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लिली

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला   पद्मा के चन्द्र-मुख पर षोडश कला की शुभ्र चन्द्रिका अम्लान खिल रही है। एकान्त कुंज की कली-सी प्रणय के वासन्ती मलयस्पर्श से हिल उठती,विकास के लिए व्याकुल हो रही है। पद्मा की प्रतिभा की प्रशंसा सुनकर उसके पिता ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट पण्डित रामेश्वरजी शुक्ल उसके उज्ज्वल भविष्य पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ किया करते हैं। योग्य वर के अभाव से उसका विवाह अब तक रोक रक्खा है। मैट्रिक परीक्षा में पद्मा का सूबे में पहला स्थान आया था। उसे वृत्ति मिली थी। पत्नी को, योग्य वर न मिलने के कारण विवाह रूका हुआ है, शुक्लजी समझा देते हैं। साल-भर से कन्या को देखकर माता भविष्य-शंका से कांप उठती हैं। पद्मा काशी विश्वविद्यालय के कला-विभाग में दूसरे साल की छात्रा है। गर्मियों की छुट्टी है, इलाहाबाद घर आयी हुई है। अबके पद्मा का उभार, उसका रंग-रूप, उसकी चितवन-चलन-कौशल-वार्तालाप पहले से सभी बदल गये हैं। उसके हृदय में अपनी कल्पना से कोमल सौन्दर्य की भावना, मस्तिष्क में लोकाचार से स्वतन्त्र अपने उच्छृंखल आनुकूल्य के विचार पैदा हो गये हैं। उसे निस्संकोच चलती - फिरती, उठती-बैठती, हँसती-बोलती देखकर

काकी

सियारामशरण गुप्त   उस दिन बड़े सबेरे जब श्यामू की नींद खुली तब उसने देखा - घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी काकी – उमा - एक कम्बल पर नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए भूमि-शयन कर रही हैं, और घर के सब लोग उसे घेरकर बड़े करुण स्वर में विलाप कर रहे हैं। लोग जब उमा को श्मशान ले जाने के लिए उठाने लगे तब श्यामू ने बड़ा उपद्रव मचाया। लोगों के हाथों से छूटकर वह उमा के ऊपर जा गिरा। बोला - “काकी सो रही हैं, उन्हें इस तरह उठाकर कहाँ लिये जा रहे हो? मैं न जाने दूँ।” लोग बड़ी कठिनता से उसे हटा पाये। काकी के अग्नि-संस्कार में भी वह न जा सका। एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही सँभाले रही। यद्दापि बुद्धिमान गुरुजनों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहाँ गई है, परन्तु असत्य के आवरण में सत्य बहुत समय तक छिपा न रह सका। आस-पास के अन्य अबोध बालकों के मुँह से ही वह प्रकट हो गया। यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी और कहीं नहीं, ऊपर राम के यहाँ गई है। काकी के लिए कई दिन तक लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो क्रमश: शांत हो गया, परन्तु शोक शांत न हो सका। वर्षा के अनन्तर एक ही दो दिन में पृथ्वी के ऊपर

उठ मेरी बेटी सुबह हो गई

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना   पेड़ों के झुनझुने, बजने लगे; लुढ़कती आ रही है सूरज की लाल गेंद। उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तूने जो छोड़े थे, गैस के गुब्बारे, तारे अब दिखाई नहीं देते, (जाने कितने ऊपर चले गए) चाँद देख, अब गिरा, अब गिरा, उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तूने थपकियाँ देकर, जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था, टीले, मुँहरँगे आँख मलते हुए बैठे हैं, गुड्डे की जरवारी टोपी उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया वह देखो उड़ी जा रही है चूनर तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तेरे साथ थककर सोई थी जो तेरी सहेली हवा, जाने किस झरने में नहा के आ गई है, गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब, देख तो, कितना रंग फैल गया उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान, अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बँधे रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज पन्नी की हवा चर्खियाँ, लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू, उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई। उठ देख, बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए, छत की मुँडेर पर बैठा है, धूप आ गई।

सोलह आने

त्रिलोचन   कमलनारायण ने आग्रहपूर्वक कहा कि आज तुम भी यहीं खाओ। वरुण है... बना लेगा। - अच्छा...। मैंने स्वीकार कर लिया। दुमंज़िले की ओर देखकर कमलनारायण चिल्लाया। - वरुण, ओ वरुण! - आया। वरुण की आवाज़ आई, उसके पीछे वह स्वयं। - क्या है? - आज तीन आदमियों के लिए खाना बनाना। देवल भी यहीं खाएगा। - तीन...? वरुण बोला। - हाँ। - एक बात है...। - क्या। -आटा, दाल, चावल... सब खतम। - कोई बात नहीं। पैसे दे दो। देवल ले आएगा। वरुण मुसकराया। बोला-- पैसे भी तो नहीं हैं। कमल ने मेरी ओर देखा और हँस पड़ा। मैं भी हँस पड़ा। कहा- रहने दो। क्यों बेकार की झंझट लोगे, मैं होटल में खा आऊंगा। कमल ने कहा- सो नहीं होगा। देखता हूँ मैं पैसे, आज यहीं खाना! और कमल अपने कमरे में चला गया। - बैठो वरुण। मैंने कहा और हाथ पकड़ पास में पड़ी हुई कुर्सी की ओर खींचा। वरुण बैठ गया। पूछा उसने- आपको काम मिल गया। - हाँ भाई। प्रेस में पंद्रह रुपए मासिक। - अच्छा हुआ। सहारा हो गया। अब ठीक है, हाँ। इधर तो आपके पास पैसे कुछ थे नहीं, काम कैसे चल रहा है? - इधर चार-पाँच दिन अनशन करके बिता दिया। फिर तीन रुपये ऐडवांस ले लिया। काम चल ही रहा है। अब म

रुका हुआ रास्ता

शैलेश मटियानी   घास-पात से निबटकर गोमती भैंस हथियाने गोठ गई हुई थी। असाढ़-ब्याही भैंस थी। कार्तिक तक तो ठीक चलती रही, मगर पूस लगते ही एकदम बिखुड़ गई। कार्तिक तक दोनों वक्त के तीन-साढ़े तीन से नीचे नहीं उतरी थी, मगर पूस की तुषार जैसे उसके थनों पर ही पड़ गई। दुकौली के तीन-साढ़े तीन सेर से इकौली के डेढ़-दो में उतर गई। इस डेढ़-दो सेर को निचोड़ने के लिए भी गोमती को बेर-बेर हथियाना पड़ता, तब कहीं जाके थन पँगुरते थे। चौमास में कटी सूखी घास की कमी नहीं थी। गाय-बैल वन चरने से लौट कर सूखी घास ही खाते थे। सिर्फ एक भूरी भैंस के लिए गोमती को जंगल जाना पड़ रहा था। दूध का लोभ था, तो हरी घास जुटानी पड़ रही थी। खीमसिंह को चाय का अमल बहुत है। सिर पर का छत्र-जैसा एक वही ठहरा भी गोमती के लिए। उसी को किसी चीज की कमी पड़ जाए, तो मन दुख जाता है कि - एक तो बेचारे वैसे ही परमेश्वर के मारे हुए ठहरे, ऊपर से मेरी ओर से भी खिदमत में कमी रह गई, तो बेचारों का चित्त कितना कलपेगा! पड़ोसियों और बिरादरों के गोठ की घिनाली - दूध-दही-छाछ-नौनी - का क्या आसरा करना! छोड़े हुए बरतन में कोई डालता ही कितना है! सौ निहोरे करने में

आकाश कितना अनंत है

शैलेश मटियानी   जो रिश्ता पिछली सर्दियों में तय हुआ, उसे तोड़ दिए जाने का निर्णय लिया जा चुका है। अब उसकी शादी दिल्ली-जैसे बड़े शहर में नौकरी करने वाले लड़के से होगी। जसवंती को ऐसा लग रहा है, सिर्फ इतना जान लेने भर से उसके लिए बहुत-कुछ बदला जा चुका है। पहला रिश्ता काफी दूर गाँव में तय हुआ था। वह गाँव अपने चारों ओर के अत्यंत घने तथा आकर्षक जंगलों के लिए जाना जाता रहा है। इस गाँव से कई लड़कियाँ वहाँ ब्याही गई थीं। जब मायके आती हैं धन्य फलों से सदा-बहार रहने वाले उस गाँव के जंगलों में गाय बकरियाँ चराने के किस्से सुनाया करती हैं। जसवंती ने वर्षों पहले वहाँ एक किस्सा और भी सुना था। तब नहीं जानती थी, मगर अब लगता है कि उस मनःस्थिति को उसने पहली-पहली बार तभी अनुभव किया था, जिसमें से पुरुष की कल्पना नदी के जल में खड़े होकर सूर्योदय देखने जैसी रहस्मयी लगती है। जसवंती को लगता है, किशोरावस्था बीतते-बीतते अपने परिवार वालों के प्रति धुँधले-धुँधले अजनबीपन की अनुभूति होने लगती है। और जंगल, खेत तथा नदी की तरफ निकल जाना, अपने भविष्य की दिशा में निकल जाने-जैसे रोमांचक लगने लगता है। कितनी विचित्र बात है क

ऋण

शैलेश मटियानी   सब झूठ-भरम का फेर रे-ए-ए-ए... माया-ममता का घेरा रे-ए-ए-ए... कोई ना तेरा, ना मेरा रे-ए-ए-ए... नटवर पंडित का कंठ-स्वर ऐसे पंचम पर चढ़ता जा रहा था, जैसे किसी बहुत ऊँचे वृक्ष की चूल पर बैठा पपीहा, चोंच आकाश की ओर उठाए, टिटकारी भर रहा हो - बादल राज, पणि-पणि-पणि... बादल राजा, पणि-पणि... और अपने बीमार बेटे के पहरे पर लगे जनार्दन पंडा को कुछ ऐसा भ्रम हो रहा था कि, मरने के बाद, यह नटवर पंडित भी, शायद ऐसे ही किसी पंछी-योनि में जाएगा और नरक के किसी ठूँठ पर टिटकारी मारेगा - ए-ए-ए... आधी रात बीत जाती है। गाँव के, वन-खेत के कामों से थके लोग सो जाते हैं, मगर नटवर पंडित का कंठ नहीं थमता। वन के वृक्षों और खेतखड़ी फसल को साँय-साँय झकझोरती बनैली बयार, रात के सन्नाटे में फनीले सर्पों की जैसी फूत्कारें छोड़ती है। शिवार्पण की रुग्ण काया जैसे प्रेतछाया की पकड़ में आई हुई-सी थरथरा उठती है और वह बिलबिलाता, पिता की छाती से चिपक जाता है - बा-बा-बा... जनार्दन पंडा का हृदय विचलित हो उठता है - 'हे प्रभो, जैसा संतानसुख तूने मुझे दिया, ऐसा मेरे किसी सात जन्मों के शत्रु को भी न देना। मुझसे तो नटवर