन करता है। जिजीविषा के इसी रूप ने जीवन-भर विकट संघर्षों के समक्ष कवि को कहीं झुकने अथवा समझौता करने नहीं दिया। इसीलिए उसे अपनी जिजीविषा पर दृढ़ विश्वास है, जिस उद्देश्य प्राप्ति के लिए यह जीवन-संग्राम में निहत्था होकर भी अपने पौरुष का परिचय दे रहा है, उसका श्रेय उसे लक्षित उपलब्धि, सिद्धि तक स्वयं ही ले जाएगा। जीवन-संग्राम में विकट संघर्षों से जूझते कवि के दृग-युगल में कभी-कभी अश्रुकण झिलमिलाने लगते हैं लेकिन हर अश्रुकण कायरता की खोझ नहीं होता वरन् यहां तो कवि के आत्म-विश्वास को सवारती मुस्कान दृदृष्टिगत है। इसका कारण है यह तड़प, जलन से उद्दीप्त तपन, व्यथा जो कवि ने इच्छानुसार स्वयं अंगीकार की है। अनिल का पुत्र कवि तापसी अंगारे का तन बनने की इच्छा से उसे सार्थक की सायास चेष्टा में निरंतर संलग्न रहता है।

इन प्रवृत्तियों ने कवि में एक स्वस्थ प्रवृत्ति मार्गी आस्थापूर्ण प्रबल दृष्टिकोण को जन्म दिया है जो भावात्मक अवधारणाओं पर अवलंबित होने के कारण ऋणात्मक मनःस्थिति का घोर विरोध करता है।

वेदना का गायक

त्यागी के गीतों में वेदना का स्वर सर्वाधिक तीव्र है। वैयक्तिक अथवा सामाजिक दोनों ही स्तरों पर उनके गीतों के मूल में वेदना का साम्राज्य है। वैयक्तिक-वेदना में यदि प्रेम से उत्पन्न नैराश्य का स्वर मुखर है तो सामाजिक वेदना में आर्थिक एवं राजनीतिक कटुताओं से उत्पन्न वैषम्य की अनुभवजन्य तपन विद्यमान है। इन सबकी अनुभूति का मुख्य कारण उनका प्रखर स्वाभिमान तथा स्वातंत्रय-भावना से उत्पन्न वह आत्मिक गौरवपूर्ण शक्ति रही है जिसके बल पर वे कभी किसी शक्ति के समक्ष नहीं टूटे, नहीं बिके।

कवि की वेदना अन्य गीतकारों की वेदना से पृथक् है, उनकी पीड़ा में रुदन का लेश नहीं। न ही उनकी तड़प में नैराश्यांधकार तथा अनास्था का भारी बोझ है जिसे उठाने में कवि असमर्थ हो-कारण, पीड़ा उसकी विवशता नहीं है, उसने वेदना का सहर्ष स्वयं आलिंगन किया है। उसकी आस्था की दृढ़ सीमाओं का संकुचन यही नहीं होता बल्कि कालिमा के गहनतम जलधि में भी वह उसके अस्तित्व को निमज्जित न होने तथा पराजित न होने के आस्थामय स्वर की ध्वनियों को संगीतबद्ध करते हुए कवि-व्यक्तित्व की दृढ़ता को प्रकट करती है।

बुद्धि की अपेक्षा कवि सच्ची भावनाओं को अधिक महत्त्व देता है। प्यार की सच्ची भावना ही मानवता का जयघोष है। ज्ञान के आलोकमय क्षेत्र में भावना का स्थान नहीं होता। ज्ञान चाहे भावना को पराजित करने के लिए लाखों-करोड़ों बोलियां लगा लें लेकिन अर्चा के सच्चे भाव-सुमन कभी नहीं बिकते। त्यागी जी बुद्धि-चकोरि पर विश्वास न करने की चेतना व्यक्ति को देना चाहते हैं जहां सौ-सौ जन्म मुस्करा कर भी मानव फूल सी निश्छल मादकता से खिलखिलाकर नहीं हंस पाया। इसीलिए कवि भावनाओं का कट्टर समर्थक है। बुद्धि तो जीवन में व्यथा-पीड़ा के समुद्र से त्राण प्राप्त करने का सतु है जिसका जब चाहे व्यक्ति निर्माण कर अपनी आत्मा तथा सम्मान-रत्न को विक्रय कर जीवन की संपूर्ण वैभव-निधि का क्रय कर  सकता है। स्वाभिमान को सुरक्षित कर त्यागी ने हर स्थान पर हर क्षण भावनाओं को रक्षित किया है जिसके साथ वेदना का घनिष्ठ संबंध है और कवि इसे ही अनमोल पारस-मणि स्वीकारता है। इस पारस-मणि के मूल्य पर वे अपना सब कुछ बलिदान कर देने के पक्ष में हैं। इसीलिए वे गंगाजल से भरे कंचन कलश को दूर कर आंखों से अश्रु पीने में ही अपनी सार्थकता अनुभव करते हैं। उनके अनुसार दर्द ऐसी संपदा है जो मानव-मानव के मध्य सद्भावों का निर्माण कर उसे मानवता से जोड़ती है। एक पागल भी उसे खोने को तैयार नहीं होता फिर कवि ने तो सहर्ष उसे अपने गले का हार बनाया है। अश्रुओं की इस अमूल्य पारस-मणि को प्राप्त कर कवि सिंहासन और मंदिर के आसन को भी तुच्छ बताकर उसी के चरणों में मरने की विकट अभिलाषा प्रकट करता है जिसने उसे अश्रुकणों का मीठा यह उपहार दिया है। इसीलिए वे उस दाता के प्रति भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।

मानवीय गंध की प्यास

त्यागी के गीतों में मानवीय गंध की प्यास तीव्र है। असंयम, दुर्बलता तथा चांचल्य को मानव-स्वभाव के अंग मानकर कवि उनसे उत्पन्न पापों को क्षम्य समझता है। यौवन तो वह स्वर्णिम अवस्था है जब भावनाओं का उत्ताल-ज्वार संयम की रज्जुओं के टुकड़े-टुकड़े बिखेर देता है। ऐसे आवेशजनित यौवन को क्या दोष दिया जाए, ऐसे क्षणों में कवि प्रायश्चितस्वरूप भूलों पर यवनिका गिराने के प्रयास में क्षमा की झालरें संवारता है। जीवन-यौवन के ऐसे ही दुर्लभ क्षणों में प्रेम की सुुषुप्त मादक अनुभूति अंकुर बनकर फूट पड़ती है और कवि को दे जाती है एक मधुर टीस-युक्त वेदना जिसका अभिलाषी कवि सदा से रहा है। प्रेम के इस विषम एकांगी रूप में कवि भावनाएं व्यथा, पीड़ा से तड़पी है, यहां तक कि वह प्रेम को वेदना का पर्याय मानकर स्वीकार कर लेता है। लेकिन प्रेम को वेदना का पर्याय मान लेने से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि कवि ने इस प्रेम को पूर्ण एकनिष्ठता के साथ अंगीकार किया है बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी किसी पुरानी आदत के कारण स्वयं ही पीड़ा को अंगीकृत करते हुए बारंबार दुहराने का आदी है, अन्यथा ‘प्रेम’ एवं ‘मन-बहलाना’ भी कवि के लिए सौ-सौ सौगंध उठाने के समान पर्याप्त है?

आर्थिक एवं सामाजिक स्थितियों से उत्पन्न वेदना भी कवि को अभीष्ट है। समाज में आर्थिक व्यवस्था की दारुण चक्की कुछ इस तरह चलती है कि कलाकार की संपूर्ण महत्वाकांक्षाएं ही नहीं कोमल भावनाएं भी निर्ममता से दो पाटों के मध्य कुचली जाती है। जीवन की रंगीनियों में छुपी विद्रूपताओं को त्यागी ने अपने सद्य प्रकाशित गीत संग्रह ‘गाता हुआ दर्द’ में बड़ी ख़ूबसूरती से पेश किया है। रूढ़िवादी मानसिकता की सीवन उधेड़ते हुए त्यागी वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक मठाधीशों को बख्शते नहीं हैं अपितु बड़ेे नफीस तरीके से उन पर व्यंग्य करते हैं। समाज की यथार्थवादी तस्वीर खींचते हुए त्यागी यंत्रचालित व्यवस्था के अनुचित कृत्यों का विरोध करते हैं। भावना-जल निरंतर मृगतृष्णा की भांति कवि-दृग-युगल के सामने आकर भी उद्विग्न प्यासा रहता है। समाज की सबसे बड़ी त्रासदी तो यही है कि ऐश्वर्य के लोभ लालच में अनेक अकरणीय कृत्य भी स्वच्छंदता से होते हैं। इस यंत्रचालित व्यवस्था के अनौचित्यपूर्ण कृत्य का कवि प्रबल विरोधी है इसीलिए दुनिया के मंदिर में उसकी अर्चना व्यर्थ है। चूंकि तथाकथित मठाधीशों के हाथों कवि ने अपनी आत्मा का सौदा करने से इंकार कर दिया। आर्थिक जर्जरता से ग्रसित कवि-कला उसे पूर्ण शरीर ढकने के लिए कफ़न दिलाने में भी असमर्थ है। जीवन और जीवन-स्वातंत्र्य लिए निर्धनता सबसे घोर अभिशाप है और प्रतिभा इसी अभिशप्त निर्धनता की बेटी हो गई है। इसके पश्चात् भी कवि ने अपनी प्रबल आस्था तथा आत्मिक विश्वास के बल पर उसका वरण किया है क्योंकि कठिनाइयों से जूझने, तूफ़ानों से क्रीड़ा करने में कवि को मज़ा आता है। तूफ़ानी, संघर्षों के वज्र पांवों में कवि बेड़ियां पहनाने का अटल संकल्प लेकर जीवन-संग्राम में अपने कवि-धर्म को निर्भीक होकर निभ्र्रांत शब्दों में अभिव्यक्त करता है। चाहे उसे संपूर्ण उमर सूनी काल-कोठरी में व्यतीत करनी पडे़ किंतु वह जीवन-भर कारावास की कठोर यातना भोगते हुए भी स्वर्ण के हाथों अपनी लेखनी और गीतों को विक्रय करने को उद्धृत नहीं हैं।

शिल्प दृष्टि

प्रभावशाली और सक्षम अभिव्यक्ति के कारण आधुनिक गीतकारों में त्यागी का स्थान महत्वपूर्ण है। अन्य गीतकारों की भांति ही प्रणय की विभिन्न स्थितियों का चित्रण कवि ने किया है लेकिन इनकी प्रणयाभिव्यक्ति में मार्मिकता और विदग्धता के साथ-साथ इतनी जीवनता है कि वे सहज ही वाचक के हृदय पर सीधा और तीव्र प्रभाव कर मन की तंत्रियों को होले-से झंकृत कर देती है। अपनी बात को नए ढंग से व्यंजित कर उक्ति को अधिक आकर्षक और व्यापक अर्थवत्ता प्रदान करने का गुण उनके गीतों की निजी विशेषता है।

त्यागी जी को एकदम दोषमुक्त ठहराना उचित नहीं है। ‘छंद गीतों की व्यवस्था मात्र है, बंधन नहीं है, मानने वाले त्यागी का सबसे बड़ा दोष यही है कि यह आज भी छंद को उसी प्रकार अपने सीने से चिपकाए हुए हैं जिस प्रकार एक बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को। यही स्थिति उनके उपमानों की भी है। हालांकि वह दूसरों को संबोधित करता हुआ उनके उपमानों पर अविश्वास की खुली घोषणा करता है और इधर स्वयं कवि गिनती के कुछ उपमानों का आश्रय लेकर आज की बात कहने का प्रयास करता है जो कभी-कभी घिसे-पिटे उपमानों के प्रयोग के कारण फुसफुसा कर रह जाती है। ऐसे उपमानों का चयन और प्रयोग पाठक के मन पर किसी प्रकार के नवीन प्रभाव को न डाल कर उनके गीतों को सामान्य प्रवृत्ति की ओर इंगित करता है। ठीक इसी के समानांतर उनके गीत की स्थिति है जो आग्रह को छोड़ कर कभी-कभी दुराग्रह की सीमा को लांघ जाती है और उसकी गति-क्षमता पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए गीतों के प्रति अरुचि-भाव उत्पन्न करने में सहायक बन जाती है।

गीतों के दर्पण को छोटा स्वीकार कर जीवन के आकार को बड़ा मानने वाले त्यागी जब नई कविता की मृत्यु की उद्घोषणा कर गीत को विद्यापति का पुत्र कहकर उसकी दुंदुभि बजाते हैं तब उनकी यह उद्घोषणा भी उतनी ही बेमानी लगती है। जितनी कि गीत की मृत्यु की उद्घोषणा करने वाले छिछली राजनीति से प्रेरित तथाकथित बुद्धिजीवियों का कथन। लेकिन संतोष इसी बात का है कि कवि को इस स्थिति का आभास है। हमारा यह विश्वास है कि यह अहसास त्यागी जी को एक दिन गीत की रूढ़ियां तोड़ने के लिए विवश करेगा।

अप्रस्तुत विधान

त्यागी जी के गीतों का अप्रस्तुत विधान भी पर्याप्त सक्षम एवं आकर्षक है। परंपरागत उपमानों को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने स्वनिर्मित नवीन उपमानों का सफल प्रयोग किया है। नूतन उपमानों से सज्जित अनेक मौलिक प्रयोग उनके गीतों में सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। उनके उपमानों का विभाजन हम चार वर्गों में कर सकते हैं- परंपरागत उपमान, नवीन उपमान, ऐतिहासिक-पौराणिक उपमान तथा वीभत्स उपमान।

परंपरागत उपमानों में प्रायः रूढ़िगत काव्यात्मक उपमानों चंदा, चकोरी, पपीहे आदि को ही कवि ने मान्यता दी है। नवीन उपमानों के सुंदर चयन के लिए कहीं कवि प्रकृति-खोजी हुआ है तो कहीं जीवन के क्षेत्र को अपनाया गया है। वैज्ञानिक सुखोपलब्धियों से ग्रसित बौद्धिकता-प्रधान युग की नागर सभ्यता के प्रभाव-स्वरूप कवि ने मेघों में भी पूंजीपतियों की-सी कृपणता को देखा है। अन्य आधुनिक गीतकारों की भांति पौराणिक- ऐतिहासिक उपमानों का बाहुल्य भी त्यागी जी के गीतों में देखा जा सकता है। अनेक वीभत्स उपमानों का प्रयोग कवि ने उर्दू अभिव्यंजना के प्रभाववश स्वीकार किया है।

भाषा

त्यागी जी के गीतों की सफलता और लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण उनकी सहज-सरल भाषा है। उत्तर-छायावादी काल में अभिव्यक्ति की सफाई को भाषा का सर्वमान्य गुण स्वीकार किया गया है, त्यागी जी के गीत इसके साक्षात् प्रमाण हैं। भाषा में बोल चाल के शब्दों का आधिक्य, परिष्कृत खड़ी-बोली का चलता हुआ मृदुल एवं संगीतमय रूप उनके गीतों की सहज उपलब्धि है। कथन की वक्रता उनके गीतों के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर उन्हें नई भाव-क्षमता प्रदान करती है। भाषा में कहीं कहीं उर्दू प्रभाव के साथ-साथ सामान्य जीवन में प्रचलित लोकोक्तियों का प्रयोग भी कवि-भाषा की अन्य विशेषता है। अन्य समकालीन गीतकारों की भांति कवि भी व्याकरण-संबंधी अशुद्धियों से बच निकलने में असफल रहा है।

गीतों का रूपाकार-संगीतात्मकता 

भावाभिव्यक्ति के लिए गीत-विधा चुन कर त्यागी ने उसे पर्याप्त समृद्ध किया है। संक्षिप्तता और गेयता उनके प्रायः सभी गीतों का विशेष अर्जित गुण है। उनके गीत की प्रथम दो पंक्तियों में उनकी मुख्य भावाभिव्यंजना निहित रहती है फिर उसके पश्चात् चार पंक्तियों का एक पद और फिर वैसी ही दो पंक्तियां उनकी भावाभिव्यक्ति के अनुकूल वातावरण निर्मित करती है। इस प्रकार के विधान के कारण उनके गोतों में टेरी आवृत्ति न होकर भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा मुख्य भाव की आवृत्ति ही होती है। उनके श्रेष्ठ गीत-संकलन ‘आठवां-स्वर’ के अनेक गीत ‘मन को तो मैं समझा लूंगा,’ ‘सागर से यह बात करूंगा,’ ‘मन की उजली किरणों में बांध मुझे’, ‘सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे’ आदि गीत-शैली के प्रमाणस्वरुप उद्धृत किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त सूत्रात्मक्ता भी इनके गीतों की निजी विशेषता है जो एक निराली रंग-छटा बिखेरते हुए कवि की भावाभिव्यक्ति को समर्थ फल का आधार प्रदान करती है।

मूल्यांकन

रामावतार त्यागी प्रमुखतः संघर्ष और शक्ति के कवि हैं। प्रणय-रोमांस उनके कृतित्व का गौण स्वर है। उन्होंने हर नए चिंतन और भाव को गीतिमय माध्यम से अभिव्यक्त कर गीत-क्षमता के साथ-साथ अपनी प्रातिभ शक्ति-चेतना को स्पष्ट रूप में घोषित किया है। भाव धरातल पर उनकी सक्षम लेखनी ने वेदना एवं प्रणय के विभिन्न स्वरों को वाणी दी है। अभिव्यक्ति के सहज सौंदर्य ने उनके गीतों को पर्याप्त आकर्षण प्रदान किया है। अपने संघर्षमय जीवन तथा स्वस्थ जीवन-दर्शन पर आधारित जिजीविषा के बल पर उन्होंने नवगीतकारों मे अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उनकी रचनाएं पीड़ा, टीस और प्रेम की भंगिमा के साथ आक्रोश की तीव्र शक्ति को आत्मसात किए है।

‘गुलाब और बबूल वन’ (सन् 1973) और ‘गाता हुआ दर्द’ (सन् 1984) में आकर त्यागी के तेवर का बांकपन पहले की तरह ही क़ायम है। वक़्त गुज़रने के साथ ज़िंदगी ने उसे तराशा ज़रूर है मगर इतना ही नहीं कि उसका सारा खुरदरापन घिस गया हो। समझौतों की दुनिया में रहने के बावजूद आज भी उसमें चुनौती उसी तरह जीवित है जिस तरह एक मुद्दत से शहर में रहने के बावजूद आज भी उसमें ‘गांव’ जीवित है। शहरी वातावरण और सुविधाएं उसे इतना ‘सभ्य’ कभी नहीं बना पाईं कि भीड़ में उसकी सूरत अलग से पहचानी ही न जा सके। आज भी उसके चेहरे पर विद्रोह और अस्वीकार की चमक ज्यों की त्यों बनी हुई है। आज भी वह यह कहने का साहस रखता है-‘गीत नहीं आग लिखूंगा’।

त्यागी की बदनसीबी यह है कि दर्द उसके साथ लगा रहा है, उसकी ख़ुशनसीबी यह है कि दर्द को गीत बनाने की कला में वह माहिर है। गीत को जितनी निष्ठा से उसने लिया है, वह स्वयं में एक मिसाल है। आधुनिक गीत-साहित्य का इतिहास उसके गीतों की विस्तारपूर्वक चर्चा किए बिना लिखा ही नहीं जा सकता। गीत के प्रति समर्पित व्यक्तित्व रामावतार त्यागी का अब यही स्वप्न है कि उसके द्वारा किसी बड़ी और महत्वपूर्ण रचना का सृजन हो। महल का कंगूरा तो हर व्यक्ति बनना चाहता है लेकिन त्यागी को संतोष है कि देहाती नीव पर गीत की ईंट उन्होंने रखी थी और अब उस पर सुंदर ताजमहल खड़ा हो चुका है।

संदर्भ- ‘नवगीत: इतिहास और उपलब्धि’, डाॅ. सुरेश गौतम, डाॅ. (श्रीमती) वीणा गौतम, शारदा प्रकाशन, नई दिल्ली (संस्करण 1985), पृ.-108 से 116

वैशाली

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