इन्द्रदेव भारती रामा ! बेल चढ़ी लौकी की, लो अपने भी द्वार चढ़ी ।। भोर भये में कलियां फूटैं, सूरज चढ़ते चटकै हैं । भरी दुपहरी फूलन फूलैं, देख सभी जन मटकै हैं । चोबाइन के चौबारे पै, त्यागन की दीवार चढ़ी ।। छुटकी-छुटकी कोमल जइयाँ, बड़की - बड़की जब होंगी । जब होंगी जी, तब होंगी वो, और ग़ज़ब की सब होंगी । धोबनिया के घाट पै फैली, नाइन के ओसार चढ़ी ।। घोसनिया के घेर चढ़ी जी, बामनिया के बंगले पै । चौहनिया के चौक चढ़ी तो, जाटनिया के जंगले पै । गुरुद्वारे के गुम्बद ऊपर, मंदिर जी के द्वार चढ़ी ।। मनिहारन की चढ़ी मुंडेरी, चढ़ी जुलाहन के घर पै । चढ़ी लुहारन के हाते में, छिप्पीयन के छप्पर पै । गिरजाघर के गेट चढ़ी तो, मस्ज़िद की मीनार चढ़ी ।। चढ़ी अमीरन के आंगन में, नीम चढ़ी निर्धनिया के । चढ़ी खटीकन की खोली पै, बिना भेद तेलनिया कै । हिंदू, मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई वार के सब पे प्यार चढ़ी ।