ओमप्रकाश वाल्मीकि रात गहरी और काली है अकालग्रस्त त्रासदी जैसी जहां हजारों शब्द दफन हैं इतने गहरे कि उनकी सिसकियाँ भी सुनाई नहीं देतीं समय के चक्रवात से भयभीत होकर मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की तमाम कोशिशें हो जाएँगी नाकाम जिसे नहीं पहचान पाएगी समय की आवाज भी ऊँची आवाज में मुनादी करने वाले भी अब चुप हो गए हैं 'गोद में बच्चा गाँव में ढिंढोरा' मुहावरा भी अब अर्थ खो चुका है पुरानी पड़ गई है ढोल की धमक भी पर्वत कन्दराओं की भीत पर उकेरे शब्द भी अब सिर्फ रेखाएँ भर हैं जिन्हें चिह्नित करना तुम्हारे लिए वैसा ही है जैसा 'काला अक्षर भैंस बराबर' भयभीत शब्द ने मरने से पहले किया था आर्तनाद जिसे न तुम सुन सके न तुम्हारा व्याकरण ही कविता में अब कोई ऐसा छन्द नहीं है जो बयान कर सके दहकते शब्द की तपिश बस, कुछ उच्छवास हैं जो शब्दों के अंधेरों से निकल कर आए हैं शून्यता पाटने के लिए ! बिटिया का बस्ता घर से निकल रहा था दफ्तर के लिए सीढ़ियां उतरते हुए लगा जैसे पीछे से किसी ने पुकारा आवाज परिचित आत्मीयता से भरी हुई जैसे बरसों बाद सुनी ऐसी आवाज कंधे पर स्पर्श का आभास मुड़ कर देखा कोई नहीं एक