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Showing posts with the label कहानी

कसबे का आदमी

  कमलेश्वर सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य साफ़ हो रहे थे, जैसे कोई चित्रित कलाकृति पर से धीरे-धीरे ड्रेसिंग पेपर हटाता जा रहा हो। उसे यह सब बहुत भला-सा लगा। उसने अपनी चादर टाँगों पर डाल ली। पैर सिकोड़कर बैठा ही था कि आवाज़ सुनाई दी, "पढ़ो पटे सित्तारम स़ित्तारम. . . "  उसने मुड़कर देखा, तो प्रवचनकर्ता की पीठ दिखाई दी। कोई ख़ास जाड़ा तो नहीं था, पर तोते के मालिक, रूई का कोट, जिस पर बर्फ़ीनुमा सिलाई पड़ी थी और एक पतली मोहरी का पाजामा पहने नज़र आए। सिर पर टोपा भी था और सीट के सहारे एक मोटा-सा सोंटा भी टिका था। पर न तो उनकी शक्ल ही दिखाई दे रही थी और न तोता। फिर वही आवाज़ गूँज उठी, "पढ़ो पटे सित्तारम सित्तारम. . ." सभी लोगों की आँखें उधर ही ताकने लग गईं। आख़िर उससे न रहा गया। वह उठकर उन्हें देखने के लिए खिड़की की ओर बढ़ा। वहाँ तोता भी था और उसका पिंजरा भी, और उसके हाथ में आटे की लोई भी, जिससे वे फुरती से

खोल दो

  सआदत हसन मन्टो अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।   सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था। गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया

मैमूद

शैलेश मटियानी महमूद फिर ज़ोर बाँधने लगा ,  तो जद्दन ने दायाँ कान ऐंठते हुए ,  उसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया। ठीक थूथने पर थप्पड़ मारती हुई बोली , '' बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी क्या हिलाता है ,  स्साले! दूँगी एक कनटाप ,  तो सब शेखी निकल जाएगी। न पिद्दी ,  न पिद्दी के शोरबे ,  साले बहुत साँड बने घूमते हैं। ऐ सुलेमान की अम्मा ,  अब मेरा मुँह क्या देखती है , रोटी-बोटी कुछ ला। तेरा काम तो बन ही गया ?  देख लेना ,  कैसे शानदार पठिये देती है। इसके तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं। '' अपनी बात पूरी करते-करते ,  जद्दन ने कान ऐंठना छोड़कर ,  उसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। अब महमूद भी धीरे-से पलटा ,  और सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह में भर लिया ,  तो वह चिल्ला पड़ी , '' अरी ओ सुलेमान की अम्मी ,  देख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी आँखों से! चुगद कान ऐंठने का बदला ले रहा है। ए मैमूद ,  स्साले ,  दाँत न लगाना ,  नहीं तो तेरी खैर नहीं। अच्छा ,  ले आयी तू रोटियाँ ?  अरी ,  ये तो राशन के गेहूँ की नहीं ,  देसी की दिखती हैं। ला इधर। देखा तूने ,  हरामी कैसे मे

ख़ुशी की कीमत

  "अरे तुम तैयार क्यों नहीं हो रही हो| " "क्या पहनूं जी, ढंग की साड़ियां ही नहीं है |" "पूरी अलमारी तो साड़ियो से भरी पड़ी है और तुम कह रही हो कि साड़ियां ही नहीं है|" "सब पुरानी साड़िया हैं | नयी दिलाई हैं क्या आपने ?" "अरे अभी तो खरीदी थीं तुमने, अपने भाई की शादी में|'' "अभी नहीं पति महोदय, पूरे दो साल हो गये | कितनी बार पहना है उन्हें,पता है ?बबलू की शादी में, भाई की शादी में, मिन्टी की सगाई में और ...." "हाँ तो क्या हुआ, वही पहन लो| अरे, बस-बस कुछ भी पहन लो, चलो जल्दी देर हो रही है| अगले महीने तनख्वाह मिलते ही और दिला दूँगा | अहा ! देखो, हँसते हुए कितनी प्यारी लगती हो | पक्का, १००० सिर्फ साड़ी के लिये दूँगा " "१००० रूपये, बस ! इतने में क्या होगा जी |" कनिका तुनक कर बोली | "तो फिर कितना ?" "आजकल ५०० रुपये तो ब्लाउज पर ही खर्च हो जाते है | महंगाई बढ़ गई है | कम से कम ५००० चाहिए ..." ''इतना? जितनी चादर हो उतना ही पाँव पसारना चाहिए, कनिका |" "यह कहावत पुरानी हो गयी जी| अब प

मौन

  अमन कुमार बूढ़ा मोहन अब स्वयं को परेशान अनुभव कर रहा था। अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाना अब उसके लिए भारी पड़ रहा था। परिवार के अन्य कमाऊ सदस्य अपने मुखिया मोहन की अवहेलना करने लगे थे। मोहन की विधवा भाभी परिवार के सदस्यों की लगाम अपने हाथों में थामे थी। वह बड़ी चालाक थी। वह नहीं चाहती थी कि मोहन अथवा परिवार का कोई भी सदस्य उसकी अवहेलना करे। यूं भी कहा जा सकता है कि मोहन घर का मुखिया था, परन्तु घर के मामलों में सभी महत्वपूर्ण निर्णय सोमती देवी ही लेती थीं। मोहन को अपने लिये मौन के सिवा दूसरा कोई रास्ता नजर ही नहीं आता था। दरअसल मोहन का बड़ा भाई सोहन सिंह बड़ा ही बलशाली और दबंग था। एक दुर्घटना में उसकी व मां इन्द्रो की मृत्यु हो गयी थी। तभी से घर-परिवार की जिम्मेदारी, मोहन और उसकी विधवा भाभी सोमती देवी दोनों ने संयुक्तरूप से सम्हाली थी। मोहन को अपना वह वचन आज भी याद है, जिसमें उसने अपनी भाभी सोमती देवी से कहा था- ‘आप बड़ी हैं, जैसा चाहेंगी हम करते जायेंगे।’ बस इसी एक बात का भरपूर लाभ सोमती देवी उठाना चाहती थीं। सोमती देवी ने अपने पुत्र रोलू को राजकुमार बनाने का सपना देख लिया था। मोहन की माँ

लौकी की बेल

इन्द्रदेव भारती रामा !  बेल  चढ़ी  लौकी की, लो  अपने  भी  द्वार  चढ़ी ।। भोर  भये   में   कलियां   फूटैं, सूरज    चढ़ते    चटकै     हैं । भरी   दुपहरी   फूलन    फूलैं, देख  सभी   जन   मटकै   हैं । चोबाइन    के    चौबारे   पै, त्यागन   की   दीवार  चढ़ी ।। छुटकी-छुटकी कोमल जइयाँ, बड़की - बड़की जब  होंगी । जब होंगी जी,  तब  होंगी वो, और  ग़ज़ब  की   सब  होंगी । धोबनिया  के  घाट  पै  फैली, नाइन    के   ओसार   चढ़ी ।। घोसनिया   के   घेर  चढ़ी जी, बामनिया    के     बंगले   पै । चौहनिया  के  चौक  चढ़ी  तो, जाटनिया    के    जंगले   पै । गुरुद्वारे   के   गुम्बद  ऊपर, मंदिर  जी   के   द्वार  चढ़ी ।। मनिहारन  की   चढ़ी  मुंडेरी, चढ़ी  जुलाहन   के   घर  पै । चढ़ी   लुहारन  के   हाते   में, छिप्पीयन   के    छप्पर   पै । गिरजाघर  के  गेट  चढ़ी  तो, मस्ज़िद  की   मीनार  चढ़ी ।। चढ़ी  अमीरन  के  आंगन  में, नीम   चढ़ी    निर्धनिया  के । चढ़ी  खटीकन की   खोली पै, बिना   भेद    तेलनिया   कै । हिंदू, मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई वार के  सब पे  प्यार चढ़ी ।

ग़ज़लिया

इन्द्रदेव भारती आधी रख,या सारी रख । लेकिन  रिश्तेदारी  रख ।। छोड़ के  तोड़  नहीं प्यारे, मोड़ के अपनी यारी रख । शब्दों  में  हो  शहद  घुला, नहीं  ज़बाँ पर आरी रख । भले  तेरी   दस्तार   गयी, तू  सबकी  सरदारी  रख । "देव''  नहीं   दुनिया  तेरी,   पर  तू   दुनियादारी  रख ।  

एक ग़ज़लिया

इन्द्रदेव भारती खुशियाँ  दे  तो   पूरी दे । बिल्कुल  नहीं अधूरी दे । कुनबा  पाल सकूँ  दाता, बस  इतनी  मजदूरी  दे । बेशक आधी  प्यास बुझे, लेकिन   रोटी   पूरी   दे । बिटिया  बढ़ती  जावे  है, इसको  मांग  सिंदूरी  दे । पैर  दिये   हैं  जब   लंबे, तो  चादर  भी   पूरी  दे । आँगन   में   दीवार  उठे, ऐसी   मत  मजबूरी  दे । 'देव'  कपूतों  से  अच्छा, हमको  पेड़  खजूरी  दे । 

पर्यावरण अपना

ज्योत्सना भारती यह.... धरती ! रहे....सजती ! सजे पर्यावरण अपना । यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।             ( 1 ) ये  जीवनदायनी  वायु, ये जीवनदायी पानी है । ये माटी  उर्वरा  माँ  है, ये ऊर्जा भी बचानी है । वो वापिस लो ! गया   है   जो ! हरा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।              ( 2 ) कहीं पे  रात हैं  दहकी, कहीं पे दिन हैं बर्फानी । कहीं भूकंप,कहीं सूखे, कहीं वर्षा की मनमानी । न कर दूषित ! करो  पोषित ! बचा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 3 ) है कटना वृक्ष जरूर एक, तो पौधें दस वहाँ  लगनी । नहीं कंक्रीट  की  फसलें, किसी भी खेतअब उगनी । न  शोषित   हो ! औ शोभित हो ! सदा  पर्यावरण अपना ।। यही    विनती ! कलम  करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 4 ) न भाषण हों,न वादे हों, न  बातें हों,  कहानी हों । यही शुभ कर्म,मानें धर्म, यदि  स्वांसें  बचानी  हों । ये  घोषित हो ! प्रदूषित    हो ! नहीं  पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।  

 श्याम रंग वाला कागा

इन्द्रदेव भारती (1) भोर   भये    वो, आता   है    जो, काँव-काँव  करता कागा । नंद   के    नंदन, के   शुभ  दर्शन, करता है  वो  बिन नागा । (2) हाथ में....पौंची, गल.....वैजन्ती, कान में कुंडल मधुर बजे । कटि करधनिया, पग....पैंजनिया, पंख  मोर का शीश सजे । (3) जसुमति  मैया, कृष्ण  कन्हैया, को माखन - रोटी देके । चुपके -चुपके, ओट में छुपके, रूप  देखती  कान्हा के । (4) ठुमक-ठुमक के, आये जो चलके, आँगन बीच कन्हाई ज्यों । ताक   में   बैठे, काग   ने   देखे, दृष्टि  उधर   गड़ाई   त्यों । (5) माखन    रोटी, हरि  हाथ  की, चोंच दबा कर के भागा । जगत अभागा, मगर   सुभगा, श्याम रंग  वाला  कागा । गीतकार - इन्द्रदेव भारती

मन समर्पित, तन समर्पित

रामावतार त्यागी   मन समर्पित, तन समर्पित, और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। माँ तुम्‍हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन, किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन- थाल में लाऊँ सजाकर भाल मैं जब भी, कर दया स्‍वीकार लेना यह समर्पण। गान अर्पित, प्राण अर्पित, रक्‍त का कण-कण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। माँज दो तलवार को, लाओ न देरी, बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी, भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी, शीश पर आशीष की छाया धनेरी। स्‍वप्‍न अर्पित, प्रश्‍न अर्पित, आयु का क्षण-क्षण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो, गाँव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो, आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो, और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो। सुमन अर्पित, चमन अर्पित, नीड़ का तृण-तृण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

पर्यावरण अपना

 ज्योत्सना भारती   यह.... धरती ! रहे....सजती ! सजे पर्यावरण अपना । यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।             ( 1 ) ये  जीवनदायनी  वायु, ये जीवनदायी पानी है । ये माटी  उर्वरा  माँ  है, ये ऊर्जा भी बचानी है । वो वापिस लो ! गया   है   जो ! हरा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।              ( 2 ) कहीं पे  रात हैं  दहकी, कहीं पे दिन हैं बर्फानी । कहीं भूकंप,कहीं सूखे, कहीं वर्षा की मनमानी । न कर दूषित ! करो  पोषित ! बचा पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 3 ) है कटना वृक्ष जरूर एक, तो पौधें दस वहाँ  लगनी । नहीं कंक्रीट  की  फसलें, किसी भी खेतअब उगनी । न  शोषित   हो ! औ शोभित हो ! सदा  पर्यावरण अपना ।। यही    विनती ! कलम  करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।।               ( 4 ) न भाषण हों,न वादे हों, न  बातें हों,  कहानी हों । यही शुभ कर्म,मानें धर्म, यदि  स्वांसें  बचानी  हों । ये  घोषित हो ! प्रदूषित    हो ! नहीं  पर्यावरण अपना ।। यही   विनती ! कलम करती ! बचे  पर्यावरण अपना ।। ए/3-आदर्शनगर नजीबाबाद-246763 (ब

ऐ ज़िंदगी!

निधी   ऐ ज़िंदगी! ज़रा ठहर वक्त लिख रहा है सदियों की दास्तां। बन न जाए ये हकीक़त  कहीं किस्से कहानी दुनिया के लिए तूने तो दिखाया आईना  हम ही नादान बने गर तो तेरी क्या खता ए ज़िन्दगी  क्या अहम, क्या घमण्ड क्या मैं, क्या तू सब हैं एक दायरे में अब समझ जाएं तो बात बने।।।

खुशियाँ  दे  तो   पूरी दे

इन्द्रदेव भारती खुशियाँ  दे  तो   पूरी दे । बिल्कुल  नहीं अधूरी दे । कुनबा  पाल सकूँ  दाता, बस  इतनी  मजदूरी  दे । बेशक आधी  प्यास बुझे, लेकिन   रोटी   पूरी   दे । बिटिया  बढ़ती  जावे  है, इसको  मांग  सिंदूरी  दे । पैर  दिये   हैं  जब   लंबे, तो  चादर  भी   पूरी  दे । आँगन   में   दीवार  उठे, ऐसी   मत  मजबूरी  दे । 'देव'  कपूतों  से  अच्छा, हमको  पेड़  खजूरी  दे ।  नजीबाबाद(बिजनौर)उ.प्र

हारे थके मुसाफिर

रामावतार त्यागी   हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से मैंने अक्सर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है । कोई ठोकर लगी अचानक जब-जब चला सावधानी से पर बेहोशी में मंजिल तक जा पहुँचा हूँ आसानी से रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से मैंने अक्सर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है ॥ प्यासे अधरों के बिन परसे, पुण्य नहीं मिलता पानी को याचक का आशीष लिये बिन स्वर्ग नहीं मिलता दानी को खाली पात्र किसी का अपनी प्यास बुझा कर भर देने से मैंने अक्सर यह देखा है मेरी गागर भर जाती है ॥ लालच दिया मुक्ति का जिसने वह ईश्वर पूजना नहीं है बन कर वेदमंत्र-सा मुझको मंदिर में गूँजना नहीं है संकटग्रस्त किसी नाविक को निज पतवार थमा देने से मैंने अक्सर यह देखा है मेरी नौका तर जाती है ॥

ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई

रामावतार त्यागी ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई एक बस्ती थी वो भी शहर हो गई घर की दीवार पोती गई इस तरह लोग समझें कि लो अब सहर हो गई हाय इतने अभी बच गए आदमी गिनते-गिनते जिन्हें दोपहर हो गई कोई खुद्दार दीपक जले किसलिए जब सियासत अंधेरों का घर हो गई कल के आज के मुझ में यह फ़र्क है जो नदी थी कभी वो लहर हो गई एक ग़म था जो अब देवता बन गया एक ख़ुशी है कि वह जानवर हो गई जब मशालें लगातार बढ़ती गईं रौशनी हारकर मुख्तसर हो गई

आधी रख,या सारी रख

इन्द्रदेव भारती   आधी रख,या सारी रख । लेकिन  रिश्तेदारी  रख ।। छोड़ के  तोड़  नहीं प्यारे, मोड़ के अपनी यारी रख । शब्दों  में  हो  शहद  घुला, नहीं  ज़बाँ पर आरी रख । भले  तेरी   दस्तार   गयी, तू  सबकी  सरदारी  रख । "देव''  नहीं   दुनिया  तेरी,   पर  तू   दुनियादारी  रख । नजीबाबाद(बिजनौर)उ.प्र

ओ मेरे मनमीत

  ज्योत्सना भारती   ओ मेरे मनमीत ! प्यार के गीत, वही फिर गाना चाहती हूँ। मधुर.....रजनी, सजी....सजनी, ठगी फिर जाना चाहती हूँ। आज ये कितने, साल हैं गुजरे, एक-एक दिन को गिनते। प्यार की बारिश में....हम...भीगे, लड़ते...और....झगड़ते। वही.......पुराने, प्रेम - तराने, गाना......चाहती......हूँ। जो मान दिया, सम्मान दिया, दी खुशियों की बरसात। अवगुण हर के, सद्गुण भर के, बाँटे दिन और रात। परिवार....संग, राग और रंग, मनवाना....चाहती...हूँ।   हमारे 48वे परिणय दिवस को समर्पित यह गीत

परिणय की इस वर्षगांठ पर,

  इन्द्रदेव भारती     प्रिये ! तुम्हारे, और.....हमारे, परिणय की इस वर्षगांठ पर, आज कहो तो, क्या दूँ तुमको, जो कुछ भी है,प्रिये ! तुम्हारा, मेरा क्या है ।। नयन....तुम्हारे, स्वप्न.....तुम्हारे, मधु-रजनी नवरंग तुम्हारे। सुबह- शाम के, आठों याम के, जन्म-मरण के रंग तुम्हारे। कल-आज-कल, सुख का हर पल, सब पर लिक्खा नाम तुम्हारा, मेरा क्या है ।। स्वांस तुम्हारे, प्राण तुम्हारे, तन-मन के सब चाव तुम्हारे। पृष्ठ....तुम्हारे, कलम तुम्हारे, गीत-ग़ज़ल के भाव तुम्हारे। तुमको अर्पण, और समर्पण, मेरा यह सर्वस्व तुम्हारा, मेरा क्या है ।।   48 वे "परिणय दिवस" पर उर के उद्गार 

महामारी में

इन्द्रदेव भारती दाता जीवन दीप बचाले, मौत की इस अँधियारी में। अपने लगने लगे बेगाने, दाता इस महामारी में।। 1. बंद पड़ा संसार है दाता। बंद पड़ा घर-द्वार है दाता। बंद पड़ा व्यापार है दाता। बंद पड़ा रुजगार है दाता। नक़द है मेहनत, लेकिन मालिक, धेल्ला दे न उधारी में।। 2. छोड़ शहर के खोट हैं लौटे। खाकर गहरी चोट हैं लौटे। गला भूख का घोट हैं लौटे। लेकर प्यासे होंठ हैं लौटे। चले गाँव के गाँव, गाँव को, आज अजब लाचारी में।। 3. आगे-घर के राम-रमैया। पीछे छुटके बहना-भैया। लाद थकन को चलती मैया। पाँव पहनके छाले भैया। राजपथों को नापें कुनबे, ज्यों अपनी गलियारी में।। 4. आँगन से छत, चैबारे लो। चैबारे से अंगनारे लो। अंगनारे से घर-द्वारे लो। घर-द्वारे से ओसारे लो। घूम रहे हैं अपने घर में, कै़द हो चार दीवारी में।। 5. घर के बाहर है सन्नाटा। घर के भीतर है सन्नाटा। इस सन्नाटे ने है काटा। घर में दाल, नमक न आटा। उपवासों की झड़ी लगी है, भूखों की बेकारी में।। 6. दूध-मुहों की बोतल खाली। चाय की प्याली अपनी खाली। तवा, चीमटा, कौली, थाली। बजा रहे हैं सारे ताली। चूल्हे बैठे हैं लकड़ी के- स्वागत की तैयारी में।। 7. धनवानों के भाग्य