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क्या कहें उनसे बुतों में हमने क्या देखा नहीं

बहादुर शाह ज़फ़र   क्या कहें उनसे बुतों में हमने क्या देखा नहीं जो यह कहते हैं सुना है, पर ख़ुदा देखा नहीं ख़ौफ़ है रोज़े-क़यामत का तुझे इस वास्ते तूने ऐ ज़ाहिद! कभी दिन हिज्र का देखा नहीं तू जो करता है मलामत देखकर मेरा ये हाल क्या करूँ मैं तूने उसको नासिहा देखा नहीं हम नहीं वाक़िफ़ कहाँ मसज़िद किधर है बुतकदा हमने इस घर के सिवा घर दूसरा देखा नहीं चश्म पोशी दाद-ओ-दानिस्तख: की है ऐ ज़फ़र वरना उसने अपने दर पर तुमको क्या देखा नहीं

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़   तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं   तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीसे-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे-वतन तो चश्मे-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियागरी फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं दरे-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं

संविधान दिवस

  डॉ साधना गुप्ता   संविधान दिवस है आज,करें कुछ चर्चा भारतवर्ष की, लिखित,लचीला,होकर देता परिवर्तन का अधिकार हमें, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का गौरव आज हमें, कर्तव्य हमारे इसमें हैं,संग अधिकारों के अधिकारी, खटकी जाती कुछ बातें, करना है उनकी बात अभी, करते बात समानता की, फिर आरक्षण की क्यों बात उठी,  सबको समान अवसर दे शिक्षा के, प्रतिभा को मान मिले, तब होंगे हम समान सभी,इससे खाई बढ़ती जाती आत्मसम्मान से जीने का अधिकार न इससे मिल पाता कुंठित प्रतिभा विवश पलायन को, ना देश उन्नति कर पाता ।                                     मंगलपुरा, टेक, झालावाड़ 326001 

उसने कहा था

चंद्रधर शर्मा गुलेरी   बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं ह

मादरे-हिन्‍द से

नज़ीर बनारसी   क्‍यों न हो नाज़ ख़ाकसारी पर तेरे क़दमों की धूल हैं हम लोग आज आये हैं तेरे चरणों में तू जो छू दे तो फूल हैं हम लोग देश भगती भी हम पे नाज़ करे हम को आज ऐसी देश भगती दे तेरी जानिब है दुश्‍मनों की नज़र अपने बेटों को अपनी शक्‍ती दे मां हमें रण में सुर्ख़रू रखना अपने बेटों की आबरू रखना तूने हम सब की लाज रख ली है देशमाता तुझे हज़ारों सलाम चाहिये हमको तेरा आशीर्वाद शस्‍त्र उठाते हैं ले‍के तेरा नाम लड़खड़ायें अगर हमारे क़दम रण में आकर संभालना माता बिजलियां दुश्‍मनों के दिल पे गिरें इस तरह से उछालना माता मां हमें रण में सुर्ख़रू रखना अपने बेटों की आबरू रखना हो गयी बन्‍द आज जिनकी जुबां कल का इतिहास उन्‍हें पुकारेगा जो बहादुर लहू में डूब गये वक़्त उन्‍हें और भी उभारेगा सांस टूटे तो ग़म नहीं माता जंग में दिल न टूटने पाये हाथ कट जायें जब भी हाथों से तेरा दामन न छूटने पाये मां हमें रण में सुर्ख़ रखना अपने बेटें की आबरू रखना  

बहारें होली की

नज़ीर अक़बराबादी जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की। और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की। ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की। महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की। हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे। कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे। दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे। कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे। कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली की॥ गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो। कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो। मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो। उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो। सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥ और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवौयों के लड़के। हर आन घड़ी गत भिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के। कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के। कुछ लचकें शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के। कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली क

कुछ कहना ,कुछ सुनना हो,

डॉ साधना गुप्ता   कुछ कहना ,कुछ सुनना हो, मन के सपनों को बुनना हो,   दें उतार मुखटो को आज कर ले स्व से पहचान आज, मानव-मानव हो एक समान,   धर्म रहे मानवतावादी, कर्म रहे कर्तव्य प्रधान, शिक्षा दे संस्कार आज    उत्तम हो आचार-विचार  नर-नारी का भेद न हो  निर्भय हो  सकल संसार    कुछ कहना ,कुछ सुनना हो,  मन के सपनों को बुुनना हो ।                                       मंगलपुरा, टेक, झालावाड़ 326001 राजस्थान 

नन्हों

शिवप्रसाद सिंह   चिट्ठी-डाकिए ने दरवाजे पर दस्‍तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटुली पर यों कलछी मारी जैसे सारा कसूर बटुली का ही है। हल्‍दी से रँगे हाथ में कलछी पकड़े वे रसोई से बाहर आईं और गुस्‍से के मारे जली-भुनी, दो का एक डग मारती ड्योढ़ी के पास पहुँचीं। 'कौन है रे!' सहुआइन ने एक हाथ में कलछी पकड़े दूसरे से साँकल उतार कर दरवाजे से झाँका तो डाकिए को देख कर धक से पीछे हटीं और पल्‍लू से हल्‍दी का दाग बचाते, एक हाथ का घूँघट खींच कर दरवाजे की आड़ में छिपकली की तरह सिमट गईं। 'अपने की चिट्ठी कहाँ से आएगी मुंशीजी, पता-ठिकाना ठीक से उचार लो, भूल-चूक होय गई होयगी,' वे धीरे से फुसफुसाईं। पहले तो केवल उनकी कनगुरिया दीख रही थी जो आशंका और घबराहट के कारण छिपकली की पूँछ की तरह ऐंठ रही थी। 'नहीं जी, कलकत्‍ते से किसी रामसुभग साहु ने भेजी है, पता-ठिकाना में कोई गलती नहीं...' 'रामसु...' अधकही बात को एक घूँट में पी कर सहुआइन यों देखने लगीं जैसे पानी का धक्‍का लग गया हो। कनगुरिया का सिरा पल्‍ले में निश्‍चेष्‍ट कील की तरह अड़ गया था - 'अपने की ही है मुंशीजी...' मु

रसप्रिया

फणीश्वरनाथ रेणु   धूल में पड़े कीमती पत्थर को देख कर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया की मुँह से निकल पड़ा - अपरुप-रुप! ...खेतों, मैदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता! मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गईं। मोहना ने मुस्करा कर पूछा, 'तुम्हारी उँगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हो गई है, है न?' 'ऐ!' - बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, 'रसपिरिया? ...हाँ ...नहीं। तुमने कैसे ...तुमने कहाँ सुना बे...?' 'बेटा' कहते-कहते रुक गया। ...परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से 'बेटा' कह दिया था। सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारपीट की तैयारी की थी - 'बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेर कर! ...मृदंग फोड़ दो।' मिरदंगिया ने हँस कर कहा था, 'अच्छा, इस बार माफ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा!' बच्चे खुश हो गये थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्‌डी पकड़ कर वह बोला था, 'क्यों, ठ

चाय वाली ताई

आलोक त्यागी                                                    पढ़ाई पूरी करते-करते मेरा चयन, एक प्रसिद्ध दवाई की कंपनी में सहायक मेडिकल आॅफिसर के लिए हो गया तो मैं हरिद्वार अपने बच्चों के साथ रहने लगा। मेरा काम आॅफिस के अतिरिक्त फील्ड में जाना भी है। अपनी नौकरी का कत्र्तव्य निभाने के लिए प्रत्येक माह कम से कम दो बार मैं क्षेत्र में जरूर जाता हूँ। मेरे कार्यक्षेत्र के एक कस्बे के सभी दवा विक्रेताओं से मेरी अच्छी जान पहचान भी हो गयी। जब भी किसी दवाई की दुकान पर संपर्क करने जाता हूँ या किसी डाॅक्टर से मिलता हूँ, तो चाय अवश्य ही झेलनी पड़ती है।  यहां एक खास बात यह है कि डाॅक्टर चाय मंगवाए या दवा विक्रेता, आॅर्डर देने के दस मिनट में चाय लेकर हमेशा ताई ही आती है, चाय भी स्पेशल कुल्हड़ में, कम मीठी, इलायची और अदरक की मिलीजुली महक, कड़क पत्ताी, जो सारी थकान पलों में उतार देती।  शुरू में तो मुझे सामान्य लगा लेकिन मेरे मन मंे जिज्ञासा हुई। मैंने एक दिन दवा विक्रेता से पूछा- आप हमेशा ताई से ही चाय क्यों मंगवाते हो, दुकानें तो और भी हैं? लेकिन सन्तोषजनक उत्तर न मिला। मैंने डाॅक्टर से भी पूछा मगर वह भ

अम्माएँ

दूधनाथ सिंह   वह विशाल, हरा पेड़... जैसे वह पूरी धरती पर अकेला था। और दूर-दूर तक, जहाँ तक नजर जाती, धरती फटी हुई थी। उसमें बड़ी-बड़ी दरारें थीं। केवल चिलचिलाता वीराना था, जिसमें कहीं-कहीं धूसर-मटमैली, न–दिखती-हुई-सी बस्तियाँ थीं - मिट्टी के तितर-बितर ढूहों के खँडहर, जो हमारे रजिस्टर में दर्ज थे। अनंत-अछोर उन सूखे मैदानों में किसानों ने अपने डाँगर छोड़ दिए थे। चौंधा मारती धूप के उस सन्‍नाटे में हड्डियों के हिलते-काँपते झुंड अचानक दिख जाते, जो न जाने किधर और कहाँ दबी-ढँकी घास की हरी-हरी पत्तियाँ ढूँढ़ते, सूखे और काले निचाट में थूथन लटकाए इधर-उधर डोल रहे थे। हमारी जीप धूल उड़ाती, उस छतनार पेड़ की ओर बढ़ रही थी। उसके पास ही तीन-चार घरों का एक खँडहर था। हमने वहाँ पहुँचकर जीप रोकी और नीचे उतरकर खड़े हो गए। एक खँडहर से सात-आठ बच्‍चे किलबिल करते निकले और हमें देखते ही अंदर भाग गए। हमने समझा कि वे कपड़े-वपड़े पहनने गए होंगे! क्‍योंकि वे सभी नंग-धड़ंग थे। इतनी भीषण गर्मी है और हवा बंद है, इन खुले-बेछोर मैदानों में भी आर-पार बंद है, ऐसे में कपड़े तन पर काटते हैं - यही हमने सोचा और बच्‍चों के फिर

जन्मभूमि

देवेन्द्र सत्यार्थी   गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर खड़ी थी। इसे यहाँ रुके पचास घंटे से ऊपर हो चुके थे। पानी का भाव पाँच रुपये गिलास से एकदम पचास रुपये गिलास तक चढ गया और पचास रुपये हिसाब से पानी खरीदते समय लोगों को बडी नरमी से बात करनी पडती थी । वे डरते थे कि पानी का भाव और न चढ जाएे । कुछ लोग अपने दिल को तसल्ली दे रहे थे कि जो इधर हिन्दुओं पर बीत रही है वही उधर मुसलमानों पर भी बीत रही होगी, उन्हें पानी इससे सस्ते भाव पर नहीं मिल रहा होगा, उन्हें भी नानी याद आ रही होगी। प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिलिटरी वाले भी तंग आ चुके थे। ये लोग सवारियों को हिंफांजत से नए देश में ले जाने के लिए जिम्मेवार थे। पर उनके लिए पानी कहाँ से लाते? उनका अपना राशन भी कम था। फिर भी बचे-खुचे बिस्कुट और मूँगफली के दाने डिब्बों में बाँटकर उन्होंने हमदर्दी जताने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। इस पर सवारियों में छीना-झपटी देखकर उन्हें आश्चर्य होता और वे बिना कुछ कहे-सुने परे को घूम जाते। जैसे सवारियों के मन में यमदूतों की कल्पना उभर रही हो, और जन्म-जन्म के पाप उनकी आँखों के सामने नाच रहे हों। जैसे जन्मभूमि से प्रेम करन