Skip to main content

Posts

अकाल में दूब

केदारनाथ सिंह   भयानक सूखा है पक्षी छोड़कर चले गए हैं पेड़ों को बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे चींटियाँ देहरी और चौखट पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं घरों को छोड़कर भयानक सूखा है मवेशी खड़े हैं एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए कहते हैं पिता ऐसा अकाल कभी नहीं देखा ऐसा अकाल कि बस्ती में दूब तक झुलस जाए सुना नहीं कभी दूब मगर मरती नहीं - कहते हैं वे और हो जाते हैं चुप निकलता हूँ मैं दूब की तलाश में खोजता हूँ परती-पराठ झाँकता हूँ कुँओं में छान डालता हूँ गली-चौराहे मिलती नहीं दूब मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े बाल्टियाँ लोटे परात झाँकता हूँ घड़ों में लोगों की आँखों की कटोरियों में झाँकता हूँ मैं मिलती नहीं मिलती नहीं दूब अंत में सारी बस्ती छानकर लौटता हूँ निराश लाँघता हूँ कुएँ के पास की सूखी नाली कि अचानक मुझे दिख जाती है शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच एक हरी पत्ती दूब है हाँ-हाँ दूब है - पहचानता हूँ मैं लौटकर यह खबर देता हूँ पिता को अँधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा 'है - अभी बहुत कुछ है अगर बची है दूब...' बुदबुदाते हैं वे फिर गहरे विचार में खो जाते हैं पिता  

किसको नमन करूँ मैं भारत?

रामधारी सिंह दिनकर तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ? मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ? भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ? नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ? भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ? भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ! खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ! दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन आत्मबंधु कहकर ऐस

अबोला

ऋषभदेव शर्मा बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे कान फटे जाते थे फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना कभी मुझसे छिपा नहीं रहा तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं दिल से सुनता था बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में पर कुछ सुनाई नहीं देता तुम्हारे अबोला ठानते ही मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया वैसे दिल अब भी धड़कता है

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है

मीर तकी मीर अब जो इक हसरत-ए-जवानी है उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है। ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में, और हम को धोखा ये था के पानी है। गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है। हम क़फ़स ज़ाद क़ैदी हैं वरना ता चमन परफ़शानी है। याँ हुए 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।

मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

मिर्ज़ा ग़ालिब मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं सिवाय ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं मगर ग़ुबार हुए पर हव उड़ा ले जाये वगर्ना ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं ये किस बहीश्तशमाइल की आमद-आमद है के ग़ैर जल्वा-ए-गुल राहगुज़र में ख़ाक नहीं भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं ख़्याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मैकश शराबख़ाने के दीवर-ओ-दर में ख़ाक नहीं हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के 'असद' खुला कि फ़ायेदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

सावन आया

अमीर खुसरो अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया

एक बूँद

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी? देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा, मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, चू पडूँगी या कमल के फूल में? बह गयी उस काल एक ऐसी हवा वह समुन्दर ओर आई अनमनी एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला वह उसी में जा पड़ी मोती बनी। लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।