Skip to main content

कहानीकारों की दुनिया में गाँव


प्रो. ऋषभदेव शर्मा 


ग्रामवासिनी भारतमाता के चित्र हिंदी कहानी ने आरंभ से रुचिपूर्ण उकेरे हैं। कहानीकारों ने यह भी लक्षित किया है कि हमारी ग्राम संस्कृति में परिवर्तन तो युगानुरूप हुआ ही है, प्रदूषण भी प्रविष्ट हो गया है। उन्होंने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व के साथ ही हाशियाकृत समुदायों के उठ खड़े होने को भी अपनी कहानियों में समुचित अभिव्यक्ति प्रदान की है और उनके संघर्ष को धार भी दी है। इसमें संदेह नहीं कि विभिन्न कहानीकारों ने ग्रामीण जन-जीवन के स्वाभाविक दृश्यों को अपनी-अपनी भाषा-शैली के माध्यम से प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है तथा ग्रामीणों पर होने वाले अत्याचार व अन्याय तथा उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया, संघर्ष और प्रतिरोध को स्वर दिया है। 
प्रेमचंद ने ग्राम्य जन-जीवन संबंधी अनेक कहानियाँ लिखीं, जिनमें ग्रामीण यथार्थ संबंधी विभिन्न विषयों का उल्लेख उपलब्ध है। सवा सेर गेहूँ, सती, सद्गति आदि ग्रामीण जीवन की कथाओं में उन्होंने ग्राम जीवन तथा वहाँ के रहन-सहन व शोषण आदि स्थितियों को स्पष्ट किया है। 'सवा सेर गेहूँ' कहानी में शंकर जैसा सीधा-सादा किसान विप्र के ऋण को खलिहानी के रूप में दे देने पर भी उऋण नहीं हो पाता तथा आजीवन विप्र महाराज की गुलामी कर अंततः अपने प्राण त्याग देता है और अपने ऋण का भार विरासत के तौर पर अपने पुत्र पर लाद जाता है। 'सती' कहानी की मुलिया, अपने कुरूप पति कल्लू से बहुत प्रेम करती है। कल्लू को अपने चचेरे भाई राजा और अपनी पत्नी पर संदेह होता है, परंतु मुलिया बीमारी में उसकी सेवा कर इस संदेह को निर्मूल कर देती है। कल्लू की मृत्यु के पश्चात जब राजा मुलिया से अपने प्रेम के बारे में कहता है तब वह कल्लू के प्रति अपने अमिट प्रेम को उद्घाटित करती है। 'सद्गति' कहानी का दुखी चमार अपनी बेटी की सगाई करवाने के लिए पंडित घासीराम को लेने जाता है और पंडित के कहने पर भूखे पेट, पंडित के घर के सारे काम करते-करते अपने प्राण त्याग देता है। जब लाश को ले जाने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता तब पंडित स्वयं दुखी की लाश को खेत में फेंक देता है, जो गीदड़ और गिद्ध का भोजन बन जाती है। ये कहानियाँ पारंपरिक संहिताओं में आबद्ध ग्रामीण किसानों, स्त्रियों और दलितों की भीषण दुर्दशा और शोषण को तो दर्शाती ही हैं। साथ ही ग्रामीण मानस की निश्छलता, कर्तव्यनिष्ठा, तेजस्विता और जिजीविषा के भी दर्शन कराती हैं। 
जयशंकर प्रसाद की कहानियों ग्राम, दुखिया, मधुआ तथा घीसू में गाँव का एक और चेहरा उभरता है। 'ग्राम' में महाजन से लिए गए ऋण को समयानुसार वापस करने पर भी महाजन के उस ऋण को आठ दिन बाद लेने और आठ दिनों में उस व्यक्ति से ऋण के स्थान पर उसकी जमीन ले लेने के शड्यंत्र का चित्रण किया गया है। 'दुखिया' में गाँव में गरीब व्यक्तियों पर होने वाले अत्याचारों को दर्शाया गया है। जमींदार के घोड़ों को घास देने वाली दुखिया को घायल जमींदार कुमार मोहनसिंह की रक्षा करते हुए एक दिन घास ले जाने में देरी हो जाती है, तो पशुशाला का निरीक्षक नजीब खाँ उसकी बातों पर विश्वास न कर, उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। जयशंकर प्रसाद ने जमींदार के दुर्व्यवहार को 'मधुआ' में भी दर्शाया है। दिन-भर ठाकुर साहब की नौकरी करने पर भी मधुआ को खाना नहीं मिलता, जबकि शराबी झूठी कहानियाँ सुनाकर जमींदार से रुपया ऐंठता रहता है। अंततः शराबी के साथ मधुआ सान देने लगता है और ठाकुर साहब की नौकरी छोड़ देता है। घीसू' कहानी का पात्र घीसू, विधवा बिंदो की आराधना किया करता था. किंतु जब उसे बिंदो के कुचरित्र के बारे में पता चलता है तब वह मन ही मन दुखी होता है तथा यही दुख उसकी मौत का कारण बन जाता है। इन सभी कहानियों में निरंतर गरीबी और शोषण से विकृत होते जा रहे भारतीय गाँव का अंकन है लेकिन निर्धन ग्रामीणों की भलमनसाहत को भी लेखक ने पूरी सहानुभूति के साथ उकेरा है। 
हिंदी ग्राम कथा को प्रेमचंद के गाँव से आगे ले जाने वालों में अग्रणी शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'दादी माँ' से हिंदी कहानी में एक नए युग का सूत्रपात हुआ. इसके अलावा उनकी प्रतिनिधि ग्राम कहानियों में नन्हों, पापजीवी, शाखामृग, कर्ज, ताड़ीघाट का पुल, बीच की दीवार, एक यात्रा सतह के नीचे, अंधकूप, अंधेरा हंसता है, मुरदासराय, आरपार की माला, आँखें, धरातल और कर्मनाशा की हार जैसी रचनाओं का शुमार है। इन सबमें लेखक ने भारतीय गाँव का प्रामाणिक चित्र ही नहीं प्रस्तुत किया, बल्कि आजादी के बाद के नए गाँव की धड़कनों को भी सुनने-सुनाने में सफलता पाई है।            
कहानीकार मार्कंडेय की कहानी 'शव साधना' में साधुओं के कुकर्म को अभिव्यक्त किया गया है। इस कहानी का साधु कुछ दलालों के माध्यम से अपनी योग्यता का प्रचार कराता है, विश्वास प्राप्ति के बाद स्त्रियों से अवैध एवं अनैतिक संबंध स्थापित करता है और धर्म के नाम पर चंदा जमा करता है तथा एक दिन आसन्न प्रसवा स्त्री और चंदे के धन को लेकर भाग जाता है। गाँव में जमींदार द्वारा निम्न वर्ग पर लिए जाने वाले अत्याचार को मार्कंडेय ने 'भूदान' में दर्शाया है। ठाकुर चमरौटी के रामजतन को भूदान समिति से पाँच बीघा जमीन का आश्वासन दिलाकर, उसकी एक बीघा जमीन भूदान यज्ञ में दान करवा देता है। बाद में पता चलता है कि रामजतन को जो पाँच बीघा जमीन कागजी तौर पर मिली, उसका तो अस्तित्व ही गोमती नदी में डूबा हुआ है। अपनी स्वाभाविक सिधाई के कारण ग्रामीण स्त्रियाँ और पिछड़ी जनता धर्म और समाज के ठेकेदारों द्वारा आज भी इसी प्रकार छली जा रही है। 
फणीश्वरनाथ रेणु की सुपरिचित कहानी 'तीसरी कसम' में नायिका हीराबाई, हीरामन नामक व्यक्ति की गाडी में बैठकर मेले जाती है। ग्रामीण परिवेश से गुजरते हुए हीराबाई और हीरामन पारस्परिक वार्तालाप से, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति से, मानसिक दृष्टि से एक-दूसरे के निकट आ जाते हैं और कल्पनाओं द्वारा प्रेम की भावी दुनिया बना लेते हैं किंतु अंत में उनका प्रेम अधूरा रह जाता है। यह कहानी ग्राम जीवन, ग्रामीण जन की निश्छल मानसिकता, लोक संस्कृति और रूढ़िग्रस्त समाज में स्त्री की वेदना को बेबाक अभिव्यक्ति प्रदान करने की दृष्टि से अप्रतिम है। 
रामदरश मिश्र की कहानी घर' गाँवों में पारिवारिक संबंधों के विघटन और बदलाव को उभारती है। इसमें वृद्धावस्था विमर्श भी द्रष्टव्य है। कहानी यह प्रश्न उठाती है कि आखिर क्यों कमाऊ न रहने पर वृद्धजन आजकल के जवानों के लिए असह्य हो जाते हैं। आजीवन पूरे परिवार का भार ढोने वाले बलराम का अपने ही घर में अपमानित और उपेक्षित होना गाँव-घर के अमानुषिक होते जाने का सूचक है। इसके माध्यम से लेखक ने बूढ़ों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था की आवश्यकता जताई है।   
शैलेश मटियानी की कहानी 'प्रेत-मुक्ति' उच्च जाति के मिथ्याडंबरों व पिछड़ी जाति के अज्ञान को अभिव्यक्त करती है। उच्च जाति के लोग शास्त्रोक्त पद्धति से इस लोक से मुक्ति पा लेते हैं, प्रेत योनि में नहीं जाते. परंतु पिछड़ी जाति के किसनलाल को इस बात का भय रहता है कि मरने के बाद यदि उसका प्रेत उसकी जवान पत्नी भुवानी को लग जाएगा, तो उसके लड़के उसे चिमटों से दाग देंगे. इसी भय व वेदना से उसका हृदय उत्पीडित रहता है। किसनलाल की तरह ही ग्रामीण समाज में अनेक लोग अंधविश्वासों से ग्रसित रहते हैं। दूसरी ओर शैलेश मटियानी की ही कहानी 'परिवर्तन' में गाँवों में उत्पन्न हो रही चेतना को देखा जा सकता है। पिछड़ी जाति के लोग परिश्रम करके भी भूख और अपमान सहते हैं, जबकि सवर्ण श्रम को खरीदकर सम्मानित और संपन्न बन जाते हैं। इस बात को पिछड़ी जाति का देवराम भलीभाँति जानता है। थोकदार कल्याणसिंह के यहाँ देवराम के पूर्वज चाकरी करते आ रहे हैं। देवराम अपनी जाति के लोगों को इस चाकरी प्रथा से मुक्त देखना चाहता है जिसके लिए उसे तब अवसर मिलता है जब उसे पिछड़ी जाति के पंच के रूप में चुन लिया जाता है। थोकदार कल्याण सिंह और गाँव की विधवा ठकुराइन के बीच जमीन संबंधी झगड़ा होता है, जिसका फैसला पंचायत को सौंप दिया जाता है। देवराम पर अपने पक्ष में निर्णय देने के लिए ठाकुर कल्याण सिंह दबाव डालता है, जिसे वह ठुकरा देता है। शिक्षा, संगठन और सत्ता के कारण दलितों और पिछड़ों में बढ़ती प्रतिरोध क्षमता को यह कहानी भली प्रकार सामने लाती है और गाँवों में घटित सामाजिक परिवर्तन की अगुवाई करती है। 
मेहरुन्निसा परवेज की कहानी 'अकेला गुलमोहर' में बड़ा भाई, अपने छोटे भाई को अलग कर देता है क्योंकि उसकी आय कम है तथा वह अपनी बहन का विवाह नहीं करना चाहता क्योंकि वह नौकरी करती है और उसकी आय से घर के खर्च में आर्थिक सहायता मिलती है। इसी प्रकार 'उसका घर' में कोढ़ग्रस्त पिता के अपने पुत्रों पर आश्रित होने के कारण उसकी पत्नी, बेटे-बहुएँ, पुत्री सभी उसके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं। दरअसल यह हमारे गाँवों का वह बदलता हुआ चेहरा है जो क्रूर और अमानुषिक यथार्थ से विकृत है। इसी के साथ, यौन संबंधों से जुड़ी परंपरागत नैतिकता का टूटना भी शहर ही नहीं गाँवों का भी यथार्थ है। उदाहरण के लिए राजेंद्र अवस्थी ने एक प्यास पहेली' में आदिवासी समुदाय के चालीस वर्षीय अधेड़ पति पुन्ना के प्रति नवयुवती चंदिया का सेवाभाव और जवान सौतेले पुत्र के प्रति यौन आकर्षण एक साथ दिखाया है। 
वर्ग भेद और वर्ण भेद भारतीय सामाजिक संरचना के दोहरे अभिशाप की तरह हैं। तमाम प्रगति और विकास के बावजूद राजनीति की प्रतिगामी शक्तियों के प्रभाववश समाज में घृणा और परस्पर असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। ऐसे में भी लेखक क्रांति के सपने देखने से बाज नहीं आते। मधुकर सिंह की कहानी 'कवि भुनेसर मास्टर' गाँवों में क्रांति चेतना के स्वप्न की अभिव्यक्ति करने वाली कहानी है। भुनेसर हरिजनों का समर्थन करता है। वह सामंतों, जमींदारों और पुलिस के खिलाफ एक विशाल जुलूस हरिजनों के नेतृत्व में निकालता है, शोषकों के विरुद्ध आवाज उठाता है, इश्तहार लगवाता है तथा अंततः देवन चमार की लड़की को छिपाने वाले और जंगी की लड़की को मरवाने वाले जालिम भूपति को चोट पहुँचाकर, उसके पास रखे गरीबों के हैंड नोटों को फाड़ देता है। इस प्रकार की कहानियाँ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और क्रुद्ध युवा नायकों वाली फिल्मों की याद तो अवश्य दिलाती हैं लेकिन हिंसा और घृणा की राजनीति का पर्दाफाश नहीं करतीं।
हिमांशु जोशी की कहानी 'मनुष्य चिह्न' में दिखाया गया है कि गाँव की मासूम और अपढ़ जनता किस प्रकार के जुल्म ढोती है। भोली-भाली बाल विधवा गोविंदी के साथ इस कहानी में पंच, सरपंच, पटवारी, पेशकार आदि द्वारा बलात्कार करना और अपने प्राप्त अधिकारों से गाँव वालों पर जुल्म करना यह सूचित करता है कि गाँव नरक बन चुका है। 
गाँव के कथाकार के रूप में काशीनाथ सिंह का नाम भी उल्लेखनीय है। उनके पास नितांत निजी, टटकी और धारदार भाषा है। वे उत्तरआधुनिक हमलों के बीच गाँव के सहज आदमी और उसके देसी मन को बचाना चाहते हैं। अपनी प्रसिद्ध कहानी 'कविता की नई तारीख' में इसीलिए वे अपने को जिंदा बचा लेते हैं। 
हिंदी कहानी की इस ग्रामगाथा का उपसंहार करते हुए डाॅ. नामवर सिंह के इस पुराने कथन को दुहराया जा सकता है जो आज भी प्रासंगिक है कि 'वर्तमान वास्तविक़्ता में मेहनत करने वाले लोगों का उभरना और दूसरों की मेहनत पर जीने वालों का दबना ऐतिहासिक तथ्य है। स्वाभाविक है कि जीवन में शक्ति और सौंदर्य का आधार इस नई शक्ति के जीवन में दिखाई पड़े और नई शक्ति की समस्याओं की ओर जागरूक कहानीकारों का ध्यान जाय. जहाँ कुछ कहानीकारों ने अपनी मध्यवर्गीय वास्तविक़्ताओं में इसमें संभवतः कोई रस न पाकर नवजीवन के प्रतीक गाँवों की ओर दृष्टि दौड़ाई. इसे अपनी वास्तिवक़्ता से पलायन नहीं कहा जा सकता. अपने वातावरण से लड़ने के लिए पहले भी मध्यवर्ग ने व्यापक जन-शक्ति का सहारा लिया है। इसलिए इन नए कहानीकारों की यह निर्वैयक्तिकता सराहनीय है। संभवतः शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में जीवन और सौंदर्य को न पाकर ही महत्वाकांक्षी कहानीकारों ने गाँवों की राह ली. जो जीवन स्वयं ही निरर्थक प्रतीत हो रहा हो उसमें सार्थकता की खोज कहाँ तक की जा सकती है? मध्यवर्गीय जीवन को लेकर लिखी हुई आज की शायद ही कोई वास्तविक कहानी ऐसी हो, जिसमें जीवन का स्वस्थ सौंदर्य और मानव की ऊर्जस्वल शक्ति मिले. इसके विपरीत गाँव के जीवन को लेकर लिखी हुई कुछ कम वास्तविक कहानी में भी ऐसे वातावरण तथा ऐसे चरित्रों के दर्शन हो सकते हैं। रांगेय राघव की 'गदल', मार्कंडेय के 'गलरा का बाबा', हंसा जाई अकेला 'हंसा', शिवप्रसाद सिंह की 'कर्मनाशा का हार' वाले 'मैरो पांडे' जैसे सशक्त व्यक्ति केवल चरित्र ही नहीं है बल्कि आज की ऐतिहासिक शक्ति के प्रतीक हैं। (नामवर सिंह, कहानी: नई कहानी, पृ. 29)


Comments

Popular posts from this blog

अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति

अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

मणिपुरी कविता: कवयित्रियों की भूमिका

प्रो. देवराज  आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए ज

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष