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नजीबाबाद और नवाब नजीबुद्दौला

अमन कुमार त्यागी




मुरादाबाद-सहारनपुर रेल मार्ग पर एक रेलवे जंकशन है - नजीबाबाद। जब भी आप इस रेलमार्ग पर यात्रा कर रहे हों तब नजीबाबाद के पूर्व में लगभग तीन किलोमीटर और रेलवे लाइन के उत्तर में लगभग 200 मीटर दूरी पर एक विशाल किला देख सकते हैं। सुल्ताना डाकू के नाम से मशहूर यह किला रहस्य-रोमांच की जीति जागती मिसाल है। अगर आपने यह किला देखा नहीं है, तो सदा के लिए यह रहस्य आपके मन में बना रहेगा कि एक डाकू ने इतना बड़ा किला कैसे बनवाया ? और यदि आपसे कहा जाए कि यह किला किसी डाकू ने नही, बल्कि एक नवाब ने बनवाया था। तब भी आप विश्वास नहीं करेंगे, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति आपको बताएगा कि इस किले में कभी सुल्ताना नामक डाकू रहा करता था। बात सच भी है। भाँतू जाति का यह डाकू काफी समय तक इस किले में रहा। तब बिजनौर, मुरादाबाद जनपद का हिस्सा होता था और यहां यंग साहब नाम के एक पुलिस कप्तान तैनात थे, जिन्होंने सुल्ताना डाकू को काँठ के समीपवर्ती रामगंगा खादर क्षेत्र से गिरफ्तार कर इस किले में बसाने का प्रयास किया था। उन दिनों देश में आजादी के लिए देशवासी लालायित थे। जगह-जगह अंगे्रजों से लड़ाइयां चल रही थीं। बिजनौर में भी अंग्रेजों की ताक़त कमज़ोर पड़ती जा रही थी।  

नजीबाबाद और पत्थरगढ़ किले का निर्माण

    इतिहास विशेषज्ञ इस किले के महत्व को जानते हैं। पत्थर गढ़ के नाम से मशहूर यह किला सन् 1754 में बनकर तैयार हुआ और अपने निर्माण काल से ही इस किले ने दिल्ली सल्तनत में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी। एक समय तो ऐसा भी आया कि जब दिल्ली के महत्वपूर्ण फैसले इस किले में लिए जाने लगे। कौन था इस किले का निर्माता और कौन था वह, जिसने दिल्ली सल्तनत पर एक तरह से कब्जा ही जमा लिया था ? आप जानने का प्रयास करेंगे, तब आपको पता चलेगा कि जिसके नाम पर नजीबाबाद नगर आबाद है, वही इस किले का निर्माता भी है। भारत के मुख्य तीर्थों में से एक हरिद्वाार से मात्र 50 किलोमीटर पूर्व, उत्तराखण्ड के प्रवेश द्वार अर्थात कोटद्वार से 24 किलोमीटर दक्षिण में स्थित यह नगर सन् 1754 में रूहेला नवाब नजीबुद्दौला ने बसाया था। वर्तमान में इस नगर की आबादी लगभग डेढ़ लाख से ऊपर है और यह नगर साम्प्रदायिक सद्भाव का बेहतरीन उदाहरण माना जाता है। यदि नजीबाबाद और इसके इतिहास को जानना है तो नवाब नजीबुद्दौला के इतिहास को जानना ही होगा ।

नजीबुद्दौला एक परिचय

नवाब नजीबुद्दौला को भारतीय इतिहास नजीब खान के नाम से भी जानता है। नजीब खान के पिता मलिक असालत खान युसुफ़ जई जाति के रूहेले सरदार थे। प्रसिद्ध इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार ने इस जाति के सम्बंध में लिखा है कि भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अनेक ऐसी जातियों का निवास था, जो कहीं स्थिर रूप से बसकर नहीं रहती थीं, अपितु लूट-मार द्वारा अपना निर्वाह किया करती थीं। इनमें युसुफ़ जई और अफरीदी जातियाँ मुख्य थीं। ये जातियाँ भारत से काबुल जाने वाले काफिलों को लूट लेतीं और मुगल सेना इनसे सदा परेशान रहा करती। अकबर, जहांगीर और शाहजहां ने इन्हें काबू में लाने के लिए प्रयत्न किये, पर वे उन्हें पूर्णतया कभी अपने अधीन नहीं कर सके। औरंगज़ेब के शासन काल में इन जातियों  के उपद्रव ने सन् 1670 में बहुत गम्भीर रूप धारण कर लिया था। जब लड़ाई द्वारा मुगल बादशाह इन जातियों को काबू करने में सफ़ल नहीं हुए, तब उन्होंने घूस देने की नीति का प्रयोग किया। जिसमें मुगल बादशाह सफ़ल भी हुए। आर्थिक मदद पा जाने के बाद यह जातियाँ कारोबार और नौकरी की तलाश में इधर-उधर बस गयीं। 

‘सरगुज़श्त नवाब नजीबुद्दौला’ और ‘तारीख़-ए-खुर्शीद जहां’ पुस्तकों का अध्ययन करने से पता चलता है कि युसुफ़ जई जाति का एक सरदार ‘उमर खान, जिसे उमर खैल के नाम से भी जाना जाता था, वह मानेरी में बस गया। मानेरी अब पाकिस्तान में है। उमर खान युसुफ़ जई के दो निकाह हुए थे। पहला मही (महर खैल) के साथ और दूसरा बेसु के साथ। जिनमें मही से मीर इस्माइल खान का जन्म हुआ। मीर इस्माइल का बेटा हुआ जहांगीर खान और जहांगीर खान के नजीर खान। नजीर खान के सय्यद खान और सय्यद खान के मलिक इनायत खान। मलिक इनायत खान के तीन पुत्र थे, फ़ाज़िल खान, इसालत खान और बिशारत खान। यही बिशारत खान सन् 1708 में जन्मे अपने भतीजे से काफी मोहब्बत रखता था। जब भतीजा बारह वर्ष का हुआ, तब सन् 1720 में बिशारत खान घोड़ों का व्यापार करता हुआ हिन्दुस्तान आकर रामपुर-बरेली के पास सिरसा में बस गया था। इस क्षेत्र में रूहेले अपना वर्चस्व बढ़ाते जा रहे थे। डा0 परमात्मा शरण लिखते हैं, कि औरंगज़ेब के समय में कंधार के एक अफ़गान सिपाही दाऊद ने बरेली जिले में एक छोटी सी जागीर स्थापित कर ली थी। उसके अपने कोई सन्तान न थी। बाद में उसके दत्तक पुत्र अली मुहम्मद खां ने, जो एक जाट वंश से था, बरेली जिले के आंवला नगर को अपना केन्द्र बनाकर और मुहम्मद शाह के समय की अराजकता से लाभ उठाकर अपनी जागीर को बहुत विस्तृत कर लिया था। बिशारत खान की सेवाओं से खुश होकर अली मुहम्मद खां ने उसे बिलासपुर (जो अब रामपुर जिले की तहसील है) में नियुक्त कर दिया। बाद में बिशारत खान ने वहीं पास ही में अपने नाम पर एक नगर बसाया। जिसका नाम आज भी बिशारत नगर है। यही वह घटना है, जिसने नजीब खान के दिल में रोमांच पैदा कर दिया था। वह हिन्दुस्तान आने के लिए मचल उठा। 

नजीब खान का संघर्ष

सन् 1740 में जब नजीब खान बत्तीस वर्ष का हुआ तब वह कुछ घोड़ों और कुछ साथियों के साथ अपने चाचा के पास बिशारत नगर पहुँचा। यकायक भतीजे को अपने पास देखकर बिशारत खान खुश हो गया। अब चाचा-भतीजे ने आगे की योजना बनाई और यह तय किया कि अब नजीब खान वहीं रहेगा तथा नौकरी कर आगे के रास्ते तलाश करेगा। बिशारत खान ने अपने जांबाज भतीजे नजीब खान को अली मुहम्मद खान के यहां नौकरी दिला दी। नजीब खान की महत्वाकांक्षा और वफ़ादारी ने उसे तरक्की भी दिलायी। बिसौली का नवाब दूंदे खान नजीब खान से बहुत प्रभावित था। उसने अपनी बेटी वर बेगम ;कुछ विद्वान इन्हें दुर बेगम भी कहते हैंद्ध का निकाह भी नजीब खान के साथ कर दिया और सन् 1748 में उसे बिसौली का रिसालदार भी बना दिया। इसी साल अली मुहम्मद की मृत्यु हो गयी। हाफ़िज रहमत खां नामक एक रूहेला सरदार अली मुहम्मद का उत्तराधिकारी बनाया गया। हाफ़िज रहमत खां भी काफी महत्वाकांक्षी था और वह अपने छोटे से राज्य की सीमाओं को बढ़ाता जा रहा था। इस काम में नजीब खान की बहादुरी और दूरदर्शिता उसके बड़े काम आ रही थी। लेकिन पड़ौसी सफ़दरजंग रूहेलों के उत्थान को नहीं देख सकता था। उसने हाफ़िज रहमत खां पर सेना से हमला करा दिया। कुशल योद्धा और नेतृत्व ने हाफ़िज रहमत खां का साथ दिया। किस्मत भी रहमत खां के साथ थी। उसने सफ़दर जंग की भेजी हुई सेना को पूरी तरह तहस-नहस कर डाला। इस कामयाबी से रूहेलों के हौसले बुलंद हो गये। इसी समय बरेली के निकट फ़र्रूखाबाद के अफ़गान फ़ौजदार कायम खां बंगश ने भी अपनी ताक़त काफी बढ़ा ली थी। सफ़दर जंग ने कायम खां को रूहेलखण्ड का फ़ौजदार नियुक्त कराकर हाफ़िज रहमत खां से उसकी भिड़न्त करा दी। कायम खां ने हाफ़िज रहमत खां का अनुरोध- ‘उसे एक अफ़गान भाई से लड़ना न चाहिए ।’ नहीं सुना और रूहेलखण्ड पर हमला कर दिया। मजबूरी थी। हाफ़िज रहमत खां को भी लड़ाई के लिए तैयार होना पड़ा। इस लड़ाई की सारी कमान नजीब खान के हाथ में थी। नजीब खान को जैसे इसी मौके की तलाश थी। उसने अपनी कुशाग्रबुद्धि और चट्टानी जिस्म का प्रयोग कर युद्ध का बिगुल बजा दिया। घमासान हुआ। नजीब खान के हाथ की तलवार आसमानी बिजली के समान चमक रही थी। कायम खँा की सेना गाजर-मूली की तरह कट रही थी। अन्ततः नजीब खान ने कायम खां बंगश को बदायँू के निकट घेर लिया। इस लड़ाई में कायम खां बंगश को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और नजीब खान की बहादुरी चर्चा का विषय बन गयी। हाफ़िज रहमत खां ने कायम खां बंगश की जागीर पर कब्जा कर लिया। थोड़ा सा हिस्सा सफ़दरजंग भी कबजाने में कामयाब रहा। हाफ़िज रहमत खां नेक दिल भी था, उसने कायम खां की माँ को फ़र्रूखाबाद शहर तथा बारह गांवों की आमदनी छोड़ी। लेकिन सफ़दरजंग अपनी करतूतों से अभी भी बाज़ नहीं आ रहा था। उसने अपने कारिंदों से कायम खंा बंगश के छोटे भाई अहमद खां बंगश को तरह-तरह से परेशान कराया। तब अहमद खां बंगश ने सफ़दर जंग की सेना को नष्ट कर दिया और पुनः अपना शासन स्थापित कर लिया। उसने अवध सूबे पर भी चढ़ाई कर दी। संकट जानकर सफ़दरजंग ने मल्हार राव होल्कर, जयप्पा सिंधिया तथा सूरजमल जाट से मैत्री कर ली। इस नयी मैत्री का लाभ उठाकर उसने फ़र्रूखाबाद पर चढ़ाई कर दी। मराठों ने इस अवसर पर फ़र्रूखाबाद और दोआब की भूमि को जी भरकर लूटा और वापिस चले गये। इधर अहमद शाह अब्दाली सन् 1752 में पंजाब पर चढ़ आया। इसकी खबर पाते ही सफ़दर जंग ने बंगश से मराठों की चढ़ाई का खर्च देने की बात कही। बंगश को धनाभाव में जमानत के रूप में अपनी रियासत का आधा भाग मराठों को देना पड़ा। (हम प्रदेश पर मराठों का शासन सन् 1803 तक रहा बाद में अंग्रेज सेनापति लार्डलेक ने उसेे सिन्धिया से जीतकर कम्पनी में मिला लिया था ।) हालांकि इस क्षेत्र में हाफ़िज रहमत खां, दूंदे खां और नजीब खान ज्यादा चक्कर में नहीं पड़े। वह खामोशी के साथ अपनी ताक़त बढ़ाते हुए दिल्ली सुल्तान के नजदीक आने का प्रयास करते रहे। इस समय सफ़दरजंग अपने आपको बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ मानता था, जबकि नजीब खान उसकी एक-एक चाल को अच्छी तरह समझ रहा था। इसी दौरान सफ़दरजंग ने एक और चाल चली। वह दिल्ली बादशाह के विश्वासपात्र जावेद खवास के व्यवहार से बहुत असंतुष्ट रहता था। एक दिन उसने मौका पाकर जावेद को एक दावत में बुलवाया। यह दावत जावेद खवास की मृत्यु का सामान बना दी गयी। जावेद खवास को मरवाकर सफ़दरजंग ने चैन की सांस लेनी चाही। लेकिन बादशाह से उसका मनमुटाव बढ़ता ही गया। उसी समय आसफ़जाह निजाम के बेटे गाज़िउद्दीन की दक्षिण भारत में मृत्यु हो गई और उसका बेटा गाज़िउद्दीन द्वितीय दिल्ली दरबार में उसकी जगह पर नियुक्ति पा गया। गाज़िउद्दीन द्वितीय बड़ा ही तीव्र बुद्धि किन्तु अत्यन्त दुष्ट तथा क्रूर प्रड्डति का था। वह बहुत ही शीघ्र दिल्ली दरबार में सबसे अधिक प्रभावशाली हो गया और उसने सफ़दरजंग को कई मामलों में नीचा दिखाना शुरू कर दिया। अन्ततः सफ़दरजंग ने बादशाह के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और एक दूसरा बादशाह उसके मुकाबले पर खड़ा कर दिया। गाज़िउद्दीन के पक्ष में नजीब खान रूहेला था और सफ़दरजंग की सहायता जाट राजा सूरजमल कर रहा था। कई महिने के परस्पर संघर्ष के बाद जयपुर के राजा माधव सिंह ने दोनो दलों के बीच समझौता कराया। जिसके चलते सफ़रदरजंग को वज़ीर का पद छोड़कर अवध और इलाहाबाद के अपने प्रान्त की सूबेदारी पर ही सन्तोष करना पड़ा। वज़ीर का पद गाज़िउद्दीन के चाचा कमरूद्दीन को दिया गया। सफ़दरजंग इस राजनीतिक हार को पचा नहीं पाया। सदमे की वजह से वह बीमार रहने लगा। वह अपनी हार का मुख्य कारण नजीब खान को मानता था। जिस वक्त सफ़दरजंग ने दिल्ली के बादशाह अहमद शाह पर सूरजमल जाट और इन्द्रगुसाई से हमला कराया था उस वक्त नजीब खान किसी भयानक तूफ़ान की माफिक आया था और उसने इन्द्रगुसाई को देखते ही देखते धूल चटा दी थी। इस लड़ाई में इन्द्रगुसाई के मारे जाने से सफ़दरजंग की जैसे कमर ही टूट गयी थी। उधर बादशाह ने नजीब खान की बहादुरी और वफ़ादारी से खुश होकर उसे नवाब का खिताब दिया था। साथ ही मुजफ्फरनगर और सहारनपुर की जागीरें भी नजीब खान को उपहार में दे दी थी। जल्दी ही सफ़दरजंग हार के सदमे के चलते चल बसा। अब नजीब खान नवाब नजीबुद्दौला बन गया था। उसने अब अपनी जागीरों की देखभाल करने के लिए तीन किले बनवाए, जिनमें मुजफ्फरनगर ज़िले में शुक्रताल तथा सहारनपुर ज़िले में गौसगढ़ किलों के अलावा मुख्य किला साहनपुर रियासत में बनवाया। पत्थरगढ़ नाम से विख्यात हुए इस किले से लगभग डेढ़ किलोमीटर पश्चिम में एक नगर भी बसाया, जिसका नाम नजीबाबाद रखा गया। इस नगर को बसाने में नवाब नजीबुद्दौला ने दूरदर्शिता से काम लिया। अफ़गानिस्तान, मुल्तान और न जाने कहाँ-कहाँ से कारीगर बुलाये गये। व्यापारियों को भी बाहर से ही बुलाया गया। बस्ती की व्यवस्था हिन्दू और मुसलमानों की मिली-जुली की गयी। सिक्के गढ़ने के लिए टकसाल बनायी गयी। किसानों को कर में रियायत दी गयी। व्यापारियों पर कम से कम कर लगाया गया। आम आबादी में भी नवाब ने अपने लिए एक महल बनवाया। वहीं पर एक सराय भी बनवायी जो महल सराय के नाम से प्रसिद्ध है। इस महल से पत्थर गढ़ किले तक एक सुरंग का निर्माण भी कराया गया। आबादी के लोगों की बात सुनने के लिए महल और किले के दरवाज़े सदैव खुले थे। नवाब नजीबुद्दौला ने अपने नाम से बसाये इस नगर की जो कल्पना की थी, वह साकार हो उठी। नवाब ने पत्थरगढ़ का किला सामरिक दृष्टि से बनवाया था। किला बहुत ही मजबूत और सुव्यवस्थित था। सन् 1754 में यह किला और नजीबाबाद आबाद हो गया था। यह किला चैकोर है। इस किले की लम्बाई और चैड़ाई 1400 फिट है। उँचाई 40 फिट और दीवारों की मोटाई 16 फिट है। दीवारों की मोटाई में लगभग 3 फिट व्यास वाले कुए जगह-जगह बने हुए हैं। किले के दो मुख्य दरवाज़े हैं, जिनमें एक पूरब की ओर तथा दूसरा पश्चिम की ओर स्थित है। इसमें दो मेहराब तथा चार बुर्ज हैं। किले में मस्जिद, महल, दीवान ख़ान और बाज़ार आदि थे। एक बावड़ी थी। किले के चारो ओर कच्ची मिट्टी की काफ़ी चैड़ी दीवार थी। जिसे दमदमा कहा जाता था। उसके चारो ओर गहरी खाई थी। जिसमें पानी भरा रहता था। इस प्रकार मानेरी से ख़ाली हाथ आया नजीब खान अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं बहादुरी से नवाब बन गया था और जागीरें स्थापित कर ली थीं। यही नहीं वह धीरे-धीरे दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हो गया। एक समय तो ऐसा आया कि नवाब नजीबुद्दौला के मुँह से निकली बात दिल्ली सुल्तान के मुँह से निकली बात होती थी। बाद के हालात पर इतिहासकार डा0 परमात्मा शरण लिखते हैं- 

आलमगीर को मारकर गाज़िउद्दीन ने एक और शहजादे को गद्दी पर बैठाने का प्रयास किया, परन्तु इसी समय अब्दाली की चढ़ाई की खबर आई और वह जान बचाकर दिल्ली से भाग निकला। तब नजीबुद्दौला, शुजाउद्दौला तथा अहमद शाह अब्दाली ने सहमत होकर विगत बादशाह के पुत्र अलीगौहर को, जो उस समय बिहार में था, बादशाह घोषित कर दिया। उसने अपना नाम शाह आलम रक्खा किन्तु वह 1772 से पहले दिल्ली न आ सका। उसकी अनुपस्थिति में शासन का कार्य नजीबुद्दौला करता रहा। अहमद शाह अब्दाली ने नजीबुद्दौला को मीरबख्शी नियुक्त कर दिया था। वह राजधानी में अब्दाली का प्रतिनिधि बन गया। इस प्रकार अहमदशाह अब्दाली का चैथा आक्रमण नजीब खान के लिए फ़ायदे का सिद्ध हुआ। इतिहासकार अवध बिहारी पाण्डेय लिखते हैं- अब्दाली के लौटते ही स्थिति में फिर तीव्रगति से परिवर्तन आरम्भ हो गया। रघुनाथ राव, सखाराम बापू, मल्हार राव होल्कर आदि मराठा सेनापति फिर प्रकट हो गये और नजीब के व्यवहार से असंतुष्ट सम्राट तथा वज़ीर उनका चरण-चुम्बन करने के लिए आतुर हो गए। सखाराम बापू ने दोआब में प्रवेश किया और उसने वहाँ से नजीब के प्रतिनिधियों को हटा दिया। रघुनाथराव राजपूताना से दिल्ली की ओर बढ़ा। पेशवा का कर्ज़ बढ़ रहा था और उसे सम्राट से उसकी रक्षा के लिए 5000 सैनिकों के वेतन के उपलक्ष में 13 लाख वार्षिक तथा अन्य बकाया रुपया वसूल करना था। सखाराम बापू ने सूचना दी कि दोआब में इतनी अव्यवस्था है कि वहां से कुछ पाना कठिन है। इसलिए मराठे स्वयं भी दिल्ली जाने और वहां अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के पक्ष में थे। नजीब खान ने दिल्ली के किले के भीतर से बचाव की लड़ाई का प्रबंध किया। परन्तु रसद की कमी के कारण उसे संधि कर लेनी पड़ी। इस समय से लेकर अप्रैल 1758 तक रघुनाथ राव ने अनेक ऐसी भूलें की जिनके कारण मराठों को कोई लाभ होने के स्थान पर उन्हें अब्दाली और नजीब खान का घातक विरोध सहना पड़ा। मल्हारराव और नजीब खान में सद्भाव था। होल्कर उसकी योग्यता का कायल था। दिल्ली में घेरे ने उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी दिया था। इसलिए वह चाहता था कि नजीब को शत्रु न बनाया जाय और उसे मीर बख्शी के पद से न हटाया जाय। नजीब ने यह वादा भी किया था कि यदि उससे मित्रता कर लें तो वह अहमदशाह अब्दाली से मिलकर शांतिमय ढंग से मराठा-अब्दाली प्रभाव-क्षेत्र निश्चित करा देगा, जिससे दोनों पक्षों को लाभ होगा। परन्तु रघुनाथराव ने उसकी बात नहीं मानी। नजीब खान को अपने समस्त सैनिकों के साथ दिल्ली से निकल जाना पड़ा, उसे मीरबख्शी के पद से हटाकर अहमद बंगश को उसके स्थान पर नियुक्त किया गया और उसकी जागीर का बहुत सा भाग छीन लिया गया। अस्तु, यह स्वाभाविक था कि वह इसकी फ़रियाद अब्दाली से करे और उसे आक्रमण करने केे लिए आमंत्रित करे। मराठों ने इस संभावना पर विचार किए बिना मार्च-अप्रैल 1758 में सरहिंद तथा लाहौर पर भी अधिकार कर लिया और प्रकटतः अटक तक हिंदू साम्राज्य का विस्तार कर दिया। परन्तु उन्होंने पंजाब की रक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया। अदीना बेग जिससे अब्दाली बहुत असंतुष्ट था वहां का सूबेदार नियुक्त किया गया और उसने 75 लाख प्रतिवर्ष देने का वादा किया। किन्तु रघुनाथराव ने नदियों के घाटों, मार्ग के दुर्गों तथा सीमान्त मार्गों की रक्षा के लिए कोई प्रबल सेना वहां नहीं छोड़ी। जब यह सब समाचार अब्दाली को प्राप्त हुआ तब वह बहुत कुपित हुआ और उसने मराठों को दण्ड देने के लिए पाँचवी बार भारत पर आक्रमण किया। पहले उसने अपने सेनापति जहां खां को भेजा। उस समय अदीना बेग मर चुका था और दत्ता जी सिंधिया ने पेशवा के आदेशानुसार वहां मराठों का सीधा शासन स्थापित करके सबाजी को सूबेदार नियुक्त किया था। सबाजी ने जहाँ खाँ को हरा दिया। अब अब्दाली ने स्वयं आक्रमण किया। उसकी सेना का सामना करने की क्षमता सबाजी में नहीं थी। इसलिए वह लाहौर, सरहिंद, मुलतान स्थानों के सेनापतियों को वापिस लौटने का आदेश देकर दिल्ली की ओर चल पड़ा और दत्ता जी से जा मिला। इस भांति सन् 1759 के अंतिम महिनों में पंजाब पर अब्दाली का पुनः अधिकार हो गया और वह सदा के लिए सम्राट के अधिकार से निकल गया। अब्दाली ने सन् 1757 में जो व्यवस्था की थी वह सबकी सब उलट चुकी थी और वह अनेक लोगों को दण्ड देने का संकल्प कर चुका था। मराठों से वह सबसे अधिक अप्रसन्न था क्योंकि उन्होंने उसके द्वारा नियुक्त अफ़गान सरदार नजीब खान का अपमान किया था और उसका राजनीतिक महत्व समाप्त करने का उद्योग किया था। उन्होंने उसके संबंधी सम्राट आलमगीर के हत्यारे का साथ दिया था और उसके बेटे को पंजाब से निकाल दिया था। उसे सम्राट से भी असंतोष था क्योंकि उसने अब्दाली द्वारा नियुक्त व्यक्ति को निकालकर इस्लाम के शत्रु मराठों से मेल कर लिया था, परन्तु वह पहले ही मारा जा चुका था। इन सब दुर्घटनाओं में वज़ीर का दोष मराठों से भी अधिक था क्योंकि उसी ने उनको बुलाया था, नजीब को हटवाया था और सम्राट आलमगीर द्वितीय का वध किया था। इन सबको दण्ड देने और विशेष कर मराठों को परास्त करने के लिए अब्दाली इतना आतुर था कि उसने पंजाब के शासन और सिखों की दमन की ठीक व्यवस्था किये बिना ही दोआब में प्रवेश किया। यहां आने पर उसकी सिंधिया से मुठभेड़ हुई, जिसमें दत्ता जी मारा गया। इसके बाद मल्हारराव होल्कर ने छापामार लड़ाई करके शत्रु को तंग करना चाहा किन्तु अफ़गान सैनिकों ने उसे घेर लिया और बड़ी कठिनाई से वह अपनी रक्षा कर सका। इन दुर्घटनओं का समाचार सुनकर पेशवा ने उद्गिर के विजेता सदाशिवराज भाउ को उत्तर भारत जाने का आदेश दिया। उसने उसके साथ अपने बेटे विश्वास राव और अनेक अनुभवी सेनापति भी भेजे। उत्तर भारत में जखोजी सिंधिया, मल्हारराव होल्कर, गोविंद बल्लाल आदि को आदेश दिया गया कि वे भाउ के आदेश के अनुसार चलते हुए विदेशी यवन को शीघ्र से शीघ्र निकालने की व्यवस्था करें। इसी के साथ उत्तर भारत में स्थित महाराष्ट्र के सभी व्यक्तियों को पेशवा यह भी लिखता रहता कि पैसा इकट्ठा करके उत्तर भारत की सेना का खर्च चलाओं तथा मेरे कर्ज़ की अदायगी के लिए रुपये भेजो। इस संबंध में राजपूतों, जाटों, सम्राट के वज़ीर, बंगाल-बिहार के नवाब सभी के विषय में आदेश आते हैं और प्रायः प्रत्येक पत्र के अंत में यह निर्देश रहता है कि रुपया प्राप्त करो चाहे जिस ढंग से भी हो। इसमें मराठा सेना की प्रधान दुर्बलता प्रकट हो जाती है। रसद का ठीक प्रबंध हुए बिना विजय की आशा करना मृगमरीचिका थी। परन्तु मराठे उधार लेकर साम्राज्य विजय के शेखचिल्लीवाले मंसूबे बना रहे थे। अहमदशाह अब्दाली उत्तर भारत के लिए नया नहीं था। वह यहां की दशा से स्वयं परिचित था। नजीब खान उसका सहायक था। उसके प्रभाव तथा अब्दाली के आतंक से अवध का नवाब शुजाउद्दौला, रूहेलों के सरदार हाफ़िज रहमत, सादुल्ला और दूंदे उससे मिल गए तथा जाट और राजपूत निरपेक्ष रहे। सदाशिवराव को उत्तर भारत का कोई ज्ञान नहीं था और सिंधिया अथवा होल्कर से उसका कोई विशेष सम्पर्क नहीं रहा था। इसलिए उनसे ठीक सहयोग रख सकना उसके लिए कठिन था। पेशवा उसे रुपये नहीं भेजता था, उसके सैनिक धन की कमी से परेशान थे और अक्सर भूखों मरने लगते थे। उत्तर भारत के कर उगाहने वाले मराठा कर्मचारी उसकी दशा खराब होती जा रही थी। फिर भी उसने धैर्य अथवा साहस नहीं खोया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। अहमदशाह स्वयं भारतवर्ष में अपना सीधा शासन स्थापित करने का इच्छुक नहीं था। वह केवल पंजाब, सिंध और काबुल चाहता था। जिन पर उसका अधिकार हो चुका था। शेष भाग के राजाओं से वह 40 लाख वार्षिक कर चाहता था, जिसे सम्राट का वज़ीर इकट्ठा करके भेज दिया करे। वह मराठों की शक्ति का अंत नहीं चाहता था, वह चाहता था केवल यह कि वे सम्राट से कोई निश्चित और स्थायी संधि कर लें ताकि उत्तर भारत की अशांति का अंत हो, सम्राट की ओर से कर वसूल किया जा सके और उसमें से अब्दाली को घर बैठे चालीस लाख रुपया मिल जाया करे। उसने नजीब खान, हाफ़िज रहमत खां तथा शुजाउद्दौला के द्वारा संधि की बात चलायी। भाऊ को यदि पूरी स्वतंत्रता होती तो संभव है वह सूरजमल और मल्हारराव होल्कर की सम्मति मानकर संधि कर लेता। पर पेशवा उसे बराबर पंजाब तथा दिल्ली पर अधिकार रखने के लिए निर्देश भेज रहा था। अस्तु भाऊ की शर्ते अब्दाली को ही नहीं वरन् सूरजमल को भी असम्भव प्रतीत हुई। इसलिए वह उसके विरूद्ध हो गया। प्रसिद्ध इतिहासकार एल.पी. शर्मा ने लिखा है- 1752 में मुगल बादशाह अहमदशाह ने अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण करने पर पंजाब और सुल्तान उसे सौंप दिये थे और अब्दाली इन सूबों को मुइन-उल-मुल्क के हाथों में देकर वापस चला गया था। 1753 ई. में मुइन-उल-मुल्क की मृत्यु हो गयी और उसकी विधवा मुगलानी बेगम शासन की ठीक प्रकार देखभाल न कर सकी। उसी समय दिल्ली की राजनीति में परिवर्तन हुआ। रघुनाथराव के नेतृत्व में मराठों ने उत्तर भारत पर आक्रमण किया और वज़ीर गाज़ीउद्दीन को मुगल बादशाह अहमदशाह को सिंहासन से उतारने में सहायता दी। उसके पश्चात् आलमगीर द्ववीतिय मुगल बादशाह बना। मराठों का प्रभुत्व दिल्ली और दोआब में स्थापित हो गया। परन्तु इससे विदेशी मुलसमानों का वर्ग बहुत असन्तुष्ट हुआ जिनमें एक प्रमुख रूहेला सरदार नजीबुद्दौला भी था। 1756 ई. में वज़ीर गाज़ीउद्दीन इमाद-उल-मुल्क ने पंजाब और सुल्तान को मुगलानी बेगम से छीन लिया और अदीब को अपना सूबेदार बनाकर वह प्रदेश उसे सौंप दिये। अब्दाली इससे असंतुष्ट हुआ। नजीबुद्दौला और मुगलानी बेगम ने उससे सहायता मांगी। रूहेला सरदार नजीबुद्दौला और अहमदशाह अब्दाली का गठजोड़ पारम्परिक स्वार्थों के कारण था। अब्दाली भारतीय भूमि से आय प्राप्त करता था, जो उसे एक बड़ी सेना रखने में सहायक थी। अफ़गानिस्तान का स्वयं का राज्य अब्दाली को यह सुविधा प्रदान करने में सर्वथा असमर्थ था। इस कारण अब्दाली पंजाब पर अपने प्रभुत्व को खोने के लिए तत्पर नहीं था। उसके हर उद्देश्य की पूर्ति में मराठे एक बड़ी बाधा थे। दूसरी तरफ नजीबुद्दौला दिल्ली पर अफ़गानों के प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए उत्सुक था। उसमें भी मराठे ही बाधा डाल रहे थे। इस कारण अब्दाली और नजीबुद्दौला की मराठों के विरूद्ध सांठगांठ सहज हो गयी। 1756 ई. में अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण किया। वह पंजाब को जीतकर 1757 ई0 में दिल्ली पहुँचा और समीपवर्ती इलाके को लूटकर तथा नजीबुद्दौला को मीरबख्शी बनाकर उसी वर्ष काबुल चला गया। जाते समय अब्दाली अपने पुत्र तैमूर खां को पंजाब का सूबेदार बना गया। अब्दाली के इस आक्रमण के अवसर पर पेशवा ने रघुनाथ राव को दिल्ली की ओर भेज दिया था, परन्तु उसके दिल्ली पहँुचने से पहले ही अब्दाली वापस जा चुका था। रघुनाथराव ने नजीबुद्दौला के स्थान पर अहमद शाह बंगश को मीरबख्शी बनाया यद्यपि मल्हारराव होल्कर के हस्तक्षेप के कारण नजीबुद्दौला को क्षमा कर दिया गया था। तत्पश्चात् रघुनाथ राव ने तैमूर खां को परास्त करके पंजाब सूबेदार अदीना बेग को दे दिया। इसके बाद तुको जी होल्कर और सबाजी सिंधिया को उत्तर-भारत में छोड़कर रघुनाथराव 1758 ई0 में पूना वापस चला गया। पेशवा ने रघुनाथराव को पूना बुलाकर दत्ताजी सिंधिया को उत्तर भारत भेज दिया। दत्ताजी ने सबाजी सिंधिया को पंजाब का सूबेदार बनाया और दोआब की व्यवस्था करने के लिए नजीबुद्दौला से बातचीत की। परन्तु दत्ताजी प्रारम्भ से ही नजीबुद्दौला के प्रति शंकालु था और उधर नजीबुद्दौला उससे घृणा करता था। उसने अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए पहले से ही बुलावा दे रखा था। इस कारण नजीबुद्दौला से कोई समझौता होने की बजाय युद्ध आरम्भ हो गया और दत्ता जी ने नजीबुद्दौला को शुक्रताल में घेर लिया। इसी अवसर पर अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण किया और सबाजी सिंधिया को पंजाब छोड़कर भागना पड़ा। अब्दाली के आक्रमण से भयभीत होकर वज़ीर इमाद-उल-मुल्क ने मुगल बादशाह आलमगीर द्वीतिय का वध कर डाला और स्वयं भरतपुर के जाट-शासक सूरजमल की शरण में चला गया। अब्दाली दिल्ली की ओर बढ़ता गया। दिल्ली की रक्षा हेतु दत्ता जी ने शुक्रताल का घेरा उठा लिया और 1759 ई0 में दिल्ली की ओर बढ़ा। दिल्ली से दस मील दूर लोनी के निकट, जनवरी 1760 ई0 में दत्ता जी का अब्दाली से मुकाबला हुआ, जिसमें दत्ता जी मारा गया और मराठों की पराजय हुई। अब्दाली ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। नजीबुद्दौला उस समय तक अब्दाली से मिल गया था उसने अब्दाली से कुछ समय भारत में रुकने की प्रार्थना की, जिससे मराठों की शक्ति को पूर्णतया समाप्त किया जा सके। जब पेशवा को दत्ताजी की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाउ के नेतृत्व में अब्दाली को भारत से निकालने के लिए एक बड़ी सेना उत्तर-भारत भेजी। अगस्त 1760 ई0 में मराठे दिल्ली पहंुचे। उस समय तक अब्दाली दिल्ली को छोड़कर जा चुका था। उस समय से अब्दाली और सदाशिव राव का कूटनीतिक युद्ध आरम्भ हुआ। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को शक्तिशाली बनाने के लिए उत्तर भारत के विभिन्न सरदारों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न किया। इस सन्दर्भ में नजीबुद्दौला ने अब्दाली की विशेष सहायता की और वह सफल भी हुआ। उसने ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा देकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा भारतीय मुसलमानों के बड़े वर्ग को अपने पक्ष में करने में सफ़लता प्राप्त की। निस्सन्देह, सदाशिवराव एक बहाुदर और योग्य सैनिक था, परन्तु वह कूटनीतिज्ञ न था तथा कुछ दम्भी भी था। इस कारण वह कूटनीति में नजीबुद्दौला के मुकाबले सफल न हो सका। अब्दाली ने घोषणा की कि उसका उद्देश्य स्वयं भारत में रहने का नहीं है, बल्कि वह केवल दक्षिण के मराठों से उत्तर-भारत को स्वतंत्र कराने तथा मुगल बादशाह शाहआलम को, जो उस समय अवध में था, दिल्ली के सिंहासन पर बैठाने के लिए रुका हुआ है। सदाशिवराव ने प्रचारित किया कि यह युद्ध भारतीयों का विदेशियों से है और वह आक्रमणकारी को स्वेदश से निकालने के लिए संघर्ष कर रहा है, परन्तु इस प्रचार के बावजूद सदाशिव राव मुसलमानों का विश्वास अर्जित न कर सका, बल्कि वह अपनी भूल से सूरजमल जाट को भी खो बैठा। सूरजमल उत्तर-भारत का एक शक्तिशाली राजा था। युद्ध-नीति और मुगल बादशाह के प्रति व्यवहार के प्रश्न को लेकर उसका सदाशिवराव से मतभेद हो गया और वह अपने राज्य में वापस चला गया। राजपूत सरदार पहले से ही मराठों से असंतुष्ट थे। इस कारण उनमें से कोई भी मराठों की सहायता के लिए नहीं आया। दूसरी ओर नजीबुद्दौला ने धर्म की दुहाई देकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला को ही अपने पक्ष में नहीं किया, वरन् चालाकी से मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर से भी सांठगांठ कर ली। इस प्रकार अब्दाली के पक्ष में बल की वृद्धि हुई।

सेनापति की दृष्टि से भी सदाशिवराव अब्दाली के मुकाबले अयोग्य सिद्ध हुआ। दिल्ली में उसके पास रसद की कमी होने लगी। उधर अब्दाली भी रसद की कमी अनुभव कर रहा था। दोनों ओर से सन्धि की चर्चा हुई, परन्तु नजीबुद्दौला के विरोध के कारण सन्धि न हो सकी। कुजपुरा पर अधिकार करने से मराठों को कुछ मात्रा में रसद प्राप्त हो गयी, परन्तु वह लम्बे समय तक काम नहीं दे सकती थी। अन्त में, युद्ध करने की नियत से मराठे पानीपत के मैदान में पहुँच गये, जहाँ अब्दाली पहले ही  पहुंच चुका था। नवम्बर 1760 ई0 में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने पहुँच गयी थीं, जबकि युद्ध 14 जनवरी 1761 ई0 को हुआ। पानीपत की तीसरी लड़ाई के कारणों पर प्रकाश डालते हुए डा0 परमात्मा शरण लिखते हैं- नजीबुद्दौला व रूहेले सरदार हाफ़िज रहमत खां आदि अब्दाली से जा मिले। मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया और मल्हार राव होल्कर को उन्होंने पंजाब से निकाल बाहर किया। इसकी सूचना पाते ही पेशवा ने एक बड़ी सेना सदाशिवराव भाउ के नेतृत्व में अब्दाली से युद्ध करने के लिए भेजी। यह सेना 1760 के मध्य में दिल्ली तक पहुंच गई। इस समय अब्दाली ने कब्जा कर लिया। इस अवसर पर मुसलमानों के एक नेता ने, जो बड़ा विद्वान था और जिसका बड़ा प्रभाव समस्त मुसलमानों पर था, इस लड़ाई को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की। वह बड़े ज़ोर से यह प्रचार कर रहा था कि मराठों के आतंक से इस्लाम खतरे में पड़ जायेगा। अब्दाली को बुलाने में उसका बड़ा हाथ था। यद्यपि मराठे मुगल बादशाह और दिल्ली की रक्षा करने के लिए बढ़ रहे थे और गाजिउद्दीन वज़ीर को जाट व मराठे दोनों ही सहायता दे रहे थे और नवाब वज़ीर व नजीबुद्दौला में गहरी शत्रुता थी। इस महान नेता का नाम था, ‘शाह वलीउल्लाह’ इसके प्रभाव से, इस्लाम के नाम पर शुजाउद्दौला, हाफ़िज रहमत खां और नजीबुद्दौला सब अब्दाली से मिल गये। अब्दाली ने मराठा सरदार से समझौता करने की बातचीत की परन्तु नजीबुद्दौला ने, जो मराठों को नष्ट करने पर उतारू था, बड़े प्रपंच से इस समझौते को न होने दिया। उसने यह खबर उड़ाई कि पेशवा के बेटे विश्वास राव की मराठों ने दिल्ली तख्त पर बिठा दिया है। इस झूठे लाइन की सफाई देने के लिए सदाशिव राव ने दिल्ली में एक आम समारोह करके बादशाह आलम (जो उस समय बिहार में था) का स्थानापन्न उसके बेटे मिर्जाजवान बख्त को घोषित किया और बादशाह के नाम का सिक्का चलाया। वजीर शुजाउद्दौला को अपनी तरफ तोड़ने की भी कोशिश की। साथ ही दिल्ली के कोई 80 मील ऊपर, यमुना के निकट, कंजपुरे को भी, जहां अब्दाली ने अपनी सेना के लिए हर प्रकार का सामान इक्ट्ठा कर रखा था, सदाशिव राव ने ले लिया। इससे अब्दाली को भारी ध्क्का लगा, परन्तु लड़ाई किस युक्ति से लड़ी जाये। इस प्रश्न पर मराठा सरदारों में मतभेद हो गया। एक दल की राय थी कि अपने पुराने छापामार तरीके से ही लड़ा जाये, परन्तु सदाशिव राव ने खुले मैदान में लड़ने का निश्चय किया। इस ढंग से लड़ने का अनुभव उसकी सेना को नहीं था। अब्दाली अलीगढ़ से चलकर जमना पार कर पानीपत के पड़ाव पर आ जाये और उसने सदाशिव राव का, जो इस समय पंजाब में घुस चुका था, दिल्ली लौटने का रास्ता रोक लिया। तब सदाशिवराव वापस लौटा। दो महीने तक दोनो सेवायें आमने-सामने पड़ी रही। सदाशिव ने अपने मद में सेना की तैयारी में लापरवाही की, परन्तु अब्दाली हर प्रकार से अपनी स्थिति को पक्का करता रहा। उसने अपनी रसद आदि का पूरा प्रबन्ध कर लिया और मराठों का रसद पहुँचाना रोक दिया। अपनी स्थिति को निर्बल देखकर सदाशिवराव ने सन्धि करने का भी प्रयत्न किया, पर नजीबुद्दौला ने अब्दाली को सलाह दी कि इस्लाम की रक्षा के हेतु इन काफिरों को कुचलने का यह अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए। मराठा सेना भूखों मरने लगी थी। स्थिति बिगड़ते देखकर कई मराठे सरदार अलग हो गये। सदाशिवराव को विवश होकर लड़ाई करनी पड़ी। सवेरे से तीसरे पहर तक दोनो दलों में घमासान युद्ध हुआ। अन्त में मराठा सेना परास्त हुई, महाद जी सिंधिया घायल हुआ ओर बड़ी कठिनाई से बचकर वापस पहंुचा। नाना फड़नवीस भी किसी प्रकार बचकर निकल गया। मराठा सेना के लगभग एक लाख आदमी मारे गये। बाकी जो जान बचाकर भागे, उन्हें उन गांव वालों ने मार डाला, जो मराठों की लूटमार से दुखी थे। यह घटना जनवरी 1761 में हुई। एल.पी. शर्मा लिखते हैं- 14 जनवरी, 1761 ई0 को प्रातः 9 बजे मराठों ने आक्रमण किया। युद्ध के बीच में ही मल्हार राव होल्कर मैदान छोड़कर भाग गया। इब्राहीम गार्दी के तोप खाने ने अब्दाली की सेना को बहुत हानि पहुँचायी, परन्तु शाम तक सम्पूर्ण मराठा सेना भाग गयी अथवा कत्ल कर दी गयी। पेशवा का ज्येष्ठ पुत्र विश्वास राव, सदाशिव राव, जसवन्त राव पवार, तुको जी सिंधिया आदि युद्ध में मारे गये। 31 अक्टूबर सन् 1770 को नवाब नजीबुद्दौला दिल्ली से नजीबाबाद वापिस आ रहा था। अभी वह हापुड़ में ही था कि काल के क्रूर हाथों ने नवाब नजीबुद्दौला को हमेशा के लिए छीन लिया। नवाब के बेरूह जिस्म को नजीबाबाद लाया गया और जावेद बाग में स्थित उसकी बीवी की कब्र के पास ही दफ़नाया गया, जहाँ आज भी मकबरे के रूप में बेहतरीन इमारत बुलन्द है। कुछ इतिहासकार नवाब की मृत्यु की तारीख़ 4 अक्टूबर सन् 1770 भी मानते है। नजीब खान के तीन सगे भाई थे, सुल्तान खान, अमीर खान मुनीर खान। एक बहन थी जवार बेगम। इनके अलावा तहेरे भाई अमान खान और अफ़जल खान थे, जो ताउळ फ़ाजिल खान की औलाद थे। जवार बेगम का विवाह नजीब खान के खानदानी अलिफ़खान के पौते बाज़ खान के साथ हुआ। बाज़ खान को किरतपुर के पास बसीकोटले की जागीर मिली। सुल्तान खान और मुनीर खान नजीब खान के साथ नजीबाबाद में ही बस गये। अमीर खान अपने चाचा बिशारत खान के पास बिशारत नगर में बस गया। अमान खान भाई अफ़जल खान के साथ अफ़जलगढ़ बसाकर वहीं रहे। नजीब खान की बीवी की मृत्यु पहले ही हो गयी थी। नजीब खान के बेटों में एक बेटे जाब्ताखान ने भी मराठों के कई हमले झेले। इसी का एक पुत्र था गुलाम कादिर खान। यह बड़ा ही खूबसूरत नौजवान था। इसी ने बादशाह आलम की आँखें निकाल ली थी। गुलाम कादिर खान का निकाह बाज खान की बहन रोशन आरा के साथ हुआ था, जिससे कोई औलाद नहीं हुई। गुलाम कादिर खान ने बाज खान के पुत्र सादुल्लाह खान को गोद ले लिया था। 

मुगलवंश की अन्तिम कहानी

मुगलवंश की अन्तिम कहानी के लिए डा0 परमात्मा शरण लिखते हैं- शाह आलम सानी 1765 से अंग्रेजों की रक्षा में प्रयाग में रहने लगा था। उत्तर भारत में मराठों ने पिफर प्रभुत्व जमा लिया और महाद जी सिंधिया ने 1771 में उसे प्रभावित करके दिल्ली बुला लिया। मुगल सम्राट की शक्ति नाम मात्र को रह गयी। सारा देश दूसरों के हाथों में चला गया। एक तरफ मराठे, दूसरी तरपफ अंगे्रज ओर अवध के नवाब, इत्यादि मालिक बन बैठे। आगरे के आस-पास जाट प्रबल हो रहे थे, रूहेलखण्ड रूहेला हाफ़िज रहमत खां के हाथ में था और पंजाब में सिक्ख उठ रहे थे। 1772 के बाद भिन्न-भिन्न दलों में प्रभुत्व के लिए झगड़े होने आरम्भ हुए। इन झगड़ों में मुख्य तथा मराठे, अवध् का नवाब वजीर शुजाउद्दौला, रूहेला हाफ़िज रहमत खां ओर जाट शामिल थे। मराठा दल के नेता महाद जी को थोड़े दिन बाद पूना जाना पड़ा, इस कारण दिल्ली में नजफ खां और अवध का वज़ीर ही ज़ोरदार रह गये। इन दोनों ने मिलकर जाटों को दबाया और शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों से मिलकर 1774 में रूहेलों को नष्ट किया परन्तु शुजाउद्दौला 1775 में मर गया और नजफ खंा 1782 में। इसके बाद नजफ खां के नातेदार ही आपस में प्रभुत्व के लिए लड़ने लगे। इस अवस्था में शाहआलम ने मराठों से सहायता चाही और महाद जी ने आकर 1785 में दिल्ली पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। उसके बर्ताव से मुगल दरबारी नाराज़ हो गये और राजपूतों तथा नजीबुद्दौला के पौत्र ;जाब्ता खां के पुत्रद्ध गुलाम कादिर की सहायता से सराद जी को दिल्ली से हटाया। गुलाम कादिर ने दिल्ली में आकर बादशाह और उसके सम्बन्धियों, स्त्री-बच्चों के साथ हृदय-विदारक क्रूरता का व्यवहार किया। उनसे खजाने ओर धन-संपत्ति का पता लेने के लिए सबको कोड़ो से पिटवाया और बादशाह की आँखें अपने भाले से खोदकर निकाल लीं। स्त्रियों को खुले तौर पर अपमानित कराया। सिंधिया को इस घटना की खबर मिलते ही उसने सेना भेजी। गुलाम कादिर मेरठ से भागता हुआ पकड़ा गया और उसे अपने किये की अच्छी सजा दी गयी। उसे मुँह काला करके गधे पर चढ़ाकर मथुरा के चारों ओर घुमाया गया, फिर उसकी आँखें निकाली गई, हाथ पैर काटे गये और तब उसे फँासी दी गयी। शाह आलम को फिर से तख्त पर बिठाया गया परन्तु अधिकार इस समय सिंधिया का था। 


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