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अँधेरे में शब्द

ओमप्रकाश वाल्मीकि   रात गहरी और काली है अकालग्रस्त त्रासदी जैसी जहां हजारों शब्द दफन हैं इतने गहरे कि उनकी सिसकियाँ भी सुनाई नहीं देतीं समय के चक्रवात से भयभीत होकर मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की तमाम कोशिशें हो जाएँगी नाकाम जिसे नहीं पहचान पाएगी समय की आवाज भी ऊँची आवाज में मुनादी करने वाले भी अब चुप हो गए हैं 'गोद में बच्चा गाँव में ढिंढोरा' मुहावरा भी अब अर्थ खो चुका है पुरानी पड़ गई है ढोल की धमक भी पर्वत कन्दराओं की भीत पर उकेरे शब्द भी अब सिर्फ रेखाएँ भर हैं जिन्हें चिह्नित करना तुम्हारे लिए वैसा ही है जैसा 'काला अक्षर भैंस बराबर' भयभीत शब्द ने मरने से पहले किया था आर्तनाद जिसे न तुम सुन सके न तुम्हारा व्याकरण ही कविता में अब कोई ऐसा छन्द नहीं है जो बयान कर सके दहकते शब्द की तपिश बस, कुछ उच्छवास हैं जो शब्दों के अंधेरों से निकल कर आए हैं शून्यता पाटने के लिए ! बिटिया का बस्ता घर से निकल रहा था दफ्तर के लिए सीढ़ियां उतरते हुए लगा जैसे पीछे से किसी ने पुकारा आवाज परिचित आत्मीयता से भरी हुई जैसे बरसों बाद सुनी ऐसी आवाज कंधे पर स्पर्श का आभास मुड़ कर देखा कोई नहीं एक

धुआँ

गुलजार   बात सुलगी तो बहुत धीरे से थी, लेकिन देखते ही देखते पूरे कस्बे में 'धुआँ' भर गया। चौधरी की मौत सुबह चार बजे हुई थी। सात बजे तक चौधराइन ने रो-धो कर होश सम्भाले और सबसे पहले मुल्ला खैरूद्दीन को बुलाया और नौकर को सख़्त ताकीद की कि कोई ज़िक्र न करे। नौकर जब मुल्ला को आँगन में छोड़ कर चला गया तो चौधराइन मुल्ला को ऊपर ख़्वाबगाह में ले गई, जहाँ चौधरी की लाश बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर बिछा दी गई थी। दो सफेद चादरों के बीच लेटा एक ज़रदी माइल सफ़ेद चेहरा, सफेद भौंवें, दाढ़ी और लम्बे सफेद बाल। चौधरी का चेहरा बड़ा नूरानी लग रहा था। मुल्ला ने देखते ही 'एन्नल्लाहे व इना अलेहे राजेउन' पढ़ा, कुछ रसमी से जुमले कहे। अभी ठीक से बैठा भी ना था कि चौधराइन अलमारी से वसीयतनामा निकाल लाई, मुल्ला को दिखाया और पढ़ाया भी। चौधरी की आख़िरी खुवाहिश थी कि उन्हें दफ़न के बजाय चिता पर रख के जलाया जाए और उनकी राख को गाँव की नदी में बहा दिया जाए, जो उनकी ज़मीन सींचती है। मुल्ला पढ़ के चुप रहा। चौधरी ने दीन मज़हब के लिए बड़े काम किए थे गाँव में। हिन्दु-मुसलमान को एकसा दान देते थे। गाँव में कच्ची मस्

ओ हरामजादे

भीष्म साहनी   घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खंडहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता। दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी धुरे के निरुद्देश्य घूम रही है। ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाके में जा पहुँचा था। एक दिन दोपहर के वक्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बैंच पर बैठा आती जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुजरते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुगालता हुआ होगा। पर वह और निकट आ गई। 'भारत से आए हो?' उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुस्कान के साथ पूछा। मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया। 'मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे।' और वह अपना बड़ा सा थैला बैंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई। नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाजार से सौदा खरीद कर लौट रही थी। खाड़ी के नीले जल जैसी ही उस

उपनिवेशवाद में नवसाम्राज्यवादी शोषण का यथार्थ:  ग़ायब होता देश

बृजेश चन्द्र कौशल (शोध-छात्र) (बीएड, एमफिल, जेआरएफ) डॅा. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास, विश्वविद्यालय लखनऊ उजड़ते हुए मुंडा आदिवासी समाज का सच रणेन्द्र कृत 'ग़ायब होता देश' आदिवासी समाज के उपनिवेशवाद में नवसाम्राज्यवादी शोषण का महाकाव्यात्मक उपन्यास है। मुख्यधारा से कटा हुआ यह समाज अशिक्षित और पिछड़ा होने से आधुनिक जनसंचार माध्यमों तक अपनी पीड़ा कथा व्यथा पहुंचाने में असमर्थ है। इस कमी का भरपूर लाभ शोषक शक्तियां आदिवासी लोगों को अपराधी और नक्सली घोषित करके भरपूर लाभ ले रही हैं। इनके इलाकों में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने उद्योग धंधे लगाकर चिमनियों से निकला हुआ विष उनके उपर जबरदस्ती छोड़ा जाता है और कोयला निकाल कर गहरे गड्ढे उनको तथा उनके खेलते हुए बच्चों को बारिश के दिनों में डूब कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। सभी गड्ढ़ों में मच्छर के एकत्रित होने के कारण आदिवासी समाज को जीवन यापन करने के लिए बड़ी कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आदिवासी समाज को सबसे ज्यादा डर बाघ, बारिश और पुलिस से होता है पुलिस के लोग शासन के आदेश पर अपनी बंदूक के बल पर जब चाहे जितनी चाहे उनकी जमीन खाली करा लेत

परिंदों की आवाज़

अमन कुमार  परिंदों के कूकने, कूलने या चहचहाने की आवाज़ मुझे सोचने पर कर देती है मजबूर उनके फड़फड़ाने,  दिवार से टकराने की आवाज़ दिवारें,  दो वस्तुओं के बीच की नहीं बुलन्द इमारतों की खंडहर दिवारें शान्ति मिलती है इन भूतहा दिवारों में जैसे  कोइ आत्मा, अस्तित्व तलाशती है दिवारों में आह! हवा का तेज़ और ठंडा झौंका भारी पत्थरों से टकराता हुआ धूल से जैसे कोई लिखता इबारत   अपढ और रहस्यमयी इबारत पढ लेती है बस खंडहर इमारत घटनाओं - दुर्घटनाओं की कहानी पाप और पुण्य की अंतर कहानी इन दिवारों को लाॅघती हुई फैल जाती है दावानल की भाँति काल जिसे रोक नहीं पाता  और इन कहानियों का, छोटी-बड़ी कहानियों का खंडहर हुई दिवारों का  विशाल इतिहास बन जाता।

प्रेमचंदजी के साथ दो दिन

बनारसीदास चतुर्वेदी   प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी। यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौका नहीं मिला था। इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे। इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही गया। प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता। लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा। हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करे, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं। यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंद