अर्चना राज़
तुम अर्चना ही हो न ?
ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में
कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी, मै
चौंक उठी थी ....आमतौर
पर कोई मुझे इस बेबाकी से इस शहर में नहीं बुलाता क्योंकि एक लंबा अरसा गुजारने के
बाद भी इस
शहर से मेरा रिश्ता बड़ा औपचारिक सा ही है... न तो मैंने और न ही इस शहर ने कभी
मुझे अपना बनाना चाहा पर खैर ...... हलके आश्चर्य के साथ सौजन्यतावश मैंने पलटकर
देखा --------हाँ ...मै अर्चना ही हूँ पर माफ़ करें मैंने आपको पहचाना नहीं .
मेरे सामने लगभग मेरी ही हमउम्र एक महिला खडी थी , हल्का भरा शरीर , गोरी
रंगत , गंभीर
आँखें पर किंचित हल्की मुस्कान लिए ..नीले रंग के परिधान में जो उसपर बहुत फब रहा
था ,
तुमने मुझे पहचाना नहीं , मै वैशाली हूँ .....वैशाली आर्या .....याद आया .....
हम कॉलेज में साथ थे . स्मृतियों के लम्बे गलियारे का दरवाज़ा कुछ ही पलों में ख़ट करके खुल गया .....मुझे ज्यादा
मेहनत नहीं करनी पडी ....मैंने उसे तुरंत ही पहचान लिया ......अरे वैशाली .....तुम
..यहाँ ? मुझे
ख़ुशी भी थी और कुछ आश्चर्य भी .
पहचान लिए जाने की सुकून भरी मुस्कुराहट के साथ उसने
कहा ,------हाँ
यार ....यहाँ एक दोस्त के पास आयी थी और देखो कि अब तुमसे भी मुलाक़ात हो गयी
...कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया .( बेहद ईमानदारी से कहूं तो उसका ये अपनत्व
अप्रत्याशित था मेरे लिए जिसके लिए मै तैयार नहीं थी )
फिर भी अपनेपन की बड़ी गुनगुनी सी अनुभूति हुई
....इसलिए नहीं कि वो मेरी बड़ी अच्छी दोस्त रही थी ( बल्कि वो तो मेरी दोस्त भी
नहीं थी बस क्लासमेट भर थी परन्तु मेरे लिए हमेशा से ही एक आकर्षण का एक केंद्र
...क्योंकि उस वक्त भी मुझे हमेशा महसूस होता रहा था कि दरअसल वो वैसी है नहीं
जैसा वो खुद को दिखाया करती है ( आज भी बिलकुल वही भाव उसको देखकर मेरे मन में तैर
गए )....वो हमेशा ही बहुत बिंदास ...मस्ती करने वाली और लड़कों से टक्कर लेने के
लिए हर वक्त तैयार नज़र आती थी .....उसके व्यक्तित्व में कुछ तो अलग और चुम्बकीय सा
था जो मुझे आकर्षित करता था परन्तु क्या ...ये मै ठीक-ठीक नहीं समझ पाती थी और फिर
इसी दरमियान एक दिन अचानक ही पता चला कि वो कहीं और चली गयी अपने माता-पिता के साथ
. मेरे मन में तब बहुत सारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए थे ...तमाम उलझनों और जवाब
न जान पाने की झल्लाहट भरी टीस के साथ .
धीरे-धीरे इस घटना पर वक्त की धूल जमती गयी और उसका
अक्स भी धुंधलाता चला गया पर कई वर्षों बाद जब वही वैशाली आज इस तरह अचानक मिली तो
सच मानिए बड़ा अच्छा सा लगा .
गुजरे वर्षों में कभी-कभी मुझे उसकी बहुत याद आती
रही थी ...उसकी आँखें जो अपेक्षाकृत बड़ी और खाली -खाली सी थीं बहुत आक्रामक लगती
थीं....एक विद्रोह नज़र आता था उनमे जैसे दुनिया को -समाज को टक्कर देने के लिए हर
वक्त तैयार बैठी हो .... मै
अक्सर सोचती थी कि उसके बारे में उसी से कुछ जानू ....उससे बातें करूं पर पता नहीं
क्यों जब भी उसके पास जाने को होती तो यूँ लगता कि मानो उसने अपने चारों तरफ एक
अभेद्य लोहे की दीवार
सी खडी कर रखी है जिसे तोड़ना लगभग नामुमकिन है और ये भी कि उसके बारे में हम सिर्फ
उतना ही जान सकते हैं जितना वो खुद बताना चाहे ...उससे न एक शब्द कम न एक शब्द
ज्यादा . उसके व्यक्तित्व की यही विशेषता या कहूं विचित्रता मुझे आकर्षित करती रही
थी और जो आज तक भी वैसे
ही कायम थी.....भले ही उस पर वक्त की कितनी भी धुल चढी हो पर उसके नीचे उसका
व्यक्तित्व एक बड़े से प्रश्न चिन्ह के साथ बिलकुल सुरक्षित था और सुलगता हुआ भी जो
पहले ही दस्तक में अपनी सम्पूर्णता के साथ उठ खडा हुआ था .
वैशाली जब आज इस तरह अचानक मुझे मिली तो यूँ लगा कि
जैसे कोई वर्षों पुरानी बिछड़ी हुई सबसे अच्छी
दोस्त मिल गयी हो ...ये लगभग वैसी ही अनुभूति थी
जैसे विदेश में अचानक ही आपके जिले या राज्य का भी कोई व्यक्ति मिल जाए तो बड़ा
अपना सा लगता है और हम तो फिर भी एक साथ पढ़े थे . जब ध्यान से उसके चेहरे की तरफ देखा तो उसमे हल्का सा ही पर कुछ
बदलाव भी आया था जो सुखद और सकारात्मक था ....मुस्कुराता चेहरा हालांकि गंभीरता की
झलक अब भी थी ....थोडा भर आया सा शरीर जो अच्छा लग रहा था और सबसे महत्वपूर्ण थीं
उसकी आँखें ......जिनमे खालीपन की बस यादें सी ही नज़र आ रही थीं और आक्रामकता की
जगह एक ठहराव और परिपक्वता थी ....पर उसका व्यक्तित्व ... वो आज भी उतना ही
चुम्बकीय महसूस हो रहा था जितना तब था .
औपचारिक बातों के बाद मैंने उससे लगभग इसरार किया कि
कहीं बैठकर ढेर सी बातें करते हैं ...मुझे तुमसे बहुत कुछ जानना है ....उसकी आँखों
में हल्का सा विस्मय कौंधा पर शायद वो भी मेरे चेहरे से मेरा मन पढने और समझने की
वही कोशिश कर रही थी जो मैंने की थी
( शायद उसे ये लगा हो कि मै तो उसकी कोई इतनी अच्छी
दोस्त थी नहीं जो इस तरह का हक़ जताऊ )और फिर वो शालीनतावश मेरे मनोभाव को समझकर
धीरे से मुस्कुरा दी ....कुछ एक बार स्वाभाविकतः ना नुकुर करने के बाद वो तैयार हो
तो गयी पर उसका असमंजस भी उसके चेहरे पर स्पष्ट था ...उसने पलटकर अपने मित्र की
तरफ देखा ...मै हौले से चौंक उठी ( हालांकि मेरा चौंकना बेमानी था ...पर फिर भी
...क्योंकि अब जाकर मुझे पता लगा कि उसका मित्र दरअसल कोई लड़की नहीं बल्कि एक लड़का
है जिससे जल्द ही उसकी मंगनी होने वाली है ) . मेरे लिए अब स्थिति थोड़ी सी असहज हो
गयी क्योंकि मैंने उसकी किसी सहेली की उम्मीद की थी जिससे कुछ समय के लिए वैशाली
को मांगना शायद अनुचित न होता पर यहाँ तो माजरा ही बिलकुल अलग था पर फिर भी मैंने
हिम्मत नहीं हारी ( यही शब्द उपयुक्त होगा यहाँ क्योंकि मेरी जिज्ञासा मेरी सभ्यता
पर अब हावी होने लगी थी ) ....बहुत संकोच के साथ ही पर कुछ देर के लिए मैंने उसे
उसके मित्र
से उधार ले लिया था ...सच कहूं तो हालांकि उसके मित्र को ये अच्छा नहीं
लगा....हलकी नाराजगी भी उसके चेहरे से स्पष्ट थी पर शायद सौजन्यतावश ही वो मना
नहीं कर पाया या
फिर शायद वो वैशाली को उसकी मित्र से मिलने से रोकना नहीं चाहता था ....हालांकि
सभ्य समाज में इस तरह के रिश्तों में और वो भी इस दौर में से किसी एक को कुछ समय
के लिए ही सही जुदा करना असभ्यता मानी जाती है पर आज वैशाली को पूरी तरह से जानने
के लिए मै असभ्य बनने को भी तैयार थी क्योंकि मुझे मालूम था कि इसके बाद शायद वो
मुझे कभी नहीं मिलेगी और उसके बारे में जानने का ये आखिरी मौका मै किसी भी कीमत पर
गंवाने के लिए तैयार नहीं थी .
तो इस तरह से मै आज फिर मिली वैशाली से .....बड़े
इत्मीनान से पहले हम कैफ़े गए ....कॉफ़ी वगैरह पीने के साथ-साथ कॉलेज के दिनों की
यादें ताज़ा होती रहीं .....उन दिनों मशहूर रहे अफेयर्स के बारे में हंसी-मज़ाक चलता रहा . कुछ समय के
बाद जब इधर-उधर की सारी बातें चुक गयीं तब लगा कि यहाँ अब और बैठना या बातें करना
मुफीद और मुनासिब नहीं होगा क्योंकि शोर बहुत था और अब दिलों के खुलने की बारी थी
.....अमूमन ऐसी
जगहों पे दिल नहीं खुला करते ...स्मृतियों को कुरेदने औरउसमे सफ़र करने के लिए
एकांत और शांति की जरूरत होती है . फिर हम पास ही मौजूद एक पार्क में गए जहां बेहद
माफिक माहौल था ...वहीँ एक कोने की बेंच पर हम बैठे .... मैंने महसूस किया कि
वैशाली अब कुछ असहज महसूस कर रही है ( शायद उसे भी आभास हो गया था मेरी मंशा का और
अपनी तकलीफदेह नितांत निजी स्मृतियों से गुजरना और एक लगभग तथाकथित दोस्त को उसकी
सच्चाई से रूबरू कराना आसान तो नहीं ही होता है )मैंने उसे कुछ वक्त दिया और खुद
को भी क्योंकि मेरे लिए भी ये सहज नहीं था ...किसी की निजी जिन्दगी में एक तरह की
दखलंदाजी ही थी ये .....ये भी संभव था कि वो मना कर देती कुछ भी बताने से या फिर
नाराज़ हो जाती ....शायद कुछ ऐसे शब्द कहती जो मुझे चोट पहुंचा सकते थे ( मुझमे डर
पनपने लगा था बावजूद इसके कि मै खुद ही तो उस पर इससे भी बड़ी सवालों की चोट करने
वाली थी ). अंततः हर संशय को दरकिनार कर मैंने उसकी तरफ देखा ....वो हौले से
मुस्कुरा दी ...मै भी .....यूँ लगा कि कुछ पलों के लिए एक चट्टान हम दोनों के
दरमियाँ आ गया था जो इस मुस्कान के साथ खुद ही हट गया .
पहल उसने ही की ....मुझसे मेरे बारे में पूछती रही
...जानती रही ....मुस्कुराहट के साथ संतोष दिखा उसके चेहरे पर .....परन्तु अब मेरी
बारी थी . ...मैंने उससे उसके घर और घरवालों के बारे में पूछा .......माँ के बारे
में पूछा .....उसने कहा , वो
ठीक हैं .....मै उन्हीं के साथ रहती हूँ ....बस उम्र की दुश्वारियां थोडा हावी
होने लगी हैं जो स्वाभाविक ही हैं ...बस . अब मैंने उसके पिता के बारे में पूछा
....उसने बड़ी सहजता से कहा .....वो नहीं रहे ....तकरीबन छ महीने पहले ही हार्ट
अटैक आया था ....और फिर ...... इतना ही कहकर वो चुप हो गयी .
पिता के जाने को इतनी सहजता से स्वीकार किया जाना और
कहा जाना मुझे थोडा अजीब सा लगा ....मैंने दुःख प्रगट किया ....वो फिर हौले से
मुस्कुरा दी ...इस बार उसकी मुस्कान किंचित गंभीर थी .
एक पल की चुप्पी के बाद फिर उसने ही कहा हंसकर
...... और बता ....क्या जानना चाहती है ?
मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि कैसे पूछूं पर फिर भी
हिम्मत करके आखिर कह ही दिया ....वैशाली , जब
हम कॉलेज में पढ़ते थे तब तू बहुत बिंदास थी ....सबसे घुलीमिली ....पर पता नहीं
क्यों मुझे तेरी आँखें बड़ी वीरान नज़र आती थीं ....कई बार तेरे साथ बात करने के
बारे में सोचा ...कोशिश भी कि पर पता नहीं क्यों कभी तुझसे खुल के बात कर नहीं
पायी और फिर एक दिन अचानक पता चला कि तुम लोग वहां से चले गए ....तब से ही तुझे मै
कई बार याद करती रही हूँ क्योंकि तुझमे कुछ तो था जो सबसे अलग था ...जो मुझमे
प्रश्न जगाता था पर जिसका उत्तर मै कभी तुझसे नहीं पूछ पायी .....हर बार ऐसा लगता
था कि तूने खुद को बड़ी कोशिशों से नियंत्रित किया हुआ है और तू कभी भी किसी से भी
कुछ नहीं कहना चाहेगी इसीलिए तुझे न समझ पाने की अधूरी चाहत मुझे अब तक चुभती रही
है .....और आज जब तू इस तरह अचानक मिली तो मै खुद को रोक नहीं पायी ....इतना कहकर
मै हौले से मुस्कुरा दी ( यूँ लगा जैसे मनो बोझ दिल से उतर गया हो )....साथ में
मैंने अनायास ही ये भी जोड़ दिया कि
अगर न बताना चाहे तो कोई बात नहीं ...मै जिद्द नहीं करूंगी ...बुरा भी नहीं
मानूँगी .....आखिर ये तेरी जिन्दगी है और उसे बांटने का निर्णय भी सिर्फ तेरा ही
होना चाहिए ( दूसरी वाली बात मै कहना नहीं चाहती थी क्योंकि मै बड़ी शिद्दत से उसके
बारे में जानने की ख्वाहिश
रखती थी पर पता नहीं कैसे ये बात कह गयी पर उसके जवाब ने तो मुझे हैरान ही कर दिया
).
पहले वो मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरायी फिर
खामोश हो गयी ....कुछ पलों तक चुप रही ...मानो अन्दर ही अन्दर जो सब इकठ्ठा है उसे
एक सूत्र में पिरोने की कोशिश कर रही हो .....मै ख़ामोशी से इंतज़ार कर रही थी उसके
कुछ कहने का .....फिर उसने धीरे से कहा ....तुम्हें पता है कि तुम दूसरी वो शख्स
हो जिसे मै अपने बारे में कुछ बताने वाली हूँ ....मै इस बारे में किसी से बात नहीं
करती ....और हाँ ...तुम पहली भी हो सकती थी क्योंकि उन दिनों मैंने कई बार ये नोटिस
किया था कि तुम मुझसे बातें करना चाहती हो ....शायद कहीं मुझे समझती भी हो हालांकि
जानती नहीं हो पूरी तरह से ...मै तुम्हें बताना चाहती थी अगर तुम एक बार भी इसके
बारे में बात करती पर न तुमने कभी कुछ पूछा और न मै खुद कभी कुछ बता पायी ( मुझे
अफ़सोस तो हुआ ही न पूछने का पर ये जानकर तो आश्चर्य हुआ कि बिना कहे भी वो उस समय
मेरे अन्दर की बात समझ गयी थी ).कुछ पलों के मौन के बाद उसने कहना शुरू किया ---
पता है अर्चना ,.................मेरी
जिन्दगी को समझने की कोशिशें तब से ही जारी हो गयी थीं जब ये बिलकुल समझ नहीं आता
था कि आखिर समझना क्या है ....आज मै अपनी उस उम्र की तमाम उलझनों को महसूस कर सकती हूँ ...इसलिए अब समझ पाती हूँ कि वो उम्र एक ख़ास तरह के अकेलेपन
और मनोवैज्ञानिक जद्दोजहद से गुजरती है .....मेरे लिए संधिकाल बचपन की मासूमियत के
ख़त्म होने का सन्देश नहीं था बल्कि उससे कहीं पहले ही .....बचपन में ही परिपक्वता
और गंभीर किस्म की सोचों ने मेरे जहन में दस्तक दे दी थी बड़ी बेरहमी और क्रूरता से
....फिर मुझे उसके बुदबुदाने की आवाज़ आयी
कि हाँ ...यहाँ यही शब्द ठीक है .
सब बच्चे जब खेल-कूद या मस्ती में लगे होते तो उस
वक्त मै उन सब के बीच अपने खुद के होने को तलाशती रहती थी जबकि वास्तव में मुझे
पता नहीं होता था कि मै क्या तलाश रही हूँ या ठीक-ठीक क्या करना चाह रही हूँ
.......व्यक्तिगत तौर पर भी मैं उनमे कहीं नहीं होती थी ...और क्योंकि जब मै खुद के लिए ही
नहीं होती थी तो ज़ाहिर सी बात है कि मै दूसरों के लिए भी नहीं होती थी या फिर शायद
उनके लिए मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था . ये बोध एक बालमन को धीरे-धीरे अकेला
और तनावग्रस्त कर देता फिर परिणाम स्वरुप हीनता का जबरदस्त बोझ मुझ पर हावी होने
लगता ... . कभी-कभी ये अहसास इतना भारी होता था कि लगता मानो मेरा बचपन जबरदस्त
घुटन के दौर से गुजर रहा है .दरअसल मेरे पिता जो एक बहुत ही अच्छे इंसान थे
.....ईमानदार , मेहनती
, सच्चे
, प्रतिष्ठित
व्यक्ति और मेरी माँ जो अपेक्षाकृत बड़े घर से थीं ..उनका आपसी सामंजस्य ठीक नहीं
था ....जहां मैंने पिता को हर वक्त क्रोधित ,मनमाना
और बस आदेश देते हुए ही देखा था वहीँ माँ को हमेशा स्थितियों को सँभालते , चुपचाप सहते और हर वक्त इस कोशिश में लगे देखा कि घर
की बात घर में ही रहे ...किसी भी कीमत पर घर की बेईज्ज़ती न होने पाए चाहे भले ही
इसके लिए कितने भी झूठ क्यों न बोलने पड़ें . यहाँ पर एक बात और कहना जरूरी है कि
अपनी अवहेलना ,अपमान
और खुद को प्रताड़ित किया जाना तो माँ चुपचाप सह लेती थीं पर जब कभी भी मेरे पिता
मुझ पर नाराज़ होते या आघात करते तो माँ की विवशता और उस वक्त कुछ पलों के लिए ही
सही पर माँ की आँखों में उठता विरोध भी मै साफ़ पढ़ लेती थी . मुझे उनकी ये विवशता
उत्तेजित और अनियंत्रित कर देती थी ...विरोध के लिए कई बार मुखर भी पर तुरंत ही
माँ मुझे अपने में समेट लेतीं ( ये उनका अपना तरीका था मुझे शांत करने का )
.परन्तु धीरे -धीरे यही पारिवारिक माहौल मुझे कहीं न कहीं दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से
प्रभावित भी कर रहा था ....मेरे अन्दर अनजाने ही एक घुटन बढ़ने लगी थी .....मेरा
व्यक्तित्व दबने लगा था ....एकांगी होने लगा था ......मै सबके साथ खुद को एडजस्ट
नहीं कर पाती थी .....दरअसल मै दिनों-दिन हीनता और अकेलेपन का शिकार हो रही थी और इसी
के परिणामस्वरूप बेहद जिद्दी और विद्रोही भी . मेरा बचपन धीरे-धीरे मर रहा था
अर्चना जिसे मै और मेरी मिलकर भी नहीं बचा पा रहे थे माँ की तमाम कोशिशों के
बावजूद भी . माँ के चेहरे पर एक ख़ास किस्म की पीड़ा मै कई बार देखती थी पर उसे सही
तरह से समझ न पाने की वजह से खुद को बहुत लाचार महसूस करती थी....पर खैर .
एक घटना का ज़िक्र यहाँ जरूरी मालूम देता है ....सभी
बच्चे दिवाली उत्सव की तैयारी कर रहे थे .. उस दौरान एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का
आयोजन होता
था जिसमे ज्यादातर बच्चे भाग लेते थे .....बड़े लोग इसकी तैयारियां करवाते थे जैसे
किस कार्यक्रम के लिए किस बच्चे को सेलेक्ट करना है और उससे क्या करवाना है
...वगैरह-वगैरह .
मुझे भी एक डांस के लिए चुना गया पर जब प्रैक्टिस
करवाई जाने लगी तो मै कुछ कर ही नहीं पा रही थी ...मेरा हीनता बोध बुरी तरह मुझे
प्रभावित कर रहा था ,,,दो-तीन
बार सिखाने के बावजूद भी जब मै ठीक तरीके से नहीं कर पाई तो स्वभावतः सिखाने वाली
आंटी ने थोडा झुंझलाकर कहा ....बेटे, ऐसे
नहीं ...इस तरह करो ....देखो ------- कितना अच्छा कर रही है ,,,उसे देखकर करो ...मैंने जब उसकी तरफ देखा तो वो मुझे
देखकर मुस्कुरा रही थी .....हो सकता है कि वो एक सहज -सामान्य मुस्कान रही हो और
आज ऐसा लगता भी है कि वो सामान्य और दोस्ताना किस्म की मुस्कान ही थी पर उस वक्त
की मनोदशा में मुझे ऐसा लगा कि मानो वो मुझ पर हंस रही है ...मेरा मज़ाक बना रही है
....क्रोध और शर्मिंदगी के अतिरेक से मै रो पड़ी ..इतना कि मेरी हिचकियाँ बंध गयीं
....वो लड़की और बाक़ी सब भी घबरा गए कि अचानक मुझे क्या हो गया . काफी समझा -बुझाकर
मुझे इस आश्वासन के साथ घर भेज दिया गया कि आज रहने दो कल से प्रक्टिस के लिए आ
जाना ...तुम डांस में अब भी हो ......घर पहुँचने पर मेरी अवस्था देखकर मेरी माँ
चिंतित हुईं और पूछने लगीं कि क्या हो गया ...तुम रो क्यों रही हो ...और फिर मुझे बाहों में भर लिया (
इस बार मुझे शांत करने का उनका ये तरीका बहुत कारगर नहीं रहा था )....मुझे अपनी
नाकामी पर और शर्म आने लगी और मै जल्दी से अपने आपको छुडाकर अपने कमरे की तरफ भागी
और अन्दर जाकर दरवाजा बंद कर लिया . दरअसल मै उस समय अकेले रहना चाहती थी और किसी
को भी सवाल करने का मौका नहीं देना चाहती थी.....माँ को भी नहीं ....असफलता इंसान
को अकेला कर देती है ...ये पहली सीख थी उस दिन शायद मेरे लिए अर्चना .... ..ये
कहकर वैशाली हंस पडी .....पर मेरे अन्दर झन्न से कुछ टूट गया ......मैंने उसकी तरफ
देखा पर वो शांत थी फिर उसने कहना शुरू किया ........इसी तरह की कुछ घटनाओं ने मेरे व्यक्तित्व में हीनता का बीज
बोया था शायद ......., बाहर
से मुझे अपनी माँ और साथ बैठी कुछ आंटियों की आवाज़ आई कि कोई बात नहीं ...घबरा गयी
है शायद ....नहीं करना चाहती है तो न करे क्या फरक पड़ता है . और मै अन्दर बैठी ये
सब सुनकर कुढ़ रही थी क्योंकि मै उन्हें बताना चाहती थी .....पूरी ताकत से चिल्लाकर
बताना चाहती थी कि फर्क पड़ता है .....असल में बहुत फर्क पड़ता है ....मै भी करना
चाहती हूँ....मै भी चाहती हूँ कि ये कहा जाए कि मै ये अच्छा करती हूँ या मेरे बिना
ये नहीं हो सकता . प्रशंसा और आत्मगौरव के उस अहसास को मै भी महसूस करना चाहती हूँ
....पर मै नहीं कह पायी .....कुछ भी नहीं कह पायी और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि
मुझे बिना बताये ही मुझे डांस से निकाल दिया गया और मेरे पड़ोस में रहने वाली मेरी
एक दोस्त को वो जगह दे दी गयी .....इस घटना ने मुझे गहरी चोट दी थी और फिर मैंने
अपनी पड़ोस वाली अच्छी दोस्त से भी कभी बात नहीं की.....निकाले जाने के अपने अपमान
और शर्मिंदगी को मैं अनायास ही विद्रोह
और उद्दंडता के सांचे में ढालती
चली जा रही थी . कुछ न कह पाना और अन्दर ही अन्दर घुटते रहना मेरी जिन्दगी का एक
अटूट हिस्सा बनता जा रहा था . ये पहली घटना तो नहीं थी पर शुरुआती घटनाओं में से
एक जरूर थी . पर मेरे पिता के लिए तो ये कोई घटना ही नहीं थी जिसका मलाल मुझे आज
तक है .
अब मुझमे एक चुप और एक विद्रोह दोनों ही पनपने लगे
.....मै जिद्दी होती गयी और क्योंकि मेरी जिद्द को कभी ख़ास तवज्जो नहीं मिलती (
शायद छोटा समझकर टाल दिया जाता था )तो मै कुछ बदतमीजियों पर उतर आई जैसे बात न
मानना या फिर पलटकर जवाब देना ......कभी-कभी चीजों का तोड़-फोड़ करना .वजह साफ़ थी कि
मुझ पर भी ध्यान दिया जाए ...मुझे भी ख़ास माना जाए पर ये तरीका बेहद अफसोसनाक
तरीके से विफल रहा और बदले में मेरे लिए मेरी माँ की निराशा बढ़ गयी जिससे मुझे
बहुत चोट पहुंची पर मै विवश थी क्योंकि और कुछ कह,कर
या सुन पाने की समझ ही नहीं थी उस उम्र में मुझे .
इतना कहकर वैशाली चुप हो गयी ....ऐसा लगा मानो उसका
अंतर्मन रिस रहा है .....ज़ख्म भी तो छिल रहे थे ......मैंने उसकी हथेलियाँ थाम लीं
और हलके से दबाया ......वो सजग होकर धीरे से मुस्कुराई और फिर कहना शुरू किया ---
लगभग इसी समय एक और घटना घटी जिसने मेरे किशोरवय की
तरफ बढ़ते जहन पर अमिट और क्रूर छाप छोड़ी जो आज भी मानो वैसी ही ताज़ा है .....एक
शाम मै और मेरी माँ कॉलोनी में ही फिल्म देखने गए ( मेरे पिता अक्सर नहीं जाते थे
), लौटने
में कुछ देर हो गयी पर ये उतना ही वक्त था जितनी देर में फिल्म ख़तम हुई .....लौटने
पर मेरे पिता जो न जाने किस गुस्से से उबल रहे थे उन्होंने बड़ी फटकार के साथ माँ
को तो अन्दर आने दिया पर मुझे बाहर कर दिया ....12-१३
साल की उम्र में मै वजह नहीं समझ पा रही थी और फिर भी मैंने जब जबरदस्ती अन्दर
जाने की एक नाकाम कोशिश की तो मेरा सामना बहुत सख्ती के साथ मारे गए एक झन्नाटेदार
थप्पड़ से हुआ ...... कान
तक सुन्न हो गए ...जब तक मै संभल पाती तब तक पतले और मोड़े गए वायरों से ( जो आमतौर
पर exteintion का
काम करते हैं )तीन चार बार मुझे कसकर पीटा गया .......मै थर्रा उठी ....सहम उठी और
इसके साथ ही मुझे फिर से वापस धकेल दिया गया ...मै लडखडाकर गिर पडी और मेरे पिता
ने अन्दर से ताला लगा दिया . मेरी माँ खिडकी से मुझे देखती रहीं ....रोती-सिसकती
रहीं ...पिता से उन्होंने कहा भी कि कम से कम
उसे अन्दर तो आ लेने दीजिये फिर जो करना होगा
करियेगा पर मेरे पिता की कहर बरसाती क्रोध भरी आँखों के आगे वो इसे दोहराने की
हिम्मत नहीं कर पायीं . मुझे कुछ पल तो ये समझने में लगे कि अचानक ही मेरे साथ ये
क्या हुआ है ? क्यों
हुआ है ? दरअसल
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था ..मै भ्रमित और स्तब्ध सी अपने चारों ओर देख रही
थी . ...रात के तकरीबन दस - साढे दस
बज रहे थे ....अक्टूबर के महीने की हल्की -हल्की ठण्ड शुरू हो चुकी थी ....सड़क पर
लगभग सन्नाटा था और कुछ आवारा कुत्ते जिनसे मै बेहद खौफ खाती थी पर जहां मुझे कब
तक रहना था मुझे नहीं पता था ......घर के सामने ही सड़क निर्माण के लिए पत्थरों की
एक ढ़ेरी बनी हुई थी ..मै उसी पर जाकर बैठ गयी दो वजहें थीं ....एक तो हल्का
अन्धेरा था वहाँ जिससे अगर कोई आ भी जाए तो मुझे आसानी से देखकर पहचान न पाए और
दूसरी ये कि अगर कोई कुत्ता मेरे सामने आये तो मै पत्थर से उसे डरा और भगा सकूं .
ये दोनों ही युक्तियाँ कारगर रहीं और ऐसी कोई घटना नहीं होने पायी पर उसका क्या
करती जो मेरे अन्दर घट रहा था ......बेवजह अचानक एक झन्नाटेदार थप्पड़ और उसके बाद
ताबड़तोड़ तारों से कई बार पिटाई जिसकी वजह से मेरे हाथों और चेहरे की त्वचा छिल गयी
थी और बेहद दर्द हो रहा था ....मै रो रही थी पर इस सजगता के साथ कि आवाज़ न निकलने
पाए वरना अगर किसी ने सुन लिया तो बहुत बदनामी होगी और मेरी माँ के लिए जवाब देना
मुश्किल हो जाएगा और जो मै कत्तई नहीं होने देना चाहती थी .......पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मै
अपनी माँ से ही प्यार करती हूँ या परवाह करती हूँ ...शायद इसलिए भी कि एक ही समय
में हम दोनों का दुःख और प्रश्न साझा हो जाते थे .....खामोशियाँ भी ........तकरीबन
डेढ़ से दो घंटे मै वहां बैठी रही ....डरी -सहमी ....पर खुद को अन्दर से बदलते हुए
महसूस करती .... मेरे अन्दर अपने पिता के लिए अथाह क्रोध और नफरत पनपने लगी थी तो
माँ पर भी चुपचाप सबकुछ बर्दाश्त करते रहने के लिए गुस्सा कम नहीं था पर एक समय के
बाद जब आरंभिक उध्वेग कम होने लगा तो मुझे माँ की बेचारगी पर भी रहम आने लगा
....मुझे उनके टुकड़ों में कभी-कभी अनायास ही कह दिए गए शब्द याद आने लगे ....उनके
अर्थों को तलाशने की कोशिश में उनकी भरी आँखें याद आने लगीं .....अब मेरा बालमन
पिघलने लगा था ....रो रहा था ...पर साथ ही गुस्से और नफरत से जल भी रहा था .....और
ये सारी घटनाएं एक साथ ही घटित हो रही थीं मानो किसी तस्वीर में एक साथ बर्फ और आग
दोनों ही पलने लगे थे ......भूख और प्यास से बेहाल थी ...नींद भी बहुत तेजी से मुझे अपनी गिरफ्त में लेने को आतुर थी इतनी
कि मै शायद वहीँ लुढ़क जाती पर इससे पहले कि मै गिर जाऊं मेरी माँ ने आकर मुझे
संभाल लिया .....उनकी फुसफुसाती सी आवाज़ आई ....और मैने उनकी हथेलियों की नरमी
अपने चेहरे पर महसूस की .......मै माँ की ज़रा सी उष्मा मिलते ही भरभराकर रो पडी
......माँ ने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया ....कुछ वक्त तक चुपचाप सहलाती रहीं
फिर मेरे आंसू पोछे .....अन्दर चलने का इशारा किया ...मै अबोध बच्चे की तरह उनकी
उंगली पकडे-पकडे अन्दर आने लगी ....एकबारगी
मैंने सहमकर उनकी आँखों में देखा ...वो रो रही थीं
पर उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मेरे पिता अब तक सो चुके हैं इसलिए अब मै भी
अन्दर आ सकती हूँ ....कल सुबह जो भी होगा उसका सामना करने के लिए हम दोनों को ही
हिम्मत और आराम की सख्त जरूरत थी जो मुझे माँ से और माँ को भी शायद मुझसे मिल रही
थी .....अन्दर आने पर बिना लाइट जलाए टॉर्च की रौशनी में ( ताकि मेरे पिता जग न
जाएँ ) उन्होंने मुझे मलहम लगाया ...खाना खिलाया और फिर अपने बगल में थपकियाँ देकर
( सिसकियाँ लेते हुए )सुला दिया . सुबह उठने पर मैंने देखा कि माँ की आँखें लाल
थीं ...वो शायद रात भर सो नहीं पायी थीं और सुबह एक बार फिर से उन्हें पिता के गुस्से का सामना करना पडा था
और सबसे ख़ास बात ये कि इस सारे घटनाक्रम की जो वजह मुझे पता चली वो जानकर तो मै
सन्न रह गयी और खुद को ये समझाने के लिए तैयार ही नहीं कर पा रही थी कि केवल इतनी
छोटी सी वजह कि खातिर मेरे पिता ने मेरे और माँ के साथ ऐसा किया था ...अजीब
स्तब्धता कि स्थिति थी वो .दरअसल वजह ये थी कि मेरी एक मित्र से उन्हें मेरी
मित्रता पसंद नहीं थी जिसके लिए उन्होंने मुझे एक बार हिदायत भी दी थी पर फिर भी
वो मेरे घर आ गयी थी मेरे साथ कुछ वक्त बिताने ( ये बात दीगर है कि मेरे घर में
होने के बावजूद मेरी माँ ने ये कहलवा दिया कि मै घर पर नहीं हूँ ...फिर मेरी तरफ
देखकर हौले से मुस्कुरा दीं जिसमे अर्थपूर्ण गंभीरता ज्यादा थी ...मै भी समझ गयी
थी ....) इस घटना के बाद से जहां इस उम्र से ही मेरे अन्दर पिता के लिए अगाध नफरत
ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी वहीँ अपनी माँ के लिए असीम सम्मान ...अपनापन और
आपसी समझ का निर्माण भी होने लगा था ...पर इसके बावजूद भी कभी-कभी मुझे उनकी
लाचारी और चुप्पी पर भयंकर क्रोध आता था पर फिर स्वयं ही मै खुद को शांत कर लेती
थी .
इतना कहकर वो रुकी ......हल्की लम्बी
सांस ली फिर मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरा दी .....मै भी ....पर अब उसके बारे
में सब कुछ जानने की जिज्ञासा और भी तीव्र हो रही थी .कुछ देर के बाद उसने फिर से
कहना शुरू किया ......पता है , मै माँ से अक्सर कहती थी कि आप मुझे लेकर नाना जी के यहाँ क्यों नहीं
चली जातीं ....माँ मेरी तरफ देखतीं फिर हलके से मुस्कुरा देतीं और कहतीं ...जरूर
चलूंगी बेटा....तुम्हारी छुट्टियाँ तो शुरू होने दो ....कई बार तो मै चुप रह जाती
पर कभी-कभी जिद्द करने लगती कि नहीं ....हम तब तक इंतज़ार नहीं करेंगे ....हम अभी
जायेंगे .....आप मेरा नाम वहीँ के स्कूल में लिखवा देना .....वहां पर तो सब लोग
आपको कितना मानते हैं , कितना प्यार करते
हैं ...आप जो कहती हैं सब होता है और
वहां तो कोई आपको और मुझे डांटता भी नहीं .....मेरी माँ सुनतीं ....मेरी तरफ
देखतीं ...और मुस्कुराकर टालने वाले अंदाज़ में कहतीं ......अच्छा ठीक है ....अभी
चलेंगे पर अभी तो तुम जाओ खेलो ....मुझे कुछ काम करने दो ...इतना कहकर वो उठकर चली
जातीं .....कुछ एक बार जब मै उनके पीछे जाती तो माँ को कभी चुपचाप तो कभी अपने
कमरे का दरवाज़ा बंद करके रोता हुआ सुनती ......मै स्तब्ध हो जाती थी अर्चना
....मेरा मन ग्लानि से भर जाता था . मुझे लगता माँ मेरी वजह से रो रही हैं
....मैंने उन्हें रुला दिया ....मै कितनी बुरी हूँ ...फिर मै घंटों अकेले बिता
देती थी ये सोचते हुए कि मैंने ऐसा क्यों किया या फिर आइन्दा ऐसा कभी नहीं करूंगी
और माँ को खुश करने के कुछ तरीकों के बारे में सोचते हुए ....पर कई बार मुझे ये भी
लगता था कि आखिर मैंने ऐसा कहा क्या कि माँ रोने लगीं ....मैंने तो कोई गलत बात
नहीं कही फिर मुझे याद आता कि जब भी हम नानाजी के यहाँ जाते थे तो सभी हमें कितना
प्यार करते थे ....हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख़याल रखते थे फिर भी माँ वहां क्यों नहीं
जाना चाहतीं ....क्यों यहीं रहकर पिता को बर्दाश्त करती हैं और मुझे भी उन्हें
सहना पड़ता है . ऐसे ही ढेरों सवालों के बीच मै डूबती-उतराती रहती .....सुलझता तो
कुछ भी नहीं पर बड़ी ख़ामोशी से कहीं मेरा व्यक्तित्व बहुत उलझता जा रहा था . अपने
होने ..अपने पहचान के लिए भी मै कोशिश नहीं कर पा रही थी क्योंकि घर की आये दिन की
कलह मुझे खामोश और दब्बू बनाती जा रही थी . जितना ही मै खुद को साबित करने के लिए
आगे बढ़ती उतनी ही तीव्रता से मै खुद को हीनता के बोझ से दबा हुआ पाती . मेरी माँ
हालांकि मुझे खुश रखने की हर संभव कोशिश करतीं पर मेरे अन्दर बहुत बुरी तरह से हो
रहे मनोवैज्ञानिक बदलाव को शायद वो भी नहीं समझ पा रही थीं . ऐसा नहीं था कि मेरे
पिता हमेशा बुरा व्यवहार ही करते थे ....कई बार वो बेहद शालीनता , अपनेपन और प्यार से
भी पेश आते थे ...पर ये कुछ ही वक्त के लिए होता था और मै इसे जीने की बजाय ये सोच कर सहम जाती
थी कि न जाने कब या किस बात से फिर पिता का मूड खराब हो जाएगा और वो बदल जायेंगे
इसलिए मै इन पलों को बहुत सहेजकर रखना चाहती थी ...ये पल मेरी जिन्दगी के शानदार
पल हुआ करते थे ....मै अपने उन सभी दोस्तों को बुलाकर दिखाना चाहती थी कि देखो
मेरे पापा भी मुझसे प्यार करते हैं ....मेरा ख़याल रखते हैं जिन्हें कई बार मैंने
उनकी आँखों में कौंधे प्रश्नों या फिर कई बार सीधा ही पूछ लिए जाने की अभद्रता
करते हुए झेला था .....पर मै
ऐसा नहीं कर पाती थी क्योंकि मुझे हमेशा
ये डर रहता कि कहीं फिर से उनका मूड खराब न हो जाए ( पर मेरे समस्त डर,ख़याल और दुआओं के बाद
भी ये तो होना निश्चित ही था और जिसके हो जाने पर कई बार अफ़सोस होता कि मैंने क्यों
नहीं बुलाकर अपने दोस्तों को उनसे मिलवा ही दिया पर तब तक तीर कमान से निकल चुका
होता था ).
शायद यही वजह थी कि घर में मै ,जो पूरा दिन मिलाकर
बमुश्किल ही कुछ शब्द बोलती थी ....बस उतना ही जितना जरूरी हो .....घर के बाहर
बहुत बिंदास हो जाती थी ....मै बिलकुल नहीं चाहती थी कि कोई मेरे घर की सच्चाइयों
के बारे में जाने ....मेरे माता-पिता और मेरे बीच समान रूप से फैली तल्खियों और
अधूरेपन को जाने ....मेरी बेचारगी को निशाना बनाए या फिर मुझसे सहानुभूति जताकर
मेरा अपमान करे . पता है तुम्हें अर्चना , मै सब के लिए ...सब के पास होना चाहती
थी पर कोई मेरे करीब आये इसे मै अनजाने ही स्वीकार नहीं कर पाती थी और खुद को बेहद
सख्त कर लेती थी ....शायद यही वजह रही कि आज तक कोई मेरी बेस्ट frnd नहीं बनी बल्कि कहूं
तो कोई दोस्त तक नहीं बनी .....मित्रता सबसे थी पर मेरा मित्र कोई नहीं था .बहुत
से कोमल एहसास जो इस उम्र में होते हैं मै महसूस ही नहीं कर पायी ....कहीं कुछ
विचलन होता तो था ...अंतस छटपटाता तो था मगर क्यों .....ये कभी समझ नहीं आया ...और
किसी से पूछ सकूं इतनी हिम्मत नहीं थी और फिर ऐसा कोई था भी तो नहीं ...कहकर
वैशाली बेचारगी से हंस पडी ....मै अन्दर से आर्द्र महसूस कर रही थी पर ऊपर से खुद
को सामान्य बनाए रखा .
अब उसने कहा ....इसी माहौल में मै बड़ी
होती रही ....थोड़े से अपनेपन ,प्यार पर बहुत सारे सवालों ...उलझनों और हीनता के बोध के साथ . फिर
मेरे पिता का ट्रान्सफर उस शहर में हुआ जहां के कॉलेज में दाखिला लेने पर मेरी
तुमसे पहचान हुई .पहचान भर ही न ? इतना कहकर वैशाली शरारत से मेरी तरफ देखकर मुस्कुरायी ....मैंने
चौंककर उसकी तरफ देखा .....शायद इसलिए कि इतने विषाद के साथ वो मुस्कुरा कैसे पा
रही है ...पर फिर मै भी मुस्कुरा दी .
उसने फिर कहा ,.... यहाँ आने पर मुझे लगा
था कि शायद अब मुझे उस घुटन से निकलने का मौका मिलेगा जो बचपन से मेरे अन्दर और
आस-पास पूरी चेतना के साथ मौजूद रहती थी ....क्योंकि अब मै कुछ बड़ी हो गयी थी
....बातों को और माहौल को अलग तरीके से देखने और जूझने के तरीके सीख रही थी ....मै
इन दुश्वारियों के साथ लड़ना और जीतना चाहती थी ...अपनी माँ के लिए और उससे
भी ज्यादा खुद अपने लिए ...क्योंकि मै खुद को ये यकीन दिलाना चाहती थी कि मै लड़
सकती हूँ और सफलता पूर्वक जीत भी सकती हूँ ...अपने पिता को भी अपने हौसलों और जिद्द
से परिचित कराना चाहती थी क्योंकि इस उम्र में आपका अस्तित्वबोध पूरी सक्रियता के
साथ चेतन होता है ....कुछ कर गुजरने के भाव के साथ .मै अब अपने पिता से टक्कर लेने
लगी थी पर कुछ ही समय बाद मुझे महसूस हुआ कि ये तरीका पूरी तरह नाकाम ही साबित
होगा क्योंकि उस दौरान मै माँ के चेहरे पर एक अलग किस्म का तनाव , विषाद ,डर और हार भी महसूस
करती थी जो मैंने कभी नहीं चाहा और जो मै कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती थी ...इसके
साथ ही घटना के तुरंत बाद से ही घर के माहौल में घुटन और बढ़ जाती ....मेरी माँ
असामान्य महसूस करने लगतीं ( बाद में मुझे अचानक ही एक दिन पता चला कि ऐसी घटनाओं
के बाद पिता जिस हिकारत की नज़र से माँ को देखते थे वो शायद माँ को अपने परवरिश पर
प्रश्नचिन्ह सी महसूस होती थी ......) और मै ऐसा कैसे होने दे सकती थी ...कभी भी
और किसी भी कीमत पर नहीं . मैंने पिता का विरोध करना बंद कर दिया ( शायद मै माँ को
अब कुछ बेहतर समझ पा रही थी ). मेरे पिता भी धीरे-धीरे अब कुछ सामान्य होने लगे थे
( कुछ ही ....क्योंकि आदतें कभी नहीं बदलतीं )शायद ये उम्र का तकाज़ा ही रहा हो
क्योंकि उम्र की सच्चाई पूरी कठोरता से इंसान पर हावी होती है जिसे वो चाहे या न
चाहे पर स्वीकारना ही पड़ता है .....अब .मेरी माँ थोडा खुश रहने लगी थीं और मेरे
लिए मेरी माँ का खुश होना ज्यादा मायने रखता था बनिस्बत अपने पिता के सामान्य होने
से .मैंने खुद को समेट लिया ....घर में मै ज्यादा से ज्यादा वक्त अपनी माँ के साथ
बिताती . अब माँ मुझसे लगभग बराबरी का व्यवहार करने लगी थीं ...उन्हें लगता था कि
मै अब बड़ी हो गयी हूँ ...शायद अब परिस्थितियों को समझने और स्वीकारने की क्षमता
मुझमे ज्यादा विकसित रूप में
है . वो मुझे कई बार अपने आरामदायक और
रईसी के बीच बड़े हुए बचपन के बारे में बतातीं ....अपने खिलौनों के बारे में
...कपड़ों के बारे में ....जिद्द के बारे में और ये भी कि किस तरह वहां उनके सभी
नखरे उठाये जाते थे ......बहुत आश्चर्यजनक सुकून मिलता था माँ के बचपन को जानकार
पर सच कहूं अर्चना तो एक हलकी सी इर्ष्या भी बड़ी दुष्टता से अपने फन उठाती थी
जिसके लिए मै खुद को कई बार धिक्कारती भी थी पर आज लगता है कि हर इंसान के लिए
शायद उसका स्व ही सबसे पहले होता है ( पूरी निर्ममता और कटुता के साथ भी पर सच यही
है ).
एक दिन बातों-बातों के दौरान मैंने कहा , माँ.....एक बात पूछूं
......आप नाराज़ तो नहीं होंगी ? वो हंसने लगीं और बोलीं , अच्छा ...तो अब तुम्हें मुझसे ये भी
पूछना होगा ......मैंने कहा ...बताइये न माँ ......आप नाराज़ तो नहीं होंगी ? उन्होंने मुस्कुराते
हुए मेरी तरफ देखकर ना में गर्दन हिलाई पर मेरी आँखों की गंभीरता देखकर वो भी शायद
सचेत हो गयी थीं ( ऐसा मुझे महसूस हुआ ).मै कुछ देर चुप रही क्योंकि मेरी हिम्मत
नहीं हो रही थी कि मै माँ से वो पूछूं जो मै वाकई जानना चाहती थी ......कुछ पलों
की खामोशी के बाद माँ ने ही कहा ....अब पूछो भी ...इतना क्या सोचना .....बेटा, जो मन में हो कह देना
चाहिए वरना गांठें पड जाती हैं ....मैंने एक पल उनकी तरफ देखा फिर चेहरा नीचे कर
आहिस्ता से उनसे पूछ ही लिया .....माँ , आप क्यों इतने सालों तक पिता के साथ
रहीं ? आप उन्हें छोड़कर भी तो जा सकती थीं न ? माँ चौंक उठीं ( उन्हें ये तो पता रहा
ही होगा कि ये प्रश्न कभी न कभी
उठेगा पर इस तरह से अचानक और इतनी जल्दी
....शायद इसकी उम्मीद नहीं थी उन्हें ....शायद अभी वो इसका सामना करने के लिए
तैयार नहीं थीं या फिर शायद उन्हें मेरी उम्र की परिपक्वता पर भरोसा न रहा हो
.....ये भी संभव है कि शायद उन्होंने खुद ही कोई समय और तरीका निश्चित किया हो
मुझे ये सब बताने का पर अब तो प्रश्न सामने आ गया था जिसका जवाब उन्हें देना ही था
....आज वो इसे नहीं टाल सकती थीं )पर कुछ पलों बाद उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा
( एकबारगी मै अपने प्रश्न के लिए शर्म और असहजता महसूस करने लगी पर अब तो ये हो
चुका था )माँ ने बड़ी शान्ति और तसल्ली के साथ कहना शुरू किया , बेटा इसकी दो वजहें
थीं .....पहली तो ये कि हमारा समाज अन्दर ही अन्दर दो हिस्सों में बंटा हुआ है
...एक पुरुष का और एक स्त्री का ....पुरुष का समाज विस्तृत,ताकतवर और स्वार्थी
है ...स्त्री का समाज़ सीमित , कमज़ोर और बंधनपूर्ण है ......हमारे दायरे सुनिश्चित हैं जहां की
दहलीज़ हम कभी पार नहीं कर सकते ...हमें सिर्फ बन्धनों का अधिकार हासिल है स्वतन्त्रता का नहीं
. तुम्हें पता है जब तुम छोटी थी तो अक्सर कहा करती थी कि हम नानाजी के यहाँ क्यों
नहीं जाते ...वहीँ क्यों नहीं रहते ......तब मै तुम्हें टाल देती थी पर आज ऐसा
लगता है कि मेरी बेटी बड़ी हो गयी है .....सच्चाई को समझने और स्वीकारने की क्षमता
रखने लगी है इसलिए मै आज तुमको वो सबकुछ बताउंगी जो तुम जानना चाहती हो .मै माँ की
तरफ देखती रही , खामोश ,जिज्ञासु और पूरी तरह सजग ......उन्होंने कहना शुरू किया ......ये
ठीक है कि तुम्हारे नानाजी या मामा बहुत बड़े और बहुत प्रतिष्ठित हैं परन्तु वो
सिर्फ उनके लिए है मेरे लिए नहीं ....थोडा -बहुत जो कुछ भी गर्व या सम्मान मुझे
उनकी बेटी और बहन होने पर मिल पाता है वो सिर्फ इसलिए क्योंकि मै तुम्हारे
पिता के साथ उनके घर में रह रही हूँ ...चाहे भले ही खुश और संतुष्ट न रहूँ
.....रोज-रोज की प्रताड़ना झेलू.... साथ ही तुम्हें भी इस चक्की में पिसते हुए
देखूं पर मै वहां नहीं जा सकती थी ....शादी के बाद उस घर में मेर लिए जगह सिर्फ एक
मेहमान के बतौर थी न कि एक बेटी के जो वहां अपना हक़ समझकर कभी भी जाकर रह सके .
मेरा खुद का और साथ ही तुम्हारा सम्मान भी तभी तक सुरक्षित है जब तक हम तुम्हारे पिता
के घर में हैं . यदि मै सब-कुछ छोडकर तुम्हें लेकर वहां चली भी जाती तो जिस तरह से
वहां का अपमानित जीवन मुझे और तुम्हें जीना पड़ता उससे ये भी हो सकता था कि किसी
दिन मै खुद ही तुम्हें मारकर आत्महत्या कर लेती . बेशक वहां मेरी माँ हैं मुझे और
तुम्हें संभालने के लिए पर उनकी स्थिति भी एक सामान्य स्त्री की स्थिति से बेहतर
नहीं है ....वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पातीं .....मेरे पिता और भाई भी हो सकता है
मेरा ध्यान रखते और तुम्हें प्यार करते पर समाज के नियमो और पुरुष होने के दंभ का
क्या करते ? एक समय के बाद जिस तरह का जीवन मुझे और तुम्हें वहां जीना होता उसको
सोचकर ही मै कभी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पायी . कुछ समय के लिए जाने पर जो
प्यार और मान-सम्मान हमें मिलता था हमेशा के लिए जाने पर वही धीरे-धीरे एक गलीज़
अपमान में बदल जाता जिसे मै कभी सहन नहीं कर पाती ....मेरी माँ भी नहीं ( और यहीं
पर मेरे और माँ के बीच माँ-बेटी का एक गहरा तंतु और जुड़ गया ....मै हौले से
मुस्कुरा उठी पर तुरंत ही खुद को सचेत कर लिया ). तुम्हारे पिता के घर में भले ही
कुछ ( कुछ ???) मुश्किलें थीं ....तुम्हारा बचपन सहज स्वाभाविक नहीं रहा पर कम से कम
ये तो था कि यहाँ हम दोनों ही एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं .....तुम्हारे पिता के
अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति हमसे दुर्व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं दिखा सकता और
फिर शील ( कभी कभी माँ मुझे इस नाम से भी पुकारती थीं ) बहुत बार तो तुम्हारे पिता
भी तुमसे कितना प्यार करते हैं ....है न ? माँ ने मेरी तरफ बड़ी आशा भरी नज़रों से
देखते हुए कहा ( ये क्या ? मै स्तब्ध थी ....क्या माँ को वाकई लगता था ऐसा ?) मैंने माँ की आँखों
में देखा और फिर धीरे से सिर हाँ में हिला दिया ....माँ संतुष्टि के साथ मुस्कुरा
उठीं .
कुछ देर की खामोशी के बाद उन्होंने
अपेक्षाकृत धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया ....दूसरी वजह ये थी बेटा कि तुम्हारे
पिता दरअसल एक अच्छे इंसान हैं .....बहुत अच्छे ....बहुत प्रेम करने वाले ( ये मै
क्या सुन रही थी ....मैंने तो ऐसा कभी महसूस नहीं किया था ).एक वक्त था कि जब वो
मुझे बहुत मानते थे ....बहुत सम्मान करते थे ( अपनी बड़ी हो चुकी बेटी के सामने वो
...बहुत प्रेम करते थे ....जैसे वाक्य कहने से बच रही थीं इसे समझकर मै अन्दर ही
अन्दर मुस्कुरा उठी ). मेरी हर इक्छा का ख़याल रखते थे ...शुरू-शुरू में कितनी ही
बार तुम्हारी दादी के जबरदस्त गुस्से से उन्होंने मुझे बचाया था ....बिना कहे ही
वो बहुत कुछ ऐसा कर देते थे और जताते तक नहीं थे .....जो मुझे पसंद होता था ( अब
मेरे हैरान होने की बारी थी ). जब तुम पैदा हुई थी तब तुम्हारे पिता बहुत खुश हुए
थे बावजूद इसके कि तब बेटियों के जन्म पर घोषित रूप से मातम मनाया जाता था
...तुम्हारे पिता के इस व्यवहार ने उस दिन मुझे कितना सम्मान दिया मै बता नहीं
सकती . तुम्हारी दादी तुम्हारे
पैदा होने से बहुत नाराज़ थीं ...कई बार
तुम्हारे पिता और तुम्हारे दादाजी ने उन्हें समझाने की कोशिश की पर दिन ब दिन वो
जब और भी मुखर रूप से मुझे कोसने लगीं तो फिर एक दिन तुम्हारे पिता ने मुझे और
तुम्हें लेकर घर छोड़ दिया .इस बात का तुम्हारी दादी को बहुत सदमा लगा ...शायद
अपमान भी महसूस हुआ होगा कि जिसकी वजह से उन्होंने मुझे कभी भी माफ़ नहीं किया
...तुम्हारे पिता ये सब समझते थे इसीलिए कई बार मेरे कहने और जिद्द करने के बावजूद
भी कभी मुझे लेकर अपने गाँव दुबारा नहीं गए ( मै स्तब्धता की स्थिति में अपने पिता
के इस नए रूप से परिचित हो रही थी )हालांकि वो नियमित तौर पर वहां जाते थे
....तुम्हारे दादा-दादी की देखभाल सही तरीके से हो इसका पूरा ध्यान रखते थे पर
मुझे वापस कभी उस गाँव में लेकर नहीं गए . तुम्हारे दादा-दादी के देहांत के तकरीबन
एक साल बाद जब वो गाँव से लौट रहे थे तभी उनके साथ एक जबरदस्त दुर्घटना हुई और
उसके बाद से ही हम तीनो के जिन्दगी की दिशा बदल गयी . जिस डॉक्टर ने तुम्हारे
पिता का इलाज़ किया था उसने मुझे कहा था कि अब आपको इनके साथ जीवन भर बहुत सावधानी
से रहना होगा .....इनके दिमाग पर ज्यादा दबाव नहीं पडना चाहिए .....इनकी सहनशक्ति
अब पहले से मात्र १० प्रतिशत ही रह गयी है ....अब आपको ही इन्हें पूरी तरह संभालना
होगा . उस दिन बेटा मेरी ये तो समझ में आ गया कि अब काफी कुछ बदलने वाला है ...पर
जिस तरह से और जितना बदला उतना मैंने नहीं सोचा था . आगे के हालात के लिए मै खुद
को मजबूत करने लगी ...फिर भी दिन-प्रतिदिन के होने वाले क्लेश ने मुझे प्रभावित
करना शुरू कर दिया . एक बात और आज मै तुम्हें बेहद ईमानदारी से बताना चाहती हूँ
....यकीन कर सको तो जरूर करना .....कई बार जब तुम्हारे पिता तुमको प्रताड़ित करते
या तुम पर आघात करते तो उसके बाद उनको मैंने अकेले में बहुत विचलित और परेशान
महसूस किया है .....कई बार तो शर्मिन्दा भी ....वो ये सब करना नहीं चाहते थे पर वो
खुद को संभाल नहीं पाते थे और
पिता होने और उससे भी ज्यादा पुरुष होने
के अहम् ने ही शायद उन्हें कभी तुम्हारे सामने पश्चाताप नहीं करने दिया .....उनका नियंत्रण भी खुद पर काफी कम हो गया था ( आज मै अपने पिता के
व्यक्तित्व के नए पहलुओं से परिचित हो रही थी एक सुखद अनुभूति के साथ .)ऐसे में
तुम ही बताओ शील मै उन्हें छोड़कर कैसे जा सकती थी और अनजाने ही मेरी माँ के मुंह
से एक वाक्य निकला जिससे मै स्तब्धता की पराकाष्ठा पर पहुँच गयी......मै अन्दर से
हिल गयी थी अर्चना ...हल्की सी लम्बी सांस के साथ उन्होंने कहा ....उनके प्रेम के लिए तो
मै उनके साथ न जाने कितने जन्म और जीने के लिए तैयार हूँ .....पर फिर तुरंत ही
सचेत हो गयीं . उन्होंने मुझे अपने गले से लगाया ....मैंने अचानक ही महसूस किया कि
हम दोनों की ही आँखें नम हैं ....कुछ पलों तक हम दोनों एक दुसरे को देखते रहे फिर
उन्होंने मुझे थपथपाया और अपने कमरे में जाकर लेट गयीं ......शायद ये सब कह लेने
के बाद वो खुद को बहुत खाली-खाली और हल्का महसूस कर रही थीं ....अपने आप को
सामान्य करने के लिए उन्हें कुछ वक्त अपने साथ बिताने की जरूरत थी . मै धीरे-धीरे
उनके पास गयी ...उन्हें चादर ओढाया और दरवाज़ा भिडकाकर बाहर आ गयी . दरअसल मुझे भी
सब कुछ समझने और स्वीकारने के लिए खुद के साथ एकांत की जरूरत थी .....आज मै अपने
पिता को एक नयी अंतर्दृष्टि से देख पा रही थी .....आज मुझे माँ और पिता के इतने
घनिष्ठ सम्बन्ध का परिचय मिला था ....और ये सोचकर तो मुझमे कम्पन ही उभर आया था
अर्चना कि मेरी माँ और मेरे पिता का प्रेम कितना गहन और कितना महान था और यही वो
सूत्र था कि मेरी माँ इतने सालों तक सबकुछ बर्दाश्त करती रहीं ...यहाँ तक कि अपनी
बेटी के साथ उनका दुर्व्यवहार को भी और फिर उनका एकांत पश्चाताप भी . ... आज मेरे
पिता और मेरी माँ दोनों ही एक नए रूप में जन्मे थे मेरे लिए और मै भगवान् से सिर्फ
दुआ करने की स्थिति में थी कि वो सभी नकारात्मकताओं को परे हटाकर मेरी माँ के साथ
उनके प्रेम को ही सर्वोच्च बना दे , सर्वश्रेष्ठ बना दे ....मै रो रही थी
...पर ये वो तकलीफ और घुटन थी जो बचपन से मेरे अन्दर इकट्ठा थी और जो अब बहकर निकल
रही थी क्योंकि मै अन्दर से पूरी तरह स्वक्ष और खाली हो जाना चाहती थी कि अब
हर बार मै सिर्फ अपने पिता के प्रेम को चाहे वो बूँद भर ही मेरे लिए हो क्यों न हो
पर उसे ही समेटूं ...खुले दिल , खुली सोच और खुली बाहों से . इतना कहकर वैशाली चुप हो गयी फिर धीरे
से बोली ...पर जो सोचो जो चाहो वो हो ही जाए ....ऐसा तो कम ही होता है न . आहिस्ता
से जब उसकी तरफ मैंने देखा तो वो कहीं खोयी हुई सी लग रही थी .
अब उसने फिर से कहना शुरू किया .....इस
घटना के बाद मेरे अन्दर पिता के लिए जो भाव थे ...जो क्रोध और नफरत थी वो
धीरे-धीरे बदलने लगी ( ख़त्म तो शायद आज तक नहीं हुई थी ऐसा मुझे उसे देखकर लगा ).
अब मै उनसे सलीके से व्यवहार करती
...उन्हें आश्चर्य तो जरूर होता होगा पर उन्होंने कभी कुछ पूछा नहीं पर हाँ इससे
माँ के चेहरे पर संतोष और खुशी अवश्य ही झलकने लगी थी . कुछ समय के बाद धीरे-धीरे
मेरे पिता बीमार रहने लगे ....मेरी माँ तो मानो इस स्थिति से बौखला ही उठी थीं
.....उन्हें पिता के तेजतर्रार व्यक्तित्व की आदत पड गयी थी जो वो उन्हें इस तरह
से नहीं स्वीकार कर पा रही थीं ....एक दिन पिता को हस्पताल में भरती कराना पडा
....अविनाश ने , जो वहीँ पर डॉक्टर थे ....इस मामले में हमारी बहुत मदद की ....और
उसके बाद भी वो अक्सर हाल-चाल पूछने आते रहते थे . मेरी आँखों में कौंधे प्रश्न को
समझकर वैशाली मुस्कुरा दी ..अविनाश ....वही जिनसे तुम अभी मिली थी और जिनसे मेरी
मंगनी होने वाली है ....ये जानकार मै भी मुस्कुरा उठी . वैशाली ने फिर कहा
....हस्पताल में जिस समय मेरे पिता भर्ती थे लगभग उस पूरे समय अविनाश आस-पास ही
बने रहे ....हर मदद को तैयार ...बिना कहे या जताए .
अब उसने मेरी तरफ देखा .....तुम्हें पता
है अर्चना ......अविनाश को मेरे लिए मेरे पिता ने ही चुना है . जिस सच को मै
....मेरी माँ और खुद अविनाश भी नहीं समझ पाए थे उसे मेरे पिता समझ गए थे . जिस दिन
उनका देहांत हुआ उसी दिन उन्होंने मुझसे कहा था ...वैशाली , बेटा....मैंने
जिन्दगी में तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया है .....तुम्हें वो सब नहीं मिला जो तुम्हारा
हक़ था ..पर बेटे एक बात मै आज तुम्हें कहना चाहता हूँ ...मानना या न मानना
तुम्हारे ऊपर है ...मुझे तुम्हारे लिए अविनाश बहुत पसंद है . इतना कहकर वो चुप हो
गए ...मै भी उनकी ये बात सुनकर अवाक रह गयी पर मैंने कुछ कहा नहीं ....कुछ ही देर
के बाद पता चला कि पिता नहीं रहे ...तो क्या उन्होंने अपने मौत की आहट सुन ली थी जो वो इतनी
बड़ी बात कह गए ....खैर , माँ तो जैसे पागल ही हो गयीं ......उसके बाद क्या हुआ ...कैसे हुआ
...मुझे कुछ पता नहीं .....सारा भार अविनाश ने अपने कन्धों पर ले लिया ....वो जो
भी कहते मै कर देती . पिता की अंतिम क्रिया से लेकर बाक़ी की सारी रस्मे और साथ ही
माँ को भी संभालना ये सारे दायित्व अविनाश ने स्वेक्छा से उठाये और किसी परिवार के
सदस्य की तरह पूरे किये .....मुझे इसकी जटिलता का आभास तक नहीं होने दिया और इस
तरह एक बार फिर खुशियाँ मुझ तक आते -आते रह गयीं ....इस बार वक्त ने बड़ी निर्ममता
से अपनी लाठी चलाई थी और वो भी पूरे शोर के साथ .
कुछ समय के बाद जब सबकुछ सामान्य होने
लगा .....धीरे-धीरे माँ भी और जिन्दगी एक बार फिर अपने पुराने ढर्रे पर वापस लौटने
लगी तभी अचानक मुझे महसूस हुआ कि जैसे अविनाश मुझसे और माँ से कहीं जुड़ने से लगे
हैं .....मैंने एक बार फिर आदतन खुद को बहुत सख्त कर लिया ....ये एक तरह की
अहसानफरामोशी थी कि जिस अविनाश ने हमारे लिए इतना किया.....मुश्किलों में चट्टान
की तरह खड़े रहे उनके साथ ही अब मै इतना रुखा व्यवहार करने लगी थी पर क्या करूं
...मै अपनी आदत से विवश थी ....मैंने उनसे कुछ कहा तो नहीं पर शायद वो समझ गए
...उन्होंने हमारे यहाँ आना कम कर दिया और कुछ समय के बाद एकदम ही बंद. मुझे उनकी
कमी खलती तो थी पर मैंने अपने आपको पूरी तरह नियंत्रित किया हुआ था ......एक बार जब कई दिनों तक अविनाश नहीं आये तो एक शाम माँ ने मुझसे पूछा
कि क्या बात है ....आजकल अविनाश नहीं आते ....कहीं तुमने उनसे कुछ कह तो नहीं दिया
....आने से मना तो नहीं कर दिया ...फिर मुझे अपनी तरफ देखता पाकर बोलीं .....एक
बात कहूं बुटुल( बहुत प्यार से माँ मुझे इसी नाम से बुलाती थीं )...मैंने कहा
....बोलिए .....उनकी आँखें भर आयीं और उन्होंने कहा ......तुम्हारे पिता ने
तुम्हारे बारे में अविनाश से कहा था .....उन्हें तुम्हारे लिए अविनाश बहुत पसंद थे
.....अविनाश भी तुमको बहुत पसंद करते हैं ....उन्होंने तुम्हारे पिता से वादा किया
था कि अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी तो वो तुमसे अवश्य ही विवाह करेंगे ....ये
उनकी आखिरी इक्छा थी ....मैंने माँ की तरफ प्रश्नवाचक नज़रों से देखा तो ऐसा लगा
जैसे माँ कह रही हों ..हाँ बुटुल मेरी भी ....मेरी ,क्योंकि ये तुम्हारे पिता की मर्जी थी
इसलिए ही मेरी भी मर्जी है ...माँ चुप थीं ....मै चुपचाप उठकर वहां से चली आयी
....अब मुझे अपने अन्दर बेतरह बेचैनी और खालीपन का एक अजीब सा अहसास हुआ ....मै
अचानक ही पिछले दिनों की अपनी उलझन का कारण समझ गयी थी.....उस सारी रात मै सो नहीं
पायी .....मेरी पिछली पूरी जिन्दगी किसी चलचित्र की तरह मेरी आँखों से , जहन से और भावनाओं के
उफान से गुजर रही थी....रात भर मै माँ-पिता और अपने बारे में सोचती रही ...उन
परिस्थितियों और घटनाक्रम के बारे में सोचती रही ....कारण और परिणाम के बारे में
....फिर एक पल रुककर वैशाली ने कहा और सबसे ज्यादा अपनी माँ के उस अद्भुत और महान
प्रेम के बारे में ....अपने पिता की मूक भावनाओं के बारे में ...अपने प्रेम को
दर्शा न पाने और फिर उनकी बेचैनी के बारे में ...मेरे प्रति अनियंत्रित
दुर्व्यवहार और फिर परिणामस्वरूप उत्पन्न ग्लानी के बारे में और फिर जैसे अचानक ही
कुछ कौंध गया मेरे अन्दर .....अब मै एक निर्णय ले चुकी थी ( भावनाओं का मनोविज्ञान
बहुत गहराई से असर करता है ये उस रात ही जाना था मैंने ) . अगले दिन सुबह तैयार होकर मैंने माँ से कहा .....माँ , मै अविनाश से मिलने
जा रही हूँ .....माँ ने हाँ में सिर हिलाया और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए संतुष्टि
से मुस्कुरा दीं . मै हस्पताल आयी तो ये जानकर सन्न रह गयी कि अविनाश अब वहां काम
नहीं करते ....मै छटपटा उठी थी ....एक नर्स से उनका पता लेकर मै उनसे मिलने यहाँ
आयी ......हॉस्पिटल में अचानक ही अपने सामने मुझे पाकर अविनाश चौंक उठे .....अरे
तुम ....यहाँ .......फिर मुझे लेकर अपने घर आये ..........बात-चीत के दौरान
उन्होंने बताया कि वो अनाथ हैं ...पढ़-लिखकर डॉक्टर तो बन गए पर हैं बिलकुल अकेले
ही ......मैंने अनायास ही कहा ......क्या अब भी ? और अचानक ही ये खुलकर मुस्कुरा उठे
....कहा , .....नहीं ..अब नहीं ......और फिर माँ को फोन करके बताया कि कुछ ही दिनों
में ये यहाँ से त्यागपत्र देकर मेरे साथ वापस लौटेंगे शादी करने के लिए .और बस उसी
की खरीदारी करते वक्त तुम मिल गयीं ......पर सच कहती हूँ अर्चना ....आज लगता है कि
काश पापा होते ....उसका गला भर आया था .....मै भी उसके इन शब्दों से द्रवित हो उठी
पर कुछ पलों के बाद उसने फिर कहा ....पर फिर भी जब आज तुमको सब सच बता ही दिया है तो एक
और सच जरूर कहूंगी .....मै अपने बचपन और उस प्रेम , अधिकार और व्यक्तित्व की जटिलताओं के
लिए शायद कभी भी अपने पिता को पूरी तरह माफ़ न कर पाऊं बावजूद इसके कि अब मै भी कहीं न कहीं उनसे
प्रेम करने लगी हूँ ..इसके बाद कुछ देर तक निस्तब्धता की स्थिति रही
......अचानक ही वैशाली खुलकर मुस्कुराई ......मै भी . ....उसने कहा ...तो ये थी इस
वैशाली की अब तक की कहानी . अब हम ही दोनों एक दुसरे की हथेली थामकर कुछ देर बैठे
रहे ...जो कुछ इस दरमियान घटा था उसे महसूसते रहे ...एक दिशा देते रहे .
कुछ देर के बाद उसने बड़ी सहजता से फोन
करके अविनाश को बुला लिया जो बेहद अधीरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे ...उनके आने पर मैंने
उनसे वैशाली का इतना वक्त लेने के लिए माफी माँगी साथ ही ये भी कहा कि अब तो ये
हमेशा आपके साथ ही रहने वाली है इसलिए उम्मीद है कि आप ज्यादा नाराज़ नहीं होंगे
....वैशाली मुस्कुरा दी और स्थिति का अंदाजा लगते ही अविनाश खिलखिलाकर हंस पड़े
....जाते वक्त दोनों ने मुझे अपनी शादी में आमंत्रित किया ...मैंने भी हामी भरी
बावजूद इसके कि मुझे पता था कि ये संभव नहीं होगा . मैंने उन दोनों को शुभकामनायें
दीं और वो चले गए .
इस तरह से आज मै वैशाली को समझ पायी थी
....अविनाश को देखकर ऐसा लगा कि शायद कुछ ही समय में वैशाली अपने सारे ज़ख्मों और
प्रश्नों को भुलाकर एक सुखद जीवन जी सकेगी पर कहीं न कहीं मुझे ये भी महसूस हुआ कि
अपनी बचपन की त्रासदियों और अधूरेपन के लिए शायद वो अपने पिता को कभी भी पूरी तरह माफ़ नहीं कर
पायेगी बावजूद इसके कि इस सबमे उसके पिता कोई ख़ास दोषी नहीं थे ....पर मन तो ये सब
नहीं समझता न .....................और वो भी एक बेटी का भावुक मन ( यही बात उसने
खुद भी मुझसे कही थी ).....उसकी जिन्दगी के लिए मैंने दिल से दुआ की और संतुष्टि
के साथ अपने घर की तरफ बढ़ चली . आज कई प्रश्नों के उत्तर पूरी साफगोई और ईमानदारी
से मिल चुके थे और अंतर्मन बहुत शांत, बहुत राहत महसूस कर रहा था .
ये कहानी पढ़ते वक्त शायद कईयों को लग सकता है कि आजकल तो ऐसा नहीं होता पर मै आप सबको यकीन दिलाना चाहती हूँ कि आज भी असंख्य घरों में कई वैशालियाँ रहती हैं ....सबको नज़र नहीं आतीं बस ...जैसे ये वैशाली सबको नज़र नहीं आयी थी ...या फिर अगर आई भी हो तो किसीने भी इसे समझने की कोशिश नहीं की उलटा घमंडी और असभ्य तक कहा.....अपनी मासूमियत में ही सही पर उसके दोस्तों ने उसके सामने ही उसका मजाक तक उड़ाया ...ऐसे समय में क्या उनके माता-पिता का या समाज का ये दायित्व नहीं बनता था कि वो उनकी सोच और समझ को सही और उचित दिशा देते .....और तब शायद वैशाली का व्यक्तित्व इस कदर उलझा और अधूरा न होता ....तब शायद वो अपने पिता से इतना नफरत भी न करती और तभी शायद वो उनसे कहीं न कहीं प्रेम भी कर पाती और उनका सम्मान भी .हमारे आपके घरों के आस-पास भी हो सकता है कुछ वैशालियाँ रहती हों ...बस इन्हें कुछ ख़ास अंतर्दृष्टि से देखने और समझने की जरूरत होती है ...ये हमारे साथ की न कि उपेक्षा की हकदार हैं ..........और वैसे भी अगर न समझ सकें तो आप ये कहने के लिए पूरी तरह आज़ाद हैं कि हुंह ...ये कहानी तो एक पीढी पुरानी हैं!!
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