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अम्माएँ

दूधनाथ सिंह   वह विशाल, हरा पेड़... जैसे वह पूरी धरती पर अकेला था। और दूर-दूर तक, जहाँ तक नजर जाती, धरती फटी हुई थी। उसमें बड़ी-बड़ी दरारें थीं। केवल चिलचिलाता वीराना था, जिसमें कहीं-कहीं धूसर-मटमैली, न–दिखती-हुई-सी बस्तियाँ थीं - मिट्टी के तितर-बितर ढूहों के खँडहर, जो हमारे रजिस्टर में दर्ज थे। अनंत-अछोर उन सूखे मैदानों में किसानों ने अपने डाँगर छोड़ दिए थे। चौंधा मारती धूप के उस सन्‍नाटे में हड्डियों के हिलते-काँपते झुंड अचानक दिख जाते, जो न जाने किधर और कहाँ दबी-ढँकी घास की हरी-हरी पत्तियाँ ढूँढ़ते, सूखे और काले निचाट में थूथन लटकाए इधर-उधर डोल रहे थे। हमारी जीप धूल उड़ाती, उस छतनार पेड़ की ओर बढ़ रही थी। उसके पास ही तीन-चार घरों का एक खँडहर था। हमने वहाँ पहुँचकर जीप रोकी और नीचे उतरकर खड़े हो गए। एक खँडहर से सात-आठ बच्‍चे किलबिल करते निकले और हमें देखते ही अंदर भाग गए। हमने समझा कि वे कपड़े-वपड़े पहनने गए होंगे! क्‍योंकि वे सभी नंग-धड़ंग थे। इतनी भीषण गर्मी है और हवा बंद है, इन खुले-बेछोर मैदानों में भी आर-पार बंद है, ऐसे में कपड़े तन पर काटते हैं - यही हमने सोचा और बच्‍चों के फिर

जन्मभूमि

देवेन्द्र सत्यार्थी   गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर खड़ी थी। इसे यहाँ रुके पचास घंटे से ऊपर हो चुके थे। पानी का भाव पाँच रुपये गिलास से एकदम पचास रुपये गिलास तक चढ गया और पचास रुपये हिसाब से पानी खरीदते समय लोगों को बडी नरमी से बात करनी पडती थी । वे डरते थे कि पानी का भाव और न चढ जाएे । कुछ लोग अपने दिल को तसल्ली दे रहे थे कि जो इधर हिन्दुओं पर बीत रही है वही उधर मुसलमानों पर भी बीत रही होगी, उन्हें पानी इससे सस्ते भाव पर नहीं मिल रहा होगा, उन्हें भी नानी याद आ रही होगी। प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिलिटरी वाले भी तंग आ चुके थे। ये लोग सवारियों को हिंफांजत से नए देश में ले जाने के लिए जिम्मेवार थे। पर उनके लिए पानी कहाँ से लाते? उनका अपना राशन भी कम था। फिर भी बचे-खुचे बिस्कुट और मूँगफली के दाने डिब्बों में बाँटकर उन्होंने हमदर्दी जताने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। इस पर सवारियों में छीना-झपटी देखकर उन्हें आश्चर्य होता और वे बिना कुछ कहे-सुने परे को घूम जाते। जैसे सवारियों के मन में यमदूतों की कल्पना उभर रही हो, और जन्म-जन्म के पाप उनकी आँखों के सामने नाच रहे हों। जैसे जन्मभूमि से प्रेम करन

टोबा टेकसिंह

सआदत हसन मंटो   बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाय। मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, दानिशमंदों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कांफ्रेंसें हुई और िदन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छान बीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये। उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर

राष्ट्र का सेवक

प्रेमचंद   राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं। दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय! उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई। राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया। दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है। इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा। राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है। दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी! इंदिरा ने देखा और मुसकराई। इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ। राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है? इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है। राष्ट

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

हरिवंश राय बच्चन   अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर, तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? 'यह अधिकार कहाँ से लाया!' और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? वह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में - यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

चेर्नोबिल की आवाजें

स्वेतलाना अलेक्सियाविच अनुवाद - शिवप्रसाद जोशी   स्वेतलाना अलेक्सियाविच लेखक और कहानीकार से पहले एक पत्रकार हैं। उन्होंने अपनी पत्रकारिता को साहित्य से कुछ ऐसा जोड़ा है जैसा लातिन अमेरिकी कथाकार गाब्रिएल गार्सिया मार्केस और लातिन अमेरिका के ही एक और बड़े लेखक पत्रकार एदुआर्दो गालियानो ने। उनका गद्य बेहद तीक्ष्ण लेकिन ठंडे निर्विकार अंदाज में चीजों और घटनाओं की पड़ताल करता है और उनके निष्कर्ष किसी लेखकीय चमत्कार से नहीं आते। वे उन वृतांतों , विवरणों , संस्मरणों और टिप्पणियों से सीधे आते हैं जिनके जरिए वे दर्द , यातना और शोषण का कथानक बुनती हैं। स्वेतलाना ने पत्रकारिता और साहित्य में अपना एक जॉनर विकसित किया है। मनुष्य तकलीफों की तफ्सील उन्हीं की जबानी। चेर्नोबिल की आवाजें इस विधा की एक अद्भुत मिसाल है। वहाँ नाटकीयता और संदर्भ नहीं हैं। वे आवाजें ही संदर्भ हैं। और एक भीषण पर्यावरणीय दुर्घटना का एक जीवंत और सबसे प्रामाणिक दस्तावेज दुनिया के सामने आ पाता है। चेर्नोबिल की याद आते ही हमारे सामने यानी इस भारतवर्ष और दक्षिण एशियाई जमात के सामने सहसा भोपाल गैस त्रासदी आ जाती है। 80 के दशक की ये

रानी केतकी की कहानी

सैयद इंशा अल्ला खां   यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट। और न किसी बोली का मेल है न पुट॥ सिर झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियां जातियां जो साँ सें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँ से हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं ओर सुनने को दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।। मिट्टी के बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके। सच हे, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें। यों जिसका जी चाहे, पडा बके। सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; औ