रविन्द्रनाथ टैगोर मैं विदेश लौटकर छोटा नागपुर के एक चन्द्रवंशीय राजा के दरबार में नौकरी करने लगा। उन्हीं दिनों मेरी देशव्यापी कीर्ति की पटल पर अचानक एक छोटी-सी कहानी खिल उठी। उन दिनों गगन टेसू की रक्तिमाभा से विभोर था। शाल वृक्ष की टहनियों पर मंजरियां झूल रही थीं। मधुमक्खियों के समूह मंडराते फिर रहे थे। व्यापारी लोगों का लाख संग्रह का समय आ गया था। बेर और शहतूत के पत्तों से रेशम के कीड़े इकट्ठे किए जा रहे थे। संथाल जाति महुए बीनती हुई फिर रही थी। नूपुर की झंकार के समान गूंजती हुई नदी वहीं पर बही जा रही थी। मैंने स्नेह से उस नदी का नाम रखा था- 'तनिका'। उस समय का वातावरण अनोखे आवेश से परिपूर्ण था। उसका मेरे मन पर भी अधिकार हो गया था। जिससे कार्य की गति मंथर पड़ गई थी। तब मैं अपने पर ही खीझ उठा था। दिन ढल रहा था। एक स्थान पर दोआबा बनाती हुई नदी दो शाखाओं में विभक्त होकर चली गई है। उसी बालू के टीले पर बगुलों की पंक्ति शान्त बैठी थी। अपनी झोली में रंग-बिरंगे पत्थरों को भरे मैं कोठी को लौट रहा था। यह सोचकर कि अपनी विज्ञान-शाला में इनकी परीक्षा करूंगा। निर्जन वन में अकेले आदमी का समय