Tuesday, January 3, 2023

कसबे का आदमी

 


कमलेश्वर


सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य साफ़ हो रहे थे, जैसे कोई चित्रित कलाकृति पर से धीरे-धीरे ड्रेसिंग पेपर हटाता जा रहा हो। उसे यह सब बहुत भला-सा लगा। उसने अपनी चादर टाँगों पर डाल ली। पैर सिकोड़कर बैठा ही था कि आवाज़ सुनाई दी, "पढ़ो पटे सित्तारम स़ित्तारम. . . " 
उसने मुड़कर देखा, तो प्रवचनकर्ता की पीठ दिखाई दी। कोई ख़ास जाड़ा तो नहीं था, पर तोते के मालिक, रूई का कोट, जिस पर बर्फ़ीनुमा सिलाई पड़ी थी और एक पतली मोहरी का पाजामा पहने नज़र आए। सिर पर टोपा भी था और सीट के सहारे एक मोटा-सा सोंटा भी टिका था। पर न तो उनकी शक्ल ही दिखाई दे रही थी और न तोता। फिर वही आवाज़ गूँज उठी, "पढ़ो पटे सित्तारम सित्तारम. . ."
सभी लोगों की आँखें उधर ही ताकने लग गईं। आख़िर उससे न रहा गया। वह उठकर उन्हें देखने के लिए खिड़की की ओर बढ़ा। वहाँ तोता भी था और उसका पिंजरा भी, और उसके हाथ में आटे की लोई भी, जिससे वे फुरती से गोलियाँ बनाते जा रहे थे और पक्षी को पुचकार-पुचकारकर खिलाते जा रहे थे। पर तोता पूरा तोता-चश्म ही था। उनकी बार-बार की मिन्नत के बावजूद उसका कंठ नहीं फूटा। गोलियाँ तो वह निगलता जा रहा था, पर ईश्वर का नाम उसकी ज़बान से नहीं फूट रहा था। लौटते में एक नज़र उसने उन पर और डाली, तो लगा, जैसे चेहरा पहचाना हुआ है।
वह अपनी सीट पर आकर बैठ गया। दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला पर याद नहीं आया। तभी उन्होंने तोते की ओर से दृष्टि हटाकर शिवराज की ओर देखा, अंगूठा और तर्जनी निरंतर एक रफ़्तार से अब भी गोली को शक्ल प्रदान कर रहे थे। माथे पर लहरें डालते हुए और आँखों को गोल कर कुछ अजीब निरीह-सा मुँह बनाकर वे शिवराज को संबोधित करते हुए बोले, "शिब्बू शिवराज है न तू?"
और अपना नाम उनके मुँह से सुनते ही उसे सब याद आ गया। ये तो छोटे महराज हैं।
वे जाति के वैश्य थे, पर कर्म के कारण महराज पुकारे जाने लगे थे। म्युनिसिपालिटी की दूकानों के पासवाली इमली के नीचे बैठकर वे पानी पिलाया करते थे। क़स्बे की सबसे रौनकदार जगह वही थी। वहीं कुएँ पर छोटे अपनी टाँगें तोड़े, जाँघ तक धोती सरकाए, जनेऊ डाले, चुटिया फहराए, नंगे बदन टीन की टूटी कुरसी पर जमे रहते। गाँववाले पानी पीकर एक-आध पैसा उनके पैरों के बीच उसी कुरसी पर रखकर चल देते। पैसा पाकर वह सामर्थ्य-भर आशीर्वाद देते। जब एक कूल्हा दर्द करने लगता, तो दूसरी तरफ़ ज़ोर डालने के लिए थोड़ा-सा कसमसाते और इसमें अगर कहीं कुरसी ने खाल दाब ली, तो तीन-चार मिनिट लगातार कुरसी को गालियाँ देते रहते। लगे हाथों ननकू हलवाई को भी कोसते, जिसने प्याऊ के लिए यह कुरसी दी थी।
तब छोटे महराज की उमर कोई ख़ास नहीं थी, यही 35-36 के क़रीब रही होगी। छोटे महराज के बाप-दादा सोने-चांदी का काम करते थे। काफ़ी पुराना घर था, दूकान थी। पर जब बाप मरे, तो छोटे की उमर बहुत कम थी। माँ पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं। बाप के मरने के बाद दूर के रिश्ते की एक चाची आकर सब देखभाल करने लगीं। फिर बहुत बड़ी-सी चोरी हुई और छोटे का घर तबाह हो गया। चाची को तीरथ की सूझी, तो छोटे को साथ लेकर चल दीं। खर्चे की ज़रूरत पड़ने पर एक मुख़्तार से जब-तब रुपए मँगवाती रहीं। छोटे साथ थे, सो रसीद भेजते रहे। आख़िर जब तीरथ से वापस आए, तब पाँच-छह बरस मकान में और रहना हुआ। फिर मुख़्तार ने मूल और ब्याज के बदले एक दिन मकान कुर्क करा लिया, गवाही में छोटे के हाथ की रसीदें पेश कर दीं और औने-पौने में मकान झाड़ दिया। तब से उनकी चाची ने जनाने और अस्पताल में नौकरी कर ली और छोटे बिस्किटों का ठेला लगाने लगे और घूम-घूमकर बाज़ार की सड़कों पर चीखने लगे - 'एक पैसे में पचास, पचास बिस्किट इनाम ज़ितना लगाओगे, उतना पाओगे -'
ठेले में मैदे के छोटे-छोटे बिस्किटों का ढेर लगा रहता। एक कोने पर एक बड़ी-सी फिरकनी रखी रहती, जिस पर नंबर के खाने बने रहते और उस पर एक सुई नाचती रहती। जब कोई पैसा लगाकर घुमानेवाला न मिलता, तो खड़े-खड़े स्वयं घुमाते रहते, जितना नंबर आता, उतने बिस्किट गिनते और फिर ढेर में डालकर अनाज की तरह रोरते रहते। कभी करारे-करारे बीस-पचीस छाँट लेते, सुई घुमाते, अंटी से एक पैसा निकालकर पैसा रखनेवाले फूल के कटोरे में झन्न से मारते और जितना नंबर आता, उतने गिनकर, बाकी ढेर के सुपुर्द कर जलपान कर लेते।
लेकिन इस तरह कैसे पेट पलता। फिर एक होम्योपैथिक डॉक्टर की दूकान को रोज़ सुबह खोलने तथा झाड़ने-पोंछने का काम ले लिया। दो-चार घरों का पानी बाँध लिया। तड़के उठकर चार-चार डोल खींचकर डाल आते और डॉक्टर की दूकान की सफ़ाई आदि करके कोने में पड़े मोढ़े पर इज़्ज़त से दोपहर तक बैठे रहते। डॉक्टर साहब की अनुपस्थिति में मरीज़ों के हालचाल पूछ लेते। कुछ देसी दवाइयों के नुस्खे बताते और जर्मन दवाइयों की अहमियत समझाते।
तभी से छोटे अपने को बहुत-कुछ, एक छोटा-मोटा वैद्य समझने लगे थे। मरीज़ की दशा देखते ही रोग का ऐलान कर देते। तमाम रोगों के इलाज पर उन्होंने दखल जमा लिया था। जब मोतियाबिंद हो जाने के कारण डॉक्टर साहब को दूकान बंद कर देनी पड़ी, तो छोटे अपनी कोठरी में ही एक छोटा-सा औषधालय खोलने का मन्सूबा बाँधने लगे। रतनलाल अत्तार के यहाँ से आठ-दस आने की जड़ी-बूटियाँ भी बँधवा लाए, जिन्हें घोंट-पीस और कपड़छन करके सफ़ेद शीशियों में भरा और ताक में सजा दिया। फ़सली बुखार, हरे-पीले दस्त, नाक-कान-सिर-दर्द की हुक्मी दवाइयाँ बाँटने का ऐलान भी कर दिया। पर गली के परिवारों का सहयोग न मिलने के कारण उन्होंने इस नेक इरादे को छोड़ दिया। सारी हकीमी दवाइयों को थोड़ा-थोड़ा करके चूरन की पुड़ियों में मिलाकर उन्होंने आख़िर अपने पैसे सीधे कर लिए।
इस तरह के न जाने कितने घरेलू धंधे उन्होंने चलाए। जन्म से वैश्य होते हुए भी प्रकृति से परोपकारी होने के कारण उन्हें ब्राह्मणत्व भी प्राप्त करना ही था। इसीलिए जब गली-टोले के लड़कों ने उन्हें प्याऊ पर बैठते देखा और चमकदार काली पीठ पर जनेऊ दिखाई पड़ा, वे वंशगत भावनाओं से अनजान, कर्मगत संस्कारों के आधार पर उन्हें महराज पुकारने लगे। तभी से छोटेलाल छोटे महराज हो गए।
जिस इमली के नीचे वह बैठते थे, उस पर दैव की कृपा से महूक ने छत्ता धर लिया, तो एक दिन अंधियारे पाख में जाकर स्टेशन के पास से एक कंजर पकड़ लाए। छत्ता बटाई पर तै हो गया। पर छोटे महराज शहद का क्या करते। चलते वक़्त उसे कस दिया कि आधे दाम कल आ जाएँ। पर महीना-भर टल गया। झोंपड़ी पर तगादा करने पहुँचे। नगद पैसे तो मिले नहीं, अच्छी-ख़ासी डाँट लगाकर पैसों के बदले में तोता छाँट लिया। कंजर ने मिन्नत की कि तीनों तोते पेशगी दामों के हैं, इस बार जाएगा तो उनके लिए भी पकड़ लाएगा। पर छोटे न माने, दो-चार गालियाँ सुना दीं, तैश में बोले, "मेरे पैसे क्या हराम के थे, वह भी तो पेशगी में से ही हैं, ला निकाल जल्दी इस टुइयाँ को।" और तभी से यह तोता उनके पास है, जिसे जान की तरह चिपकाए रहते हैं।
शिवराज ने प्रसन्नता से उन्हें देखा। 'पालांगे महाराज' कहकर बोला, "इधर निकल आएँ महाराज, बहुत जगह है।"
जब वह पास आकर बैठ गए तो उसने पूछा, "झाँसी किस्के यहाँ गए थे?" "यहीं एक ब्याह था, उसमें आए थे, आना पड़ा अ़पनी कहो लेकिन देख, पहचान कैसा। नज़र कमज़ोर है लला, पर अपने गली-कूचे के पले लोगों की तो महक बहुत अच्छी होती है. . ." और वे धीरे-धीरे गरदन हिलाने लगे। उँगलियों के बीच गोली अब भी नाच रही थी और पिंजरे में बैठा संतू गोली के लालच से मुँह खोलता, आँखें बंद करता, पर बोलता नहीं था।
"बदन तो तुम्हारा एकदम लटक गया है, पहले से चोथाई भी नहीं रहा..." शिवराज बोला। उसे कुछ दु:ख-सा हो रहा था, जब उसने पिछली मरतबा देखा था, तब कितने हट्टे-कट्टे थे। यों उमर का उतार तो था, पर इतना फ़र्क तो बहुत है। भला उमर बने-बनाए आदमी को इतनी जल्दी भी तोड़ सकती है! गाड़ी की चाल धीमी पड़ गई। छोटे महराज ने संतू के पिंजरे को तनिक ऊपर उठाया। उसकी ओर प्यार-भरी दृष्टि से निहारते रहे। तोता कुछ बोला। छोटे महराज के मुख पर मुसकान दौड़ गई। बड़े स्नेह से पुचकारते हुए शिवराज को बताने लगे, "इसका नाम संतू है! यानी संत ज़ब बोले तो बानी बोले, हाँ, संत बानी सित्ताराम!" इतना कहते-कहते वे अपनी ही बात में डूब गए।
गाड़ी रुकी, कोई मामूली-सा स्टेशन था। छोटे महराज ने पेट पर हाथ फेरा और सिर हिलाते हुए बोले, "देखो शिब्बू, कुछ खाने-पीने का डौल है यहाँ?" मिठाईवाला पास से गुज़रा, शिवराज ने रोक लिया। छोटे महराज बोले, "कुछ ठीक-ठाक हो तो पाव-आध पाव...
मिठाई लेकर पैसे शिवराज ने दे दिए। दोनों हाथों में दोना पकड़कर शिवराज के सामने करते हुए वह बोले, "लो शिब्बू, चखो तो ज़रा, अच्छी हो तो पाव-भर और ले लो।"
और इससे पहले कि शिवराज चखे, उन्होंने खुद पोपले मुँह में एक टुकड़ा डालते हुए अपनी राय प्रकट कर दी, "है तो अच्छी ब़ुलाओ उसे।"
शिवराज को बात कसक गई। वह चुप ही बैठा रहा। झाँककर मिठाईवाले को बुलाने की कोई दिखावटी चेष्टा भी उसने नहीं की। पर जैसे ही मिठाईवाला फिर गुज़रा, उनकी दृष्टि पड़ गई। उसे रोकते हुए बोले, "हाँ भाई, ज़रा पाव-भर और देना तो।" फिर शिवराज की ओर मुख़ातिब होकर बोले, "ले लो, शिब्बू असल में बात यह है कि मुझसे अब कोई ऐसी-वैसी चीज़ तो खाई नहीं जाती, दाँत ही नहीं रहे। खोया-वोया थोड़ा आसान रहता है न।" कहकर उन्होंने निष्काम भाव से खाना शुरू कर दिया।
पैसे उसने फिर दे दिए। खाते समय छोटे महराज का निरीह-सा मुँह और एकदम सट जानेवाले जबड़े देखकर उसे रहम आ गया। उनकी झुकी गरदन, बार-बार पलकों का झपकना और ज़रा-ज़रा करके खाना, जैसे सारे कार्य और तन की सारी भाव-भंगिमाओं में लाचारी थी। उन्होंने एक टुकड़ा पिंजरे में डाल दिया। तोते ने खा लिया। पुचकारते हुए उन्होंने फिर एक टुकड़ा डाल दिया। वे स्वयं खाते रहे और संतू को खिलाते रहे। फिर बात चल निकली और उसी के मध्य उनका स्टेशन भी आ गया।
स्टेशन से बाहर आने पर शिवराज और छोटे महराज एक ही इक्के में बैठ गए। दो सवारियाँ और हो गईं। इक्का चला तो हचकोला लगा। छोटे महराज अपने तोते के पिंजरे को पटरे से बाहर लटकाए किसी तरह बैठे रहे। अस्पताल के पास वह इक्के से उतर पड़े। संतू का पिंजरा पटरी पर रख दिया और झोले में से कुछ निकालते हुए कहने लगे, "मैं यहीं उतर जाता हूँ। चाची को ब्याह का हालचाल बताकर कोठरी पर आऊँगा! हाँ, तुमसे एक काम है। ये एक कपड़ा है सिलक का, वहीं शादी में मिला था। मेरे तो भला क्या काम आएगा, तुम अपने काम में ले आना!" बात खतम करते-करते वह कपड़ा झोले से निकालकर शिवराज की गोद में रख दिया।
शिवराज ने लेने से इनकार कर दिया। पर वे नहीं माने। शिवराज भी नहीं माना, तो बड़े झुंझलाकर कपड़ा इक्के में फेंककर संतू का पिंजरा, झोला और सोंटा लेकर बड़बड़ाते चल दिए, "अरे पूछो म़ेरे किसी काम का हो तो एक बात भी है। ज़िंदगी-भर में एक चीज़ दी, उससे भी इनकार स़ब वक्त की बातें हैं, रहम दिखाते हैं मुझ पर, तेरे बाप होते तो अभी इसी बात पर चटख जाती।" फिर मुड़कर ऊँचे स्वर में बोले, "पैसे नहीं हैं मेरे पास, इक्केवाले को दे देना।" और वे जनाने अस्पताल के फाटक में गुम हो गए।
दूसरे दिन सवेरे छोटे महराज अपनी कोठरी में दिखाई दिए। देहरी पर बैठे-बैठे कराह रहे थे। कभी-कभी बुरी तरह से खाँस उठते। साँस का दौरा पड़ गया था। गली से शिवराज निकला तो पिछले दिन वाली बात के कारण उसकी हिम्मत कुछ कहने की नहीं पड़ी। सोचा कतराकर निकल जाए, पर पैर ठिठक रहे थे। तभी हाँफते-हाँफते छोटे महराज बोले, "अरे शिब्बू!" फिर कराहकर टुकड़े-टुकड़े करके कहने लगे, "दौरा पड़ गया है, कल रात से, हाँ, अब कौन देखे संतू को। बड़ी ख़राब आदत है इसकी, गरदन सलाख से बाहर कर लेता है। रात-भर बिल्ली चक्कर काटती रही, बेटा। छन-भर को पलक नहीं लगी। अपने होश-हवास ठीक नहीं तो कौन रखवाली करे इसकी। अपने घर रख लो, बेफ़िकर हो जाऊँ।"
और इतना कहकर बुरी तरह हाँफने लगे। गले में कफ़ घड़घड़ा आया, तो औंधे होकर लेट रहे। पीठ बुरी तरह उठ-बैठ रही थी। शिवराज 'अच्छा' कहकर पिंजरा उठाकर चलने लगा, तोते को एक बार पूरी आँख खोलकर उन्होंने ताका। उनकी गंदली-गंदली आँखों में एक अजीब विरह-मिश्रित तृप्ति थी। जैसे किसी बूढ़े ने अपनी लड़की विदा कर दी हो। सिर नीचा करके उन्होंने एक गहरी साँस खींची, जैसे बहुत भारी ऋण से उऋण हो गए हों।
तीन-चार दिन हो गए थे। छोटे महराज की हालत ख़राब होती जा रही थी। अकेले कोठरी में पड़े रहते। कोई पास बैठनेवाला भी नहीं था। चौथे दिन हालत कुछ ठीक नज़र आई। सरककर देहरी तक आए। घुटनों पर कोहनियाँ रखे और हथेलियों से सिर को साधे कुछ ठीक से बैठे थे। कभी कराह उठते, धाँस लगती तो खाँस उठते। पर उनके चेहरे पर अथाह शोक की छाया व्याप रही थी, जैसे किसी भारी गम़ में डूबे हों। उनकी आँखों में कुछ ऐसा भाव था, जैसे किसी ने उन्हें गहरा धोखा दिया हो, उनके कानों में बार-बार संतू की वह आवाज़ गूँज रही थी, जो उन्होंने दोपहर सुनी थी।
दोपहर संतू की कातर आवाज़ जब शिवराज के बरोठे से सुनाई दी तो वे घबरा गए थे कि कहीं बिल्ली की घात तो नहीं लग गई। बड़े परेशान रहे, पर उठना तो बस में नहीं था। शिवराज के घर की ओर बहुत देर आस लगाए रहे कि कोई निकले, तो पता चले। काफ़ी देर बाद मनुआ तोते के दो-तीन हरे-हरे पंखों का मुकुट बनाए माथे से बाँधे, दो-तीन बच्चों के साथ खेलता दिखाई पड़ा, देखते ही सनाका हो गया। संतू की पूँछ के लंबे-लंबे पंख! किसी तरह बुलाकर पूछा तो पता चला कि मुनुआ को राजा बनना था, सो उसने संतू की पूँछ पकड़ ली। बात की बात में दो-तीन पंख नुच आए।
छोटे महराज का जैसे सारा विश्वास उठ गया। ये लड़का तो उसे मार डालेगा! इस वक़्त तबीयत कुछ ठीक मालूम हुई, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना डंडा पकड़ा, हिलते-काँपते शिवराज के बरोठे में पहुँचे और अपना तोता वापस माँग लाए। कोठरी में आकर उसकी बूची पूँछ देखते रहे, पर मुँह से कुछ बोले नहीं। संतू को पुचकारा तक नहीं।
शाम हो आई थी। तिराहे पर लालटेन जल गई थी। पूरी गली में उदास अंधियारा भरता जा रहा था। उन्होंने संतू के पिंजरे को भीतर रखकर कोठरी के दरवाज़े उढ़का लिए और फिर नहीं निकले। भीतर कुछ देर तक खुट-पुट करते रहे, फिर रात भर कोई आवाज़ नहीं आई।
सवेरे शिवराज उधर से निकला तो कोठरी की ओर निगाह डाली।
दरवाज़े उसी तरह भिड़े थे। उसने धीरे से खोलकर झाँका, देखा महराज सो रहे थे। चुपचाप धीरे से दरवाज़ा बंद करने लगा, तो गली के रामनरायन बोल पड़े, "क्यों, आज नहीं उठे महराज अभी तक?"
और इतना कहते-कहते उन्होंने पूरे दरवाज़े खोल दिए। दोनों ने ग़ौर से देखा, तोते का पिंजरा सिरहाने रखा था, जिस पर कपड़ा था कि कहीं बिल्ली की घात न लग जाए, परंतु छोटे महराज का पिंजरा खाली पड़ा था, पंछी उड़ गया था।
छोटे महराज ने स्वयं तो नहीं पढ़ा था, पर रामलीला आदि में सुनने के कारण यह उनका पक्का विश्वास था कि अंतिम काल में यदि राम का नाम कानों में पड़ जाए तो मुक्ति मिल जाती है। पता नहीं, उनके अंतिम क्षणों में भी संतू तोते की वाणी फूटी थी या नहीं।
मिठाईवाला पास से गुज़रा, शिवराज ने रोक लिया। छोटे महराज बोले, "कुछ ठीक-ठाक हो तो पाव-आध पाव. . ."
मिठाई लेकर पैसे शिवराज ने दे दिए। दोनों हाथों में दोना पकड़कर शिवराज के सामने करते हुए वह बोले, "लो शिब्बू, चखो तो ज़रा, अच्छी हो तो पाव-भर और ले लो।"
और इससे पहले कि शिवराज चखे, उन्होंने खुद पोपले मुँह में एक टुकड़ा डालते हुए अपनी राय प्रकट कर दी, "है तो अच्छी ब़ुलाओ उसे।" शिवराज को बात कसक गई। वह चुप ही बैठा रहा। झाँककर मिठाईवाले को बुलाने की कोई दिखावटी चेष्टा भी उसने नहीं की। पर जैसे ही मिठाईवाला फिर गुज़रा, उनकी दृष्टि पड़ गई। उसे रोकते हुए बोले, "हाँ भाई, ज़रा पाव-भर और देना तो।" फिर शिवराज की ओर मुख़ातिब होकर बोले, "ले लो, शिब्बू असल में बात यह है कि मुझसे अब कोई ऐसी-वैसी चीज़ तो खाई नहीं जाती, दाँत ही नहीं रहे। खोया-वोया थोड़ा आसान रहता है न।" कहकर उन्होंने निष्काम भाव से खाना शुरू कर दिया।
पैसे उसने फिर दे दिए। खाते समय छोटे महराज का निरीह-सा मुँह और एकदम सट जानेवाले जबड़े देखकर उसे रहम आ गया। उनकी झुकी गरदन, बार-बार पलकों का झपकना और ज़रा-ज़रा करके खाना, जैसे सारे कार्य और तन की सारी भाव-भंगिमाओं में लाचारी थी। उन्होंने एक टुकड़ा पिंजरे में डाल दिया। तोते ने खा लिया। पुचकारते हुए उन्होंने फिर एक टुकड़ा डाल दिया। वे स्वयं खाते रहे और संतू को खिलाते रहे। फिर बात चल निकली और उसी के मध्य उनका स्टेशन भी आ गया।
स्टेशन से बाहर आने पर शिवराज और छोटे महराज एक ही इक्के में बैठ गए। दो सवारियाँ और हो गईं। इक्का चला तो हचकोला लगा। छोटे महराज अपने तोते के पिंजरे को पटरे से बाहर लटकाए किसी तरह बैठे रहे। अस्पताल के पास वह इक्के से उतर पड़े। संतू का पिंजरा पटरी पर रख दिया और झोले में से कुछ निकालते हुए कहने लगे, "मैं यहीं उतर जाता हूँ। चाची को ब्याह का हालचाल बताकर कोठरी पर आऊँगा! हाँ, तुमसे एक काम है। ये एक कपड़ा है सिलक का, वहीं शादी में मिला था। मेरे तो भला क्या काम आएगा, तुम अपने काम में ले आना!" बात खतम करते-करते वह कपड़ा झोले से निकालकर शिवराज की गोद में रख दिया।
शिवराज ने लेने से इनकार कर दिया। पर वे नहीं माने। शिवराज भी नहीं माना, तो बड़े झुंझलाकर कपड़ा इक्के में फेंककर संतू का पिंजरा, झोला और सोंटा लेकर बड़बड़ाते चल दिए, "अरे पूछो म़ेरे किसी काम का हो तो एक बात भी है। ज़िंदगी-भर में एक चीज़ दी, उससे भी इनकार स़ब वक्त की बातें हैं, रहम दिखाते हैं मुझ पर, तेरे बाप होते तो अभी इसी बात पर चटख जाती।"
फिर मुड़कर ऊँचे स्वर में बोले, "पैसे नहीं हैं मेरे पास, इक्केवाले को दे देना।" और वे जनाने अस्पताल के फाटक में गुम हो गए।
दूसरे दिन सवेरे छोटे महराज अपनी कोठरी में दिखाई दिए। देहरी पर बैठे-बैठे कराह रहे थे। कभी-कभी बुरी तरह से खाँस उठते। साँस का दौरा पड़ गया था। गली से शिवराज निकला तो पिछले दिन वाली बात के कारण उसकी हिम्मत कुछ कहने की नहीं पड़ी। सोचा कतराकर निकल जाए, पर पैर ठिठक रहे थे। तभी हाँफते-हाँफते छोटे महराज बोले, "अरे शिब्बू!" फिर कराहकर टुकड़े-टुकड़े करके कहने लगे, "दौरा पड़ गया है, कल रात से, हाँ, अब कौन देखे संतू को। बड़ी ख़राब आदत है इसकी, गरदन सलाख से बाहर कर लेता है। रात-भर बिल्ली चक्कर काटती रही, बेटा। छन-भर को पलक नहीं लगी। अपने होश-हवास ठीक नहीं तो कौन रखवाली करे इसकी। अपने घर रख लो, बेफ़िकर हो जाऊँ।"
और इतना कहकर बुरी तरह हाँफने लगे। गले में कफ़ घड़घड़ा आया, तो औंधे होकर लेट रहे। पीठ बुरी तरह उठ-बैठ रही थी। शिवराज 'अच्छा' कहकर पिंजरा उठाकर चलने लगा, तोते को एक बार पूरी आँख खोलकर उन्होंने ताका। उनकी गंदली-गंदली आँखों में एक अजीब विरह-मिश्रित तृप्ति थी। जैसे किसी बूढ़े ने अपनी लड़की विदा कर दी हो। सिर नीचा करके उन्होंने एक गहरी साँस खींची, जैसे बहुत भारी ऋण से उऋण हो गए हों।
तीन-चार दिन हो गए थे। छोटे महराज की हालत ख़राब होती जा रही थी। अकेले कोठरी में पड़े रहते। कोई पास बैठनेवाला भी नहीं था। चौथे दिन हालत कुछ ठीक नज़र आई। सरककर देहरी तक आए। घुटनों पर कोहनियाँ रखे और हथेलियों से सिर को साधे कुछ ठीक से बैठे थे। कभी कराह उठते, धाँस लगती तो खाँस उठते। पर उनके चेहरे पर अथाह शोक की छाया व्याप रही थी, जैसे किसी भारी गम़ में डूबे हों। उनकी आँखों में कुछ ऐसा भाव था, जैसे किसी ने उन्हें गहरा धोखा दिया हो, उनके कानों में बार-बार संतू की वह आवाज़ गूँज रही थी, जो उन्होंने दोपहर सुनी थी।
दोपहर संतू की कातर आवाज़ जब शिवराज के बरोठे से सुनाई दी तो वे घबरा गए थे कि कहीं बिल्ली की घात तो नहीं लग गई। बड़े परेशान रहे, पर उठना तो बस में नहीं था। शिवराज के घर की ओर बहुत देर आस लगाए रहे कि कोई निकले, तो पता चले। काफ़ी देर बाद मनुआ तोते के दो-तीन हरे-हरे पंखों का मुकुट बनाए माथे से बाँधे, दो-तीन बच्चों के साथ खेलता दिखाई पड़ा, देखते ही सनाका हो गया। संतू की पूँछ के लंबे-लंबे पंख! किसी तरह बुलाकर पूछा तो पता चला कि मुनुआ को राजा बनना था, सो उसने संतू की पूँछ पकड़ ली। बात की बात में दो-तीन पंख नुच आए।
छोटे महराज का जैसे सारा विश्वास उठ गया। ये लड़का तो उसे मार डालेगा! इस वक़्त तबीयत कुछ ठीक मालूम हुई, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना डंडा पकड़ा, हिलते-काँपते शिवराज के बरोठे में पहुँचे और अपना तोता वापस माँग लाए। कोठरी में आकर उसकी बूची पूँछ देखते रहे, पर मुँह से कुछ बोले नहीं। संतू को पुचकारा तक नहीं।
शाम हो आई थी। तिराहे पर लालटेन जल गई थी। पूरी गली में उदास अंधियारा भरता जा रहा था। उन्होंने संतू के पिंजरे को भीतर रखकर कोठरी के दरवाज़े उढ़का लिए और फिर नहीं निकले। भीतर कुछ देर तक खुट-पुट करते रहे, फिर रात भर कोई आवाज़ नहीं आई।

सवेरे शिवराज उधर से निकला तो कोठरी की ओर निगाह डाली। दरवाज़े उसी तरह भिड़े थे। उसने धीरे से खोलकर झाँका, देखा महराज सो रहे थे। चुपचाप धीरे से दरवाज़ा बंद करने लगा, तो गली के रामनरायन बोल पड़े, "क्यों, आज नहीं उठे महराज अभी तक?"
और इतना कहते-कहते उन्होंने पूरे दरवाज़े खोल दिए। दोनों ने ग़ौर से देखा, तोते का पिंजरा सिरहाने रखा था, जिस पर कपड़ा था कि कहीं बिल्ली की घात न लग जाए, परंतु छोटे महराज का पिंजरा खाली पड़ा था, पंछी उड़ गया था।
छोटे महराज ने स्वयं तो नहीं पढ़ा था, पर रामलीला आदि में सुनने के कारण यह उनका पक्का विश्वास था कि अंतिम काल में यदि राम का नाम कानों में पड़ जाए तो मुक्ति मिल जाती है। पता नहीं, उनके अंतिम क्षणों में भी संतू तोते की वाणी फूटी थी या नहीं।

खोल दो

 


सआदत हसन मन्टो

अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए। 
सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।"
सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?
सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?
लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?
सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना
डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है?

मैमूद


शैलेश मटियानी


महमूद फिर ज़ोर बाँधने लगातो जद्दन ने दायाँ कान ऐंठते हुएउसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया। ठीक थूथने पर थप्पड़ मारती हुई बोली, ''बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी क्या हिलाता हैस्साले! दूँगी एक कनटापतो सब शेखी निकल जाएगी। न पिद्दीन पिद्दी के शोरबेसाले बहुत साँड बने घूमते हैं। ऐ सुलेमान की अम्माअब मेरा मुँह क्या देखती है,रोटी-बोटी कुछ ला। तेरा काम तो बन ही गयादेख लेनाकैसे शानदार पठिये देती है। इसके तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं।''
अपनी बात पूरी करते-करतेजद्दन ने कान ऐंठना छोड़करउसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। अब महमूद भी धीरे-से पलटाऔर सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह में भर लियातो वह चिल्ला पड़ी, ''अरी ओ सुलेमान की अम्मीदेख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी आँखों से! चुगद कान ऐंठने का बदला ले रहा है। ए मैमूदस्सालेदाँत न लगानानहीं तो तेरी खैर नहीं।
अच्छाले आयी तू रोटियाँअरीये तो राशन के गेहूँ की नहींदेसी की दिखती हैं। ला इधर। देखा तूनेहरामी कैसे मेरा कान मुँह में भरे थाअब तुझे यकीन नहीं आएगारहीमन! ये साला तो बिलकुल इंसानों की तरह जज़्बाती है!''
जानवर तो गूँगा होता हैशराफ़त की अम्मा! अलबत्ता इंसान उसमें जज़्बातों का अक्स ज़रूर ढूँढ़ता है। तुम तो इस नामुराद बकरे का इतना ख़याल रखती होमाँ अपनी औलाद का क्या रखती होगी।''
रहीमन ने दोनों रोटियाँ जद्दन को पकड़ा दी थीं और बकरा अब रोटी के टुकड़े चबाने में व्यस्त हो गया था। एक टुकड़ा वह जब पूरी तरह निगल लेतातो सिर से जद्दन को अपने सींगों से ठेलने लगता था। ''सब्र नाम की चीज़ तो खुदा ने तुझे किसी भी बात में बख्शी ही नहीं।'' कहते हुए जद्दन ने फिर अपना रूख रहीमन की ओर कर लिया, ''इंसान जब बूढ़ा हो जाता हैतब कोई ऐसा उसे चाहिएजो उसके 'कहने से आए और 'जाकहने से जाए। दुनिया वालों की दुनिया जानेसुलेमान की अम्मा! मेरा तो एक यह नामुराद मैमूद ही है,जिस साले को इस खुल्दाबाद की नबी वाली गली से आवाज़ लगाऊँ कि --'मैमूद! मैमूद! मैमूद!'' तो चुगद नखासकोने के कूड़ेखाने पर पहुँचा हुआ पीछे पलटता है और 'बें-बेंकरता वो दौड़ के आता है मेरी तरफ़ कि तू जानसगी औलाद क्या आएगी! बससाला जब कुनबापरस्ती पे निकलता हैतो मेरी क्या खुदा की भी नहीं सुनेगा। फिर भी आवाज़ लगा दूँतो एक बार पलट के ज़रूर 'बेकर लेगाभले ही बाद में अपनी अम्माओं की तरफ़ट दूनी रफ्तार से दौड़ पड़े।
अपनी बात पूरी करके जद्दन हँस पड़ीतो उसके छिदरे और कत्थई रंग के भद्दे दाँतों में एक चमक-सी दिखाई दे गई। जर्जरटल्ले लगे और बदरंग बुरके में से बुढ़ापे का मारा हुआ चेहरा उघाड़े रहती है जद्दनतो चुड़ैलों की-सी सूरत निकल आती है। 
'जब इस कसाइयों के निवाले का किस्सा बखानने लगती हो तुमशराफ़त की अम्मामीरगंज वालियों की-सी चमक आ जाती है तुम में!अपनी काफी दूर निकल चुकी बकरी को एक नज़र टोह लेने के बादरहीमन ने मज़ाक किया और खुद भी हँस पड़ी।
''तुम खुद अब कौन-सी जवान रह गई होरहीमानआखिर तजुर्बेकार औरत हो! तुम जानोएक ये बेजुबान जानवर और दूसरे मासूम बच्चे -- बसये दो हैंजो इंसान की उम्र,उसके जिस्म और उसकी खूबसूरती-बदसूरती पे नहीं जातेबल्कि सिर्फ़ नेकी-बदी और नफ़रत-मुहब्बत को पहचानते हैं। हमारे शराफ़त की बन्नो तो तुम्हारी हज़ार बार की देखी हुई है। खूबसूरती और नूर में उसके मुकाबले की हाजी लाल मुहम्मद बीड़ी वालों या शेरवानियों के हियाँ भी मुश्किल से मिलेगीरहीमन! मगर तू ये जान कि मेरा मैमूद उसकी शकल देखते ही मुँह फेर केपिछाड़ी घुमा देता है। बदगुमान कैती हैनाकाबिले बर्दाश्त बू मारता है और ये कि 'अम्मा हमारे बच्चों का छोड़ देंगीलेकिन ये बकरा नहीं छूटेगा।'' मैं कैती हूँतेरी कमसिनी और खूबसूरती पे लानत है। लाख पौडर-इत्र छिड़के तूमेरा मैमूद तेरे कहे पे थूक के नहीं देगा। जानवर और बच्चे तो इंसान की चमड़ी नहींनियत देखते हैंनियत! मजाल है कि नवाबजादी के हाथों से एक गस्सा मेरे मैमूद के मुँह की तरफ़ चला जाए! तुझ पे खुदा रहम करेगारहीमन! देखनापहले तो तीननहीं दो पठिये तो कहीं गए ही ना! खुदा कसमये रोटियाँ तूने इस नामुराद के नहींमेरे पेट में डाल दी हैं। मुहल्ले वाले तोबससरकारी मवेशी समझकर चले आते हैं। ये नहीं होता कमनियतों से कि दो रोटियाँ या मुट्ठी-भर दाना भी साथ लेते आएँ। अरे भईमैमूद जो धूप में खेल के वापस आने वाले मासूम बच्चों की तरे मुरझा जाता हैये तो सिर्फ़ जद्दन को ही दिखायी देता हैया ऊपर वाले खुदा को। तू जानपिछले बरस की बकरीद के आस-पास पैदा हुआ था।
अब याददाश्त कमज़ोर पड़ चुकीलेकिन शायदये ही जुम्मे या जुमेरात के रोज़ पैदा हुआ होगा और अब साल ऊपर साढ़े तीन महीने का हो लिया।''
जद्दन महमूद की पीठ पर हाथ फेरते हुए खटोले पर से उठ खड़ी हुई थी कि ''अच्छासुलेमान की अम्माचलूँगी। शराफ़त के अब्बा की दुपेर की नमाज़ का वक्त हो रहा है। सुना है,आज शहनाज़ के अब्बा लोग भी आने वाले हैं रायबरेली से।'' तभी रहीमन ने कहा कि ''तुम सवा-डेढ़ साल का बताती होमगर इसके रान-पुट्ठे देख के कोई तीन से नीचे का नहीं कहेगा! बीस-पच्चीस सेर से कम गोश्त नहीं निकलेगा इस बकरे में। लगता हैतुमने रोटी-दाने के अलावा घास से परवरिश की ही नहीं?'
हालाँकि रहीमन ने सारी बातें महमूद की प्रशंसा में कही थींलेकिन जद्दन का पूरा चेहरा त्यौरियों की तरह चढ़ गया, ''अरी ओ रहीमनआग लगे तेरे मूँ में। मतलब निकल गया तेरा,तो मेरे मैमूद का गोश्त तौलने बैठ गईतेरा खाबिन्द तो बढ़ई हैरीये कसाइयों की घरवालियों की-सी बातें कहाँ से सीखी होया खुदाहया और रहम नाम की चीज इंसानों में रही ही ना! गोश्तखोरों की नज़र और कसाई की छुरी में कोई फर्क थोड़े ना होता है। अरी रहीमनकहे देती हूँ -- आगे से ऐसी बेहूदी बातें न करना और आइंदे से अपनी बकरी कहीं दूसरी जगे ले जाना। कोई सुसरा पूरे खुल्दाबाद में मेरा एक मैमूद ही थोड़े ठीका लिए बैठा है।''
''अरी जद्दनअब बड़े घरानों की बेगमों के-से तेवर बहुत न दिखाओ! बकरा न हो गयासुसरा हातिमताई हो गया तुम्हारे वास्ते!'' रहीमन ने भी झिड़क दिया और व्यंग-भरी आवाज़ में बोली -- ''वो जो एक मुहावरा हैतुमने भी सुना होगा -- बकरे की अम्मा आखिर कब तक दुआएँ करेगीऔर जद्दनसुनाने वाले को सुनना भी सीखना ही चाहिए।
हमसे पूछोतो हकीकत ये है कि तुम्हारे तो औलाद हुई नहीं। सौतेले को न तुमने कलेजे के करीब आने दिया और न उन नामुरादों से तुम्हारे सीने में दूध उतारा गया। बसये ही वजह है कि तुम इस दाढ़ीजार बकरे को 'मेरा मैमूदमेरा मैमूद!पुकार के अपनी जलन बुझाती हो।''
जद्दन आगे बढ़ती हुईऐसे रूक गईजैसे बिच्छू ने काट लिया हो। उसका चेहरा गुस्से में तमतमाने के बादलाचारगी से स्याह पड़ गयारहीमनजो जी तूने मेरा दुखाया हैखुदा तुझे समझेगा। और रै गया 'बकरे की अम्मावाला मुहावरातो इंसान की अम्मा की ही दुआ कहाँ बहुत लम्बे तक असर करती हैकरती होतीतो तेरा बड़ा बेटा सुलेमान आज जवान हो चुका होता और तू सिर्फ़ नाम की 'सुलेमान की अम्मान रह जाती! एक लमहा चुप कररहीमन! खुदा मुझे माफ़ करेमैं तेरे ऊपर बीते का मज़ाक उड़ाना नहीं चाहती थी -- सिर्फ़ इतना कैना चाहती हूँदर्द इंसान को अपने जज़्बातों का होता है। जिससे जज़्बाती रिश्ता न होउसका काहे का स्यापासूलेमान की अम्माइतना मैं भी जानती हूँ कि बकरे ने आखिर कटना-ही-कटना है। कसाइयों से कौन-सा बकरा बचा आज तलकमगर मेरी इतनी इल्तजा ज़रूर है परवर-दिगार सेमेरी नजरों के सामने ना कटे। शराफत के अब्बा से कै भी चुकी हूँइस नामुराद को जब बेचने लगोतो पहले तो शहर का -- कम-से-कम मोहल्ले का फासला ज़रूर रखना। और वो तेरी बात मैं ज़रूर माने लेती हूँ कि खुदा के यहाँ बकरे की अम्मा की दुआ बहरे के कानों में अजान हैं। यह भी ठीक हैसौतेले ने मुझे सगी अम्मा की-सी इज़्ज़त नहीं बख्शीयह कैना सरासर झूठ बोल के दोखज में जाना होगा मगर मुहब्बत जो मुझे इस जानवर ने दीअम्मा-अब्बा ने दी होगीतो दी होगी।''
रहीमन से कोई उत्तर बन नहीं पाया। वह सिर्फ़ यह देखती रह गई कि जद्दन ने बुर्के के पल्लू से अपनी आँखें पोछीं और बकरे की पीठ थपथपाती हुईअपने घर की तरफ़ बढ़ गई।
जद्दन जब तक घर पहुँचीअशरफ नमाज़ पर बैठ चुके थे।
पाखाने की बगल की संकरी कोठरी में बकरे को बंद करते हुएजद्दन बोली, ''शराफत के अब्बा दूपेर की नमाज पर बैठ चुके। अब तू कहाँ मारा-मारा फिरेगा। शाम के वक्त निकालूँगी। इस साल अभी से लू चलने लगी।''
खाने पर बैठेतो अशरफ बोले, ''शराफत की अम्मारायबरेली वालों का संदेशा आया थातुम्हें मालूम ही होगा। हम लोग तो तंगदस्ती मे चल रहे हैंमगर मेहमानों के सामने तो अपना रोना रोया नहीं जाताइज़्ज़त देखनी पड़ती है। शराफत और जहीर से बात हुई थी। लड़के ठीक ही कह रहे थे कि अब्बाबाज़ार में दस रुपए किलो का भाव है। पाँच-छँ जने शहनाज की पीहर से रहेंगे और भले-बुरे में दस-पाँच अपनी आपसवालों के लोगों को बुलाना ज़रूरी-सा होता है। दूसरों की दावत खाते हैंतो अपनी शर्म रखनी ही पड़ेगी। शराफत तो यही कहता था कि अम्मा से पूछ के देख लें। तुम्हारे बकरे को कटवा लेते तो घर की ठुकेगी नहीं। खाली रोगनजोश उबाल देने से तो काम चलेगा नहीं। कबाब और कोफ्ते बड़ी बहुत अच्छे बनाती हैं। पिछले बरस जब हम लोग रायबरेली गए थे शहनाज के अब्बा ने दो तो बकरे ही कटवा दिए थे और मुर्गियों की गिनती कौन करे। चार-पाँच दिन कुल जमा रहे होंगे,गोश्त खा-खाकर अफारा हो गया। गरीब हम लोग उनके मुकाबले में ज़रूर हैंलेकिन ज़रूरी नहीं कि अपनी कमनियती का सबूत भी दें।''
अशरफ भूमिका बाँधते जा रहे थे और जद्दन का चेहरा खिंचता जा रहा था। घर के सभी लोग जानते थे कि अम्मा से बकरे को निकालना इतना आसान नहीं होगा। अशरफ जब बातें कर रहे थेशहनाज चुपके-चुपके अपने बच्चे को पुलाव खिला रही थी और सहम रही थी कि कहीं अम्मा आसमान की तरह न फट पड़ें। 
मुँह उसका दूसरी ओर थालेकिन कान जद्दन की ओर लगे हुए थे। ज्योंही जद्दन धीमी लेकिन क़ड़वी आवाज़ में कहा कि ''शराफत की लैला तो मेरे मैमूद की जान को आ गई है।''शहनाज दबे स्वर में बोली, ''अम्माये तोहमत हमें ना दीजिये। ये बैठे हैं सामनेपूछ लीजिएहम तो लगातार मने करते रहे हैं कि अम्मा बहुत जज़्बाती हैउनकी कोई न छेड़े। खुराफातें ये करेंगे और अम्मा का गुस्सा अपने बेटों की जगहहम बेकसूरों पर गिरेगा।''
शहनाज के कहने में कुछ ऐसी विनम्रता और सम्मान की भावना थी कि जद्दन का रूख बदल गया, 'शराफत के अब्बाबकरे को मैंने कोई छाती पे बाँध के थोड़े ले जाना हैरहीमन ठीक ही तो कैती थी कि जद्दन आपाबकरे की माँ कहाँ तक खैर मना सकती है! मेरी ख्वाहिश तो सिर्फ़ इतनी हैं कि इस साले नामुराद जानवर के उठने-बैठनेहगने-मूतने की बातें भी मेरी याददाश्त का हिस्सा बन गई हैं। छोटा मेमना थातब तुम लोगों ने ही खुद देखा और हज़ार बार टोका कि अम्मा बकरे की औलाद की तरह साथ सुलाती है। क्या करतीसर्दी इतनी पड़ती थी और बिना माँ का ये बच्चा था! खैरमेरी तो इतनी-सी सलाह है कि मेहमान आएँतो उनकी इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है। जहीर से कहिएकहीं उधर कटरे-कंडेलगंज की तरफ़ के कसाइयों के हाथ बेच आए और इसके पैसों से चाहे फिर गोश्त ले आएया दूसरा बकरा खरीद लाए। इसका तो गोश्त भी बू मारेगा। औरखुदा जानता हैमैंने तो अपना जी अब खुद ही कसाइयों-सा बना लिया कि इस हरामजादे को तो कटना ही है। मैं ही उल्लू की पठ्ठी थींजो इसको खुराक देकर गोश्तखोरों के लिए मोटा करती रही।
हालाँकि सारी बातें जद्दन ने काफी ठंडे स्वर में और उदासीनता बरतते हुए कहीं थींलेकिन सभी जानते थे कि क्रुद्धता उसके जिस्म में इस समय खून की तरह दौड़ रही होगी।
३३
अपनी हताशा और उदासीनता को कमरे में पतझर के पत्तों की तरह गिराती हुई-सी जद्दन उठ खड़ी हुईतो शहनाज बोली, ''बकरे का गोश्त बू देगायह कहने के पीछे अम्मा का खास मकसद है। आप इन दोनों से कह दीजिएगा कि अम्मा से जिद न करें।''
अशरफ मियाँ ने एक लम्बी सांस ली और बोले, ''इसको देखता हूँतो बीते हुए दिन याद आने लगते हैं। शराफत और जहीर जब छोटे थेतभी बड़ी चली गई थी। इसमें हम लोगों को कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि बूढ़े की बीवी मर गई है या बच्चों की अम्मा! तुम लोग तो अब देख रही होजब न इसमें आब रहीन ताब! बकरा कट ही जाएतो अच्छा है। मार पागलों की तरह धूप में मारी-मारी फिरती है। वह सुसरा कभी ठिकाने तो रहता नहीं। कटेतो थोड़े दिन हाय-तौबा कर लेगीऔर क्या! रोज़-रोज़ की फजीहत तो दूर होगी। देखना मेहमानों के सामने अम्मा यों टल्ले लगा बुरका पहने न चली आएँ! वक्त की मार भी क्या मार है। देखती होअधसाया करके उठ गईं। जब तुम लोगों की उम्र की थीं,तब बारामती की किस्में देखी जाती थीं कि जर्दा पुलाव के लिए बारिक वाली बासमती हो। अब यह राशन के चावलों को पीला करना तो हल्दी की बेइज़्ज़ती करना है।''
इसी वक्त बड़ा बेटा जहीर आ गयातो उसको सारी स्थिति बतायी गई। वह लापरवाही के साथ बोला, 'आप लोग बेकार में बात बढ़ाये जाते हैं। अम्मा को मैं समझा दूँगा। अब यह कोई उनकी बकरे के पीछे दौड़ने की उम्र हैंसड़क पर भागती दिखती हैंतो शर्मसार होके रह जाते हैं हम लोग। भूखी-प्यासी और फटेहाल दौड़ी चली जाएँगी। मेरी मानियेतो सलीम कसाई को बुलवा लें और मेहमानों के आने से पहले खाल उतारकरकीमा कूंटने रख दे। राने पुलाव में डलवा दीजिए और इस वक्त के मीट में सीना-चाप-गरदन की बोटियाँ ठीक रहेंगी। जो खातिर घर की चीज़ से हो सकती हैबाज़ार से दो-ढ़ाई सौ में भी नहीं होंगी।
जुबेदा की अम्मा भी यही कहती थीं कि सोला रुपए वो देंगीतीस-बत्तीस रुपएशायदये शहनाज भी देने वाली थीं कि ''अम्मा अपने बेटों को तो बख्श देंगीहमें नहीं।'' अब इन बेवकूफों को कौन समझाये कि दो किलो घासलेट और तेल-मसाला करते-करते सौ रुपए निकल जाएँगे। राशन का चावल तो मेहमानों के लिए पुलाव में इस्तेमाल होगा नहीं और ढंग की बासमती साढ़े चार-पाँच से कमती का सेर नहीं। इंसान को अपना वक्त और सहूलियत देख के चलना चाहिएजज़्बातों पर चलने के दिन लद गए।'' ''कहते ठीक होबेटे! मेरी भी राय यही है। ज़रा तुम अम्मा से मिलकरऊँच-नीच समझा दो। ज़िद्दी ज़रूर हैंलेकिन नासमझ नहीं।'' आवाज़ साफ़-साफ़ सुनायी दे गई। जहीर की घरवाली यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि ''तुम लोग शुरू करोमैं जरा अब्बा हुजूर के हाथ धुलवा दूँ।''
खाना खा चुकने पर जहीर सीधे भीतर के कमरे में गया कि अम्मा सोयी होगीलेकिन शहनाज ने बताया, ''यों कहकर निकल गई हैं कि जरा रिजवी साहब के घर तक जाएँगी। उनके घर पिछले हफ्ते गमी हो गई थी। कहकर गई है कि शायद शाम हो जाएदेर से लौटेंगे। मेरा ख़याल हैअम्मा ने समझ लिया है कि अब बकरा बचता नहीं। गमी में शरीक होना तो एक बहाना है। घर से दूर जाना चाहती होंगी।'
शहनाज धीमे से हँसना चाहती थीलेकिन सिर्फ़ उदास होकर रह गई।
जहीर ने बाहर निकलकरअपने ग्यारह-बारह साल के बड़े लड़के से कहा, 'जुबैदज़रा सलीम को बुलाकर लाइयो। मेहमानों के आने तक में सफ़ाई हो जाएतो ही ठीक है। जुबेद की अम्माभईतुम लोग ज़रा बाहर वाला कमरा मेहमानों के लिए ठीक-ठाक कर देना।
शहनाज के अब्बा लोगों को किसी तरह की कमी की शिकायत न हो। बेचारे हर फसल पर चले आते हैं और हर बात का लिहाज रखते हैं। खुद तुम्हारे साथ अपनी सगी बेटी से ज़्यादा मुहब्बत का बर्ताव करते हैं। तुम दोनों जने प्याज़ और मसाले वगैरह पीसकर तैयार कर लेना। बाकी बाज़ार का सामान शराफत लेता आएगा। सलीम आ जाएतो उससे कह देनागंद जरा-सी भी न छूटे आँगन में। पोंछा लगवा लेना। खून के धब्बे वगैरह देखेंगी अम्मा तोऔर बिगड़ेंगी। तुम लोगों से कुछ कहने लगेंतो कह देनाजुबेद के अब्बा ने ज़बर्दस्ती कटवा दिया। मैं उन्हें समझा लूँगा।'

शाम की जगह घड़ी-भर रात बीत चुकने के अहसास में हीजद्दन घर वापस लौटी और गली में से होते हुएघर के पीछे वाले सँकरे आँगन में निकल गई। खटोला गिराकर उस पर लेट गई औरआस-पास के नीम-अँधेरे में अपने-आपको छिपा लेने की कोशिश मेंआँखें बन्द कर लीं।
मेहमान आ चुके थे और उनके तथा आपस के लोगों की बातचीत यहाँ पिछवाड़े भी सुनायी दो रही थी। छोटे बच्चों को बाहर लेकर आईतो शहनाज ने देखा और करीब आकरपाँव दबाती हुई बोली, ''अब्बा आ गए हैं। आते ही आपकी बाबत पूछ रहे थे कि अम्मा ने पुछवाया हैकैसी हैं। कभी रायबरेली की तरफ़ आने की इस्तजा करवा रही हैं। मैंने भी अब्बा से कहा है कि अब की बार मैं अम्मा के साथ ही आऊँगी। अम्मातुम खाना कहाँ खाओगीमेहमानों का दस्तरखान तो वहीं बाहर बैठक में बिछेगा। जल्दी खा-पी लेने की बातें कर रहे थे सभी लोग। कोई मज़हबी किस्म की फिल्म शहर में कहीं लगी हुई है!''
''मेरे लिए दो रोटियाँ यहीं भिजवा देना। मेरा न जी ठीक हैन पेट। जुबैद को जरा भेज देनामैं उससे कुछ मँगवा लूँगी। तुम सब लोग आराम से खाओ-पिओ। मेरी फिक्र ना करना। अब तो कोई सर्दी ना रही। मैं यहीं सो जाऊँगी। अपने अब्बा हुजूर से मेरा सलाम कैना और कैना कि सुबह दुआ-सलाम होगीअभी अम्मा का जी ठीक नहीं।''
शहनाज ने अनुभव किया कि जद्दन की आवाज़ मरते वक्त की-सी हो आयी है। निहायत हल्की और बेजान। वह चाहती थी कि कुछ बातें करकेउसकी उदासीनता को कम करने की कोशिश करेलेकिन इस डर से चुप रह गई कि कहीं अंदर इकठ्ठा किया हुआ दु:ख गुस्से की शक्ल में बाहर फूट आयातो पूरे घर का वातावरण बदल जाएगा। आज के वक्त को तो अब यों हीं टल जाने देना अच्छा है।
वापस लौटकर उसने बताया, 'तो जहीर और अशरफ मियाँदोनों ने मुँह बना लिया।
'हम लोगों ने तो हरचंद वही कोशिश की है कि कहीं से उस नामुराद बकरे की कोई चीज अम्मा को दिखे ही नहीं। वो तो इतनी संजीदा है गई हैंजैसे बकरे का हलाल किया हुआ सर आँगन में टँगा हुआ हो। कह रही थींगोश्त-पुलाव वगैरा कुछ मत भेजना।'' शहनाज ने कहातो अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए। बोले, 'जब उसे खिलाना होहमें बुला लेना। क्योंभई जुबेदतुम कहाँ तशरीफ ले जा रहे होजरा बैठक में मेहमानों के करीब रहो।''

चाचा जी ने पिछवाड़े भेजा थाबड़ी अम्मा के पास। उन्होंने चार आने हमें दिए हैं कि ''जाओशंभू पंडत की दुकान से आलू की सब्जी ले आओ।''
'अबेइधर ला चवन्नी। जामेहमानों को पानी-वानी पूछना। अम्मा को हम देख लेंगे। शहनाज बेटेऐसा करो -- एक थाली में पुलाव और बड़े कटोरे में गोश्त लगाकर हमें दो दो। हम ले जाकर समझा देंगे। वाकईबहुत बेवकूफ़ किस्म की औरत है। जहीरतुम बाहर बैठक में बस्तरखान बिछाने में लगो। शराफत के अलावा और एक-दो लड़कों को साथ ले लो।''
पुलाव की थाली और गोश्त का कटोरा शहनाज ने ही पहुँचा दिया। खटोेले की बगल में रखकरपानी लाने के बहाने तुरन्त लौट आई। अशरफ मियाँ ने करीब से माथा छुआ और बोले, 'क्योंभईऐसे क्यों लेटी होतबीयत तो ठीक है नाअरी सुनोसारे किये-कराये पर मिट्टी न डालो। तुम रूसवा रहोगीतो सारी मेहमाननवाज़ी फीकी पड़ जाएगी। सारा घर कबाब-गोश्त उड़ाए और तुम उस शंभू पंडत के यहाँ के पानीवाले आलू मँगवाओये तो हम लोगों को जूती मारने के बरोबर है। ऐसी भी क्या बात हो गईजो तुमने खटिया पकड़ लीगोश्त से तुम्हें कभी परहेज़ रहा नहीं। बिना शोरबे के रोटी गले के नीचे तुम्हारे उतरती नहीं। अब इस हद तक जज़्बाती बनने से तो कोई फ़ायदा नहीं। आखिर जिन बकरों का गोश्त तुम आज तक खाती आई होउनके कोई चार सींग तो थे नहीं! लोशहनाज़ खाना दे गई है। गोश्त वाकई बहुत लज़्ज़तदार बना है। जहीर तो दूसरा बकरा भी ढूँढ़ने गया थामगर लौटकर यही कहने लगा कि ''अब्बाअपना बेचने जाओ तो सौ के पचास देंगे और दूसरों का खरीदने जाओतो पचास के सौ माँगेंगे। तुम तो घर की इस वक्त जो अंदरूनी हालत हैजानती ही हो।''
जद्दन ऐसे उठीजैसे कब्रिस्तान में गड़ा हुआ मुर्दा खड़ा हो रहा हो। तीखी आँखों से अशरफ मियाँ की ओर उसने देखा और आवाज़ मेहमानों तक न पहुँचेइस तरह दबाकर बोली, ''जहीर के अब्बानसीहतें देने आए होमेरी तकलीफ़ तुम लोग समझोगेरिजवी के यहाँ घंटों पड़ी रही हूँतो कैसे यही मेरे तसब्वुर में आता रहा कि अब तुम लोग मेरे मैसूद के सिर को धड़ से कैसे जुदा कर रहे होंगे -- जार-जार रोती रही हूँ और रिजवी की बीबी यों समझ के मुझे समझाये जा रही है कि मैं उसके बदनसीब भाई की बेवक्त की मौत पे रो रही हूँ। आज ससुरा सवेरे-सवेरे से बार-बार मेरे कान मुँह में भरे जाता था और मैं थूथना पकड़करधक्का दे देती थी।
मैं क्या जानूँ कि बदनसीब चुपके से कान में यही कहना चाहता है कि ''अम्माआज हम चले जाएँगे!'' तुम लोग समझोगे मेरी तकलीफ़ कि कैसे मेरे लबों पर 'मैमूदकी सदा आएगी और खत्म हो जाएगी?''
जद्दन काफी देर तक फूट-फूटकर रोती रही और अशरफ मियाँ हक्का-बैठे रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति अब सँभले कैसे! आखिर उन्होंने यही तय किया कि चुपचाप खाना उठा ले जाना ही ठीक है। वह थाली-कटोरा उठाते कि जद्दन जहरबुझी आवाज़ में बोल उठी, ''तुम बेदर्दों से ये भी न हुआ कि मैं अव्वल दर्जे की गोश्तखोर औरत जब कै रही हूँ कि 'बेटे शहनाजहमें गोश्त-वोश्त न देना।'' तो इसकी कोई तो वजह होगीऔर जहीर के अब्बाइंसान दाढ़ी बढ़ा लेने से पीर नहीं हो जाता। तुम ये मुझे क्या नसीहत दोगे कि सभी बकरों के दो सींग होते हैंइतना तो नादीदा भी जानता है। दुनिया में तो सारे इंसान भी खुदा ने दो सींग वाले बकरों की तरहदो पाँव वाले बनाएलेकिन औरत तो तभी राँड होती हैजब उसका अपना खसम मरता है। अम्मा तो तभी अपनी छाती कूटती हैजब उससे उसका बच्चा जुदा होता हो। ये मैं भी जानती हूँ कि मेरे मैमूद में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे थेमगर इतना जानती हूँ कि मेरी तकलीफ़ जितना वह बदनसीब समझता थान तुम समझोगेन तुम्हारे बेटे ! समझते होतेतो क्या किसी हकीम ने बताया था कि मेहमानों को इसी बकरे का गोश्त खिलाना और तुम भी भकोसनानहीं तो नजला-जुकाम हो जाएगाजहीर के अब्बाउसूलों का तुम पे टोटा नहींमगर इस वक्त अब हमें बहुत जलील न करो। शहनाज से कहोउठा ले जाएनहीं तो फेंक दूँगी उधर! जुबैद से कह देनाअब पंडत के हियाँ से सब्जी लाने की भी कोई ज़रूरत ना रही। मेरा पेट तो तुम लोगों की नसीहतों से ही भर चुका।''
अशरफ मियाँ नीचे झुके और थाली-कटोरा उठाते हुएवापस आ गए, ''लो बेटेरखो! ज़िद्दी औरत को समझाना तो खुदा के बस का भी नहीं। उसे उसके हाल पर छोड़मेहमानों की फिक्र करो।''


ख़ुशी की कीमत

 


"अरे तुम तैयार क्यों नहीं हो रही हो| "

"क्या पहनूं जी, ढंग की साड़ियां ही नहीं है |"
"पूरी अलमारी तो साड़ियो से भरी पड़ी है और तुम कह रही हो कि साड़ियां ही नहीं है|"
"सब पुरानी साड़िया हैं | नयी दिलाई हैं क्या आपने ?"
"अरे अभी तो खरीदी थीं तुमने, अपने भाई की शादी में|''
"अभी नहीं पति महोदय, पूरे दो साल हो गये | कितनी बार पहना है उन्हें,पता है ?बबलू की शादी में, भाई की शादी में, मिन्टी की सगाई में और ...."

"हाँ तो क्या हुआ, वही पहन लो| अरे, बस-बस कुछ भी पहन लो, चलो जल्दी देर हो रही है| अगले महीने तनख्वाह मिलते ही और दिला दूँगा | अहा ! देखो, हँसते हुए कितनी प्यारी लगती हो | पक्का, १००० सिर्फ साड़ी के लिये दूँगा "
"१००० रूपये, बस ! इतने में क्या होगा जी |" कनिका तुनक कर बोली |
"तो फिर कितना ?"
"आजकल ५०० रुपये तो ब्लाउज पर ही खर्च हो जाते है | महंगाई बढ़ गई है | कम से कम ५००० चाहिए ..."
''इतना? जितनी चादर हो उतना ही पाँव पसारना चाहिए, कनिका |"
"यह कहावत पुरानी हो गयी जी| अब पाँव के हिसाब से चादर बढाने का जुगाड़ करिए| तब जाके बीबी-बच्चों को खुश रख पाएंगे और खुद भी सुखी रहेंगे|" फिलास्फर बन कनिका ने जबाब ठोंक दिया
कनिका आगे बोली "शुक्र मनाइए कि आपको मैं मिली, वर्ना बीबियाँ तो हजारों रुपये व्यूटीपार्लर जाकर खर्च कर आती हैं | ब्रांडेड सेंट ,पाउडर, लिपस्टिक ऊपर से |"
"अच्छा बाबा, देखता हूँ, अब चलो भी |"
शादी में पहुँचते ही नीरज की नजर अपने सहकर्मी की बीबी पर गयी | कोई ख़ास सुन्दर नहीं थी पर महंगी साड़ी और गहनों से लदी हुई थी | अपनी उदास बीबी की ओर देख उसने मन ही मन कुछ सोच निर्णय कर लिया ....| ..सविता मिश्रा


मेरी स्‍वरचित/मौलिक रचनाए हैं।

सविता मिश्रा o9411418621 
w/o देवेन्द्र नाथ मिश्रा (पुलिस निरीक्षक ) 
फ़्लैट नंबर -३०२ ,हिल हॉउस 
खंदारी अपार्टमेंट , खंदारी 
आगरा २८२००२पिता का नाम ..श्री शेषमणि तिवारी (रिटायर्ड डिप्टी एसपी ) 
माता का नाम ....स्वर्गीय श्रीमती हीरा देवी (गृहणी )
जन्म तिथि ...१/६/७३
शिक्षा ...बैचलर आफ आर्ट ...(हिंदी ,रजिनिती शास्त्र, इतिहास)
अभिरुचि ....शब्दों का जाल बुनना, नयी चीजे सीखना, सपने देखना
'मेरी अनुभूति' परिलेख प्रकाशन से प्रकाशित पहला संयुक्त काव्यसंग्रह
'मुट्ठी भर अक्षर' पहला प्रकाशित साँझा लघुकथा संग्रह |

2012.savita.mishra@gmail.com

मौन



 अमन कुमार


बूढ़ा मोहन अब स्वयं को परेशान अनुभव कर रहा था। अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाना अब उसके लिए भारी पड़ रहा था। परिवार के अन्य कमाऊ सदस्य अपने मुखिया मोहन की अवहेलना करने लगे थे। मोहन की विधवा भाभी परिवार के सदस्यों की लगाम अपने हाथों में थामे थी। वह बड़ी चालाक थी। वह नहीं चाहती थी कि मोहन अथवा परिवार का कोई भी सदस्य उसकी अवहेलना करे। यूं भी कहा जा सकता है कि मोहन घर का मुखिया था, परन्तु घर के मामलों में सभी महत्वपूर्ण निर्णय सोमती देवी ही लेती थीं। मोहन को अपने लिये मौन के सिवा दूसरा कोई रास्ता नजर ही नहीं आता था।

दरअसल मोहन का बड़ा भाई सोहन सिंह बड़ा ही बलशाली और दबंग था। एक दुर्घटना में उसकी व मां इन्द्रो की मृत्यु हो गयी थी। तभी से घर-परिवार की जिम्मेदारी, मोहन और उसकी विधवा भाभी सोमती देवी दोनों ने संयुक्तरूप से सम्हाली थी। मोहन को अपना वह वचन आज भी याद है, जिसमें उसने अपनी भाभी सोमती देवी से कहा था- ‘आप बड़ी हैं, जैसा चाहेंगी हम करते जायेंगे।’ बस इसी एक बात का भरपूर लाभ सोमती देवी उठाना चाहती थीं। सोमती देवी ने अपने पुत्र रोलू को राजकुमार बनाने का सपना देख लिया था।

मोहन की माँ इन्द्रो का रूतबा भी मोहन की भाभी सोमती ने देखा था। उसे याद है एक बार उसकी सास इन्द्रो ने किस तरह पड़ौसी को पिटवाया था। पड़ोसी राज को लगता था कि इन्द्रो उसकी जमीन पर कब्जा करना चाहती है। बस फिर क्या था, राज ने एक दिन अपने कुछ आदमी बुलाये और सोमती की सास के घेर पर कब्जा करना शुरू कर दिया। सोमती की सास का घेर बहुत बड़ा था। उसकी चारदीवारी भी नहीं थी। सोमती की सास ने अपने परिवार के लड़ाकों के साथ मिलकर पड़ोसी राज पर हमला कर दिया और उसे खदेड़ दिया, मगर इसी बीच एक और घटना घटी। उसके दूसरे पड़ोसी नची ने भी उसके घेर की कुछ जमीन पर कब्जा कर लिया। नची उससे अधिक ताकतवर था। उसके पास पैसे और आदमियों की कोई कमी नहीं थी। यही कारण था कि सोमती की सास उसके अधिक मुँह नहीं लगी। अब सोमती का भी यही हाल है। वह नची को तो अनदेखा करती है मगर राज को धूल चटाने का भरपूर प्रयास करती है।

सोमती की खूब चलती थी। क्या मजाल कि उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसके आगे सिर उठाकर बात कर सके। एक बार सोमती ने जो निर्णय ले लिया सो ले लिया। वह कहती थी- मुझे अच्छा नहीं लगता कोई मेरे सामने बोले, मैं जैसे कहती रहूं बस वैसे ही करते रहो।

सोमती किसी भी तरह अपने अकेले पुत्र रोलू को जिम्मेदार बनाना चाहती है। वह कहती- ‘देख लेना देवर जी! एक दिन हमारा रोलू ही हमारे परिवार की बागडोर संभालेगा।’ सोमती की इस मंशा को परिवार के सभी लोग जानते थे, मगर बोले कौन? वो सब मोहन की ओर देख रहे थे, जबकि मोहन भीगी बिल्ली बन सोमती के आगे दुम हिलाने के अतिरिक्त कुछ जानता ही नहीं था। 

बाहर वालों को लगता था कि मोहन का परिवार एकजुट है, और मजबूत है। परन्तु सच तो यह है कि उसके परिवार में अधिकारों और कत्र्तव्यों को लेकर फूट पड़ चुकी है। परिवार के लोग अब मोहन को महाभारत का भीष्म और सोमती को धृतराष्ट्र की संज्ञा देने लगे। दें भी क्यों न? सोमती भी तो अपने पुत्र रोलू को घर का मुखिया बनाने के लिए कोई भी उचित व अनुचित तरीका छोड़ नहीं रही थी। 

हालांकि परिवार के लोग अभी उग्र नहीं हुए थे। लगता भी नहीं कि वे कभी उग्र होंगे भी। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि कोई भी पारिवारिक सदस्य अपने आपको दांव पर नहीं लगाना चाहता था। किन्तु सभी कमाऊ सदस्यों ने अपनी-अपनी जेबें गर्म करना शुरू कर दी थी। चूंकि सभी जानते थे कि सोमती देवी अपने पुत्र रोलू को ही घर का मुखिया बना देंगी। ऐसे में उन सबको रोलू की ओर देखना पड़ेगा। सो सभी ने अपनी-अपनी तिजोरियां भरनी शुरू कर दी। परिणामस्वरूप अब आय के स्त्रोत वही रहने के बावजूद आय घटने लगी। 
सोमती देवी निराश हैं। वह कभी-कभी खीझ उठती हैं। कहती है-‘सब निकम्मे होते जा रहे हैं, कोई भी अपनी जिम्मेदारी नहीं सम्हाल रहा है। लगता है अब रोलू को ही कुछ करना पड़ेगा।’ उन्हें लगता है कि कहीं रोलू के हाथों से सबकुछ निकल न जाये। वह रोलू को धनवान देखना चाहती हैं। वह समझती है कि विरासत पर सिर्फ और सिर्फ रोलू का ही हक है। परिवार के शेष लोग तो सिर्फ काम करने के लिए ही पैदा हुए हैं। 

एक बार मोहन ने कहा भी था-‘भाभी जी! आजकल आप परिवार के दूसरे बच्चों को अनदेखा कर रही हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाकी सभी रोलू से दूर होते चले जाएं।’ 

तभी सोमती देवी ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा था-‘रोलू सा कोई नहीं है, उसे अपने खानदान की जिम्मेदारी सम्हालनी है, उससे किसी दूसरे बच्चे की तुलना नहीं की जा सकती।’ 

एक-दो बार और भी मोहन ने अपनी विधवा भाभी को समझाना चाहा, मगर सोमती की आँखों पर तो जैसे पट्टी बंधी थी। वह किसी की कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं होती। मोहन भी मौन हो जाता।

इन परिस्थितियों का मूल कारण भी छोटे भाई, मोहन को ही मानने लगे थे। यही कारण है कि परिवार के दूसरे लोग गाहे-बगाहे सोमती देवी को मोहन के खिलाफ़ चढ़ाते और बदले में हमदर्दी बटोरते। या फिर कभी-कभी मोहन से भी भाभी की शिकायत करते, और मोहन के मौन से अपने सवालों का जवाब जानने का असफल प्रयास करते। 

एक बार सबसे छोटे भाई ने मोहन से कहा भी था-‘देख लेना भाई! हम भी मौन ही रहेंगे, किन्तु हमारे खानदान के लिये यह मौन ठीक नहीं रहेगा।’

इसका परिणाम यह हुआ कि अब गाँव के वो लोग भी मोहन और उसके परिवार के खिलाफ बोलने लगे, जो उनके आगे खड़े होने में भी हिचकिचाते थे। मोहन के खेतों में भी अब नुकसान होने लगा था। दोनो पड़ोसी राज और नची भी मिल गये थे। उसने अपने भाइयों और नौकरों से कहा, तो सबने सामने हां-हां कर दी मगर ध्यान देने को कोई तैयार नहीं था। 

अब तक सोमती देवी भी नुकसान से बिलबिला उठी थीं। उन्होंने परिवार के सदस्यों को एकत्रित किया और उन्हें उनकी जिम्मेदारी में लापरवाही के लिये डांटने लगी-‘तुम सब निकम्मे हो गये हो, कोई भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहा है।’ 

सुनकर सभी मौन थे, कोई कुछ नहीं बोला था। सोमती देवी को उनका यह मौन कभी बहुत अच्छा लगता था, खुश होती थीं, कि उनके सामने कोई नहीं बोलता है, मगर आज यही मौन उन्हें काटने को दौड़ रहा है, वह बेचैन हैं कि कोई बोलता क्यों नहीं।
अमन कुमार त्‍यागी 

Friday, May 27, 2022

मजदूरी और प्रेम



- सरदार पूर्ण सिंह


हल चलाने वाले का जीवन

हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्रायः स्वभाव से ही साधु होते हैं। हल चलाने वाले अपने शरीर का हवन किया करते हैं। खेत उनकी हवनशाला है। उनके हवनकुंड की ज्वाला की किरणें चावल के लंबे और सुफेद दानों के रूप में निकलती हैं। गेहूँ के लाल-लाल दाने इस अग्नि की चिनगारियों की डालियों-सी हैं। मैं जब कभी अनार के फूल और फल देखता हूँ तब मुझे बाग के माली का रुधिर याद आ जाता है। उसकी मेहनत के कण जमीन में गिरकर उगे हैं और हवा तथा प्रकाश की सहायता से मीठे फलों के रूप में नजर आ रहे हैं। किसान मुझे अन्न में, फूल में, फल में आहुति हुआ सा दिखाई पड़ता है। कहते हैं, ब्रह्माहुति से जगत् पैदा हुआ है। अन्न पैदा करने में किसान भी ब्रह्मा के समान है। खेती उसके ईश्वरी प्रेम का केंद्र है। उसका सारा जीवन पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में, फल-फल में बिखर रहा है। वृक्षों की तरह उसका भी जीवन एक प्रकार का मौन जीवन है। वायु, जल, पृथ्वी, तेज और आकाश की निरोगता इसी के हिस्से में है। विद्या यह नहीं पढ़ा; जप और तप यह नहीं करता; संध्या-वंदनादि इसे नहीं आते; ज्ञान, ध्यान का इसे पता नहीं; मंदिर, मस्जिद, गिरजे से इसे कोई सरोकार नहीं नहीं; केवल साग-पात खाकर ही यह अपनी भूख निवारण कर लेता है। ठंडे चश्मों और बहती हुई नदियों के शीतल जल से यह अपनी प्यास बुझा लेता है। प्रातःकाल उठकर यह अपने हल-बैलों को नमस्कार करता है और खेत जोतने चल देता है। दोपहर की धूप इसे भाती है। इसके बच्चे मिट्टी ही में खेल-खेलकर बड़े हो जाते हैं। इसको और इसके परिवार को बैल और गाँवों से प्रेम है। उनकी यह सेवा करता है। पानी बरसाने वाले के दर्शनार्थ आँखें नीले आकाश की ओर उठती हैं। नयनों की भाषा में यह प्रार्थना करता है। सायं और प्रातः दिन और रात विधाता इसके हृदय में अचिंतनीय और अद्भुत आध्यात्मिक भावों की वृष्टि करता है। यदि कोई इसके घर आ जाता है तो यह उसको मृदु वचन, मीठे जल और अन्न से तृप्त करता है। धोखा यह किसी को नहीं देता। यदि इसको कोई धोखा दे भी दे, तो इसका इसे ज्ञान नहीं होता; क्योंकि इसकी खेती हरी-भरी है; गाय इसकी दूध देती है; स्त्री इसकी आज्ञाकारिणी है; मकान इसका पुण्य और आनंद का स्थान है। पशुओं को चराना, नहलाना, खिलाना, पिलाना, उसके बच्चों की अपने बच्चों की तरह सेवा करना, खुले आकाश के नीचे उसके साथ रातें गुजार देना क्या स्वाध्याय से कम है? दया, वीरता और प्रेम जैसा इन किसानों में देखा जाता है, अन्यत्र मिलने का नहीं। गुरु नानक ने ठीक कहा है - ''भोले भाव मिलें रघुराई'', भोले भाले किसानों को ईश्वर अपने खुले दीदार का दर्शन देता है। उनकी फूस की छतों में से सूर्य और चंद्रमा छन-छनकर उनके बिस्तरों पर पड़ते हैं। ये प्रकृति के जवान साधु हैं। जब कभी मैं इन बे-मुकुट के गोपालों के दर्शन करता हूँ, मेरा सिर स्वयं ही झुक जाता है। जब मुझे किसी फकीर के दर्शन होते हैं तब मुझे मालूम होता है कि नंगे सिर, नंगे पाँव, एक टोपी सिर पर, एक लँगोटी कमर में, एक काली कमली कंधे पर, एक लंबी लाठी हाथ में लिए हुए गौवों का मित्र, बैलों का हमजोली, पक्षियों का हमराज, महाराजाओं का अन्नदाता, बादशाहों को ताज पहनाने और सिंहासन पर बिठाने वाला, भूखों और नंगों को पालने वाला, समाज के पुष्पोद्यान का माली और खेतों का वाली जा रहा है।


गड़रिये का जीवन

एक बार मैंने एक बुड्ढे गड़रिये को देखा। घना जंगल है। हरे-हरे वृक्षों के नीचे उसकी सफेद ऊन वाली भेड़ें अपना मुँह नीचे किए हुए कोमल-कोमल पत्तियाँ खा रही हैं। गड़रिया बैठा आकाश की ओर देख रहा है। ऊन कातता जाता है। उसकी आँखों में प्रेम-लाली छाई हुई है। वह निरोगता की पवित्र मदिरा से मस्त हो रहा है। बाल उसके सारे सुफेद हैं और क्यों न सुफेद हों? सुफेद भेड़ों का मालिक जो ठहरा। परंतु उसके कपोलों से लाली फूट रही है। बरफानी देशों में वह मानो विष्णु के समान क्षीरसागर में लेटा है। उसकी प्यारी स्त्री उसके पास रोटी पका रही है। उसकी दो जवान कन्याएँ उसके साथ जंगल-जंगल भेड़ चराती घूमती हैं। अपने माता-पिता और भेड़ों को छोड़कर उन्होंने किसी और को नहीं देखा। मकान इनका बेमकान है, घर इनका बेघर हे, ये लोग बेनाम और बेपता हैं।


किसी के घर कर मैं न घर कर बैठना इस दारे फानी में।

ठिकाना बेठिकाना और मकाँ वर ला-मकाँ रखना॥


इस दिव्य परिवार को कुटी की जरूरत नहीं। जहाँ जाते हैं, एक घास की झोपड़ी बना लेते हैं। दिन को सूर्य रात को तारागण इनके सखा हैं।


गड़रिये की कन्या पर्वत के शिखर के ऊपर खड़ी सूर्य का अस्त होना देख रही है। उनकी सुनहली किरणें इसके लिए लावण्यमय मुख पर पड़ रही हैं। यह सूर्य को को देख रही है और वह इसको देख रहा है।


हुए थे आँखों के कल इशारे इधर हमारे उधर तुम्हारे।

चले थे अश्कों के क्या फवारे इधर हमारे उधर तुम्हारे॥


बोलता कोई भी नहीं। सूर्य उसकी युवावस्था की पवित्रता पर मुग्ध है और वह आश्चर्य के अवतार सूर्य की महिमा के तूफान में पड़ी नाच रही है।


इनका जीवन बर्फ की पवित्रता से पूर्ण और वन की सुगंधि से सुगंधित है। इनके मुख, शरीर और अंतःकरण सुफेद, इनकी बर्फ, पर्वत और भेड़ें सुफेद। अपनी सुफेद भेड़ों में यह परिवार शुद्ध सुफेद ईश्वर के दर्शन करता है।


जो खुदा को देखना हो तो मैं देखता हूँ तुमको।

मैं देखता हूँ तुमको जो खुदा को देखना हो॥


भेड़ों की सेवा ही इनकी पूजा है। जरा एक भेड़ बीमार हुई, सब परिवार पर विपत्ति आई। दिन-रात उसके पास बैठे काट देते हैं। उसे अधिक पीड़ा हुई तो इन सब की आँखें शून्य आकाश में किसी को देखने लग गईं। पता नहीं ये किसे बुलाती हैं। हाथ जोड़ने तक की इन्हें फुरसत नहीं। पर हाँ, इन सब की आँखें किसी के आगे शब्द-रहित संकल्प-रहित मौन प्रार्थन में खुली हैं। दो रातें इसी तरह गुजर गईं। इनकी भेड़ अब अच्छी है। इनके घर मंगल हो रहा है। सारा परिवार मिलकर गा रहा है। इतने में नीले आकाश पर बादल घिरे और झम-झम बरसने लगे। मानो प्रकृति के देवता भी इनके आनंद से आनंदित हुए। बूढ़ा गड़रिया आनंद-मत्त होकर नाचने लगा। वह कहता कुछ नहीं, रग-रग उसकी नाच रही है। पिता को ऐसा सुखी देख दोनों कन्याओं ने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर पहाड़ी राग अलापना आरंभ कर दिया। साथ ही धम-धम थम-थम नाच की उन्होंने धूम मचा दी। मेरी आँखों के सामने ब्रह्मानंद का समाँ बाँध दिया। मेरे पास मेरा भाई खड़ा था। मैंने उससे कहा - ''भाई, अब मुझे भी भेड़ें ले दो।'' ऐसे ही मूक जीवन से मेरा भी कल्याण होगा। विद्या को भूल जाऊॅँ तो अच्छा है। मेरी पुस्तकें खो जायँ तो उत्तम है। ऐसा होने से कदाचित इस वनवासी परिवार की तरह मेरे दिल के नेत्र खुल जायँ और मैं ईश्वरीय झलक देख सकूँ। चंद्र और सूर्य की विस्तृत ज्योति में जो वेदगान हो रहा है उसे इस गड़रिये की कन्याओं की तरह मैं सुन तो न सकूँ, परंतु कदाचित प्रत्यक्ष देख सकूँ। कहते हैं, ऋषियों ने भी इनको देखा ही था, सुना न था। पंडितों की ऊटपटाँग बातों से मेरा जी उकता गया है। प्रकृति की मंद-मंद हँसी में ये अनपढ़ लोग ईश्वर के हँसते हुए ओंठ देख रहे हैं। पशुओं के अज्ञान में गंभीर ज्ञान छिपा हुआ है। इन लोगों के जीवन में अद्भुत आत्मानुभव भरा हुआ है। गड़रिये के परिवार की प्रेम-मजदूरी का मूल्य कौन दे सकता है?


मजदूर की मजदूरी

आपने चार आने पैसे मजदूर के हाथ में रखकर कहा - ''यह लो दिन भर की अपनी मजदूरी।'' वाह क्या दिल्लगी है! हाथ, पाँव, सिर, आँखें इत्यादि सब के सब अवयव उसने आपको अर्पण कर दिए। ये सब चीजें उसकी तो थीं ही नहीं, ये तो ईश्वरीय पदार्थ थे। जो पैसे आपने उसको दिए वे भी आपके न थे। वे तो पृथ्वी से निकली हुई धातु के टुकड़े थे; अतएव ईश्वर के निर्मित थे। मजदूरी का ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता होता है। अन्न-धन देने से नहीं। वे तो दोनों ही ईश्वर के हैं। अन्न-धन वही बनाता है, जल भी वही देता है। एक जिल्दसाज ने मेरी एक पुस्तक की जिल्द बाँध दी। मैं तो इस मजदूर को कुछ भी न दे सका। परंतु उसने उम्र भर के लिए एक विचित्र वस्तु मुझे दे डाली। जब कभी मैंने उस पुस्तक को उठाया, मेरे हाथ जिल्दसाज के हाथ पर जा पड़े। पुस्तक देखते ही मुझे जिल्दसाज याद आ जाता है। वह मेरा आमरण मित्र हो गया है, पुस्तक हाथ में आते ही मेरे अंतःकरण में रोज भरतमिलाप का सा समाँ बँध जाता है।


गाढ़े की एक कमीज को एक अनाथ विधवा सारी रात बैठकर सीती है, साथ ही साथ वह अपने दुख पर रोती भी है - एक दिन को खाना न मिला। रात को भी कुछ मयस्सर न हुआ। अब वह एक-एक टाँके पर आशा करती है कि कमीज कल तैयार हो जायगी; तब कुछ तो खाने के लिए मिलेगा। जब वह थक जाती हे तब ठहर जाती है। सुई हाथ में लिए हुए है, कमीज घुटने पर बिछी हुई है, उसकी आँखों की दशा उस आकाश की जैसी है जिसमें बादल बरसकर अभी-अभी बिखर गए हैं। खुली आँखें ईश्वर के ध्यान में लीन हो रही हैं। कुछ काल के उपरांत 'हे राम' कहकर उसने फिर सीना शुरू कर दिया। इस माता और इस बहन की सिली हुई कमीज मेरे लिए मेरे शरीर का नहीं - मेरी आत्मा का वस्त्र है। इसका पहनना मेरी तीर्थ-यात्रा है। इस कमीज में उस विधवा के सुख-दुःख, प्रेम और पवित्रता के मिश्रण से मिली हुई जीवन-रूपिणी गंगा की बाढ़ चली जा रही है। ऐसी मजदूरी और ऐसा काम - प्रार्थना, संध्या और नमाज से क्या कम है? शब्दों से तो प्रार्थना हुआ नहीं करती। ईश्वर तो कुछ ऐसी ही मूक प्रार्थनाएँ सुनता है और तत्काल सुनता है।


प्रेम-मजदूरी

मुझे तो मनुष्य के हाथ से बने हुए कामों में उनकी प्रेममय पवित्र आत्मा की सुगंध आती है। राफेल आदि के चित्रित चित्रों में उनकी कला-कुशलता को देख इतनी सदियों के बाद भी उनके अंतःकरण के सारे भावों का अनुभव होने लगता है। केवल चित्र का ही दर्शन नहीं, किंतु साथ ही उसमें छिपी हुई चित्रकार की आत्मा तक के दर्शन हो जाते हैं। परंतु यंत्रों की सहायता से बने हुए फोटो निर्जीव से प्रतीत होते हैं। उनमें और हाथ के चित्रों में उतना ही भेद है जितना कि बस्ती ओर श्मशान में। हाथ की मेहनत से चित्रों में जो रस भर जाता है वह भला लोहे के द्वारा बनाई हुई चीज में कहाँ! जिस आलू को मैं स्वयं बोता हूँ, मैं स्वयं पानी देता हूँ, जिसके इर्द-गिर्द की घास-पात खोदकर मैं साफ करता हूँ उस आलू में जो रस मुझे आता है वह टीन में बंद किए हुए अचार मुरब्बे में नहीं आता। मेरा विश्वास है कि जिस चीज में मनुष्य के प्यारे हाथ लगते हैं, उसमें उसके हृदय का प्रेम और मन की पवित्रता सूक्ष्म रूप से मिल जाती है और उसमें मुर्दे को जिंदा करने की शक्ति आ जाती है। होटल में बने हुए भोजन यहाँ नीरस होते हैं क्योंकि वहाँ मनुष्य मशीन बना दिया जाता है। परंतु अपनी प्रियतमा के हाथ से बने हुए रूखे-सूखे भोजन में कितना रस होता है जिस मिट्टी के घड़े को कंधों पर उठाकर, मीलों दूर से उसमें मेरी प्रेममग्न प्रियतमा ठंडा जल भर लाती है, उस लाल घड़े का जल जब मैं पीता हूँ तब जल क्या पीता हूँ, अपनी प्रेयसी के प्रेमामृत को पान करता हूँ। जो ऐसा प्रेमप्याला पीता हो उसके लिए शराब क्या वस्तु है? प्रेम से जीवन सदा गदगद रहता है। मैं अपनी प्रेयसी की ऐसी प्रेम-भरी, रस-भरी, दिल-भरी सेवा का बदला क्या कभी दे सकता हूँ?


उधर प्रभात ने अपनी सुफेद किरणों से अँधेरी रात पर सुफेदी-सी छिटकाई इधर मेरी प्रेयसी, मैना अथवा कोयल की तरह अपने बिस्तर से उठी। उसने गाय का बछड़ा खोला; दूध की धारा से अपना कटोरा भर लिया। गाते-गाते अन्न को अपने हाथों से पीसकर सुफेद आटा बना लिया। इस सुफेद आटे से भरी हुई छोटी-सी टोकरी सिर पर; एक हाथ में दूध से भरा हुआ लाल मिट्टी का कटोरा, दूसरे हाथ में मक्खन की हाँड़ी। जब मेरी प्रिया घर की छत के नीचे इस तरह खड़ी होती है तब वह छत के ऊपर की श्वेत प्रभा से भी अधिक आनंददायक, बलदायक, बुद्धिदायक जान पड़ती है। उस समय वह उस प्रभा से अधिक रसीली, अधिक रँगीली, जीती-जागती, चैतन्य और आनंदमयी प्रातःकालीन शोभा-सी लगती है। मेरी प्रिया अपने हाथ से चुनी हुई लकड़ियों को अपने दिल से चुराई हुई एक चिनगारी से लाल अग्नि में बदल देती है। जब वह आटे को छलनी से छानती है तब मुझे उसकी छलनी के नीचे एक अद्भुत ज्योति की लौ नजर आती है। जब वह उस अग्नि के ऊपर मेरे लिए रोटी बनाती है तब उसके चूल्हे के भीतर मुझे तो पूर्व दिशा की नभोलालिमा से भी अधिक आनंददायिनी लालिमा देख पड़ती है। यह रोटी नहीं, कोई अमूल्य पदार्थ है। मेरे गुरु ने इसी प्रेम से संयम करने का नाम योग रखा है। मेरा यही योग है।


मजदूरी और कला

आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है। सोने और लोहे के बदले मनुष्य को बेचना मना है। आजकल भाप की कलों का दाम तो हजारों रुपया है; परंतु मनुष्य कौड़ी के सौ-सौ बिकते हैं! सोने और चाँदी की प्राप्ति से जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। सच्चा आनंद तो मुझे मेरे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाय तो फिर स्वर्गप्राप्ति की इच्छा नहीं, मनुष्य-पूजा ही सच्ची ईश्वर-पूजा है। मंदिर और गिरजे में क्या रखा है? ईंट, पत्थर, चूना कुछ ही कहो - आज से हम अपने ईश्वर की तलाश मंदिर, मस्जिद, गिरजा और पोथी में न करेंगे। अब तो यही इरादा है कि मनुष्य की अनमोल आत्मा में ईश्वर के दर्शन करेंगे यही आर्ट है - यही धर्म है। मनुष्य के हाथ से ही ईश्वर के दर्शन कराने वाले निकलते हैं। बिना काम, बिना मजदूरी, बिना हाथ के कला-कौशल के विचार और चिंतन किस काम के! सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादड़ियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का, दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर-चिंतन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो जाता है। जिन देशों में हाथ और मुँह पर मजदूरी की धूल नहीं पड़ने पाती वे धर्म और कला-कौशल में कभी उन्नति नहीं कर सकते। पद्यासन निकम्मे सिद्ध हो चुके हैं। यही आसन ईश्वर-प्रप्ति करा सकते हैं जिनसे जोतने, बोने, काटने और मजदूरी का काम लिया जाता है। लकड़ी, ईंट और पत्थर को मूर्तिमान करने वाले लुहार, बढ़ई, मेमार तथा किसान आदि वैसे ही पुरुष हैं जैसे कवि, महात्मा और योगी आदि। उत्तम से उत्तम और नीच से नीच काम, सबके सब प्रेम-शरीर के अंग हैं।


निकम्मे रहकर मनुष्यों की चिंतन-शक्ति थक गई है। बिस्तरों और आसनों पर सोते और बैठे-बैठे मन के घोड़े हार गए हैं। सारा जीवन निचुड़ चुका है। स्वप्न पुराने हो चुके हैं। आजकल की कविता में नयापन नहीं। उसमें पुराने जमाने की कविता की पुनरावृत्ति मात्र है। इस नकल में असल की पवित्रता और कुँवारेपन का अभाव है। अब तो एक नए प्रकार का कला-कौशल-पूर्ण संगीत साहित्य संसार में प्रचलित होने वाला है। यदि वह न प्रचलित हुआ तो मशीनों के पहियों के नीचे दबकर हमें मरा समझिए। यह नया साहित्य मजदूरों के हृदय से निकलेगा। उन मजदूरों के कंठ से यह नई कविता निकलेगी जो अपना जीवन आनंद के साथ खेत की मेड़ों का, कपड़े के तागों का, जूते के टाँकों का, लकड़ी की रगों का, पत्थर की नसों का भेदभाव दूर करेंगे। हाथ में कुल्हाड़ी, सिर पर टोकरी नंगे सिर और नंगे पाँव, धूल से लिपटे और कीचड़ से रंगे हुए ये बेजबान कवि जब जंगल में लकड़ी काटेंगे तब लकड़ी काटने का शब्द इनके असभ्य स्वरों से मिश्रित होकर वायुयान पर चढ़ दसों दिशाओं में ऐसा अद्भुत गान करेगा कि भविष्य के कलावंतों के लिए वही ध्रुपद और मल्हार का काम देगा। चरखा कातने वाली स्त्रियों के गीत संसार के सभी देशों के कौमी गीत होंगे। मजदूरों की मजदूरी ही यथार्थ पूजा होगी। कलारूपी धर्म की तभी वृद्धि होगी। तभी नए कवि पैदा होंगे, तभी नए औलियों का उद्भव होगा। परंतु ये सब के सब मजदूरी के दूध से पलेंगे। धर्म, योग, शुद्धाचरण, सभ्यता और कविता आदि के फूल इन्हीं मजदूर-ऋषियों के उद्यान में प्रफुल्लित होंगे।


मजदूरी और फकीरी

मजदूरी और फकीरी का महत्व थोड़ा नहीं। मजदूरी और फकीरी मनुष्य के विकास के लिए परमावश्यक है। बिना मजदूरी किए फकीरी का उच्च भाव शिथिल हो जाता है; फकीरी भी अपने आसन से गिर जाती है; बुद्धि बासी पड़ जाती है। बासी चीजें अच्छी नहीं होतीं। कितने ही, उम्र भर बासी बुद्धि और बासी फकीरी में मग्न रहते हैं; परंतु इस तरह मग्न होना किस काम का? हवा चल रही है; जल बह रहा है; बादल बरस रहा है; पक्षी नहा रहे हैं; फूल खिल रहे हैं; घास नई, पेड़ नए, पत्ते नए - मनुष्य की बुद्धि और फकीरी ही बासी! ऐसा दृश्य तभी तक रहता है जब तक बिस्तर पर पड़े-पड़े मनुष्य प्रभात का आलस्य सुख मनाता है। बिस्तर से उठकर जरा बाग की सैर करो, फूल की सुगंध लो, ठंडी वायु में भ्रमण करो, वृक्षों के कोमल पल्लवों का नृत्य देखो तो पता लगे कि प्रभात-समय जागना बुद्धि और अंतःकरण को तरोताजा करना है और बिस्तर पर पड़े रहना उन्हें बासी कर देना है। निकम्मे बैठै हुए चिंतन करते रहना, अथवा बिना काम किए शुद्ध विचार का दावा करना, मानो सोते-सोते खर्राटे मारना है। जब तक जीवन के अरण्य में पादड़ी, मौलवी, पंडित और साधु, संन्यासी, हल, कुदाल और खुरपा लेकर मजदूरी न करेंगे तब तक उनका आलस्य जाने का नहीं, तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि, अनंत काल बीत जाने तक, मलिन मानसिक जुआ खेलती ही रहेगी। उनका चिंतन बासी, उनका ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनका लेख बासी, उनका विश्वास बासी और उनका खुदा भी बासी हो गया है। इसमें संदेह नहीं कि इस साल के गुलाब के फूल भी वैसे ही हैं जैसे पिछले साल के थे। परंतु इस साल वाले ताजे हैं। इनकी लाली नई है, इनकी सुगंध भी इन्हीं की अपनी है। जीवन के नियम नहीं पलटते; वे सदा एक ही से रहते हैं। परंतु मजदूरी करने से मनुष्य को एक नया और ताजा खुदा नजर आने लगता है।


गेरुए वस्त्रों की पूजा क्यों करते हो? गिरजे की घंटी क्यों सुनते हो? रविवार क्यों मनाते हो? पाँच वक्त नमाज क्यों पढ़ते हो? त्रिकाल संध्या क्यों करते हो? मजदूर के अनाथ नयन, अनाथ आत्मा और अनाश्रित जीवन की बोली सीखो। फिर देखोगे कि तुम्हारा यही साधारण जीवन ईश्वरीय भजन हो गया।


मजदूरी तो मनुष्य के समष्टि-रूप परिणाम है, आमा रूपी धातु के गढ़े हुए सिक्के का नकदी बयाना है जो मनुष्यों की आत्माओं को खरीदने के वास्ते दिया जाता है। सच्ची मित्रता ही तो सेवा है। उससे मनुष्यों के हृदय पर सच्चा राज्य हो सकता है। जाति-पाँति, रूप-रंग और नाम-धाम तथा बाप-दादे का नाम पूछे बिना ही अपने आप को किसी के हवाले कर देना प्रेम-धर्म का तत्व है। जिस समाज में इस तरह के प्रेम-धर्म का राज्य होता है उसका हर कोई हर किसी को बिना उसका नाम-धाम पूछे ही पहचानता है; क्योंकि पूछने वाले का कुल और उसकी जात वहाँ वही होती है जो उसकी, जिससे कि वह मिलता है। वहाँ सब लोग एक ही माता-पिता से पैदा हुए भाई-बहन हैं। अपने ही भाई-बहनों के माता-पिता का नाम पूछना क्या पागलपन से कम समझा जा सकता है? यह सारा संसार एक कुटुंबवत् है। लँगड़े, लूले, अंधे और बहरे उसी मौरूसी घर की छत के नीचे रहते हैं जिसकी छत के नीचे बलवान, निरोग और रूपवान कुटुंबी रहते हैं। मूढ़ों और पशुओं का पालन-पोषण बुद्धिमान, सबल और निरोग ही तो करेंगे। आनंद और प्रेम की राजधानी का सिंहासन सदा से प्रेम और मजदूरी के ही कंधों पर रहता आया है। कामना सहित होकर भी मजदूरी निष्काम होती है; क्योंकि मजदूरी का बदला ही नहीं। निष्काम कर्म करने के लिए जो उपदेश दिए जाते हैं उनमें अभावशील वस्तु सुभावपूर्ण मान ली जाती है। पृथ्वी अपने ही अक्ष पर दिन-रात घूमती है। यह पृथ्वी का स्वार्थ कहा जा सकता है। परंतु उसका यह घूमना सूर्य के इर्द-गिर्द घूमता तो है और सूर्य के इर्द-गिर्द घूमना सूर्यमंडल के साथ आकाश में एक सीधी लकीर पर चलना है। अंत में, इसको गोल चक्कर खाना सदा ही सीधा चलना है। इसमें स्वार्थ का अभाव है। इसी तरह मनुष्य की विविध कामनाएँ उसके जीवन को मानो उसके स्वार्थरूपी धुरे पर चक्कर देती हैं। परंतु उसका जीवन अपना तो है ही नहीं, वह तो किसी आध्यात्मिक सूर्यमंडल के साथ की चाल है और अंततः यह चाल जीवन का परमार्थ रूप है। स्वार्थ का यहाँ भी अभाव है, जब स्वार्थ कोई वस्तु ही नहीं तब निष्काम और कामनापूर्ण कर्म करना दोनों ही एक बात हुई। इसलिए मजदूरी और फकीरी का अन्योन्याश्रय संबंध है।


मजदूरी करना जीवनयात्रा का आध्यात्मिक नियम है। जोन ऑव आर्क (Joan of Arc) की फकीरी और भेड़ें चराना, टाल्सटाय का त्याग और जूते गाँठना, उमर खैयाम का प्रसन्नतापूर्वक तंबू सीते फिरना, खलीफा उमर का अपने रंग महलों में चटाई आदि बुनना, ब्रह्माज्ञानी कबीर और रैदास का शूद्र होना, गुरु नानक और भगवान श्रीकृष्ण का कूक पशुओं को लाठी लेकर हाँकना - सच्ची फकीरी का अनमोल भूषण है।


समाज का पालन करने वाली दूध की धारा

एक दिन गुरु नानक यात्रा करते-करते लालो नाम के एक बढ़ई के घर ठहरे। उस गाँव का भागो नामक रईस बड़ा मालदार था। उस दिन भागो के घर ब्रह्मभोज था। दूर-दूर से साधु आए थे। गुरु नानक का आगमन सुनकर भागो ने उन्हें भी निमंत्रण भेजा। गुरु ने भागो का अन्न खाने से इनकार कर दिया। इस बात पर भागो को बड़ा क्रोध आया। उसने गुरु नानक को बलपूर्वक पकड़ मँगाया और उनसे पूछा - आप मेरे यहाँ का अन्न क्यों नहीं ग्रहण करते? गुरुदेव ने उत्तर दिया - भागो, अपने घर का हलवा-पूरी ले आओ तो हम इसका कारण बतला दें। वह हलवा-पूरी लाया तो गुरुनानक ने लालो के घर से भी उसके मोटे अन्न की रोटी मँगवाई। भागो की हलवा-पूरी उन्होंने एक हाथ में और भाई लालो की मोटी रोटी दूसरे हाथ में लेकर दोनों को जो दबाया तो एक से लोहू टपका और दूसरी से दूध की धारा निकली। बाबा नानक का यही उपदेश हुआ। जो धारा भाई लालो की मोटी रोटी से निकली थी वही समाज का पालन करने वाली दूध की धारा है। यही धारा शिवजी की जटा से और यही धारा मजदूरों की उँगलियों से निकलती है।


मजदूरी करने से हृदय पवित्र होता है; संकल्प दिव्य लोकांतर में विचरते हैं। हाथ की मजदूरी ही से सच्चे ऐश्वर्य की उन्नति होती है। जापान में मैंने कन्याओं और स्त्रियों को ऐसी कलावती देखा है कि वे रेशम के छोटे-छोटे टुकड़ों को अपनी दस्तकारी की बदौलत हजारों की कीमत का बना देती हैं, नाना प्रकार के प्राकृतिक पदार्थों और दृश्यों को अपनी सुई से कपड़े के ऊपर अंकित कर देती हैं। जापान निवासी कागज, लकड़ी और पत्थर की बड़ी अच्छी मूर्तियाँ बनाते हैं। करोड़ों रुपये के हाथ के बने हुए जापानी खिलौने विदेशों में बिकते हैं। हाथ की बनी हुई जापानी चीजें मशीन से बनी हुई चीजों को मात करती हैं। संसार के सब बाजारों में उनकी बड़ी माँग रहती है। पश्चिमी देशों के लोग हाथ की बनी हुई जापान की अद्भुत वस्तुओं पर जान देते हैं। एक जापानी तत्त्वज्ञानी का कथन है कि हमारी दस करोड़ उँगलियाँ सारे काम करती हैं। उन उँगलियों ही के बल से, संभव है हम जगत् को जीत लें। (''We shall beat the world with the tips of our fingers'') जब तक धन और ऐश्वर्य की जन्मदात्री हाथ की कारीगरी की उन्नति नहीं होती तब तक भारतवर्ष ही की क्या, किसी भी देश या जाति की दरिद्रता दूर नहीं हो सकती। यदि भारत की तीस करोड़ नर-नारियों की उँगलियाँ मिलकर कारीगरी के काम करने लगें तो उनकी मजदूरी की बदौलत कुबेर का महल उनके चरणों में आप ही आप आ गिरे।


अन्न पैदा करना तथा हाथ की कारीगरी और मिहनत से जड़ पदार्थों को चैतन्यचिह्न से सुसज्जित करना, क्षुद्र पदार्थों को अमूल्य पदार्थों में बदल देना इत्यादि कौशल ब्रह्मरूप होकर धन और ऐश्वर्य की सृष्टि करते हैं! कविता फकीरी और साधुता के ये दिव्य कला-कौशल जीते-जागते और हिलते-डुलते प्रतिरूप हैं। इनकी कृपा से मनुष्य जाति का कल्याण होता है। ये उस देश में कभी निवास नहीं करते जहाँ मजदूर और मजदूर की मजदूरी का सत्कार नहीं होता, जहाँ शूद्र की पूजा नहीं होती। हाथ से काम करने वालों से प्रेम रखने और उनकी आत्मा का सत्कार करने से साधारण मजदूरी सुंदरता का अनुभव करने वाले कला-कौशल, अर्थात कारीगरी, का रूप हो जाती है। इस देश में जब मजदूरी का आदर होता था तब इसी आकाश के नीचे बैठे हुए मजदूरों के हाथों ने भगवान बुद्ध के निवार्ण-सुख को पत्थर पर इस तरह जड़ा था कि इतना काल बीत जाने पर, पत्थर की मूर्ति के दर्शन से ऐसी शांति प्राप्त होती है जैसी कि स्वयं भगवान बुद्ध के दर्शन से होती है। मुँह, हाथ, पाँव इत्यादि का गढ़ देना साधारण मजदूरी; परंतु मन के गुप्त भावों और अंतःकरण की कोमलता तथा जीवन की सभ्यता को प्रत्यक्ष प्रकट कर देना प्रेम-मजदूरी है। शिवजी के तांडव नृत्य को और पार्वतीजी के मुख की शोभा को पत्थरों की सहायता से वर्णन करना जड़ को चैतन्य बना देना है। इस देश में कारीगरी का बहुत दिनों से अभाव है। महमूद ने जो सोमनाथ के मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्तियाँ तोड़ी थीं उससे उसकी कुछ भी वीरता सिद्ध नहीं होती। उन मूर्तियों को तो हर कोई तोड़ सकता था। उसकी वीरता की प्रशंसा तब होती जब वह यूनान की प्रेम-मजदूरी, अर्थात वहाँ वालों के हाथ की अद्वितीय कारीगरी प्रकट करने वाली मूर्तियाँ तोड़ने का साहस कर सकता। वहाँ की मूर्तियाँ तो बोल रही हैं - वे जीती जागती हैं, मुर्दा नहीं। इस समय के देवस्थानों में स्थापित मूर्तियाँ देखकर अपने देश की आध्यात्मिक दुर्दशा पर लज्जा आती है। उनसे तो यदि अनगढ़ पत्थर रख दिए जाते तो अधिक शोभा पाते। जब हमारे यहाँ के मजदूर, चित्रकार तथा लकड़ी और पत्थर पर काम करने वाले भूखों मरते हैं तब हमारे मंदिरों की मूर्तियाँ कैसे सुंदर हो सकती हैं? ऐसे कारीगर तो यहाँ शूद्र के नाम से पुकारे जाते हैं। याद रखिए, बिना शूद्र-राजा के मूर्ति-पूजा किंवा, कृष्ण और शालिग्राम के छिछोरेपन से दरिद्रता को प्राप्त हो रहे हैं। यही कारण है, जो आज हम जातीय दरिद्रता से पीड़ित हैं।


पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श

पश्चिमी सभ्यता मुख मोड़ रही है। वह एक नया आदर्श देख रही है। अब उसकी चाल बदलने लगी है। वह कलों की पूजा को छोड़कर मनुष्यों की पूजा को अपना आदर्श बना रही है। इस आदर्श के दर्शाने वाले देवता रस्किन और टालस्टॉय आदि हैं। पाश्चात्य देशों में नया प्रभात होने वाला है। वहाँ के गंभीर विचार वाले लोग इस प्रभात का स्वागत करने के लिए उठ खड़े हुए हैं। प्रभात होने के पूर्व ही उसका अनुभव कर लेने वाले पक्षियों की तरह इन महात्माओं को इस नए प्रभात का पूर्व ज्ञान हुआ है। और हो क्यों न? इंजनों के पहिए के नीचे दबकर वहाँ वालों के भाई-बहन - नहीं नहीं उनकी सारी जाति पिस गई; उनके जीवन के धुरे टूट गए, उनका समस्त धन घरों से निकलकर एक ही दो स्थानों में एकत्र हो गया। साधारण लोग मर रहे हैं, मजदूरों के हाथ-पाँव फट रहे हैं, लहू चल रहा है! सर्दी से ठिठुर रहे हैं। एक तरफ दरिद्रता का अखंड राज्य है, दूसरी तरफ अमीरी का चरम दृश्य। परंतु अमीरी भी मानसिक दुःखों से विमर्दित है। मशीनें बनाई तो गई थीं मनुष्यों का पेट भरने के लिए - मजदूरों को सुख देने के लिए - परंतु वे काली-काली मशीनें ही काली बनकर उन्हीं मनुष्यों का भक्षण कर जाने के लिए मुख खोल रही हैं। प्रभात होने पर ये काली-काली बलाएँ दूर होंगी। मनुष्य के सौभाग्य का सूर्योदय होगा।


शोक का विषय है कि हमारे और अन्य पूर्वी देशों में लोगों को मजदूरी से तो लेशमात्र भी प्रेम नहीं है, पर वे तैयारी कर रहे हैं पूर्वोक्त काली मशीनों का अलिंगन करने की। पश्चिम वालों के तो ये गले पड़ी हुई बहती नदी की काली कमली हो रही हैं। वे छोड़ना चाहते हैं, परंतु काली कमली उन्हें नहीं छोड़ती। देखेंगे पूर्व वाले इस कमली को छाती से लगाकर कितना आनंद अनुभव करते हैं। यदि हममें से हर आदमी अपनी दस उँगलियों की सहायता से साहसपूर्वक अच्छी तरह काम करे तो हम मशीनों की कृपा से बढ़े हुए परिश्रम वालों को वाणिज्य के जातीय संग्राम में सहज ही पछाड़ सकते हैं। सूर्य तो सदा पूर्व ही से पश्चिम की ओर जाता है। पर आओ पश्चिम से आने वाली सभ्यता के नए प्रभात को हम पूर्व से भेजें।


इंजनों की वह मजदूरी किस काम की जो बच्चों, स्त्रियों और कारीगरों को ही भूखा नंगा रखती है और केवल सोने, चाँदी, लोहे आदि धातुओं का ही पालन करती है। पश्चिम को विदित हो चुका है कि इनसे मनुष्य का दुःख दिन पर दिन बढ़ता है। भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा। दरिद्र प्रजा और भी दरिद्र होकर मर जायगी। चेतन से चेतन की वृद्धि होती है। मनुष्य को तो मनुष्य ही सुख दे सकता है। परस्पर की निष्कपट सेवा ही से मनुष्य जाति का कल्याण हो सकता है। धन एकत्र करना तो मनुष्य-जाति के आनंद-मंगल का एक साधारण-सा और महातुच्छ उपाय है। धन की पूजा करना नास्तिकता है; ईश्वर को भूल जाना है; अपने भाई-बहनों तथा मानसिक सुख और कल्याण के देने वालों को मारकर अपने सुख के लिए शारीरिक राज्य की इच्छा करना है, जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को स्वयं ही कुल्हाड़ी से काटना है। अपने प्रियजनों से रहित राज्य किस काम का? प्यारी मनुष्य-जाति का सुख ही जगत् के मंगल का मूल साधन है। बिना उसके सुख के अन्य सारे उपाय निष्फल हैं। धन की पूजा से ऐश्वर्य, तेज, बल और पराक्रम नहीं प्राप्त होने का। चैतन्य आत्मा की पूजा से ही ये पदार्थ प्राप्त होते हैं। चैतन्य-पूजा ही से मनुष्य के प्रेममय हृदय, निष्कपट मन और मित्रतापूर्ण नेत्रों से निकलकर बहती है तब वही जगत् में सुख के खेतों को हरा-भरा और प्रफुल्लित करती है और वही उनमें फल भी लगाती है। आओ, यदि हो सके तो टोकरी उठाकर कुदाली हाथ में लें, मिट्टी खोदें और अपने हाथ से उसके प्याले बनावें। फिर एक-एक प्याला घर-घर में, कुटिया-कुटिया में रख आवें और सब लोग उसी में मजदूरी का प्रेमामृत पान करें।


है रीत आशिकों की तन मन निसार करना।

रोना सितम उठाना और उनको प्यार करना॥

कन्या-दान



- सरदार पूर्ण सिंह


 

नयनों की गंगा

धन्य हैं वे नयन जो कभी कभी प्रेम-नीर से भर पाते हैं। प्रति दिन गंगा-जल में तो स्नान होता ही है परंतु जिस पुरुष ने नयनो की प्रेम-धारा में कभी स्नान किया है वही जानता है कि इस स्नान से मन के मलिनभाव किस तरह बह जाते हैं; अंतःकरण कैसे पुष्प की तरह खिल जाता है; हृदय-ग्रन्थि किस तरह खुल जाती है; कुटिलता और नीचता का पर्वत कैसे चूर-चूर हो जाता है । सावन-भादों की वर्षा के बाद वृक्ष जैसे नवीन नवीन कोपलें धारण किये हुए एक विचित्र मनोमोहिनी छटा दिखाते हैं उसी तरह इस प्रेम-स्नान से मनुष्य की आन्तरिक अवस्था स्वच्छ, कोमल और रसभीनी हो जाती है। प्रेम-धारा के जल से सींचा हुआ हृदय प्रफुल्लित हो उठता है । हृदयस्थली में पवित्र भावों के पौधे उगते; बढ़ते और फलते हैं। वर्षा और नदी के जल से तो अन्न पैदा होता है; परन्तु नयनों की गंगा से प्रेम और वैराग्य के द्वारा मनुष्य-जीवन को आग और बर्फ से बपतिस्मा मिलता है अर्थात् नया जन्म होता है मानों प्रकृति ने हर एक मनुष्य के लिए इस नयन-नीर के रूप में मसीहा भेजा है, जिससे हर एक नर-नारी कृतार्थ हो सकते हैं । यही वह यज्ञोपवीत है जिसके धारण करने से हर आदमी द्विज हो सकता है । क्या ही उत्तम किसी ने कहा है :-

हाथ खाली मर्दमे दीदा बुतों से क्या मिलें ।

मोतियों की पंज-ए-मिजगाँ में इक माला तो हो ।।

आज हम उस अश्रु-धारा का स्मरण नहीं करते जो ब्रह्मानन्द के कारण योगी जनों के नयनों से बहती है। आज तो लेखक के लिये अपने जैसे साधारण पुरुषों की अश्रु-धारा का स्मरण करना ही इस लेख का मंगलाचरण है । प्रेम की बूंदों में यह असार संसार मिथ्या रूप होकर घुल जाता है और हम पृथ्वी से उठकर आत्मा के पवित्र नभो-मंडल में उड़ने लगते हैं । अनुभव करते हुए भी ऐसी घुली हुई अवस्था में हर कोई समाधिस्थ हो जाता है; अपने आपको भूल जाता है; शरीराध्यास न जाने कहाँ चला जाता है; प्रेम की काली घटा ब्रह्म-रूप में लीन हो जाती है । चाहे जिस शिल्पकार, चाहे जिस कला-कुशल-जन, के जीवन को देखिए उसे इह परमावस्था का स्वयं अनुभव हुए बिना अपनी कला का तत्त्व ज्ञान नहीं होता । चित्रकार सुंदरता को अनुभव करता है और तत्काल ही मारे खुशी के नयनों में जल भर लाता है । बुद्धि, प्राण, मन और तन सुंदरता में डूब जाते हैं । सारा शरीर प्रेम-वर्षा के प्रवाह में बहने लगता है । वह चित्र ही क्या जिसको देख देखकर चित्रकार की आँखें इस मदहोश करनेवाली ओस से तर न हुई हो । वह चित्रकारी ही क्या जिसने हजार बार चित्रकार को इस योग-निद्रा में न सुलाया हो ।

कवि को देखिए, अपनी कविता के रस-पान से मत्त होकर वह अन्तःकरण के भी परे आध्यात्मिक नभो-मंडल के बादलों में विचरण करता है । ये बादल चाहे आत्मिक जीवन के केंद्र हों, चाहे निर्विकल्प समाधि के मंदिर के बाहर के घेरे, इनमें जाकर कवि जरूर सोता है। उसका अस्थि-मांस का शरीर इन बादलों में घुल जाता है। कवि वहाँ ब्रह्म-रस को पान करता है और अचानक बैठे बिठाये श्रावण- भादों के मेघ की तरह संसार पर कविता की वर्षा करता है। हमारी आँखें कुछ ऐसी ही हैं। जिस प्रकार वे इस संसार के कर्त्ता को नहीं देख सकतीं उसी प्रकार आध्यात्मिक देश के बादल और धुन्ध में सोये हुए कलाधर पुरुष को नहीं देख सकतीं। उसकी कविता जो हमको मदमत्त करती है वह एक स्थूल चीज है और यही कारण है कि जो कला निपुण जन प्रतिदिन अधिक से अधिक उस आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है वह अपनी एक बार अलापी हुई कविता को उस धुन से नहीं गाता जिससे वह अपने ताजे से ताजे दोहों और चौपाइयों का गान करता है । उसकी कविता के शब्द केवल इस वर्षा के दाने हैं । यह तो ऐसे कवि के शान्तरस की बात हुई । इस तरह के कवि का वीररस इसी शान्तरस के बादलों की टक्कर से पैदा हुई बिजली की गरज और चमक है। कवि को कविता में देखना तो साधारण काम है; परंतु आँखवाले उसे कहीं और ही देखते हैं । कवि की कविता और उसका आलाप उसके दिल और गले से नहीं निकलते । वे तो संसार के ब्रह्म-केन्द्र से आलापित होते हैं । केवल उस आलाप करनेवाली अवस्था का नाम कवि है । फिर चाहे वह अवस्था हरे हरे बाँस की पोरी से, चाहे नारद की वीणा से, और चाहे सरस्वती के सितार से बह निकले । वही सच्चा कवि है जो दिव्य सौंदर्य के अनुभव में लीन हो जाय और लीन होने पर जिसकी जिह्वा और कण्ठ मारे खुशी के रुक जाय, रोमांच हो उठे, निजानन्द में मत्त होकर कभी रोने लगे और कभी हँसने ।

हर एक कला-निपुण पुरुष के चरणों में वह नयनों की गंगा सदा बहती है। क्या यह आनन्द हमको विधाता ने नहीं दिया ! क्या उसी नीर में हमारे लिए राम ने अमृत नहीं भरा ! अपना निश्चय तो यह है कि हर एक मनुष्य जन्म से ही किसी न किसी अद्भुत प्रेम-कला से युक्त होता है । किसी विशेष कला में निपुण न होते हुए भी राम ने हर एक हृदय में प्रेम-कला की कुञ्जी रख दी है । इस कुञ्जी के लगते ही प्रेम-कला की सम्पूर्ण सम्भूति अज्ञानियों और निरक्षरों को भी प्राप्त हो सकती है।

All arts are nothing but Samadhi applied to love.

We are all born geniuses only if we will. The painter the sculptor, the poet and the prophet have only been selected to love objects unseen by the ordinary human eye.

(कला स्वयं कुछ नहीं है, प्रेम में मन को समाहित करना ही कला है ।

हम सब प्रतिभा लेकर जन्म लेते हैं, हाँ, यदि हम उसका उपयोग करें। सामान्य आँखों से न दिखानेवाली वस्तु को प्यार कर सकने के कारण ही चित्रकार, मूर्तिकार, कवि और मसीहा विशिष्ट स्थान रखते हैं। )

कवि सदा बादलों से घिरा हुआ और तिमिराच्छन्न देश में रहता है। वहीं से चले हुए बादलों के टुकड़े माता, पिता, भ्राता, भगिनी, सुत, दारा इत्यादि के चक्षुओं पर आकर छा जाते हैं । मैंने अपनी आँखों इनको छम छम बरसते देखा है । जिस आध्यात्मिक देश में कवि, चित्रकार, योगी, पीर, पैगंबर, औलिया विचरते हैं और किसी और को घुसने नहीं देते, वह सारे का सारा देश इन आम लोगों के प्रेमाश्रुओं से घुल घुल कर बह रहा है । आयो, मित्रों ! स्वर्ग का आम नीलाम हो रहा है।

Paradise is at auction and any body can buy it.

(स्वर्ग नीलाम हो रहा है, कोई भी व्यक्ति इसे खरीद सकता है।)

सर वाल्टर स्काट ( Sir Walter Scott ) अपनी "लेडी आव दि लेक" (Lady of the Lake ) नामक कविता में बड़ी खूबी से उन अश्रुओं की प्रशंसा करते हैं जो अश्रु पिता अपनी पुत्री को आलिंगन करके उसके केशों पर मोती की लड़ी की तरह बखेरता है। इन अश्रुओं को वे अद्भुत दिव्य प्रेम के अश्रु मानते हैं । सच है, संसार के गृहस्थ मात्र के संबंधों में पिता और पुत्री का संबंध दिव्यप्रेम से भरा है। पिता का हृदय अपनी पुत्री के लिए कुछ ईश्वरीय हृदय से कम नहीं।

पाठक, अब तक न तो आपको और न मुझे ही ऊपर की लिखी हुई बातों का ऊपरी दृष्टि से कन्यादान के विषय से कुछ संबन्ध मालूम होता है। तो फिर लेखक ने सरस्वती के सम्पादक को नीली पेंसल फेरने का अधिकार क्यों न दिया। उसका कारण केवल यह है कि ऊपर और नीचे का लेख लेखक की एक विशेष देश-काल-सम्बन्धी मनो-लहरी है । पता लगे, चाहे न लगे कन्यादान से सम्बन्ध अवश्यमेव है ।

एक समय आता है जब पुत्री को अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपने पति के घर जाना पड़ता है।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।

उरवारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतेः। शु० यजु० "आयो, आज हम सब मिलकर अपने पतिवेदन उस त्रिकाल-दर्शी सुगंधित पुरुष का यज्ञ करें जिससे, जैसे दाना पकने पर अपने छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही हम इस घर के बंधनों से छूटकर अपने पति के अटलराज को प्राप्त हों।"

प्राचीन वैदिक काल में युवती कुवारी लड़कियाँ यज्ञाग्नि की परिक्रमा करती हुईं ऊपर को प्रार्थना ईश्वर के सिंहासन तक पहुँचाया करती थीं।

हर एक देश में यह बिछोड़ा भिन्न भिन्न प्रकार से होता है । परंतु इस बिछोड़े में त्याग-अंश नजर आता है। योरप में आदि काल से ऐसा रवाज चला आया है कि एक युवा कन्या किसी वीर, शुद्ध हृदय और सोहने नौजवान को अपना दिल चुपके चुपके पेड़ों की आड़ में, या नदी के तट पर, या वन के किसी सुनसान स्थान में, दे देती है । अपने दिल को हार देती है मानो अपने हृत्कमल को अपने प्यारे पर चढ़ा देती है; अपने आपको त्याग कर वह अपने प्यारे में लीन हो जाती है । वाह ! प्यारी कन्या तूने तो जीवन के खेल को हारकर जीत लिया । तेरी इस हार की सदा संसार में जीत ही रहेगी। उस नौजवान को तू प्रेम-मय कर देती है। एक अद्भुत प्रेम-योग से उसे अपना कर लेती है । उसके प्राण की रानी हो जाती है। देखो ! वह नौजवान दिन-रात इस धुन में है कि किस तरह वह अपने आपको उत्तम से उत्तम और महान् से महान् बनाये-वह उस वेचारी निष्पाप कन्या के और पवित्र हृदय को ग्रहण करने का अधिकारी हो जाय। प्रकृति ऐसा दान बिना पवित्रात्मा के किसी को नहीं दे सकती । नौजवान के दिल में कई प्रकार की उमङ्गें उठती हैं। उसकी नाड़ी नाड़ी में नया रक्त, नया जोश और नया जोर आता है। लड़ाई में अपनी प्रियतमा का खयाल ही उसको वीर बना देता है ।

उसी के ध्यान में यह पवित्र दिल निडर हो जाता है । मौत को जीतकर उसे अपनी प्रियतमा को पाना है।

The Paradise is under the Shade of Swords.

(तलवार की छाया में स्वर्ग बसता है।)

ऊँचे से ऊँचे आदर्श को अपने सामने रखकर यह राम का लाल तन-मन से दिन-रात उसके पाने का यत्न करता है। और जब उसे पा लेता है तब हाथ में विजय का फुरेरा लहराते हुए एक दिन अकस्मात् उस कन्या के सामने आकर खड़ा हो जाता है । कन्या के नयनों से गंगा बह निकलती है और उस लाल का दिल अपनी प्रियतमा की सूक्ष्म प्राणगति से लहराता है, काँपता है, और शरीर ज्ञानहीन हो जाता है। बेबस होकर वह उसके चरणों में अपने आपको गिरा देता है । कन्या तो अपने दिल को दे ही चुकी थी; अब इस नौजवान ने आकर अपना दिल अर्पण किया । इस पवित्र प्रेम ने दोनों के जीवन को रेशमी डोरों से बाँध दिया-तन मन का होश अब कहाँ है । मैं तू और तू मैं वाली मदहोशी हो गई । यह जोड़ा मानो ब्रह्म में लीन हो गया; इस प्रेम में कदूरत लेश मात्र नहीं होती । विक्टर ह्यूगो (Victor Hugo) ने ले-मिज्राबल (Les Miserables) में मेरीयस (Marius) और कौसट (Cosett) के ऐसे मिलाप का बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है । चाँदनी रात है । मंद मंद पवन चल रही है। वृक्ष अजीब लीला में आसपास खड़े हैं । और यह कन्या और नौजवान कई दिन बाद मिले हैं । मेरीयस के लिए तो कुल संसार इस देवी का मंदिर-रूप हो रहा था। अपने हृदय की ज्योति को प्रज्वलित करके उस देवी की वह आरती करने आया है। कौसट घास पर बैठी है । कुछ मीठी मीठी प्रेम भरी बातचीत हो रही है । इतने में सरसराती हवा ने कौसट के सीने से चीर उठा दिया । जरा सी देर के लिये उस बर्फ की तरह सफेद और पवित्र छाती को नग्न कर दिया । मगर मेरीयस ने फौरन अपना मुँह परे को हटा लिया । वह तो देवी-पूजा के लिये आया है; आँख ऊपर करके नहीं देख सकता ।

रोमियो और जूलियट नामक शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक में जूलियट ने किस अंदाज से अपना दिल त्याग दिया और रोमियो के दिल की रानी हो गई !

वे किस्से-कहानियाँ जिनमें नौजवान शाहजादे अपना दिल पहले दे देते हैं अपवित्र मालूम होते हैं; और उनके लेखक प्रेम के स्वर्गीय नियम से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। कुछ शक नहीं, कहीं कहीं पर वे इस नियम को दरसा देते हैं, परन्तु सामान्य लेखों में पुरुष का दिल ही तड़पता दिखलाते हैं । कन्या अपना दिल चुपके से दे देती है । इस दिल के दे देने की खबर वायु, पुष्प, वृक्ष, तारागण इत्यादि को होती है । लैली का दिल मजनूँ की जात में पहले घुल जाना चाहिए और इस अभेदता का परिणाम यह होना चाहिए कि मजनूँ उत्पन्न हो -इस यज्ञ-कुण्ड से एक महात्मा ( मजनूं) प्रकट होना चाहिए । सोहनी मेंहीवाल (पंजाब के प्रसिद्ध कवि फाजलशाह की रचित कविता में सोहनी मेंहीवाल के प्रेम का वर्णन है । सोहनी एक कलाल की कन्या थी और मेंहीवाल फारस के एक बड़े सौदागर का पुत्र था जिसने सोहनी के प्रेम में अपना सर्वस्व लुटाकर अपनी प्रियतमा के पिता के यहाँ भैंस चराने पर नौकर हो गया ।) के किस्से में असली मेंहीवाल उस समय निकलता है जब कि सोहनी अपने दिल को लाकर हाजिर करती है । राँझा हीर (यह भी पंजाब ही के प्रसिद्ध कवि वारेशाह की कविता की कथा है।) की तलाश में निकलता जरूर है; मगर सच्चा योगी वह तभी होता है जब उसके लिए हीर अपने दिल को बेले के किसी झाड़ में छोड़ आती है। शकुन्तला जंगल की लता की तरह बेहोशी की अवस्था में ही जवान हो गई । दुष्यंत को देखकर अपने आपको खो बैठी। राजहंसों से पता पाकर दमयन्ती नल में लीन हो गई । राम के धनुष तोड़ने से पहले ही सीता अपने दिल को हार चुकी । सीता के दिल के बलिदान का ही यह असर था कि मर्यादा-पुरुषोत्तम राम भगवान् वन वन बारह वर्ष तक अपनी प्रियतमा के क्लेश निवारणार्थ रोते फिरे ।

Nothing but a perfect womanhood can call man to Purity and sacrifice, to manhood and to godhood.

(केवल पूर्ण नारी ही मनुष्य को पवित्रता और त्याग का पाठ पढ़ा सकती है। वही उसे मनुष्यत्व और देवत्व का सन्देश दे सकती है।)

यूरप में कन्या जब अपना दिल ऊपर लिखे गए नियम से दान करती है तब वहाँ का गृहस्थ जीवन आनन्द और सुख से भर जाता है । जहाँ खुशामद और झूठे प्रेम से कन्या फिसली, थोड़ी ही देर के बाद गृहस्थाश्रम में दुख-दर्द और राग-द्वेष प्रकट हुए । प्रेम के कानून को तोड़कर जब यूरप में उलटी गंगा बहने लगी तब वहाँ विवाह एक प्रकार की ठेकेदारी हो गया और समाज में कहीं कहीं यह खयाल पैदा हुआ कि विवाह करने से कुँवारा रहना ही अच्छा है । लोग कहते हैं कि यूरप में कन्या-दान नहीं होता; परंतु विचार से देखा जाय तो संसार में कभी कहीं भी गृहस्थ का जीवन कन्या-दान के बिना सुफल नहीं हो सकता । यूरप के गृहस्थों के दुखड़े तब तक कभी न जायँगे जब तक एक बार फिर प्रेम का कानून, जिसको शेक्सपियर ने अपने “रोमियो और जूलियट' में इस खूबी से दरसाया है, लोगों के अमल में न आवेगा । अतएव यूरप और अन्य पश्चिमी देशों में कन्या-दान अवश्यमेव होता है । वहाँ कन्या पहले अपने आपको दान कर देती है; पीछे से गिरजे में जाकर माता, पिता या और कोई सम्बन्धी फूलों से सजी हुई दूल्हन को दान करता है।

The bride is given away in Europe.

(यूरोप में वधू दे दी जाती है।)

यूरप में गृहस्थों की बेचैनी

आजकल पश्चिमी देशों में झूठी और जाहिरी शारीरिक आजादी के खयाल ने कन्या-दान की आध्यात्मिक बुनियाद को तोड़ दिया है । कन्या-दान की रीति जरूर प्रचलित है, परन्तु वास्तव में उस रीति में मानो प्राण ही नहीं । कोई अखबार खोलकर देखो, उन देशों में पति और पत्नी के झगड़े वकीलों द्वारा जजों के सामने तै होते हैं । और जज की मेज पर विवाह की सोने की अँगूठियाँ, काँच के छल्लों की तरह द्वेष के पत्थरों से टूटती हैं । गिरजे में कल के बने हुए जोड़े आज टूटे और आज के बने जोड़े कल टूटे ।

ऐसा मालूम होता है कि मौनोगेमी (स्त्री-व्रत) का नियम, जो उन लोगों की स्मृतियों और राज-नियमों में पाया जाता है, उस समय बनाया गया था जब कन्या-दान आध्यात्मिक तरीके से वहाँ होता था और गृहस्थों का जीवन सुखमय था ।

भला सच्चे कन्यादान के यज्ञ के बाद कौन सा मनुष्य-हृदय इतना नीच और पापी हो सकता है, जो हवन हुई कन्या के सिवा किसी अन्य स्त्री को बुरी दृष्टि से देखे । उस कुरबान हुई कन्या की खातिर कुल जगत् की स्त्री-जाति से उस पुरुष का पवित्र सम्बन्ध हो जाता है । स्त्री-जाति की रक्षा करना और उसे आदर देना उसके धर्म का अङ्ग हो जाता है । स्त्री-जाति में से एक स्त्री ने इस पुरुष के प्रेम में अपने हृदय की इसलिये आहुति दी है कि उसके हृदय में स्त्री-जाति की पूजा करने के पवित्र भाव उत्पन्न हों; ताकि उसके लिये कुलीन स्त्रियाँ माता समान, भगिनी समान, पुत्री समान, देवी समान हो जायँ । एक ही ने ऐसा अद्भुत काम किया कि कुल जगत् की बहनों को इस पुरुष के दिल की डोर दे दी। इसी कारण उन देशों में मौनोगेमी (स्त्री-व्रत) का नियम चला । परन्तु आजकल उस कानून की पूरे तौर पर पाबन्दी नहीं होती। देखिए, स्वार्थ-परायणता के वश होकर थोड़े से तुच्छ भोगों की खातिर सदा के लिए कुँवारापन धारण करना क्या इस कानून को तोड़ना नहीं है। लोगों के दिल जरूर बिगड़ रहे हैं । ज्यों ज्यों सौभाग्यमय गृहस्थ-जीवन का सुख घटता जाता है त्यों त्यों मुल्की और इखलाकी बेचैनी बढ़ती जाती है। ऐसा मालूम होता कि यूरप की कन्याएँ भी दिल देने के भाव को बहुत कुछ भूल गई हैं। इसी से अलबेली भोली कुमारिकायें पारल्यामेंट के झगड़ों में पड़ना चाहती हैं; तलवार और बंदूक लटकाकर लड़ने मरने को तैयार हैं । इससे अधिक यूरप के गृहस्थ-जीवन की अशान्ति का और क्या सबूत हो सकता है :-

On one side the suppragist movement is to my mind the open condemnation of the moral degneration of men who have forgotten that they have to take the inspiration of their life and its activities from the hearts of the mother, the sister, the wife and the daughter, and have to borrow all their nobleness from the divine womanhood and on the other side, it is the painful evidence of the extinction of the realisation of the ideal of Kanyadan-thence-blest of all arts by which she could rule over the hearts of men and she, the queen of the Home, was ifso fact the Queen of the Empires of man, real dictator of laws and the Presiding Deity of nations.

(स्त्रियों को मताधिकार दिलाने का यह आन्दोलन मेरे विचार से एक ओर उन मनुष्यों के नैतिक पतन की खुली भर्त्सना है जो यह भूल गये हैं कि उन्हें अपने जीवन तथा कार्यों में अपनी माँ, बहिन, पत्नी तथा बेटी से प्रेरणा ग्रहण करनी होगी और नैसर्गिक नारीत्व से ही अपनी सारी उच्चता प्राप्त करनी होगी, दूसरी ओर यह कन्या-दान के उस आदर्श के लोप की अनुभूति का दुःखद उदाहरण है जो समस्त कलाओं में उच्चतम है-वह कला जिसके सहारे नारी मनुष्यों के हृदयों पर राज्य करती है और वह सत्यमेव घर की रानी, मानव साम्राज्य की सम्राज्ञी, सच्ची नियामिका और राष्ट्रों की सच्ची भाग्य-विधायिका बन सकती है।)

सच्ची स्वतंत्रता

आर्यावर्त में कन्यादान प्राचीन काल से चला आता है । कन्यादान और पतिव्रत-धर्म दोनों एक ही फल-प्राप्ति का प्रतिपादन करते हैं । आज-कल के कुछ मनुष्य कन्यादान को गुलामी की हँसली मान बैठे हैं। वे कहते हैं कि क्या कन्या कोई गाय, भैंस या घोड़ी की तरह बेजान और बेजबान है जो उसका दान किया जाता है । यह अल्पज्ञता का फल है- सीधे और सच्चे रास्ते से गुमराह होना है। ये लोग गंभीर विचार नहीं करते । जीवन के आत्मिक नियमों की महिमा नहीं जानते । क्या प्रेम का नियम सबसे उत्तम और बलवान् नहीं है ? क्या प्रेम में अपनी जान को हार देना सब के दिलों को जीत लेना नहीं है ? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मन की बेलगाम दौड़ है, अथवा प्रेमाग्नि में उसका स्वाहा होना है ? चाहे कुछ कहिए, सच्ची आजादी उसके भाग्य में नहीं, जो अपनी रक्षा खुशामद और सेवा से करता है । अपने आपको गँवाकर ही सच्ची स्वतन्त्रता नसीब होती है। गुरु नानक अपनी मीठी जबान में लिखते है :-"जाइ पुछहु सोहागणी वाहै किनी बाती सहु पाईऐ ॥... आपु गवाईऐ ता सहु पाईऐ अउरु कैसी चतुराई ॥" अर्थात् यदि किसी सौभाग्यवती से पूछोगे कि किन तरीकों से अपना स्वतन्त्रता-रूपी पति प्राप्त होता है तो उससे पता लगेगा कि अपने आपको प्रेमाग्नि में स्वाहा करने से मिलता है और कोई चतुराई नहीं चलती।

True freedom is the highest summit of altruism and altruism is the total extinction of self in the self of all.

(मेरे लिए स्वतन्त्रता परोपकार की भावना का चरम लक्ष्य है और परोपकार की भावना है-समष्टिगत 'स्व' में व्यक्तिगत 'स्व' का लय होना ।)

ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त करना हर एक आर्यकन्या का आदर्श है। सच्चे आर्य-पिता की पुत्री गुलामी, कमजोरी और कमीनेपन के लालचों से सदा मुक्त है । वह देवी तो यहाँ संसार-रूपी सिंह पर सवारी करती है। वह अपने प्रेम-सागर की लहरों में सदा लहराती है । कभी सूर्य की तरह तेजस्विनी और कभी चंद्रमा की तरह शान्तिप्रदायिनी होकर वह अपने पति की प्यारी है । वह उसके दिल की महारानी है । पति के तन, मन, धन और प्राण की मालिक है । सच्चे आर्य-गृहों में इस कन्या का राज है । हे राम ! यह राज सदा अटल रहे !

इसमें कुछ संदेह नहीं कि कन्या-दान आत्मिक भाव से तो वही अर्थ रखता है जिस अर्थ में सावित्री, सीता, दमयन्ती और शकुन्तला ने अपने आपको दान किया था; और इन नमूनों में कन्यादान का आदर्श पूर्ण रीति से प्रत्यक्ष है । प्रश्न यह है कि यह आदर्श सब लोगों के लिए किस तरह कल्याणकारी हो ?

लेखक का खयाल है कि आर्य-ऋषियों की बनाई हुई विवाह- पद्धति इस प्रश्न का एक सुन्दर उत्तर है। एक तरीका तो आन्तरिक अनुभव से इस आदर्श को प्राप्त करना है वह तो, जैसा ऊपर लिख आये हैं, किसी किसी के भाग्य में होता है। परन्तु पवित्रात्माओं के आदेश से हर एक मनुष्य के हृदय पर आध्यात्मिक असर होता है । यह असर हमारे ऋषियों ने बड़े ही उत्तम प्रकार से हर एक नर-नारी के हृदय पर उत्पन्न किया है। प्रेमभाव उत्पन्न करने ही के लिये उन्होंने यह विवाह-पद्धति निकाली है। इससे प्रिया और प्रियतम का चित्त स्वतः ही परस्पर के प्रेम में स्वाहा हो जाता है । विवाह काल में यथोचित रीतियों से न सिर्फ हवन की अग्नि ही जलाई जाती है किन्तु प्रेम की अग्नि की ज्वाला भी प्रज्वलित की जाती है जिसमें पहली आहुति हृदय कमल के अर्पण के रूप में दी जाती है । सच्चा कुलपुरोहित तो वह है जो कन्या-दान के मंत्र पढ़ने से पहले ही यह अनुभव कर लेता है कि आध्यात्मिक तौर से पति और पत्नी ने अपने आपको परस्पर दान कर दिया ।

आर्य-आदर्श के भग्नावशिष्ट अंश

भारतवर्ष में वैवाहिक आदर्श को इन जाति-पाँति के बखेड़ों ने अब तब कुछ टूटी फूटी दशा में बचा रखा है। कभी कभी इन बूढ़े, हठी और छू छू करनेवाले लोगो को लेखक दिल से आशीर्वाद दिया करता है कि इतने कष्ट झेलकर भी इन लोगों ने कुछ न कुछ तो पुराने आदशों के नमूने बचा रखे हैं । पत्थरों की तरह ही सही, खंडहरों के टुकड़ों की तरह ही सही, पर ये अमूल्य चिह्न इन लोगों ने रुई में बाँध बाँधकर, अपनो कुबड़ी कमर पर उठा, कुलियों की तरह इतना फासला तै करके यहाँ तक पहुंचा तो दिया । जहाँ इनके काम मूढ़ता से भरे हुए ज्ञात होते हैं, वहाँ इनकी मूर्खता की अमोलता भी साथ ही साथ भासित हो जाती है। जहाँ ये कुछ कुटिलतापूर्ण दिखाई देते हैं वहाँ इनकी कुटिलता का प्राकृतिक गुण भी नजर आ जाता है। कई एक चीजें, जो भारतवर्ष के रस्मोरवाज के खंडहरों में पड़ी हुई हैं, अत्यन्त गंभीर विचार के साथ देखने योग्य हैं। इस अजायबघर में से नये नये जीते जागते आदर्श सही सलामत निकल सकते हैं। मुझे ये खंडरात खूब भाते हैं । जब कभी अवकाश मिलता है मैं वहीं जाकर सोता हूँ। इन पत्थरो पर खुदी हुई मूर्तियों के दर्शन की अभिलाषा मुझे वहाँ ले जाती है। मुझे उन परम पराक्रमी प्राचीन ऋषियों की आवाजें इन खंडरात में से सुनाई देती हैं। ये सँदेसा पहुंचाने वाले दूर से आये हैं । प्रमुदित होकर कभी मैं इन पत्थरों को इधर टटोलता हूँ, कभी उधर रोलता हूँ। कभी हनुमान् की तरह इनको फोड़ फोड़ कर इनमें अपने राम ही को देखता हूँ। मुझे उन आवाजों के कारण सब कोई मीठे लगते हैं। मेरे तो यही शालग्राम हैं। मैं इनको स्नान कराता हूँ, इन पर फूल चढ़ाता हूँ और घण्टी बजाकर भोग लगाता हूँ । इनसे आशीर्वाद लेकर अपना हल चलाने जाता हूँ । इन पत्थरों में कई एक गुप्त भेद भी हैं । कभी कभी इनके प्राण हिलते प्रतीत होते हैं और कभी सुनसान समय में अपनी भाषा में ये बोल भी उठते हैं।

भारत में कन्या-दान की रीति

भाई की प्यारी, माता की राजदुलारी, पिता की गुणवती पुत्री, सखियों को अलबेली सखी के विवाह का समय समीप आया । विवाह के सुहाग के लिए बाजे बज रहे हैं । सगुन मनाए जा रहे हैं। शहर और पास-पड़ोस की कन्यायें मिलकर सुरीले और मीठे सुरों में रात के शब्दहीन समय को रमणीय बना रही हैं । सबके चेहरे फूल की तरह खिल रहे हैं । परन्तु ज्यों ज्यों विवाह के दिन नजदीक आते जाते हैं त्यों त्यों विवाह होनेवाली कन्या अपनी जान को हार रही है, स्वप्नों में डूब रही है । उसके मन की अवस्था अद्भुत है । न तो वह दुखी ही है और न रजोगुणी खुशी से ही भरी है। इस कन्या की अजीब अवस्था इस समय उसे अपने शरीर से उठाकर ले गई है और मालूम नहीं कहाँ छोड़ आई है । इतना जरूर निश्चित है कि उसके जीवन का केन्द्र बदल गया है । मन और बुद्धि से परे वह किसी देव-लोक में रहती है। विवाह-लग्न आ गई । स्त्रियाँ पास खड़ी गा रही हैं । अजीब सुहाना समय है । यथासमय पुरोहित कन्या के हाथ में कङ्कण बाँध देता है । इस वक्त कन्या का दर्शन करके दिल ऐसी चुटकियाँ भरता है कि हर मनुष्य प्रेम के अश्रुओं से अपनी आँखें भर लेता है जान पड़ता है कि यह कन्या उस समय निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त होकर अपने शरीर को अपने पिता और भाइयों के हाथ में आध्यात्मिक तौर से सौंप देती है। उसकी पवित्रता और उसके शरीर की वेदनावर्द्धक अनाथावस्था माता-पिता और भाई-बहन को चुपके चुपके प्रेमाश्रुओं से स्नान कराती है । कन्या न तो रोती है और न हँसती है, और न उसे अपने शरीर की सुध ही है । इस कन्या की यह अनाथावस्था उस श्रेणी की है जिस श्रेणी को प्राप्त हुए छोटे छोटे बालक नेपोलियन जैसे दिग्विजयी नरनाथों के कंधों पर सवार होते हैं या ब्रह्म-लीन महात्मा बालक-रूप होकर दिल की बस्ती में राज करते हैं । धन्य है, ऐ तू आर्य- कन्ये ! जिसने अपने क्षुद्र-जीवन को बिल्कुल ही कुछ न समझा। शरीर को तूने ब्रह्मार्पण अथवा अपने पिता या भाई के अर्पण कर दिया । इसका शरीर-त्याग लेखक को ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई महात्मा वेदान्त की सप्तमी भूमिका में जाकर अपना देहाध्यास त्याग देता है । मैं सच कहता हूँ कि इस कन्या की अवस्था संकल्प हीन होती है । चलती-फिरती भी वह कम है। उसके शरीर की गति ऐसी मालूम होती है कि वह अब गिरी, अब गिरी। हाँ, इसे सँभालनेवाले कोई और होते हैं। दो एक चन्द्रमुखी सहेलियाँ इसके शरीर की रखवाली करती हैं। सारे सम्बन्धी इसकी रक्षा में तत्पर रहते हैं । पतिंवरा आर्य-कन्या और पतिंवरा यूरप की कन्या में आजकल भी बहुत बड़ा फर्क है । विचारशील पुरुष कह सकते हैं कि आर्यकन्या के दिल में विवाह के शारीरिक सुखों का उन दिनों लेशमात्र भी ध्यान नहीं आता है । सुशीला आर्यकन्या दिव्य नभो-मंडल में घूमती है। विवाह से एक दो दिन पहले हाथों और पाँवों में मेहंदी लगाने का समय आता है । (पंजाब में मेहँदी लगाते हैं; कहीं कहीं महावर लगाने का रिवाज है।) कन्या के कमरे में दो एक छोटे छोटे बिनौले के दीपक जल रहे हैं । एक जल का घड़ा रक्खा है । कुशासन पर अपनी सहेलियों सहित कन्या बैठी है । सम्बन्धी जन चमचमाते हुए थालों में मेहँदी लिए आ रहे हैं । कुछ देर में प्यारे भाई की बारी आई कि वह अपनी भगिनी के हाथों में मेहँदी लगाये। जिस तरह समाधिस्थ योगी के हाथों पर कोई चाहे जो कुछ करे उसे खबर नहीं होती, उसी तरह इस भोली भाली कन्या के दो छोटे छोटे हाथ इसके भाई के हाथ पर हैं; पर उसे कुछ खबर नहीं । वह नीर भरा वीर अपनी बहन के हाथों में मेहँदी लगा रहा है। उसे इस तरह मेहँदी लगाते समय कन्या के उस अलौकिक त्याग को देख कर मेरी आँखों में जल भर आया और मैंने रो दिया । ऐ मेरी बहन ! जिस त्याग को ढूँढते ढूँढते सैकड़ों पुरुषों ने जाने हार दीं और त्याग न कर सके; जिसकी तलाश में बड़े बड़े बलवान निकले और हार कर बैठ गये; क्या आज तूने उस अद्भुत त्यागादर्श रूपी वस्तु को सचमुच ही पा लिया; शरीर को छोड़ बैठी; और हमसे जुदा होकर देवलोक में रहने लग गई । आ, मैं तेरे हाथों पर मेहँदी का रंग देता हूँ । तूने अपने प्राणों की आहुति दे दी है; मैं उस आहुति से प्रज्वलित हवन की अग्नि के रंग का चिह्न मात्र तेरे हाथों और पाँवों पर प्रकाशित करता हूँ। तेरे वैराग्य और त्याग के यज्ञ को इस मेहँदी के रंग में आज मैं संसार के सामने लाता हूँ । मैं देखूँगा कि इस तेरे मेहँदी के रंग के सामने कितना भी गहरा गेरू का रंग मात होता है या नहीं । तू तो अपने आपको छोड़ बैठी। यह मेहँदी का रंग अब हम लगाकर तेरे त्याग को प्रकट करते हैं। तेरे प्राण-हीन हाथ मेरे हाथों पर पड़े क्या कह रहे हैं। तू तो चली गई, पर तेरे हाथ कह रहे हैं कि मेरी बहन ने अपने आपको अपने प्यारे और लाड़ले वीर के हाथ में दे दिया। वीर रोता है। तेरे त्याग के माहाम्त्य ने सबको रुला-रुलाकर घरवालों को एक नया जीवन दिया है। सारे घर में पवित्रता छा गई है । शान्ति, आनन्द और मंगल हो रहा है। एक कंगाल गृहस्थ का घर इस समय भरा पूरा मालूम होता है । भूखों को अन्न मिलता है । सम्बन्धी मेहमानों को भोजन देने का सामर्थ्य इस घर में भी तेरे त्याग के बल से आ गया है। सचमुच कामधेनु आकाश से उतरकर ऐसे घर में निवास करती है । पिता अपनी पुत्री को देख कर चुपके चुपके रोता है । पुत्री के महात्याग का असर हर एक के दिल पर ऐसा छा जाता है कि आजकल भी हमारे टूटे फूटे गृहस्थाश्रम के खंडरात में कन्या के विवाह के दिन दर्दनाक होते हैं। नयनो की गंगा घर में बहती है । माता-पिता और भाई को दैवी आदेश होता है कि अब कन्यादान का दिन समीप है । अपने दिल को इस गंगाजल से शुद्ध कर लो । यज्ञ होनेवाला है । ऐसा न हो कि तुम्हारे मन के सङ्कल्प साधारण क्षुद्र जीवन के सङ्कल्पों से मिलकर मलिन हो जायें। ऐसा ही होता है । पुत्री-वियोग का दुःख, विवाह का मङ्गलाचार और नयनों की गंगा का स्नान इनके मन को एकाग्र कर देता है । माता, पिता भाई, बहन और सखियाँ भी पतिवरा कन्या के पीछे आत्मिक और ईश्वरी नभ में बिना डोर पतङ्गों की तरह उड़ने लगते हैं । आर्य-कन्या का विवाह हिन्दू-जीवन में एक अद्भुत आध्यात्मिक प्रभाव पैदा करनेवाला समय होता है, जिसे गहरी आँख से देखकर हमें सिर झुकाना चाहिए ।

विवाह के बाहरी शोरोगुल में शामिल होना हमारा काम नहीं । इन पवित्रात्माओं की उच्च अवस्था का अनुभव करके उनको अपने आदर्श-पालन में सहायता देना है ! धन्य हैं वे सम्बन्धी जो उन दिनों अपने शरीरों को ब्रह्मार्पण कर देते हैं । धन्य हैं वे मित्र जो रजोगुणी हँसी को त्यागकर उस काल की महत्ता का अनुभव करके, अपने दिल को नहला धुलाकर, उस एक आर्यपुत्री की पवित्रता के चिंतन में खो देते हैं। सब मिल-जुल कर आओ, कन्या-दान का समय अब समीप है । केवल वही सम्बन्धी और वही सखियाँ जो इस आर्य-पुत्री में तन्मय हो रही हैं उस वेदी के अन्दर आ सकती हैं । जिन्होंने कन्यादान के आदर्श के माहात्म्य को जाना है वही यहाँ उपस्थित हो सकते हैं । ऐसे ही पवित्र भावों से भरे हुए महात्मा विवाहमण्डप में जमा हैं। अग्नि प्रज्वलित है । हवन की सामग्री से सत्त्वगुणी सुगंध निकल-निकल कर सबको शान्त और एकाग्र कर रही है । तारागण चमक रहे हैं । ध्रुव और सप्तर्षि पास ही आ खड़े हुए हैं। चन्द्रमा उपस्थित हुआ है । देवी और देवता इस देवलोक में विहार करनेवाली आर्य-पुत्री का विवाह देखने और उसे सौभाग्यशीला होने का आशीर्वाद देने आये हैं। समय पवित्र है। हृदय पवित्र है। वायु पवित्र है और देवी देवताओं की उपस्थिति ने सबको एकाग्र कर दिया है । अब कन्यादान का वक्त है। स्त्रियों ने कन्यादान के माहात्म्य के गीत अलापने शुरू किये हैं। सबके रोम खड़े हो रहे हैं। गले रुक रहे हैं । आँसू चल रहे हैं-

"बिछुड़ती दुलहन वतन से है जब खड़े हैं रोम और गला रुके हैं;

कि फिर न आने की है कोई ढब खड़े हैं रोम और गला रुके हैं;

यह दीनो-दुनिया तुम्हें मुबारक हमारा दूल्हा हमें सलामत;

पै याद रखना यह आखिरी छवि खड़े हैं रोम और गला रुके हैं।"

(स्वामी राम)

अब प्यारा वीर देव-लोक में रमती देवी के समान अपनी समाधिस्थ बहन के शरीर को अपने हाथों में उठाये इस देवी के भाग्यवान् पति के साथ प्रज्वलित अग्नि के इर्द-गिर्द फेरे देता है। इस सोहने नौजवान का दिल भी अजीब भावों से भर गया है। शरीर उसका भी उसके मन से गिर रहा है। उसे एक पवित्रात्मा कन्या का दिल, जान, प्राण सबका सब अभी दान मिलता है। समय की अजीब पवित्रता, माता-पिता, भाई, बहन और सखियों के दिलों की आशायें, सत्वगुणी संकल्पों का समूह, आये हुए देवी-देवताओं के आशीर्वाद, अग्नि और मेहँदी के रंग की लाली, कन्या की निरवलम्बता, अनाथता, त्याग, वैराग्य और दिव्य अवस्था आदि ये सबके सब इस नौजवान के दिल पर ऐसा आध्यात्मिक असर करते हैं कि सदा के लिए अपने आपको वह इस देवी के चरणों में अर्पण कर देता है। हमारे देश के इस पारस्परिक अर्पण का दिव्य समय (Divine time of mutual self-surrender = परस्पर आत्म समर्पण का दैवी काल) कुल दुनिया के ऐसे समय से अधिक हृदयंगम होता है । कन्या की समाधि अभी नहीं खुली । परन्तु ऐसी योग-निद्रा में सोई हुई पत्नी के ऊपर यह आर्य नौजवान न्यौछावर हो चुका । इसके लिए तो पहली बार ही प्रेम की बिजली इस तरह गिरी कि उसको खबर तक भी न हुई कि उसका दिल उसके पहलू में प्रेमाग्नि से कब तड़पा कब उछला, कब कूदा और कब हवन हो गया । अब भाई अपनी बहन को अपने दिल से उसके पति के हवाले कर चुका । पिता और माता ने अपने नयनों से गंगा-जल लेकर अपने अंगों को धोया और अपनी मेहँदी रँगी पुत्री को उसके पति के हवाले कर दिया। ज्योंही उस कन्या का हाथ अपने पति के हाथ पर पड़ा त्योंही उस देवी की समाधि खुली । देवी और देवताओं ने भी पति और पत्नी के सिर पर हाथ रखकर अटल सुहाग का आशीर्वाद दिया। देवलोक में खुशी हुई। मातृलोक का यज्ञ पूरा हुआ । चन्द्रमा और तारागण, ध्रुव और सप्तर्षि इसके गवाह हुए । मानो ब्रह्मा ने स्वयं आकर इस संयोग को जोड़ा । फिर क्यों न पति और पत्नी परस्पर प्रेम में लीन हों ? कुल जगत् टूट फूटकर प्रलयलीन सा हो गया; इस पत्नी के लिए केवल पति ही रह गया । और, इसी तरह, कुल जगत् टूटफूट प्रलय-लीन हो गया। इस पति के लिए केवल पत्नी ही रह गई । क्या रँगीला जोड़ा है जो कुल जगत् को प्रलय-गर्भ में लीन कर अनन्ताकाश में प्रेम की बाँसुरी बजाते हुए बिचर रहा है। प्यारे ! हमारे यहाँ तो यही राधा-कृष्ण घर घर बिचरते हैं :-

“The reduction of the whole universe to a single being and the expansion of that single being even to God is love."

-Victor Hugo

(समस्त सृष्टि का एक भूत में परिणत हो जाना तथा उस एक भूत का देवत्व में विकास पाना ही प्रेम है। विक्टर ह्यूगो)

सीता ने बारह वर्ष का वनवास कबूल किया; महलों में रहना न कबूल किया । दमयन्ती जंगल जंगल नल के लिये रोती फिरी । सावित्री ने प्रेम के बल से यम को जीतकर अपने पति को वापस लिया। गांधारी ने सारी उम्र अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर बिता दी। ब्राह्म-समाज के महात्मा भाई प्रतापचन्द्र मजूमदार अपने अमरीका के “लौवल लेकचर” में कन्यादान के असर को, जो उनके दिल पर हुआ था, अमरीका-निवासियों के सम्मुख इस तरह प्रकट करते हैं :- "यदि कुल संसार की स्त्रियाँ एक तरफ खड़ी हों और मेरी अपढ़ प्रियतमा पत्नी दूसरी तरफ खड़ी हो तो मैं अपनी पत्नी ही की तरफ दौड़ जाऊँगा ।"

ऋषि लोग सँदेसा भेजते हैं कि इस आदर्श का पूर्ण अनुभव से पालन करने में कुल जगत् का कल्याण होगा । हे भारतवासियो ! इस यज्ञ के माहात्म्य का आध्यात्मिक पवित्रता से अनुभव करो । इस यज्ञ में देवी और देवताओं को निमंत्रित करने की शक्ति प्राप्त करो । विवाह को मखौल न जानो । यज्ञ का खेल न करो । झूठी खुदगर्जी की खातिर इस आदर्श को मटियामेट न करो । कुल जगत के कल्याण को सोचो ।

वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   ...