शैलेश मटियानी सब झूठ-भरम का फेर रे-ए-ए-ए... माया-ममता का घेरा रे-ए-ए-ए... कोई ना तेरा, ना मेरा रे-ए-ए-ए... नटवर पंडित का कंठ-स्वर ऐसे पंचम पर चढ़ता जा रहा था, जैसे किसी बहुत ऊँचे वृक्ष की चूल पर बैठा पपीहा, चोंच आकाश की ओर उठाए, टिटकारी भर रहा हो - बादल राज, पणि-पणि-पणि... बादल राजा, पणि-पणि... और अपने बीमार बेटे के पहरे पर लगे जनार्दन पंडा को कुछ ऐसा भ्रम हो रहा था कि, मरने के बाद, यह नटवर पंडित भी, शायद ऐसे ही किसी पंछी-योनि में जाएगा और नरक के किसी ठूँठ पर टिटकारी मारेगा - ए-ए-ए... आधी रात बीत जाती है। गाँव के, वन-खेत के कामों से थके लोग सो जाते हैं, मगर नटवर पंडित का कंठ नहीं थमता। वन के वृक्षों और खेतखड़ी फसल को साँय-साँय झकझोरती बनैली बयार, रात के सन्नाटे में फनीले सर्पों की जैसी फूत्कारें छोड़ती है। शिवार्पण की रुग्ण काया जैसे प्रेतछाया की पकड़ में आई हुई-सी थरथरा उठती है और वह बिलबिलाता, पिता की छाती से चिपक जाता है - बा-बा-बा... जनार्दन पंडा का हृदय विचलित हो उठता है - 'हे प्रभो, जैसा संतानसुख तूने मुझे दिया, ऐसा मेरे किसी सात जन्मों के शत्रु को भी न देना। मुझसे तो नटवर