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ऋण

शैलेश मटियानी   सब झूठ-भरम का फेर रे-ए-ए-ए... माया-ममता का घेरा रे-ए-ए-ए... कोई ना तेरा, ना मेरा रे-ए-ए-ए... नटवर पंडित का कंठ-स्वर ऐसे पंचम पर चढ़ता जा रहा था, जैसे किसी बहुत ऊँचे वृक्ष की चूल पर बैठा पपीहा, चोंच आकाश की ओर उठाए, टिटकारी भर रहा हो - बादल राज, पणि-पणि-पणि... बादल राजा, पणि-पणि... और अपने बीमार बेटे के पहरे पर लगे जनार्दन पंडा को कुछ ऐसा भ्रम हो रहा था कि, मरने के बाद, यह नटवर पंडित भी, शायद ऐसे ही किसी पंछी-योनि में जाएगा और नरक के किसी ठूँठ पर टिटकारी मारेगा - ए-ए-ए... आधी रात बीत जाती है। गाँव के, वन-खेत के कामों से थके लोग सो जाते हैं, मगर नटवर पंडित का कंठ नहीं थमता। वन के वृक्षों और खेतखड़ी फसल को साँय-साँय झकझोरती बनैली बयार, रात के सन्नाटे में फनीले सर्पों की जैसी फूत्कारें छोड़ती है। शिवार्पण की रुग्ण काया जैसे प्रेतछाया की पकड़ में आई हुई-सी थरथरा उठती है और वह बिलबिलाता, पिता की छाती से चिपक जाता है - बा-बा-बा... जनार्दन पंडा का हृदय विचलित हो उठता है - 'हे प्रभो, जैसा संतानसुख तूने मुझे दिया, ऐसा मेरे किसी सात जन्मों के शत्रु को भी न देना। मुझसे तो नटवर

कहानी का प्लॉट

शिवपूजन सहाय   मैं कहानी-लेखक नहीं हूँ। कहानी लिखने-योग्य प्रतिभा भी मुझ में नहीं है। कहानी-लेखक को स्वभावतः कला-मर्मज्ञ होना चाहिये, और मैं साधारण कलाविद् भी नहीं हूँ। किंतु कुशल कहानी-लेखकों के लिए एक 'प्लॉट' पा गया हूँ। आशा है इस 'प्लॉट' पर वे अपनी भड़कीली इमारत खड़ी कर लेंगे। मेरे गाँव के पास एक छोटा-सा गाँव है। गाँव का नाम बड़ा गँवारू है, सुनकर आप घिनाएँगे। वहाँ एक बूढ़े मुन्शीजी रहते थे अब वह इस संसार में नहीं है। उनका नाम भी विचित्र ही था - 'अनमिल आखर अर्थ न जापू' - इसलिए उसे साहित्यिकों के सामने बताने से हिचकता हूँ। खैर, उनके एक पुत्री थी, जो अब तक मौजूद है। उसका नाम - जाने दीजिये, सुनकर क्या कीजियेगा? मैं बताऊँगा भी नहीं! हाँ, चूँकि उनके संबंध की बातें बताने में कुछ सहूलियत होगी, इसलिए उसका एक कल्पित नाम रख लेना जरूरी है। मान लीजिये, उसका नाम है 'भगजोगनी'। दिहात की घटना है, इसलिए दिहाती नाम ही अच्छा होगा। खैर, पढ़िये - मुन्शीजी के बड़े भाई पुलिस-दरोगा थे, उस जमाने में, जब कि अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या उतनी ही थी, जितनी आज धर्म-शास्त्रों के मर्म जान

मेरा वतन

विष्णु प्रभाकर   उसने सदा की भाँति तहमद लगा लिया था और फैज ओढ़ ली थी। उसका मन कभी-कभी साइकिल के ब्रेक की तरह तेजी से झटका देता, परन्तु पैर यन्त्रवत् आगे बढ़ते चले जाते। यद्यपि इस शि€त-प्रयोग के कारण वह बे-तरह काँप-काँप जाता, पर उसकी गति में तनिक भी अन्तर न पड़ता। देखने वालों के लिए वह एक अर्ध्दविक्षिप्त से अधिक कुछ नहीं था। वे अकसर उसका मंजांक उड़ाया करते। वे कहकहे लगाते और ऊँचे स्वर में गालियाँ देते, पर जैसे ही उनकी दृष्टि उठती-न जाने उन निरीह, भावहीन, फटी-फटी आँखों में €या होता कि वे सहम-सहम जाते; सोडावाटर के उफान की तरह उठनेवाले कहकहे मर जाते और वह नंजर दिल की अन्दरूनी बस्ती को शोले की तरह सुलगाती हुई फिर नीचे झुक जाती। वे फुसफुसाते, 'जरूर इसका सब कुछ लुट गया है,'...'इसके रिश्तेदार मारे गये हैं...' 'नहीं, नहीं ऐसा लगता है कि काफिरों ने इसके बच्चों की इसी के सामने आग में भून दिया है या भालों की नोक पर टिकाकर तब तक घुमाया है जब तक उनकी चीख-पुकार बिल्ली की मिमियाहट से चिड़िया के बच्चे की चीं-चीं में पलटती हुई खत्म नहीं हो गयी है।' ''और यह सब देखता रहा है

सड़क

रामदरश मिश्र   भर्र-भर्र करती हुई एक जीप दुकान के सामने रुकी। 'ओ चायवाले, चार कप चाय बनाना,' - कह कर एक आदमी तीन आदमियों के साथ दुकान के आगे पड़ी खाट पर बैठ गया और वे आपस में बनती हुई इस सड़क के बारे में बातचीत करने लगे। चायवाले ने कोयले के चूल्‍हे पर खौलते पानी को पतीली में डाल कर अंदाज से उसमें चाय, चीनी और दूध मिला दिया और काँपते हाथों से आँखें नीची किए चार कप चाय तिपाई पर रख आया। 'अरे हो हो, क्‍या वाहियात चाय बनाई है इस बुड्ढे ने,' कह कर उस आदमी ने झटके से प्‍याला सहित चाय नीचे लुढ़का दी। शेष तीनों आदमियों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई, लेकिन चाय सुड़कते रहे। अब जा कर चायवाले ने आँख उठाई और क्रोध से बड़बड़ाते उस आदमी ने भी चायवाले को देखा और आश्‍चर्य से बोल उठा - 'अरे, आप मास्‍टर साहब।' और मास्‍टर चंद्रभान पांडे ने देखा कि वह आदमी और कोई नहीं, उसके इलाके के एमएलए जंगबहादुर यादव हैं। उनकी आँखें शर्म से झुक गईं और झुकी हुई आँखें पोर-पोर फटी हुई खादी की धोती के बड़े-बड़े सुराखों में उलझ गईं। यादव जी ने एक ठहाका लगाया - 'अच्‍छा मास्टर जी, आपने अब यह धंधा भी शुरू

पेशावर एक्सप्रेस

कृशन चंदर   जब मैं पिशावर से चली तो मैं ने छका छक इतमीनान का सांस लिआ।मेरे डबों में ज़िआदातर हिंदू लोग बैठे होए थे। ये लोग पिशावर से होती मरदान से, कोहाट से, चारसदा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बंनों नौशहिरा से, मानसहरा से आए थे और पाकिसतान में जान व माल को महिफ़ूज़ ना पा कर हिंदुसतान का रुख कर रहे थे, सटेशन पर ज़बरदसत पहिरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे। उन लोगों को जो पाकिसतान में पनाहगुज़ीन और हिंदुसतान में शरनारथी कहिलाते थे उस वकत तक चैन का सांस ना आइआ जब तक मैं ने पंजाब की रोमानख़ेज़ सरज़मीन की तरफ़ कदम ना बड़्हाए, ये लोग शकलो सूरत से बिलकुल पठाण मलूम होते थे, गोरे चिटे मज़बूत हाथ पाउं , सर पर कुलाह और लुंगी, और जिसम पर कमीज़ और शलवार, ये लोग पशतो में बात करते थे और कभी कभी निहाइत कुरख़त किसम की पंजाबी में बात चीत करते थे। उन की हिफ़ाज़त के लीए हर डबे मैं दो सिपाही बंदूकें ले कर खड़े थे। वजीह बलोची सिपाही आपणी पगड़िओं के अकब मोर के छतर की तर्हां ख़ूबसूरत तुरे लगाए होए हाथ मैं जदीद राइफ़लें लीए होए उन पठानों और उन के बीवी बचों की तरफ़ मुसकरा मुसकरा कर देख रहे थे जो इक

इन्दुमती

किशोरीलाल गोस्वामी   इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विन्ध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जब से उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी। उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए। जब से वह समझने योग्य हुई तब से नाना प्रकार के वनैले पशु-पक्षियों, वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार वा संसारी सुख क्या है और उसमें कैसे-कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं। फूलों को बीन-बीन कर माला बनाना, हरिणों के संग कलोल करना, दिन-भर वन-वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना; बस यही उसका काम था। वह यह भी नहीं जानती थी कि मेरे बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है। एक दिन वह नदी में अपनी परछाईं देखकर बड़ी मोहित हुई, पर जब उसने जाना कि यह मेरी परछाईं है, तब बहुत लज्जित हुई, यहाँ तक कि उस दिन से फिर कभी उसने नदी में अपना मुख नहीं निहारा। गरमी की ऋतु-दोपहर का समय-जबकि उसके पिता अपनी कुटी में बैठे हुए गीता की पुस्तक देख रहे थे, वह नद