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मैमूद


शैलेश मटियानी


महमूद फिर ज़ोर बाँधने लगातो जद्दन ने दायाँ कान ऐंठते हुएउसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया। ठीक थूथने पर थप्पड़ मारती हुई बोली, ''बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी क्या हिलाता हैस्साले! दूँगी एक कनटापतो सब शेखी निकल जाएगी। न पिद्दीन पिद्दी के शोरबेसाले बहुत साँड बने घूमते हैं। ऐ सुलेमान की अम्माअब मेरा मुँह क्या देखती है,रोटी-बोटी कुछ ला। तेरा काम तो बन ही गयादेख लेनाकैसे शानदार पठिये देती है। इसके तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं।''
अपनी बात पूरी करते-करतेजद्दन ने कान ऐंठना छोड़करउसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। अब महमूद भी धीरे-से पलटाऔर सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह में भर लियातो वह चिल्ला पड़ी, ''अरी ओ सुलेमान की अम्मीदेख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी आँखों से! चुगद कान ऐंठने का बदला ले रहा है। ए मैमूदस्सालेदाँत न लगानानहीं तो तेरी खैर नहीं।
अच्छाले आयी तू रोटियाँअरीये तो राशन के गेहूँ की नहींदेसी की दिखती हैं। ला इधर। देखा तूनेहरामी कैसे मेरा कान मुँह में भरे थाअब तुझे यकीन नहीं आएगारहीमन! ये साला तो बिलकुल इंसानों की तरह जज़्बाती है!''
जानवर तो गूँगा होता हैशराफ़त की अम्मा! अलबत्ता इंसान उसमें जज़्बातों का अक्स ज़रूर ढूँढ़ता है। तुम तो इस नामुराद बकरे का इतना ख़याल रखती होमाँ अपनी औलाद का क्या रखती होगी।''
रहीमन ने दोनों रोटियाँ जद्दन को पकड़ा दी थीं और बकरा अब रोटी के टुकड़े चबाने में व्यस्त हो गया था। एक टुकड़ा वह जब पूरी तरह निगल लेतातो सिर से जद्दन को अपने सींगों से ठेलने लगता था। ''सब्र नाम की चीज़ तो खुदा ने तुझे किसी भी बात में बख्शी ही नहीं।'' कहते हुए जद्दन ने फिर अपना रूख रहीमन की ओर कर लिया, ''इंसान जब बूढ़ा हो जाता हैतब कोई ऐसा उसे चाहिएजो उसके 'कहने से आए और 'जाकहने से जाए। दुनिया वालों की दुनिया जानेसुलेमान की अम्मा! मेरा तो एक यह नामुराद मैमूद ही है,जिस साले को इस खुल्दाबाद की नबी वाली गली से आवाज़ लगाऊँ कि --'मैमूद! मैमूद! मैमूद!'' तो चुगद नखासकोने के कूड़ेखाने पर पहुँचा हुआ पीछे पलटता है और 'बें-बेंकरता वो दौड़ के आता है मेरी तरफ़ कि तू जानसगी औलाद क्या आएगी! बससाला जब कुनबापरस्ती पे निकलता हैतो मेरी क्या खुदा की भी नहीं सुनेगा। फिर भी आवाज़ लगा दूँतो एक बार पलट के ज़रूर 'बेकर लेगाभले ही बाद में अपनी अम्माओं की तरफ़ट दूनी रफ्तार से दौड़ पड़े।
अपनी बात पूरी करके जद्दन हँस पड़ीतो उसके छिदरे और कत्थई रंग के भद्दे दाँतों में एक चमक-सी दिखाई दे गई। जर्जरटल्ले लगे और बदरंग बुरके में से बुढ़ापे का मारा हुआ चेहरा उघाड़े रहती है जद्दनतो चुड़ैलों की-सी सूरत निकल आती है। 
'जब इस कसाइयों के निवाले का किस्सा बखानने लगती हो तुमशराफ़त की अम्मामीरगंज वालियों की-सी चमक आ जाती है तुम में!अपनी काफी दूर निकल चुकी बकरी को एक नज़र टोह लेने के बादरहीमन ने मज़ाक किया और खुद भी हँस पड़ी।
''तुम खुद अब कौन-सी जवान रह गई होरहीमानआखिर तजुर्बेकार औरत हो! तुम जानोएक ये बेजुबान जानवर और दूसरे मासूम बच्चे -- बसये दो हैंजो इंसान की उम्र,उसके जिस्म और उसकी खूबसूरती-बदसूरती पे नहीं जातेबल्कि सिर्फ़ नेकी-बदी और नफ़रत-मुहब्बत को पहचानते हैं। हमारे शराफ़त की बन्नो तो तुम्हारी हज़ार बार की देखी हुई है। खूबसूरती और नूर में उसके मुकाबले की हाजी लाल मुहम्मद बीड़ी वालों या शेरवानियों के हियाँ भी मुश्किल से मिलेगीरहीमन! मगर तू ये जान कि मेरा मैमूद उसकी शकल देखते ही मुँह फेर केपिछाड़ी घुमा देता है। बदगुमान कैती हैनाकाबिले बर्दाश्त बू मारता है और ये कि 'अम्मा हमारे बच्चों का छोड़ देंगीलेकिन ये बकरा नहीं छूटेगा।'' मैं कैती हूँतेरी कमसिनी और खूबसूरती पे लानत है। लाख पौडर-इत्र छिड़के तूमेरा मैमूद तेरे कहे पे थूक के नहीं देगा। जानवर और बच्चे तो इंसान की चमड़ी नहींनियत देखते हैंनियत! मजाल है कि नवाबजादी के हाथों से एक गस्सा मेरे मैमूद के मुँह की तरफ़ चला जाए! तुझ पे खुदा रहम करेगारहीमन! देखनापहले तो तीननहीं दो पठिये तो कहीं गए ही ना! खुदा कसमये रोटियाँ तूने इस नामुराद के नहींमेरे पेट में डाल दी हैं। मुहल्ले वाले तोबससरकारी मवेशी समझकर चले आते हैं। ये नहीं होता कमनियतों से कि दो रोटियाँ या मुट्ठी-भर दाना भी साथ लेते आएँ। अरे भईमैमूद जो धूप में खेल के वापस आने वाले मासूम बच्चों की तरे मुरझा जाता हैये तो सिर्फ़ जद्दन को ही दिखायी देता हैया ऊपर वाले खुदा को। तू जानपिछले बरस की बकरीद के आस-पास पैदा हुआ था।
अब याददाश्त कमज़ोर पड़ चुकीलेकिन शायदये ही जुम्मे या जुमेरात के रोज़ पैदा हुआ होगा और अब साल ऊपर साढ़े तीन महीने का हो लिया।''
जद्दन महमूद की पीठ पर हाथ फेरते हुए खटोले पर से उठ खड़ी हुई थी कि ''अच्छासुलेमान की अम्माचलूँगी। शराफ़त के अब्बा की दुपेर की नमाज़ का वक्त हो रहा है। सुना है,आज शहनाज़ के अब्बा लोग भी आने वाले हैं रायबरेली से।'' तभी रहीमन ने कहा कि ''तुम सवा-डेढ़ साल का बताती होमगर इसके रान-पुट्ठे देख के कोई तीन से नीचे का नहीं कहेगा! बीस-पच्चीस सेर से कम गोश्त नहीं निकलेगा इस बकरे में। लगता हैतुमने रोटी-दाने के अलावा घास से परवरिश की ही नहीं?'
हालाँकि रहीमन ने सारी बातें महमूद की प्रशंसा में कही थींलेकिन जद्दन का पूरा चेहरा त्यौरियों की तरह चढ़ गया, ''अरी ओ रहीमनआग लगे तेरे मूँ में। मतलब निकल गया तेरा,तो मेरे मैमूद का गोश्त तौलने बैठ गईतेरा खाबिन्द तो बढ़ई हैरीये कसाइयों की घरवालियों की-सी बातें कहाँ से सीखी होया खुदाहया और रहम नाम की चीज इंसानों में रही ही ना! गोश्तखोरों की नज़र और कसाई की छुरी में कोई फर्क थोड़े ना होता है। अरी रहीमनकहे देती हूँ -- आगे से ऐसी बेहूदी बातें न करना और आइंदे से अपनी बकरी कहीं दूसरी जगे ले जाना। कोई सुसरा पूरे खुल्दाबाद में मेरा एक मैमूद ही थोड़े ठीका लिए बैठा है।''
''अरी जद्दनअब बड़े घरानों की बेगमों के-से तेवर बहुत न दिखाओ! बकरा न हो गयासुसरा हातिमताई हो गया तुम्हारे वास्ते!'' रहीमन ने भी झिड़क दिया और व्यंग-भरी आवाज़ में बोली -- ''वो जो एक मुहावरा हैतुमने भी सुना होगा -- बकरे की अम्मा आखिर कब तक दुआएँ करेगीऔर जद्दनसुनाने वाले को सुनना भी सीखना ही चाहिए।
हमसे पूछोतो हकीकत ये है कि तुम्हारे तो औलाद हुई नहीं। सौतेले को न तुमने कलेजे के करीब आने दिया और न उन नामुरादों से तुम्हारे सीने में दूध उतारा गया। बसये ही वजह है कि तुम इस दाढ़ीजार बकरे को 'मेरा मैमूदमेरा मैमूद!पुकार के अपनी जलन बुझाती हो।''
जद्दन आगे बढ़ती हुईऐसे रूक गईजैसे बिच्छू ने काट लिया हो। उसका चेहरा गुस्से में तमतमाने के बादलाचारगी से स्याह पड़ गयारहीमनजो जी तूने मेरा दुखाया हैखुदा तुझे समझेगा। और रै गया 'बकरे की अम्मावाला मुहावरातो इंसान की अम्मा की ही दुआ कहाँ बहुत लम्बे तक असर करती हैकरती होतीतो तेरा बड़ा बेटा सुलेमान आज जवान हो चुका होता और तू सिर्फ़ नाम की 'सुलेमान की अम्मान रह जाती! एक लमहा चुप कररहीमन! खुदा मुझे माफ़ करेमैं तेरे ऊपर बीते का मज़ाक उड़ाना नहीं चाहती थी -- सिर्फ़ इतना कैना चाहती हूँदर्द इंसान को अपने जज़्बातों का होता है। जिससे जज़्बाती रिश्ता न होउसका काहे का स्यापासूलेमान की अम्माइतना मैं भी जानती हूँ कि बकरे ने आखिर कटना-ही-कटना है। कसाइयों से कौन-सा बकरा बचा आज तलकमगर मेरी इतनी इल्तजा ज़रूर है परवर-दिगार सेमेरी नजरों के सामने ना कटे। शराफत के अब्बा से कै भी चुकी हूँइस नामुराद को जब बेचने लगोतो पहले तो शहर का -- कम-से-कम मोहल्ले का फासला ज़रूर रखना। और वो तेरी बात मैं ज़रूर माने लेती हूँ कि खुदा के यहाँ बकरे की अम्मा की दुआ बहरे के कानों में अजान हैं। यह भी ठीक हैसौतेले ने मुझे सगी अम्मा की-सी इज़्ज़त नहीं बख्शीयह कैना सरासर झूठ बोल के दोखज में जाना होगा मगर मुहब्बत जो मुझे इस जानवर ने दीअम्मा-अब्बा ने दी होगीतो दी होगी।''
रहीमन से कोई उत्तर बन नहीं पाया। वह सिर्फ़ यह देखती रह गई कि जद्दन ने बुर्के के पल्लू से अपनी आँखें पोछीं और बकरे की पीठ थपथपाती हुईअपने घर की तरफ़ बढ़ गई।
जद्दन जब तक घर पहुँचीअशरफ नमाज़ पर बैठ चुके थे।
पाखाने की बगल की संकरी कोठरी में बकरे को बंद करते हुएजद्दन बोली, ''शराफत के अब्बा दूपेर की नमाज पर बैठ चुके। अब तू कहाँ मारा-मारा फिरेगा। शाम के वक्त निकालूँगी। इस साल अभी से लू चलने लगी।''
खाने पर बैठेतो अशरफ बोले, ''शराफत की अम्मारायबरेली वालों का संदेशा आया थातुम्हें मालूम ही होगा। हम लोग तो तंगदस्ती मे चल रहे हैंमगर मेहमानों के सामने तो अपना रोना रोया नहीं जाताइज़्ज़त देखनी पड़ती है। शराफत और जहीर से बात हुई थी। लड़के ठीक ही कह रहे थे कि अब्बाबाज़ार में दस रुपए किलो का भाव है। पाँच-छँ जने शहनाज की पीहर से रहेंगे और भले-बुरे में दस-पाँच अपनी आपसवालों के लोगों को बुलाना ज़रूरी-सा होता है। दूसरों की दावत खाते हैंतो अपनी शर्म रखनी ही पड़ेगी। शराफत तो यही कहता था कि अम्मा से पूछ के देख लें। तुम्हारे बकरे को कटवा लेते तो घर की ठुकेगी नहीं। खाली रोगनजोश उबाल देने से तो काम चलेगा नहीं। कबाब और कोफ्ते बड़ी बहुत अच्छे बनाती हैं। पिछले बरस जब हम लोग रायबरेली गए थे शहनाज के अब्बा ने दो तो बकरे ही कटवा दिए थे और मुर्गियों की गिनती कौन करे। चार-पाँच दिन कुल जमा रहे होंगे,गोश्त खा-खाकर अफारा हो गया। गरीब हम लोग उनके मुकाबले में ज़रूर हैंलेकिन ज़रूरी नहीं कि अपनी कमनियती का सबूत भी दें।''
अशरफ भूमिका बाँधते जा रहे थे और जद्दन का चेहरा खिंचता जा रहा था। घर के सभी लोग जानते थे कि अम्मा से बकरे को निकालना इतना आसान नहीं होगा। अशरफ जब बातें कर रहे थेशहनाज चुपके-चुपके अपने बच्चे को पुलाव खिला रही थी और सहम रही थी कि कहीं अम्मा आसमान की तरह न फट पड़ें। 
मुँह उसका दूसरी ओर थालेकिन कान जद्दन की ओर लगे हुए थे। ज्योंही जद्दन धीमी लेकिन क़ड़वी आवाज़ में कहा कि ''शराफत की लैला तो मेरे मैमूद की जान को आ गई है।''शहनाज दबे स्वर में बोली, ''अम्माये तोहमत हमें ना दीजिये। ये बैठे हैं सामनेपूछ लीजिएहम तो लगातार मने करते रहे हैं कि अम्मा बहुत जज़्बाती हैउनकी कोई न छेड़े। खुराफातें ये करेंगे और अम्मा का गुस्सा अपने बेटों की जगहहम बेकसूरों पर गिरेगा।''
शहनाज के कहने में कुछ ऐसी विनम्रता और सम्मान की भावना थी कि जद्दन का रूख बदल गया, 'शराफत के अब्बाबकरे को मैंने कोई छाती पे बाँध के थोड़े ले जाना हैरहीमन ठीक ही तो कैती थी कि जद्दन आपाबकरे की माँ कहाँ तक खैर मना सकती है! मेरी ख्वाहिश तो सिर्फ़ इतनी हैं कि इस साले नामुराद जानवर के उठने-बैठनेहगने-मूतने की बातें भी मेरी याददाश्त का हिस्सा बन गई हैं। छोटा मेमना थातब तुम लोगों ने ही खुद देखा और हज़ार बार टोका कि अम्मा बकरे की औलाद की तरह साथ सुलाती है। क्या करतीसर्दी इतनी पड़ती थी और बिना माँ का ये बच्चा था! खैरमेरी तो इतनी-सी सलाह है कि मेहमान आएँतो उनकी इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है। जहीर से कहिएकहीं उधर कटरे-कंडेलगंज की तरफ़ के कसाइयों के हाथ बेच आए और इसके पैसों से चाहे फिर गोश्त ले आएया दूसरा बकरा खरीद लाए। इसका तो गोश्त भी बू मारेगा। औरखुदा जानता हैमैंने तो अपना जी अब खुद ही कसाइयों-सा बना लिया कि इस हरामजादे को तो कटना ही है। मैं ही उल्लू की पठ्ठी थींजो इसको खुराक देकर गोश्तखोरों के लिए मोटा करती रही।
हालाँकि सारी बातें जद्दन ने काफी ठंडे स्वर में और उदासीनता बरतते हुए कहीं थींलेकिन सभी जानते थे कि क्रुद्धता उसके जिस्म में इस समय खून की तरह दौड़ रही होगी।
३३
अपनी हताशा और उदासीनता को कमरे में पतझर के पत्तों की तरह गिराती हुई-सी जद्दन उठ खड़ी हुईतो शहनाज बोली, ''बकरे का गोश्त बू देगायह कहने के पीछे अम्मा का खास मकसद है। आप इन दोनों से कह दीजिएगा कि अम्मा से जिद न करें।''
अशरफ मियाँ ने एक लम्बी सांस ली और बोले, ''इसको देखता हूँतो बीते हुए दिन याद आने लगते हैं। शराफत और जहीर जब छोटे थेतभी बड़ी चली गई थी। इसमें हम लोगों को कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि बूढ़े की बीवी मर गई है या बच्चों की अम्मा! तुम लोग तो अब देख रही होजब न इसमें आब रहीन ताब! बकरा कट ही जाएतो अच्छा है। मार पागलों की तरह धूप में मारी-मारी फिरती है। वह सुसरा कभी ठिकाने तो रहता नहीं। कटेतो थोड़े दिन हाय-तौबा कर लेगीऔर क्या! रोज़-रोज़ की फजीहत तो दूर होगी। देखना मेहमानों के सामने अम्मा यों टल्ले लगा बुरका पहने न चली आएँ! वक्त की मार भी क्या मार है। देखती होअधसाया करके उठ गईं। जब तुम लोगों की उम्र की थीं,तब बारामती की किस्में देखी जाती थीं कि जर्दा पुलाव के लिए बारिक वाली बासमती हो। अब यह राशन के चावलों को पीला करना तो हल्दी की बेइज़्ज़ती करना है।''
इसी वक्त बड़ा बेटा जहीर आ गयातो उसको सारी स्थिति बतायी गई। वह लापरवाही के साथ बोला, 'आप लोग बेकार में बात बढ़ाये जाते हैं। अम्मा को मैं समझा दूँगा। अब यह कोई उनकी बकरे के पीछे दौड़ने की उम्र हैंसड़क पर भागती दिखती हैंतो शर्मसार होके रह जाते हैं हम लोग। भूखी-प्यासी और फटेहाल दौड़ी चली जाएँगी। मेरी मानियेतो सलीम कसाई को बुलवा लें और मेहमानों के आने से पहले खाल उतारकरकीमा कूंटने रख दे। राने पुलाव में डलवा दीजिए और इस वक्त के मीट में सीना-चाप-गरदन की बोटियाँ ठीक रहेंगी। जो खातिर घर की चीज़ से हो सकती हैबाज़ार से दो-ढ़ाई सौ में भी नहीं होंगी।
जुबेदा की अम्मा भी यही कहती थीं कि सोला रुपए वो देंगीतीस-बत्तीस रुपएशायदये शहनाज भी देने वाली थीं कि ''अम्मा अपने बेटों को तो बख्श देंगीहमें नहीं।'' अब इन बेवकूफों को कौन समझाये कि दो किलो घासलेट और तेल-मसाला करते-करते सौ रुपए निकल जाएँगे। राशन का चावल तो मेहमानों के लिए पुलाव में इस्तेमाल होगा नहीं और ढंग की बासमती साढ़े चार-पाँच से कमती का सेर नहीं। इंसान को अपना वक्त और सहूलियत देख के चलना चाहिएजज़्बातों पर चलने के दिन लद गए।'' ''कहते ठीक होबेटे! मेरी भी राय यही है। ज़रा तुम अम्मा से मिलकरऊँच-नीच समझा दो। ज़िद्दी ज़रूर हैंलेकिन नासमझ नहीं।'' आवाज़ साफ़-साफ़ सुनायी दे गई। जहीर की घरवाली यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि ''तुम लोग शुरू करोमैं जरा अब्बा हुजूर के हाथ धुलवा दूँ।''
खाना खा चुकने पर जहीर सीधे भीतर के कमरे में गया कि अम्मा सोयी होगीलेकिन शहनाज ने बताया, ''यों कहकर निकल गई हैं कि जरा रिजवी साहब के घर तक जाएँगी। उनके घर पिछले हफ्ते गमी हो गई थी। कहकर गई है कि शायद शाम हो जाएदेर से लौटेंगे। मेरा ख़याल हैअम्मा ने समझ लिया है कि अब बकरा बचता नहीं। गमी में शरीक होना तो एक बहाना है। घर से दूर जाना चाहती होंगी।'
शहनाज धीमे से हँसना चाहती थीलेकिन सिर्फ़ उदास होकर रह गई।
जहीर ने बाहर निकलकरअपने ग्यारह-बारह साल के बड़े लड़के से कहा, 'जुबैदज़रा सलीम को बुलाकर लाइयो। मेहमानों के आने तक में सफ़ाई हो जाएतो ही ठीक है। जुबेद की अम्माभईतुम लोग ज़रा बाहर वाला कमरा मेहमानों के लिए ठीक-ठाक कर देना।
शहनाज के अब्बा लोगों को किसी तरह की कमी की शिकायत न हो। बेचारे हर फसल पर चले आते हैं और हर बात का लिहाज रखते हैं। खुद तुम्हारे साथ अपनी सगी बेटी से ज़्यादा मुहब्बत का बर्ताव करते हैं। तुम दोनों जने प्याज़ और मसाले वगैरह पीसकर तैयार कर लेना। बाकी बाज़ार का सामान शराफत लेता आएगा। सलीम आ जाएतो उससे कह देनागंद जरा-सी भी न छूटे आँगन में। पोंछा लगवा लेना। खून के धब्बे वगैरह देखेंगी अम्मा तोऔर बिगड़ेंगी। तुम लोगों से कुछ कहने लगेंतो कह देनाजुबेद के अब्बा ने ज़बर्दस्ती कटवा दिया। मैं उन्हें समझा लूँगा।'

शाम की जगह घड़ी-भर रात बीत चुकने के अहसास में हीजद्दन घर वापस लौटी और गली में से होते हुएघर के पीछे वाले सँकरे आँगन में निकल गई। खटोला गिराकर उस पर लेट गई औरआस-पास के नीम-अँधेरे में अपने-आपको छिपा लेने की कोशिश मेंआँखें बन्द कर लीं।
मेहमान आ चुके थे और उनके तथा आपस के लोगों की बातचीत यहाँ पिछवाड़े भी सुनायी दो रही थी। छोटे बच्चों को बाहर लेकर आईतो शहनाज ने देखा और करीब आकरपाँव दबाती हुई बोली, ''अब्बा आ गए हैं। आते ही आपकी बाबत पूछ रहे थे कि अम्मा ने पुछवाया हैकैसी हैं। कभी रायबरेली की तरफ़ आने की इस्तजा करवा रही हैं। मैंने भी अब्बा से कहा है कि अब की बार मैं अम्मा के साथ ही आऊँगी। अम्मातुम खाना कहाँ खाओगीमेहमानों का दस्तरखान तो वहीं बाहर बैठक में बिछेगा। जल्दी खा-पी लेने की बातें कर रहे थे सभी लोग। कोई मज़हबी किस्म की फिल्म शहर में कहीं लगी हुई है!''
''मेरे लिए दो रोटियाँ यहीं भिजवा देना। मेरा न जी ठीक हैन पेट। जुबैद को जरा भेज देनामैं उससे कुछ मँगवा लूँगी। तुम सब लोग आराम से खाओ-पिओ। मेरी फिक्र ना करना। अब तो कोई सर्दी ना रही। मैं यहीं सो जाऊँगी। अपने अब्बा हुजूर से मेरा सलाम कैना और कैना कि सुबह दुआ-सलाम होगीअभी अम्मा का जी ठीक नहीं।''
शहनाज ने अनुभव किया कि जद्दन की आवाज़ मरते वक्त की-सी हो आयी है। निहायत हल्की और बेजान। वह चाहती थी कि कुछ बातें करकेउसकी उदासीनता को कम करने की कोशिश करेलेकिन इस डर से चुप रह गई कि कहीं अंदर इकठ्ठा किया हुआ दु:ख गुस्से की शक्ल में बाहर फूट आयातो पूरे घर का वातावरण बदल जाएगा। आज के वक्त को तो अब यों हीं टल जाने देना अच्छा है।
वापस लौटकर उसने बताया, 'तो जहीर और अशरफ मियाँदोनों ने मुँह बना लिया।
'हम लोगों ने तो हरचंद वही कोशिश की है कि कहीं से उस नामुराद बकरे की कोई चीज अम्मा को दिखे ही नहीं। वो तो इतनी संजीदा है गई हैंजैसे बकरे का हलाल किया हुआ सर आँगन में टँगा हुआ हो। कह रही थींगोश्त-पुलाव वगैरा कुछ मत भेजना।'' शहनाज ने कहातो अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए। बोले, 'जब उसे खिलाना होहमें बुला लेना। क्योंभई जुबेदतुम कहाँ तशरीफ ले जा रहे होजरा बैठक में मेहमानों के करीब रहो।''

चाचा जी ने पिछवाड़े भेजा थाबड़ी अम्मा के पास। उन्होंने चार आने हमें दिए हैं कि ''जाओशंभू पंडत की दुकान से आलू की सब्जी ले आओ।''
'अबेइधर ला चवन्नी। जामेहमानों को पानी-वानी पूछना। अम्मा को हम देख लेंगे। शहनाज बेटेऐसा करो -- एक थाली में पुलाव और बड़े कटोरे में गोश्त लगाकर हमें दो दो। हम ले जाकर समझा देंगे। वाकईबहुत बेवकूफ़ किस्म की औरत है। जहीरतुम बाहर बैठक में बस्तरखान बिछाने में लगो। शराफत के अलावा और एक-दो लड़कों को साथ ले लो।''
पुलाव की थाली और गोश्त का कटोरा शहनाज ने ही पहुँचा दिया। खटोेले की बगल में रखकरपानी लाने के बहाने तुरन्त लौट आई। अशरफ मियाँ ने करीब से माथा छुआ और बोले, 'क्योंभईऐसे क्यों लेटी होतबीयत तो ठीक है नाअरी सुनोसारे किये-कराये पर मिट्टी न डालो। तुम रूसवा रहोगीतो सारी मेहमाननवाज़ी फीकी पड़ जाएगी। सारा घर कबाब-गोश्त उड़ाए और तुम उस शंभू पंडत के यहाँ के पानीवाले आलू मँगवाओये तो हम लोगों को जूती मारने के बरोबर है। ऐसी भी क्या बात हो गईजो तुमने खटिया पकड़ लीगोश्त से तुम्हें कभी परहेज़ रहा नहीं। बिना शोरबे के रोटी गले के नीचे तुम्हारे उतरती नहीं। अब इस हद तक जज़्बाती बनने से तो कोई फ़ायदा नहीं। आखिर जिन बकरों का गोश्त तुम आज तक खाती आई होउनके कोई चार सींग तो थे नहीं! लोशहनाज़ खाना दे गई है। गोश्त वाकई बहुत लज़्ज़तदार बना है। जहीर तो दूसरा बकरा भी ढूँढ़ने गया थामगर लौटकर यही कहने लगा कि ''अब्बाअपना बेचने जाओ तो सौ के पचास देंगे और दूसरों का खरीदने जाओतो पचास के सौ माँगेंगे। तुम तो घर की इस वक्त जो अंदरूनी हालत हैजानती ही हो।''
जद्दन ऐसे उठीजैसे कब्रिस्तान में गड़ा हुआ मुर्दा खड़ा हो रहा हो। तीखी आँखों से अशरफ मियाँ की ओर उसने देखा और आवाज़ मेहमानों तक न पहुँचेइस तरह दबाकर बोली, ''जहीर के अब्बानसीहतें देने आए होमेरी तकलीफ़ तुम लोग समझोगेरिजवी के यहाँ घंटों पड़ी रही हूँतो कैसे यही मेरे तसब्वुर में आता रहा कि अब तुम लोग मेरे मैसूद के सिर को धड़ से कैसे जुदा कर रहे होंगे -- जार-जार रोती रही हूँ और रिजवी की बीबी यों समझ के मुझे समझाये जा रही है कि मैं उसके बदनसीब भाई की बेवक्त की मौत पे रो रही हूँ। आज ससुरा सवेरे-सवेरे से बार-बार मेरे कान मुँह में भरे जाता था और मैं थूथना पकड़करधक्का दे देती थी।
मैं क्या जानूँ कि बदनसीब चुपके से कान में यही कहना चाहता है कि ''अम्माआज हम चले जाएँगे!'' तुम लोग समझोगे मेरी तकलीफ़ कि कैसे मेरे लबों पर 'मैमूदकी सदा आएगी और खत्म हो जाएगी?''
जद्दन काफी देर तक फूट-फूटकर रोती रही और अशरफ मियाँ हक्का-बैठे रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति अब सँभले कैसे! आखिर उन्होंने यही तय किया कि चुपचाप खाना उठा ले जाना ही ठीक है। वह थाली-कटोरा उठाते कि जद्दन जहरबुझी आवाज़ में बोल उठी, ''तुम बेदर्दों से ये भी न हुआ कि मैं अव्वल दर्जे की गोश्तखोर औरत जब कै रही हूँ कि 'बेटे शहनाजहमें गोश्त-वोश्त न देना।'' तो इसकी कोई तो वजह होगीऔर जहीर के अब्बाइंसान दाढ़ी बढ़ा लेने से पीर नहीं हो जाता। तुम ये मुझे क्या नसीहत दोगे कि सभी बकरों के दो सींग होते हैंइतना तो नादीदा भी जानता है। दुनिया में तो सारे इंसान भी खुदा ने दो सींग वाले बकरों की तरहदो पाँव वाले बनाएलेकिन औरत तो तभी राँड होती हैजब उसका अपना खसम मरता है। अम्मा तो तभी अपनी छाती कूटती हैजब उससे उसका बच्चा जुदा होता हो। ये मैं भी जानती हूँ कि मेरे मैमूद में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे थेमगर इतना जानती हूँ कि मेरी तकलीफ़ जितना वह बदनसीब समझता थान तुम समझोगेन तुम्हारे बेटे ! समझते होतेतो क्या किसी हकीम ने बताया था कि मेहमानों को इसी बकरे का गोश्त खिलाना और तुम भी भकोसनानहीं तो नजला-जुकाम हो जाएगाजहीर के अब्बाउसूलों का तुम पे टोटा नहींमगर इस वक्त अब हमें बहुत जलील न करो। शहनाज से कहोउठा ले जाएनहीं तो फेंक दूँगी उधर! जुबैद से कह देनाअब पंडत के हियाँ से सब्जी लाने की भी कोई ज़रूरत ना रही। मेरा पेट तो तुम लोगों की नसीहतों से ही भर चुका।''
अशरफ मियाँ नीचे झुके और थाली-कटोरा उठाते हुएवापस आ गए, ''लो बेटेरखो! ज़िद्दी औरत को समझाना तो खुदा के बस का भी नहीं। उसे उसके हाल पर छोड़मेहमानों की फिक्र करो।''


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प्रो. देवराज  आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए ज

अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति

अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष