Skip to main content

महावीर त्यागी





 महावीर त्यागी का जन्म 31 दिसंबर 1899 को मुरादाबाद जनपद के ढबारसी गांव में हुआ था। इनके पिता शिवनाथ सिंह जी गांव रतनगढ़ जिला बिजनौर के एक प्रसिद्ध जमींदार थे, इनकी माता जानकी देवी जी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। मेरठ में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान प्रथम विश्व युद्ध के समय वो सेना की इमरजेंसी कमीशन में भर्ती हो गए और उनकी तैनाती पर्सिया (अब ईरान) में कर दी गयी। आजादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी जी से प्रभावित थे। स्वतंत्रता सेनानी महावीर त्यागी एक अनूठे इंसान थे वे 1919 में जलियावाला बाग हत्या कांड के बाद ब्रिटिश सेना के इमरजेंसी कमीशन से त्यागपत्र दे दिया। सेना ने उनका कोर्ट मार्शल कर दिया, उसके बाद वो गांधी जी के साथ देश की आजादी के आंदोलन में कूद गए। अंग्रेजों द्वारा वो 11 बार गिरफ्तार किए गए, एक किसान आंदोलन के दौरान जब उनको गिरफ्तार करके यातनाएं दी गईं तो गांधीजी ने इसके लिए अंग्रेजों की आलोचना यंग इंडिया में लेख लिखकर की।

उनका विवाह 26 जुलाई 1925 को बिजनौर जनपद के गांव राजपुर नवादा के जमींदार परिवार की बेटी शर्मदा त्यागी से हुआ था, इनकी तीन पुत्रियां हैं। इनकी पत्नी शर्मदा त्यागी 1937 में देहरादून से संयुक्त प्रांतीय असेंबली के लिए चुनी गयी थीं। असेंबली के लिए चुने जाने के एक वर्ष के बाद ही उनका निधन हो गया था। महावीर त्यागी हमेशा अपने आदर्शों पर दृढ़तापूर्वक अडिग रहे। उन्होंने अपने जीवन में विकट से विकट परिस्थितियों में भी सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। देहरादून में बेहद लोकप्रिय थे, महावीर त्यागी को जनता के द्वारा ‘देहरादून का सुल्तान’ की उपाधि से नवाजा गया था, देहरादून उनका अपना कार्यक्षेत्र था। देहरादून, बिजनौर (उत्तर-पश्चिम), सहारनपुर (पश्चिम) लोकसभा क्षेत्र से वर्ष 1952, 57 व 62 में सांसद रहे महावीर त्यागी, वर्श 1951 से 53 तक केन्द्रीय राजस्व मंत्री रहे। वर्श 1953 से 57 तक त्यागी जी मिनिस्टर फार डिफेंस आॅर्गेनाइजेशन (1956 तक पंडित नेहरू के पास रक्षा मंत्री का कार्यभार भी था) रहे। उनके कार्यकाल के दौरान ही देश में रक्षा सम्बंधी सामान बड़े पैमाने पर बनाने का कार्य शुरू हुआ था। वर्ष 1957 के बाद भी वह विभिन्न कमेटियों और पुनर्वास मंत्रालय आदि में रहकर देश सेवा करते रहे। 

सवतंत्रता सेनानियों में त्यागी जी का व्यक्तित्व बड़ा ही रोचक और चित्ताकर्षक था। वे भावुक सच्चे बागी ईमानदार और निडर थे। हाजिर जवाबी में माहिर थे। देहरादून क्षेत्र में इनका कोई मुकाबला नहीं था पूरा जिला त्यागी जी का अपना घर था और ये देहरादून के सुल्तान या डिक्टेटर कहलाते थे। महात्मा गांधी मोतीलाल नेहरु और रफी अहमद किदवई के अत्यंत प्रिय महावीर त्यागी जी को जो अनुचित लगता उसे निस्वार्थ भाव से विरोध भी करते थे मगर किसी से द्वेष नहीं रखते। असहयोग आंदोलन के बाद महावीर त्यागी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी जोर-शोर से हिस्सा लिया, ढाई साल जेल में रहे, नतीजतन वो कांग्रेस की चुनावी राजनीति में भी हिस्सा लेने लगे। चुनावी राजनीति में होने के वाबजूद महावीर के रिश्ते कांग्रेस के विरोधी क्रांतिकारियों के साथ भी थे, उनके सबसे करीबी थे सचिन्द्र नाथ सान्याल, जिनके संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) में ही चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों को आगे बढ़ाया था। 1947-48 के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में इन्होंने जबरदस्त भूमिका निभाई। इन्होंने कुछ स्वयंसेवकों को एकत्र करके उनके साथ पुलिस की वर्दी धारण की और एक विशेष बल का संगठन किया जो दंगों में अपनी जान की परवाह किए बिना शांति स्थापित करता था, जो त्यागी पुलिस कहलाता था। लीग के बड़े नेता खलीकुज्जमा ने पाकिस्तान जाकर इस विषय पर जो संस्मरण लिखे उसमें त्यागी जी की जमकर प्रशंसा की। उनके राजनीतिक व सामाजिक जीवन के कुछ संस्मरण कुछ पत्र पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हुए। वे अपनी रोचक शैली के कारण इतने लोकप्रिय हुए कि पाठकों के आग्रह पर उनको 2 पुस्तकों ‘‘क्रांति के वे दिन’’ और ‘‘मेरी कौन सुनेगा’’ के रूप में छपवाया गया। 

महावीर त्यागी को एक बार बुलंद शहर में चार हजार लोगों की एक सभा को सम्बोधित करे वक्त गिरफ्तार कर लिया गया था। जेल में ही उनकी मुलाकात पंडित मोतीलाल नेहरू से हुई और जब एक बार बाप-बेटे के बीच कोई गलतफहमी हुई तो वो महावीर त्यागी ने ही दूर की थी। इसी के चलते नेहरू भी उन्हें मानते थे। 1962 के युद्ध को लेकर संसद में काफी बहस हुई। जवाहर लाल नेहरू ने संसद में ये बयान दिया कि, अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है। दरअसल, उन दिनों अक्साई चिन चीन के कब्जे में चले जाने को लेकर विपक्ष ने हंगामा काट रखा था। लेकिन नेहरू को उम्मीद नहीं थी कि उनके विरोध में सबसे बड़ा चेहरा उनके अपने मंत्रिमंडल का होगा, और वह चेहरा बना महावीर त्यागी का। जो अंग्रेजी फौज का एक अधिकारी, जो इस्तीफा देकर स्वतंत्रता सेनानी बना और देश आजाद होने के बाद मंत्री बन गया। इधर, भरी संसद में महावीर त्यागी ने अपना गंजा सर नेहरू को दिखाया और कहा, यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं। जवाब देकर महावीर त्यागी ने सिद्ध कर दिया कि वो व्यक्ति पूजा के बजाय देश की पूजा को महत्व देते थे। महावीर त्यागी को देश की एक इंच जमीन भी किसी को देना गवारा नहीं था, चाहे वो बंजर ही क्यों ना हो और व्यक्ति पूजा के खिलाफ कांग्रेस में बोलने वालों में वो सबसे आगे थे, कांग्रेस के इतिहास में वो पहला नेता था, जिसने पैर छूने की परम्परा पर रोक लगाने की मांग की।

नेहरू केबिनेट में उन्हें मिनिस्टर आॅफ रेवेन्यू एंड एक्सपेंडीचर भी बनाया गया। इस पद पर रहते उनकी एक खास उपलब्धि है हर सरकार काला धन वापस लाने के लिए वोलंटरी डिसक्लोजर स्कीम लेकर आती है, यह स्कीम पहली बार देष में महावीर त्यागी ही लेकर आए थे। त्यागी ही वो पहले व्यक्ति थे, जिसने धारा 356 लगाने पर केरल की ईएस नम्बूरापाद की सरकार गिराने का विरोध किया था। त्यागी का वो बयान भी काफी चर्चा में रहा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर कांग्रेस जाति या संम्प्रदाय की राजनीति में पड़ती है, तो वो अपनी कब्र खुद ही खोद लेगी। बाद में त्यागी को पांचवे फाइनेंस कमीशन का अध्यक्ष भी बनाया गया, वित्त और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उन्होंने कई सुधार किए। आखिरी समय तक वो राजनीतिक व्यवस्थाओं में सुधार के लिए बयान जारी करते रहे, उन्होंने एक कांग्रेसी होने के नाते ना केवल जयप्रकाश नारायण के आंदोलन पर सवाल उठाए, बल्कि इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गई इमरजेंसी पर भी जमकर निशाना साधा। 

चीन द्वारा भारत की जमीन कब्जे के बाद संसद और संसद के बाहर उस समय के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन का इस्तीफा मांगे जाने लगा। पंडित नेहरु कृष्ण मेनन को बहुत अधिक मानते थे। उनकी कई शिकायतें नेहरु जी के पास आ चुकी थीं। फिर भी वे कृष्ण मेनन को हटाने को तैयार नहीं थे। पुराने लोग बताते हैं कि तब महावीर त्यागी ने नेहरु जी को नागयज्ञ की कथा सुनाई। कहा देवराज इंद्र ने तक्षक को अपने सिंहासन के नीचे शरण दे दी थी।

इस यज्ञ में पुरोहित-पंडित नागों के नाम ले-लेकर आहुतियां देते। नाग आकर यज्ञ की आग में गिर रहे थे। तमाम मंत्रों के बाद तक्षक नहीं आ रहा था। तब पुरोहितों ने मंत्र पढ़े- ‘तक्षकाय-इंद्राय स्वाहा’। इस मंत्र के असर से तक्षक से बंधे अपने सिंहासन समेत इंद्र भी यज्ञ अग्नि की तरफ आने लगे। 

इसका हवाला दे कर महावीर त्यागी ने पंडित जी से कहा था - ‘अगर मेनन को नहीं हटाया गया तो जनता उसी मंत्र को आपका नाम भी लेकर पढ़ देगी।’ बाद में रक्षा मंत्री को इस्तीफा देना ही पड़ा।

भारतीय सेना ने 1965 के युद्ध में जो उपलब्धि हासिल की, उसे 1966 के ताषकंद समझौते में गंवा दिया गया था। उसके विरोध में तब के केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। त्यागी का आरोप था कि हमने जीती हुई ऐसी जमीन पाकिस्तान को लौटा दी जिसके रास्ते पाकिस्तानी हमलावर अक्सर कश्मीर को निशाना बनाते है।

मुकदमा - ‘‘1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महावीर त्यागी बिजनौर जिले में स्थित थे। अन्य बातों के साथ-साथ, संयुक्त प्रांत के बुलंदशहर में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, जिसे बाद में उत्तर प्रदेश के रूप में जाना गया।’’ ‘मुकदमे के दौरान ब्रिटिश मजिस्ट्रेट ॅम्श्रक्वइइे के इशारे पर उन पर हमला किया गया था।’ ‘‘इस घटना पर टिप्पणियों की एक शृंखला में, महात्मा गांधी ने त्यागी पर हमले की निंदा की।’’ ‘‘त्यागी पर मजिस्ट्रेट द्वारा निर्देशित हमले के खिलाफ वकील सैयद हसन बर्नी, वकील की अध्यक्षता में एक जन विरोध सभा बुलंदशहर में आयोजित की गई जिसमें 4000 से अधिक लोग शामिल हुए।’’

हमले को ‘राष्ट्र के खिलाफ अपराध’ के रूप में वर्णित करते हुए गांधी ने पूछा- ‘क्या इंग्लैंड के लाॅर्ड चीफ जस्टिस ने अपने सामने पेश किए जा रहे कैदी पर हमला किया और फिर भी अपने उच्च पद पर बने रहे?’ 

लाहौर के संपादक-कवि जफर अली खान ने महावीर त्यागी पर हुए हमले की निंदा करते हुए एक कविता लिखी। त्यागी पर मजिस्ट्रेट द्वारा निर्देशित हमले का मामला 4 नवंबर 1921 को संयुक्त प्रांत विधान परिषद में उठा। जिस पर सरकार ने मजिस्ट्रेट की कार्रवाई से खुद को दूर कर लिया। इसके बाद मामले को मेरठ के जिला मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित कर दिया गया और त्यागी को दोशी ठहराए जाने और दो साल की कैद की सजा होने पर आगरा जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने के बाद भी, देशद्रोही त्यागी ब्रिटिश शासन के लिए एक चिन्हित व्यक्ति बना रहेगा, जिसने अब तक उसे एक खतरनाक विरोधी के रूप में पहचाना था। 

महावीर त्यागी जी के 

संस्मरणों के कुछ अंश- 

- जवाहर लाल नेहरू ने संसद में ये बयान दिया कि, ‘अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है’ के जवाब में भरी संसद में महावीर त्यागी ने अपना गंजा सर नेहरू को दिखाया और कहा, यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं।

- चापलूसों को देश में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। इसी संदर्भ में एक शब्द ‘चरण चुंबक’ भी है। वर्ष 2013 के जुलाई महीने में इतिहासकार माधवन पालत के संपादन में नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लायब्रेरी में रखे कुछ दस्तावेजों से जो ‘सेलेक्टेड वर्क्स’ सामने आए, वो काफी रोचक हैं। इन दस्तावेजों में ऐसी कई चिट्ठियां भी शामिल हैं, जिनका जवाहरलाल नेहरू और तब के मंत्रियों या दूसरे राजनेताओं के बीच आदान-प्रदान हुआ। ऐसी ही एक चिट्ठी 1959 की है, जो देहरादून के सांसद महावीर त्यागी ने पंडित नेहरू को लिखी थी। 2 फरवरी, 1959 को इंदिरा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने से ठीक पहले त्यागी ने नेहरू को चिट्ठी लिखकर कहा कि अपने आसपास मौजूद ‘चरण चुंबकों से सावधान रहें’।

- ‘‘लोगों का खयाल है कि गहरी मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाने पर मनुष्य को असीम आनंद और संतुष्टि मिल जाती है। एक सीमा तक ये बात ठीक भी है, पर इसमें प्रश्न यह उठता है कि लक्ष्य की प्राप्ति के बाद क्या हो? या तो कोई दूसरा लक्ष्य ढूंढना पड़ेगा या मेरी तरह अपने नातियों के साथ आंख मिचोली खेल कर जी बहलाना होगा, कोठी बंगले और हलवा पूरी जिन किन्हीं को प्राप्त है वो धन्य हैं पर संसार का वास्तविक आनंद लूटने के लिए तो कोठी से बाहर निकल कर किसी गैर पर आंख टिकानी पड़ेगी और अपनी हलवा पूरी के साझीदार भी ढूंढने पड़ेंगे’’

- ‘‘पंडित मोती लाल नेहरू को अपने हाथ से सब्जी तरकारी पकाने का और विशेष अनुपात की चाय बनाने का शौक था। सन 1922 की बात है जब वे लखनऊ जेल की दीवानी बैरक में बंद थे तो मैं कभी-कभी सब्जी आदि छील दिया करता था। एक दिन दम आलू बनाने बैठे थे। मैं किसी दूसरी बैरक में गपशप के लिए चला गया। लौटने पर मैंने पूछा सब्जी ठंडी हो रही है भाई जी, आपने खाई क्यों नहीं। बोले ‘‘इतने शौक से बनाई थी तुम मटरगश्ती को चले गए, क्या मैं अकेला खाऊं? दाद देने वाले न मिले तो ग़ज़ल सुनाना बेकार है। सुख का असली मजा तो साझेदारी में ही है।’’

- ‘‘फटी आस्तीन और नंगे सर तपती धूप में साइकिल पर 14 मील का सफर करके एक घने जंगल से गुजर रहा था कि पेड़ों की छाया में एक ठंडे पानी का झरना दिखाई दिया बस प्यास भड़क उठी उतरा और दोनों हाथों की खींच भर भर के अपनी थकी आत्मा को ढांढस देने लगा, कैसा फरिश्ता सा लगता था मैं। आज मिनिस्ट्री की कुर्सी पर बैठ कर जब कभी शीशे के गिलास में बर्फ का पानी पीता हूं तो ठंडी सांस लेकर पुरानी गरीबी के मजे याद आते हैं -ओक (हाथों के चुल्लू) से पिए पानी का मजा गिलासों में कहा है।’’

- ‘‘आजकल की दुनिया इस पर यकीन न करेगी पर मेरे यह निजी अनुभव की बात है कि एक समय ऐसा था जब मेरे जिले देहरादून की सारी जनता एक सामूहिक परिवार की तरह से रहती थी। सारे अमीर गरीब हिंदू-मुस्लिम- सिख-ईसाई एक दूसरे से पूरी अपनावट मानते थे और सच्ची सुहानुभूति रखते थे, मकानों और दुकानों पर अधिकतर ताले भी नहीं लगते थे क्योंकि बईमानी चोरी और धोखाधड़ी नहीं होती थी।’’ 

‘‘1974 सच बात तो ये है कि स्वराज होने से हम अधिकांश कांग्रेस वाले बेरोजगार और निठल्ले हो गए हैं अब आनंद रुपी मजदूरी मिलती नहीं है जिस मालिक (महात्मा गांधी) ने हमें पाला वह मर गया उसी चुटकी पर कान खड़े करते और उसी की सीटी पर कूदते फांदते और शिकार करते थे उसी की मुस्कराहट पर लट्टू बने घूमते थे। अब हमारे गले का पट्टा निकल गया है और लावारिस बने इधर-उधर पूंछ हिलाते फिर रहे हैं। अब कोई चुटकी बजाता नहीं और न कोई मुस्कुराता है। गिन-गिन कर हर नेता का दरवाजा खटखटा चुके कि कोई मदद लगावे तो हम भी काम में लग जावे पर नेताओं के पास उपाधियां तो बहुत हैं वजीफे ओहदे परमिट और लाइसेंस आदि भी बहुत हैं चाय के प्याले भी हैं पर काम नहीं है।’’

‘‘हम खूब बढ़ बढ़ कर बात करते थे और गांधी जी की बात बताते बताते थकते नहीं थे। लेक्चर भी हम इसलिए थोड़े ही देते थे कि हम जनसाधारण से अधिक जानते थे बल्कि इसलिए की हम इनमे वही मजा आता था जो की कुत्ते को भोकने और में और शोर मचने में आता हे पर अब वह सारी बाते स्वप्न हो गई है। अब हमें सचमुच अंग्रेजों की याद सताने लगी है वह हमसे लड़ता था लाठीचार्ज करता था हथकड़ी डालता था और जेल भेजता था था पर जब जेल से छूट कर आते तो बड़े शौक से हाथ मिला लेता था। उसके रहते रहते हमने 29 वर्ष पूर्ण सवराज और स्वछंदता का मजा लूटा उसके चले जाने से जैसे बेरे खानसामे बेरोजगार हो गए- वैसे ही कांग्रेस कार्यकर्ता भी बेकार हो गए बापू की कमाई तो खत्म हो रही है बेटो को खुद भी तो कुछ कमाई करनी चाहिए।’’

बापू की उस दिन की डाट याद करके प्यार उमड़ आता है। आजकल के गुलाबी लीडर तो आप आप करके बोलते हैं मां बाप गुरु और बड़े भाई की डाट धमकी गली चपतबाजी की तह में जितना अपनापन और प्यार है उसका सौवां हिसा भी आजकल के प्यार दुलार और चुमकार में नहीं मिलता है। ‘‘1929 महात्मा गांधी देहरादून क्या आए मेरी उम्र 30 वर्ष से घटकर 15 की रह गई और सर पर स्कूल के बच्चों वाली शैतानी सवार हो गई मंुह आई बकने लगा और मनमानी करने लगा। न जाने किस नशे में चूर था मैं, मेरी चाल-ढाल बातचीत कहना सुनना और उठना बैठना सब ऐसा बदला मानो औलिया हो गया हूं करता भी क्या शहर वालों ने पागल बना रखा था मैं तो फिर भी एक छोटा सा आदमी था अच्छों अच्छों के दिमाग फिर जाते हैं जब चारों और से लोग उनका नाम ले ले कर पुकारने लगते हैं मांग बढ़ जाने पर तो मेथी पालक के भी भाव बढ़ जाते हैं। ‘‘एक दिन जब बापू सेवाग्राम में टहल रहे थे कि रास्ते में एक 2 इंच लंबा एक पूनी (चरखे कातने की रुई) का एक टुकड़ा पड़ा दिखाई दे गया। बापू ने उसे उठा लिया और आश्रमवासियों से कहा कि देश की संपत्ति को इस लापरवाही से नहीं फेंकना चाहिए।’’

‘‘उन दिनों कांग्रेस संस्था का रूप एक परिवार के जैसा था जिसमें एक दूसरे की डाट-डपट भी होती और रूठों हुओं की खुशामद भी होती थी। असल में उन दिनों हमारा सपना साझे का था। सभी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार उसमें रंग भरते थे इसलिए आपस में ईष्र्या नहीं थी स्पर्धा थी। आज की संतति उन दिनों का चित्रण पूरी तरह से नहीं कर सकते हैं क्योंकि अब वे सपने फूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। अब तो हम सब व्यक्तिगत सपने देख रहे हैं और अपने-अपने निजी सपनो में रंग भरने की चिंता करते है।’’ महात्मा गांधी ने मुझे मुनादी का काम सौपा सवतंत्रता संग्राम के दिनों में लाखों साथियों ने न जाने किस-किस तरह से पेट जून बांध कर अपने-अपने परिवार का गुजारा चलाया था। महात्मा गांधी ने कुछ ऐसा जादू सा कर दिया था कि हमें अपनी गरीबी में शान और अपनी अमीरी में शर्म लगने लगी थी और हमारे बाल-बच्चे भी परिवार की निर्धनता या सादगी पर नाज करते थे हममें से कुछ ऐसे भी थे जिन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी पर वे भी फटे कुर्तों में सीधा-सादा जीवन व्यतीत करते थे।’’ 

‘‘जब से मैंने मुनादी का काम शुरू किया तब से मुनादी के काम में महत्व आ गया हर चैराहे पर एक मूढ़ा कुर्सी और उस पर खड़ा होकर या तो ढोल बजा कर या घंटा बिगुल द्वारा भीड़ इकट्ठी कर ली और महात्मा गांधी के आदर्शों का प्रचार आरम्भ कर दिया जब भीड़ ज्यादा होने लगी तो एक भोपू खरीद लिया ताकि उसके द्वारा दूर दूर तक आवाज पहुंच जाए इस तरह से थोड़े ही दिनों में शहर के लोग मुझे पहचान गए। आज तो मैं भारत का रक्षा संगठन मंत्री हूं फिर भी दो तीन दिन हुए कि मैं देहरादून में ढोल लेकर जगह जगह ऐलान कर आया हूं कि जवाहर लाल नेहरू हमारे नगर में पधार रहे हैं सभी भाई बहनों को चाहिए कि उनका स्वागत और दर्शन करने के लिए पुश्प मालाएं लेकर सड़क के दोनों और खड़े हो जाएं मैं उनकी मोटर को धीरे धीरे चलाऊंगा ताकि आप लोग जी भर के दर्शन कर सकें।’’

‘‘मेरी धारणा ये है कि मुनादी का काम मैं जीवन भर करूंगा। मुनादी महात्मा गांधी का दिया हुआ पोर्टफोलियो है, मिनिस्ट्री का पोर्टफोलियो जवाहर लाल जी का अगर दोनों में झगड़ा जाएगा तो में नेहरू जी का पोर्टफोलियो छोड़ दूंगा गांधी जी को नहीं छोड़ूंगा।’’

संदर्भ-

1. https://hindi.news18.com/news/political kisse after indo-china war mahavir tyagi criticised prime minister pt. jawaharlal neharu in parliament nodrp-2093770.html

2. https://hindi.news18.com/news/nation/atal went to shimla to make indira gandhi aware of the 1500051.html

3.https://www.hmoob.in/wiki/Mahavir_Tyagi

4. https://jantaserishta.com/editorial/story of nehru indira and mahavir tyagi on the pretext of charan magnet touching cms feet-935458

5. http://hindi.news18.com/blogs/vishnu/nehru and china-505718-html

6. https://www.punjabkesari.in/aapki.kalam.se/news/mahavir tyagi freedom fighter fighter who gave new dimension to politics 1171659

7. यंग इंडिया, 13 अक्टूबर 1921 और संयुक्त प्रांत विधान परिशद बहस, 5 नवंबर 1921

8. स्वतंत्र, 9 अक्टूबर 1921, नेता , 10 अक्टूबर 1921 और यंग इंडिया , 13 अक्टूबर 1921

9. यंग इंडिया, 13, 20, 27 अक्टूबर 1921 और 10 नवंबर 1921 

10. महात्मा गांधी के कलेक्टेड वर्क्स, खंड 21, 1966 (सीडब्ल्यूएमजी), पीपी 284-5, 310-1, 312-3, 344-6, 406- 7

11. यंग इंडिया , 13 अक्टूबर 1921)। 

12. यंग इंडिया, 20 अक्टूबर 1921

13. देखें यूपी विधान परिशद वाद-विवाद, ‘राफियां’

14. एम. हाषिम किदवई, रफी अहमद किदवई, नई दिल्ली, 1986, पृष्ठ 215-216

Comments

Popular posts from this blog

अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति

अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

मणिपुरी कविता: कवयित्रियों की भूमिका

प्रो. देवराज  आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए ज

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष