केदारनाथ सिंह भयानक सूखा है पक्षी छोड़कर चले गए हैं पेड़ों को बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे चींटियाँ देहरी और चौखट पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं घरों को छोड़कर भयानक सूखा है मवेशी खड़े हैं एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए कहते हैं पिता ऐसा अकाल कभी नहीं देखा ऐसा अकाल कि बस्ती में दूब तक झुलस जाए सुना नहीं कभी दूब मगर मरती नहीं - कहते हैं वे और हो जाते हैं चुप निकलता हूँ मैं दूब की तलाश में खोजता हूँ परती-पराठ झाँकता हूँ कुँओं में छान डालता हूँ गली-चौराहे मिलती नहीं दूब मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े बाल्टियाँ लोटे परात झाँकता हूँ घड़ों में लोगों की आँखों की कटोरियों में झाँकता हूँ मैं मिलती नहीं मिलती नहीं दूब अंत में सारी बस्ती छानकर लौटता हूँ निराश लाँघता हूँ कुएँ के पास की सूखी नाली कि अचानक मुझे दिख जाती है शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच एक हरी पत्ती दूब है हाँ-हाँ दूब है - पहचानता हूँ मैं लौटकर यह खबर देता हूँ पिता को अँधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा 'है - अभी बहुत कुछ है अगर बची है दूब...' बुदबुदाते हैं वे फिर गहरे विचार में खो जाते हैं पिता