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Showing posts with the label निबंध

कविवर रामावतार त्यागी

  शेरजंग गर्ग समकालीन हिंदी कविता अपने विविध रंगों और शैलियों में पूरे निखार एवं यौवन पर है, तथापि कविता का प्रत्येक प्रबुद्ध पाठक अथवा श्रोता यह महसूस करने लगा है कि कविता जन-जीवन से दूर जा पड़ी है। यह एक असंगति ही है कि समकालीन कविता आम आदमी के इतना नज़दीक होने के बावजूद जन-जीवन का अभिन्न अंग बनने में उतनी सफल नहीं हो पाई है, जितनी कि उससे अपेक्षा की जाती है। चलताऊ भाषा में जिसे लोकप्रिय कविता कहा जाता है, वह कवि सम्मेलनों के फूहड़पन से जुड़ी हुई है। उसमें हास्य है, लतीफें-चुुटकुले हैं और वाहियात किस्म गलेबाज़ी है। दूसरी ओर साहित्यिक कविता प्रयोगों और दुष्प्रयोगों के चक्कर में इस क़दर फंसी हुई है कि वह जन समान्य से संपर्क का दावा करने के बावजूद सामान्य-जन की रुचि का विषय नहीं बन पा रही है। ऐसी दुविधाग्रस्त स्थिति में वे कवि वाक़ई स्वागत योग्य हैं, जिन्होंने समय के रुख़ के विपरीत खड़े होकर कविता को न तो अपने व्यक्तित्व से विच्छिन्न किया, न जनता से, साथ ही साहित्यिक शिखरों को भी अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया। इस धारा के अग्रणी कवियों में श्री रामावतार त्यागी विशेष महत्व रखते हैं। त्यागी

चिरंतन प्रश्न: सामयिक उत्तर

 रामावतार त्यागी अपने उन अनेेक काव्य-पे्रमियों के आग्रह पर जिन्होंने बार-बार मेरी रचनाओं को संकलित रूप में पढ़ने की इच्छा व्यक्त की है, अपनी कुछ कविताएं आपको भेंट कर रहा हूं-यों मेरी आपकी जान-पहचान तो पुरानी है। जानता हूूं अपने बारे में कुछ कहना शिष्टाचार की बात नहीं है, किंतु पूछे जाने पर मौन रहना भी कम असभ्यता की बात नहीं होती। मुझे मालूम है कि आप मेरा वक्तव्य सुनने की बजाए अपने प्रश्नों के उत्तर सुनना अधिक पसंद करेंगे। हां, काव्य-प्रेेमियों के भी कुछ प्रश्न होते हैं। मैंने उन्हें अपने ढंग से समझने का यत्न किया है, क्योंकि एक कवि को काव्य-पारखी का हर प्रश्न समझना भी चाहिए। इस सिलसिले में कुछ नया न लिखकर एक प्रश्नकर्ता के प्रश्न और उसको दिए गए अपने उत्तरों को उद्धृत कर देने से मेरा कार्य अधिक सरल हो जाता है। तो लीजिए मैं हाज़िर हूं। इंटरव्यू: नोट - (केवल बौैद्धिक वयस्कों और जोे कविताएं न पढ़ना चाहें उनके लिएद्ध पिछले कुुछ दिनों से कविता-क्षेत्र में इतना अधिक कोलाहल क्यों है? कवि अधिक हैं, पुराने भी नए भी, वादी भी विवादी भी। अच्छे कितनेे हैं, मालूम नहीं लेकिन महाकवि अधिक हैं। अधिक कहन

जल की अशुद्धता पर सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख

-अरविंद जयतिलक  यह उचित है कि देश की सर्वोच्च अदालत ने नदियों में बढ़ते प्रदूषण और उससे लोगों की सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को लेकर कड़ा रुख अख्तियार किया है। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा है कि साफ पर्यावरण और प्रदूषण रहित जल व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और इसे उपलब्ध कराना कल्याणकारी राज्य का संवैधानिक उत्तरदायित्व है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि संविधान का अनुच्छेद-21 जीवन का अधिकार देता है और इस अधिकार में गरिमा के साथ जीवन जीने और प्रदूषण रहित जल का अधिकार शामिल है। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 47 और 48 में जन स्वास्थ्य ठीक करना और पर्यावरण संरक्षित करना राज्यों का दायित्व है। साथ ही प्रत्येक नागरिक का भी कर्तव्य है कि प्रकृति जैसे वन, नदी, झील और जंगली जानवरों का संरक्षण व रक्षा करे। गौर करें तो अदालत ने नदियों की सफाई से लेकर प्रकृति व पर्यावरण की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकारों के साथ-नागरिकों के लिए भी आवश्यक कहा है। उल्लेखनीय है कि चीफ जस्टिस एसए बोबडे, एएस बोपन्ना और वी रामासुब्रमणियम की बेंच ने यह टिप्पणी दिल्ली जल बोर्ड की हरियाणा से आ रहे पानी में प्रदूष

नाखून क्यों बढ़ते हैं?

हजारी प्रसाद द्विवेदी   बच्‍चे कभी-कभी चक्‍कर में डाल देनेवाले प्रश्‍न कर बैठते हैं। अल्‍पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्‍यों बढ़ते हैं, तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्‍चे कुछ दिन तक अगर उन्‍हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अक्‍सर उन्‍हें डॉटा करते है। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्‍यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्‍वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्‍ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्‍यों हैं? कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्‍य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्‍त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्‍थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था। नाखून उसके लिए आवश्‍यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्‍तुओं का सहारा लेने लगा। पत्‍थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचंद्रजी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्‍

मानव संचार : अवधारणा और विकास

    अवधेश कुमार यादव साभार- http://chauthisatta.blogspot.com/2014/12/blog-post.html           मानव जीवन में जीवान्तता के लिए संचार का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य है। पृथ्वी पर संचार का उद्भव मानव सभ्यता के साथ माना जाता है। प्रारंभिक युग का मानव अपनी भाव-भंगिमाओं, व्यहारजन्य संकेतों और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से संचार करता था, किन्तु आधुनिक युग में सूचना प्रौद्योगिकी (प्दवितउंजपवद ज्मबीदवसवहल)  के क्षेत्र में क्रांतिकारी अनुसंधान के कारण मानव संचार बुलन्दी पर पहुंच गया है। वर्तमान में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, मोबाइल, फैक्स, इंटरनेट, ई-मेल, वेब पोर्टल्स, टेलीप्रिन्टर, टेलेक्स, इंटरकॉम, टेलीटैक्स, टेली-कान्फ्रेंसिंग, केबल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, समाचार पत्र, पत्रिका इत्यादि मानव संचार के अत्याधुनिक और बहुचर्चित माध्यम हैं।      संचार : संचार शब्द का सामान्य अर्थ होता है- किसी सूचना या संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाना या सम्प्रेषित करना। शाब्दिक अर्थों में श्संचारश् अंग्रेजी भाषा के ब्वउउनदपबंजपवद शब्द का हिन्दी रूपांतरण है। जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा क

रघुवीर सहाय से मैं इस तरह करीब आ गया

अनामी शरण बबल http://asbmassindia.blogspot.com/2014/12/blog-post_34.html काफी अर्सा बीत चुका है, रात भी काऱी गहरा गयी है मगर आज रघुवीर सहाय की जन्म तिथि एक माकूल मौका है कि मैं भी उनके साथ गुजारे गए कुछ क्षणों को याद करूं। 1987-88 भारतीय जनसंचार संस्थान  के हिन्दी पत्रकारिता के पहले बैच का हिस्सा मैं भी था। हमलोग को पढाने एक दिनपत्रकारों के पत्रकार रघुवीर सहाय जी आए। क्लास से पहले और बाद में हम सारे छात्रओं को सहायजी ने बडी आत्मीय तरीके से देखा और स्नेह जताया।  क्लास में पत्रकार बनने से पहले आवश्यक टिप्स दिए और खूब पढने और लगातार लिखते रहने का सुझाव दिया। बातचीत में मैं भी जरा बढ चढ़ कर जोश दिखाया होगा , तभी तो उन्होने मेरा नाम और छात्रावास का फोन नंबर भी पूछा। अपने घर से सहाय जी फोन किया और कहा अनामी मैं रघुवीर सहाय बोल रहा हूं। मैं पहले तो अवाक सा रह गया फिर संभलते हुए कहा जी सर बताइए। तब शालीनता के साथ सहाय जी ने कहा नहीं नहीं मैं नंबर चेक कर रहा था कि यह काम कर रहा है या नहीं। मैंने फौरन पलटवार सा किया मैं समझ गया सर कि आप मेरा टेस्ट ले रहे थे कि मैने सही नंबर दिया था या नहीं? इस प

यमुना तीरे ...

कविता वाचक्नवी   गर्मी अभी जलाने वाली नहीं हुई थी। आँगन में सोना शुरू हो चुका था। आँगन इतना बड़ा कि आज के अच्छे समृद्ध घर के दस-ग्यारह कमरे उसमें समा जाएँ। एक ओर छोटी-सी बगीची थी। बगीची के आगे आँगन और बगीची की सीमारेखा तय करती, तीन अँगुल चौड़ी और आधा बालिश्त गहरी, एक खुली नाली थी; जिसे महरी सींक के झाड़ू से, आदि से अंत तक एक ही `स्ट्रोक' में साफ़ करती हुई आँगन की दो दिशाएँ नाप जाती थी। नीचे हरी-हरी काई की कोमलता, ऊपर से बहता साफ़ पानी...। मैं कल्पना किया करती कि चींटियों के लिए तो यह एक नदी होगी...| ...और... मैं चींटी बन जाती अपनी कल्पना में। फिर उस नन्हें आकार की तुलना में इस तीन अंगुल चौड़ी नाली के बड़प्पन की गंभीरता में, एक फ़रलाँग की दूरी पर बहती यमुना याद आती। ...याद आता उसके पुल पर खड़े होकर नीचे गर्जन-तर्जन, भँवर, पुल के खंभों का दोनों दिशाओं में काफी बाहर की ओर निकला भाग, उनसे टकराती, बँटकर बहती धाराएँ। पुल पर खड़े-खड़े मैं इतना डूब जाती थी कि लगता पुल बह रहा है और मैं निरंतर आगे-आगे बहे जा रही हूँ...जंगला थामे खड़ी। आज भी डर लगता है। ... मैं जिसे भी यह समझाने की कोशिश करती

रेल का टिकट

भदंत आनंद कौसल्यायन   भला हो सिस्टर निवेदिता का! उसने कहीं लिखा है कि यदि देश की सेवा करनी हो तो पहले अपने देश का परिचय प्राप्त करो। उसके लिए आवश्यक है कि घर-घर घूमो, गाँव-गाँव घूमो, नगर-नगर घूमो, शहर-शहर घूमो। मैं नहीं कह सकता कि मुझसे अपने देश की कुछ सेवा बन पड़ी अथवा नहीं, किन्तु सिस्टर निवेदिता के उस कथन की कृपा से मैं घूमा खूब हूँ। मेरे घूमने का उद्देश्य केवल देश-दर्शन था और साधनों के नाम पर एक प्रकार से 'शून्यवाद।' पैदल चलना और माँग कर खाना इन्हीं दो को में अपने उन दिनों के घुमक्कड़ी जीवन की आधार-शिला कह सकता हूँ। हाँ, साथ मैं थी 'हीरो एंड हीरो वर्शिप' अंग्रेजी किताब। उसका मुझ पर कम उपकार नहीं। *** जिस दिन की बात मैं कहने जा रहा हूँ, उस शाम को मैं एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ देखकर लौटा था। पैदल तो चला ही करता था किन्तु प्राय: रेल की पटरी के किनारे-किनारे, जिससे कभी-कभी रेल की सवारी का जुगाड़ भी लग ही जाता। सामान्य तौर पर मैं भोजनोपरांत ही किसी दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान किया करता। शाम तक चलते रहकर किसी भी रेलवे स्टेशन के मुसाफिर-खाने में जा ठहरता। जब अधिक सन्ध्या हो

आँगन में बैंगन

हरिशंकर परसाई   मेरे दोस्‍त के आँगन में इस साल बैंगन फल आए हैं। पिछले कई सालों से सपाट पड़े आँगन में जब बैंगन का फल उठा तो ऐसी खुशी हुई जैसे बाँझ को ढलती उम्र में बच्‍चा हो गया हो। सारे परिवार की चेतना पर इन दिनों बैंगन सवार है। बच्‍चों को कहीं दूर पर बकरी भी दीख जाती है तो वे समझते हैं कि वह हमारे बैंगन के पौधों को खाने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है। वे चिल्‍लाने लगते हैं। पिछले कुछ दिनों से परिवार में बैंगन को ही बात होती है। जब भी जाता हूँ परिवार की स्त्रियाँ कहती है - खाना खा लीजिए। घर के बैंगन बने हैं। जब वे 'भरे भटे' का अनुप्रास साधती हैं तब उन्‍हें काव्‍य-रचना का आनंद आ जाता है। मेरा मित्र भी बैठक से चिल्‍लाता है - 'अरे भाई, बैंगन बने हैं कि नहीं?' मुझे लगता है, आगे ये मुझसे 'चाय पी लीजिए' के बदले कहेंगी - 'एक बैंगन खा लीजिए। घर के हैं।' और तश्‍तरी में बैंगन काटकर सामने रख देंगी। तब मैं क्‍या करूँगा? शायद खा जाऊँ, क्‍योंकि बैंगन चाहे जैसा लगे, भावना स्‍वादिष्‍ट होगी और मैं भावना में लपेट कर बैंगन की फाँक निगल जाऊँगा। ये बैंगन घर के हैं और

आकाशबाणी

प्रतापनारायण मिश्र   हमारे मिष्‍टर अंगरेजीबाज और उसके गुरु गौरंडाचार्य्य में यह एक बुरा आरजा है कि जो बात उनकी समझ में नहीं आती उसे, वाहियात है (ओह नांसेंस), कह के उड़ा देते हैं। नहीं तो हमारे शास्‍त्रकारों की कोई बात व्‍यर्थ नहीं है। बहुत छोटी-छोटी बातें विचार देखिए। पयश्राव के समय यज्ञोपवीत कान में चढ़ाना इसलिए लिखा है कि लटक के भीग न जाय। तिनका तोड़ने का निषेध किया है, सो इसलिए कि नख में प्रवि‍ष्‍ट होके दुःख न दे। दाँत से नख काटना भी इसी से वर्जित है कि जिंदा नाखून कट जाएगा तो डॉक्‍टर साहब की खुशामद करनी पड़ेगी। अस्‍तु यह रामरसरा फिर कभी छेड़ेंगे, आज हम इतना कहा चाहते हैं कि पुराणों में बहुधा लिखा है कि अमुक अकाशबाणी हुई। इस पर हमारे प्‍यारे बाबू साहबों का, 'यह नहीं होने सकता' इत्‍यादि कहना व्‍यर्थ है। इस्‍से उनकी अनसमझी प्रगट होती है। क्‍योंकि आकाश अर्थात पोपालन के बिना तो कोई शब्‍द हो ही नहीं सकता। इस रीति से वचन मात्र को आकाशबाणी कह सकते हैं, और सुनिए, चराचर में व्‍याप्‍त होने के कारण ईश्‍वर को आकाश से एक देशी उपमा दी जा सकती है। बेद में भी 'खम् ब्रह्म' लिखा है और

अशोक के फूल

हजारी प्रसाद द्विवेदी   अशोक में फिर फूल आ गए है। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्‍पों के मनोहर स्‍तबकों में कैसा मोहन भाव है। बहुत सोच समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्‍पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्‍थान देने योग्‍य समझा था। एक यह अशोक ही है। लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्‍तुओं को हतभाग्‍य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया, उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा सा मैं भी अनुमान कर सका हूँ। बताता हूँ। भारतीय साहित्‍य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्‍प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्‍यापार हैं। ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्‍प का कोई नाम ही नहीं जानता था, परंतु कालिदास के काव्‍यों में यह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ