शिवप्रसाद सिंह गरमी की छुट्टी हो, या किसी पर्व-त्योहार का समय, जहाँ भी नियमित ढंग से चलते हुए कार्यों से बचने का मौका हाथ लगे, मेरे मन के भीतर सोया ईहामृग तुरत गाँव की डगर पकड़ना चाहता है। शहर की एकरस, बदरंग जिंदगी की शाश्वत वितृष्णा मुझे बरबस उन रास्तों पर झोंक देती है, जो धान-खेतों, हरियाली के लदे सीवानों या रंग-बिरंगी चैती फसलों से उफने भूमि-खंडों के बीच अपना अस्तित्व बनाते गाँव की बाहरी बँसवारियों में आकर भूलभुलैया का खेल खेलने लगते हैं। पहले जब पाँव इन रास्तों पर पड़ते थे, तब एक अजीब किस्म की गुदगुदी, उल्लास और स्मृतिजाल से सारा शरीर पुलकित हो जाता था। शाम को इन रास्तों पर घर लौटते ढोरों की घंटियाँ टुनटुनाती थी, भैंसों के पीठ पर बैठे हुए चरवाहे थकान और दिन भर की परिक्रमा की गत्वरता से विरत होकर विरहा की तानें छोड़ देते थे और वे तानें थी कि जैसे कौंधे की तरह लपककर रास्ते के हर पार्श्व में अपनी अदृश्य किंतु अनुभवगम्य उपस्थिति से पशुओं को एक कतार में, बिना इधर-उधर विदके-भड़के चुपचाप मौज में चलते जाने की चेतावनी देती थीं, चरवाहे जैसे अपने गीतों की इस जादुई शक्ति से परिचित हों, इसी कारण