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Tuesday, December 3, 2019

प्रेमचंदजी के साथ दो दिन


बनारसीदास चतुर्वेदी


 


प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी। यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौका नहीं मिला था। इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे। इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही गया। प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता। लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा। हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करे, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं। यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं। लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंदजी में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं। कद के छोटे हैं, शरीर निर्बल-सा है। चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी जी हमें क्षमा करें,यदि हम कहें कि जिस समय ईश्वर के यहाँ शारीरिक सौंदर्य बँट रहा था, प्रेमचंदजी जरा देर से पहुँचे थे। पर उनकी उन्मुक्त हँसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे, सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है,कोई भी सहृदया सुकुमारी पतंगवत् अपना जीवन निछावर कर सकती है। प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया। वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर हैं और बेनिया पार्क का तालाब भले ही सूख जाए, उनके हृदय सरोवर से सरसता कदापि नहीं जा सकती। प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है। जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है। उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति उनकी सहज विनम्रता को उनसे छीन नहीं पाई।


प्रेमचंदजी से अबकी बार घंटों बातचीत हुई। एक दिन तो प्रातःकाल 11 बजे से रात के 10 बजे तक और दूसरे दिन सबेरे से शाम तक। प्रेमचंदजी गल्प लेखक हैं, इसलिए गप लड़ाने में आनंद आना उनके लिए स्वाभाविक ही है। (भाषा तत्त्वविद बतलावें कि गप शब्द की व्युत्पत्ति गल्प से हुई है या नहीं?)


यदि प्रेमचंदजी को अपनी डिक्टेटरी श्रीमती शिवरानी देवी का डर न रहे, तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं। एक दिन बात करते-करते काफी देर हो गई। घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं। रोटी का वक्त निकल चुका था। प्रेमचंदजी ने कहा - 'खैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डाँट सुननी पड़ती!' घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास,बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है, और प्रेमचंदजी में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही।


प्रेमचंदजी स्वर्गीय कविवर शंकरजी की तरह प्रवास भीरु हैं। जब पिछली बार आप दिल्ली गए थे,तो हमारे एक मित्र ने लिखा था - ''पचास वर्ष की उम्र में प्रेमचंदजी पहली बार दिल्ली आए हैं !'' इससे हमें आश्चर्य नहीं हुआ। आखिर सम्राट पंचम जॉर्ज भी जीवन में एक बार ही दिल्ली पधारे हैं और प्रेमचंदजी भी तो उपन्यास सम्राट ठहरे! इसके सिवा यदि प्रेमचंदजी इतने दिन बाद दिल्ली गए तो इसमें दिल्ली का कसूर है, उनका नहीं।


प्रेमचंदजी में गुण ही गुण विद्यमान हों, सो बात नहीं। दोष हैं और संभवतः अनेक दोष हैं। एक बार महात्माजी से किसी ने पूछा था - ''यह सवाल आप बा (श्रीमती कस्तूरबा गांधी) से पूछिए।'' श्रीमती शिवरानी देवी से हम प्रार्थना करेंगे कि वे उनके दोषों पर प्रकाश डालें। एक बात तो उन्होंने हमें बतला भी दी कि ''उनमें प्रबंध शक्ति का बिल्कुल अभाव है। हमीं-सी हैं जो इनके घर का इंतजाम कर सकी हैं।'' पर इस विषय में श्रीमती सुदर्शन उनसे कहीं आगे बढ़ी हुई हैं। वे सुदर्शनजी के घर का ही प्रबंध नहीं करतीं,स्वयं सुदर्शनजी का भी प्रबंध करती हैं और कुछ लोगों का तो जिनमें सम्मिलति होने की इच्छा इन पंक्तियों के लेखक की भी है - यह दृढ़ विश्वास है कि श्रीमती सुदर्शन गल्प लिखती हैं और नाम श्रीमान सुदर्शनजी का होता है।


प्रेमचंदजी में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है। यदि कोई भला आदमी प्रेमचंदजी तथा सुदर्शनजी को एक मकान में बंद कर दे, तो सुदर्शनजी तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंदजी वहीं बैठे रहेंगे। यह दूसरी बात है कि प्रेमचंदजी वहाँ बैठै-बैठै कोई गल्प लिख डालें।


जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंदजी की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है। प्रेमचंदजी ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे से वहाँ के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया। सुना है इटली की एक लेखिका श्रीमती ग्रेजिया दलिद्दा ने अपने देश के एक प्रांत-विशेष के निवासियों की मनोवृत्ति का ऐसा बढ़िया अध्ययन किया और उसे अपनी पुस्तक में इतनी खूबी के साथ चित्रित कर दिया कि उन्हें 'नोबेल प्राइज' मिल गया। प्रेमचंदजी का युक्त प्रांतीय ग्राम्य-जीवन का अध्ययन अत्यंत गंभीर है, और ग्रामवासियों के मनोभावों का विश्लेषण इतने उँचे दर्जे का है कि इस विषय में अन्य भाषाओं के अच्छे से अच्छे लेखक उनसे ईर्ष्या कर सकते हैं।


कहानी लेखकों तथा कहानी लेखन कला के विषय में प्रेमचंदजी से बहुत देर तक बातचीत हुई। उनसे पूछने के लिए मैं कुछ सवाल लिखकर ले गया था। पहला सवाल यह था, ''कहानी लेखन कला के विषय में क्या बतलाऊँ? हम कहानी लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते। दूसरे लिखते हैं, हम पढ़ते हैं और क्या कहूँ?'' इतना कहकर खिलखिलाकर हँस पड़े और मेरा प्रश्न धारा-प्रवाह अट्टहास में विलीन हो गया। दरअसल बात यह थी कि प्रेमचंदजी की सम्मति में वे सवाल ऐसे थे, जिन पर अलग-अलग निबंध लिखे जा सकते हैं।


प्रश्न - हिंदी कहानी लेखन की वर्तमान प्रगति कैसी है? क्या वह स्वस्थ तथा उन्नतिशील मार्ग पर है?


उत्तर - प्रगति बहुत अच्छी है। यह सवाल ऐसा नहीं कि इसका जवाब आफहैंड दिया जा सके।


प्रश्न - नवयुवक कहानी लेखकों में सबसे अधिक होनहार कौन है?


उत्तर - जैनेंद्र तो हैं ही और उनके विषय में पूछना ही क्या है? इधर श्री वीरेश्वर सिंह ने कई अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। बहुत उँचे दर्जे की कला तो उनमें अभी विकसित नहीं हो पाई, पर तब भी अच्छा लिख लेते हैं। बाज-बाज कहानियाँ तो बहुत अच्छी हैं। हिंदू विश्वविद्यालय के ललित किशोर सिंह भी अच्छा लिखते हैं। श्री जनार्दन झा द्विज में भी प्रतिभा है।


प्रश्न - विदेशी कहानियों का हमारे लेखकों पर कहाँ तक प्रभाव पड़ा है?


उत्तर - हम लोगों ने जितनी कहानियाँ पढ़ी हैं, उनमें रसियन कहानियों का ही सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है। अभी तक हमारे यहाँ 'एडवेंचर' (साहसिकता) की कहानियाँ हैं ही नहीं और जासूसी कहानियाँ भी बहुत कम हैं। जो हैं भी, वे मौलिक नहीं हैं, कैनन डायल की अथवा अन्य कहानी लेखकों की छायामत्र है। क्राइम डिटैक्शन की साइंस का हमारे यहाँ विकास ही नहीं हुआ है।


प्रश्न - संसार का सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखक कौन है?


उत्तर - चेखव।


प्रश्न - आपको सर्वोत्तम कहानी कौन जँची?


उत्तर - यह बतलाना बहुत मुश्किल है। मुझे याद नहीं रहता। मैं भूल जाता हूँ। टाल्सटॉय की वह कहानी, जिसमें दो यात्री तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, मुझे बहुत पसंद आई। नाम उसका याद नहीं रहा। चेखव की वह कहानी भी जिसमें एक स्त्री बड़े मनोयोगपूर्वक अपनी लड़की के लिए जिसका विवाह होने वाला है कपड़े सी रही है, मुझे बहुत अच्छी जँची। वह स्त्री आगे चलकर उतने ही मनोयोग पूर्वक अपनी मृत पुत्री के कफन के लिए कपड़ा सीती हुई दिखलाई गई है। कवींद्र रवींद्रनाथ की 'दृष्टिदान' नामक कहानी भी इतनी अच्छी है कि वह संसार की अच्छी से अच्छी कहानियों से टक्कर ले सकती है।


इस पर मैंने पूछा कि 'काबुलीवाला' के विषय में आपकी क्या राय है?


प्रेमचंदजी ने कहा कि ''निस्संदेह वह अत्युत्तम कहानी है। उसकी अपील यूनिवर्सल है, पर भारतीय स्त्री का भाव जैसे उत्तम ढंग से 'दृष्टिदान' में दिखलाया गया है, वैसा अन्यत्र शायद ही कहीं मिले। मपासां की कोई-कोई कहानी बहुत अच्छी है, पर मुश्किल यह है कि वह 'सैक्स' से ग्रस्त है।''


प्रेमचंदजी टाल्सटॉय के उतने ही बड़े भक्त हैं जितना मैं तुर्गनेव का। उन्होंने सिफारिश की कि टाल्सटॉय के अन्ना कैरेनिना और 'वार एंड पीस' शीर्षक पढ़ो। पर प्रेमचंदजी की एक बात से मेरे हृय को एक बड़ा धक्का लगा। जब उन्होंने कहा - टाल्सटॉय के मुकाबले में तुर्गनेव अत्यंत क्षुद्र हैं तो मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुए बिना न रही कि प्रेमचंदजी उच्चकोटि के आलोचक नहीं। संसार के श्रेष्ठ आलोचकों की सम्मति में कला की दृष्टि से तुर्गनेव उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वोत्तम कलाकार था। मैंने प्रेमचंदजी से यही निवेदन किया कि तुर्गनेव को एक बार फिर पढ़िए।


प्रेमचंदजी के सत्संग में एक अजीब आकर्षण है। उनका घर एक निष्कपट आडंबर शून्य, सद्-गृहस्थ का घर है। और यद्यपि प्रेमचंदजी काफी प्रगतिशील हैं - समय के साथ बराबर चल रहे हैं - फिर भी उनकी सरलता तथा विवेकशीलता ने उनके गृह-जीवन के सौंदर्य को अक्षुण्ण तथा अविचलित बनाए रखा है। उनके साथ व्यतीत हुए दो दिन जीवन के चिरस्मरणीय दिनों में रहेंगे।


कुआँ प्यासे के पास आया


पृथ्वीराज कपूर


 


दरियागंज की एक छोटी-सी गली में, एक छोटे-से मकान की, एक छोटी सी बैठक के छोटे-से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी-सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख, मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा, बस, खड़ा-खड़ा-सा ही रह गया। मूर्ति की पीठ मेरी ओर थी। शरद जो मुझे वहाँ लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा प्रणाम कर बोले 'पृथ्वीराज आए हैं'। मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने विशाल कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए - शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा - 'मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है!' शरद मेरी ओर देखने लगे। उसकी आँखें कह रही थी कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है? मैं स्वयं विचारमग्न हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घूमे और दो बड़ी-बड़ी आँखें मेरे चेहरे पर रुक गईं जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते-चलते एक मोड़ पर अचानक कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी बत्तियाँ आपके मुँह पर गाड़ दे - हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रोशनी की उष्णता जला दे, और चमक आँखों को चुंधिया दे, किंतु इन आँखों के तेज में चंद्रमा की शीतलता थी जिससे मेरी आँखे चुंधियाई नहीं, वरन कमल की भाँति खिल उठीं - मैं मंत्रमुग्ध बड़ी-बड़ी आँखों को निहारता रहा और उनके पास से ही आ रही गंभीर और मीठी आवाज का रसपान करता रहा, जो कह रही थी : 'जी हाँ! मै आपसे पहले ही मिल चुका हूँ, मुझे खूब याद है, अच्छी तरह याद है - सन 1934 - लखनऊ।' सन 1934 लखनऊ? मैं तो पहली बार जब लखनऊ गया तो वह था अपने थियेटर के साथ सन 48 में, यह 34 कह रहे हैं, इन्हें भ्रम हुआ है। मैं इधर यह सोच ही रहा था कि उधर वह आवाज बराबर कहे जा रही थी - हाँ हाँ! सन 34, सन 34, लखनऊ, मुझे कल की तरह याद है - सन 34 - लखनऊ - सीता-राम, राम-राम कहते - कहते, वह भव्य मूर्ति लपकी, हवन कुंड की ज्वाला की भाँति, यूँ लपलपाती हुई जैसे किसी पंजाबी कवि ने कहा है :-सुल्फे दी लात बरंगी।


और उस ज्योति ने मेरे अंधियारों को अपने आलिंगन में ले लिया और यूँ जान पड़ा कि ऋषि वाल्मीकि राम-राम का मंत्र उच्चारण कर रहे हों!


शरद और साथ गए हुए सब सज्जन चकित हो इस दृश्य को देख रहे थे। मैंने कहा - कवि सत्य कहते हैं, सन 34 में श्री देवकी कुमार बोस कृत 'सीता' फिल्म में मैंने राम की भूमिका की थी - कवि ने उसे लखनऊ में देखा था।


यही थी मेरे अंधियारों की उस ज्योति से पहली भेंट, पहली मुलाकात, जिसमें से मुलाकातों का ताँता चल निकला। फिर तो जब-जब मैं इलाहाबाद थियेटर के साथ गया, साथियों को साथ ले, यह प्यासा अपनी प्यास बुझाने कुएँ के पास जाता ही जाता। पर एक बार यूँ भी हुआ कि स्वयं कुआँ प्यासे के पास आया। यह सन 55 की बात है। मैं थियेटर के साथ गया और हम कृष्णा सिनेमा के हाल में थियेटर कर रहे थे - दीवार, पठान, आहुति, गद्दार, कलाकार और पैसा।


प्रयाग के कविजन, जब-जब मै प्रयाग गया, बड़े प्यार से अपने चरणों में जगह देते, - पंत जी, महादेवी जी, डॉ. रामकुमार वर्मा, फ़िराक गोरखपुरी और बच्चन जी ने बार-बार मेरी झोली रत्नों से भर-भर दी। थियेटर की छत पर बैठे हैं, खेल हो चुका है, भोजन आदि से निवृत्त हो, सब कलाकार साथी जुटे हुए हैं - नींद जो खेल खत्म होते ही झपट अपनी लपेट में ले लेती थी, आज कोसों दूर है - रोशनियाँ गुल हैं, तारों की छाँहों में, मंद मंद स्वरों में, बच्चन कविता पर कविता सुनाए जा रहे हैं, कि वहीं भोर हो गई - और खेल से पहले फ़िराक जी के साथ वह वह महफिलें जमी हैं कि सुरूर अभी तक कायम है। और त्रिवेणी-स्नान और निराला-दर्शन, यह तो एक लड़ी में गुँथे हुए पुण्य कर्म मेरा सौभाग्य ही बन गए थे।


उधर इन्फोर्मेशन विभाग के सज्जनों को ज्यों ही पता मिलता कि निराला के दर्शनों को जा रहा हूँ, अपना तामझाम लेकर उपस्थित हो जाते, शरद जी तो साथ ही होते, डाक्टर रामकुमार जी वर्मा, और फ़िराक साहब का भी वहाँ साथ रहा - यह महानुभाव अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ करते और फिर निराला जी, बांध तोड़ती हुई नदी की भाँति बह निकलते और इन्फोर्मेशन विभाग के साथी उस उमड़ते ज्वार को टेप रिकार्डों में भर-भर लेते। यह लोग कहा करते, 'तुम्हारे आने से यह अवसर जुटता है, नहीं तो कवि माने नहीं मानते और यूँ कविता पाठ नहीं करते।' मै सोचता, कोई पुराने जन्म का ही संबंध होगा - नहीं तो कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगुवा तेली - इस जन्म का तो कवि-समाज से मेरा यही एक नाता है कि - बंदऊँ कवि-पद पद्म-परागा!


और उस पराग को मस्तक पर लेने के लिए, वह पराग मैला न हो जाए, मुझे अपने मस्तक को सौ-सौ बार पोंछ-पोंछ कर स्वच्छ करना होगा! हाँ, उसी बार की बात है कि कुआँ प्यासे के पास आया या यूँ कहो कि छलछलाती भागीरथी, मेरे तन की गलियों का मल दूर करने को मचल उठी और घाट-बाट उलाँघती इधर को उमड़ पड़ी।


कवि के यहाँ ही बैठे थे, किसी साहब ने कहा : 'कवि ने आपका कोई नाटक भी देखा है पृथ्वी जी?' मैंने कहा 'नहीं'। वह कहने लगे : 'यह क्या बात है, इन्हें कहना चाहिए' दूसरे एक साहब बोले : 'आजकल कवि का मन स्थिर नहीं, कहीं नहीं जाते, पीछे कहीं गए थे, आधे में उठ आए, जलसा भंग हुआ, नहीं, इन्हें ले चलने में आपत्ति होगी, नाटक छिन्न-भिन्न न हो जाए!' कवि का ध्यान इन बातों की ओर आकर्षित हुआ, पूछने लगे, 'क्या बात है?' जब बताया तो कहने लगे 'मै जरूर चलूँगा। मैं अवश्य नाटक देखूँगा, आज नहीं, शायद कल आऊँ, आऊँगा सही, जरूर आऊँगा।'


बात हो गई, हम चले आए। दूसरे ही दिन, नाटक के समय से, कुछ देर पहले, एक गोष्ठी से मैं जो वापस लौट थियेटर पहुँचा तो क्या देखता हूँ, अपने साब साथियों की भीड़ लगी है, बीच में चारपाई पर चादर बिछी है और निराला जी बड़ी शांत मुद्रा में विराजमान हैं। मुझे देखते ही बोले, 'लो, मैं आ गया, बहुत देर से आया बैठा हूँ, आपके साथी बड़े अच्छे हैं, इन्होंने मेरी बड़ी खातिर की। अब खेल कब शुरू होगा - हम थिएटर में बैठते हैं, तुम मेकअप करो'। उस दिन हम 'आहुति' खेल रहे थे, खेल शुरू होने से पाँच मिनट पहले निराला जी और उनके साथी सब थिएटर हाल में पहुँचा दिए गए। कुछ भाइयों ने संदेह प्रगट किया कि अब भी टाल जाओ। नहीं तो शो बिगड़ेगा। मैंने कहा, 'बने, भले बिगड़े, मेरे लिए तो उनका आना ही आशीर्वादस्वरुप है, घर आई गंगा को लौटा दूँ? वह कैसे हो सकता है - अरे देखते नहीं हो, कुआँ प्यासे के पास आया है, मैं कितना भाग्यशाली हूँ, यह तो निहारो, यह तो समझो।'


'मानो, न मानो, जानेजहाँ, अख्तियार है।
    हम नेकोबाद हुजूर को समझाए जाते हैं।'


यह कहके वह लोग अलग हो गए और मैं मेकअप में जुट गया।


पहला अंक, दूसरा अंक, तीसरा अंक पूरा खेल हो गया, कवि टस से मस न हुए। दो-दो विश्राम भी हो गए। कवि उठे नहीं, हिले नहीं, जल तक नहीं पिया। पूछने पर कहला भेजा 'मैं मजे में हूँ, मेरी चिंता न करो - नाटक समाप्ति पर रोज कि तरह मैंने दो शब्द कहे, उपस्थित दर्शकजनों से आशीर्वाद माँगा, अपने लिए, अपने कलाकार साथियों के लिए, कि देखा कवि अपनी स्थान पर से उठ रहे हैं; समझा, बाहर जा रहे हैं - कि कवि खड़े हो गए और अपनी गरजती हुई आवाज में बोले 'मुझे कुछ कहना है'। मैं स्टेज पर हाथ जोड़े खड़ा रहा, पर्दा जो बंद होने जा रहा था, रोक दिया गया कि कवि घूमे और दर्शक गणों को संबोधित कर बोले - 'यह पुण्यभूमि, यह तपोभूमि, प्रयाग - इलाहाबाद - किसके लिए मशहूर है।' वह अंग्रेजी में बोल रहे थे। उन दिनों यही देखा कि जब-जब कवि उत्तेजित हुए - अंग्रेजी में बोलते, क्यों? यह नहीं समझ पाया। हो सकता है, किसी समय उन्हें एहसास दिलाया गया हो कि इस देश में जो अंग्रेजी की महत्ता है, वह दूसरी किसी भाषा की नहीं, और यह बात उनके मस्तिष्क में बैठ गई हो कि यहाँ का माना गया, पढ़ा-लिखा वर्ग अंग्रेजी को हिंदी से अधिक समझता है, या कोई और वजह हो, कह नहीं सकता। हाँ! तो वह अंग्रेजी में बोल रहे थे। वह कह रहे थे : प्रयाग, इलाहाबाद यह ऋषि भूमि है, यह तपोभूमि, यह पुण्यभूमि पूज्य है, मान्य है त्रिवेणी के कारण। त्रिवेणी : गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम; गंगा, यमुना सरस्वती; गंगा। हाँ गंगा है। यमुना! हाँ यमुना भी है, हम देख पा सकते हैं, गंगा भी, यमुना भी, पर सरस्वती? किस ने देखा है सरस्वती को? कहाँ है सरस्वती? कहाँ है?' कवि जोर से कह रहे थे : कहाँ है, कहाँ है? - सन्नाटा? कुछ देर स्तब्ध रहे - रहे, साथ ही यूँ जान पड़ा कि हाल में बैठे सब लोगों ने अपनी साँसें रोक रखी हों - और फिर जो कवि घूमे - तो वही कम सम बड़े-बड़े नेत्र मोटर गाडी की हेड लाइट्स की भाँति मुझ पर गड़े थे - और बाईं को पूरा फैला मेरी ओर संकेत कर कवि कह रहे थे 'वह है; वह है; वह है' साथ साथ आवाज उठती जा रही थी - वह है! वह है!! वह है!!!


मैं काँप उठा - दोनों हाथ आप से आप जुड़ गए, नतमस्तक हो मैंने प्रणाम किया - हाल तालियों से गूँज उठा - और वह आवाज - वह सिंह-गर्जन आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है - वह है, वह है! काव्य और साहित्य की गंगा-यमुना के बीच नाट्यकला की सरस्वती का संगम हो, तब त्रिवेणी बनती है - वह उस दिन जाना!


कुआँ प्यासे के पास आया - प्यास बुझा गया कि अधिक भड़का गया, यह राम जाने। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जब-जब सरस्वती के प्रवाह में बहा जा रहा होता हूँ, तो कवि की गर्जना सुनाई पड़ती है - वह है - वह है - वह है - वह है - वह है - वह -!!!


( जानकीवल्लभ शास्त्री की पुस्तक - ' नाट्यसम्राट श्री पृथ्वीराज कपूर' से)


Wednesday, November 13, 2019

कुदरत से गिला नहीं


 


 


मै नवीन कुमार, वर्ग स्नातकोत्तर उतरार्द्ध हिन्दी का छात्र हूँ जो उत्तरप्रदेश राज्य के बिजनौर जनपद के नजीबाबाद शहर में साहू जैन कॉलेज में अध्ययन कर रहा हूँ।


मेरा जन्म 10.12.1995 को दिन गुरूवार को एक साधारण परिवार में, जो कि बिहार राज्य के माँ जानकी का जन्म स्थान सीतामढ़ी जनपद के रामनगरा गाँव के निवासी रामनाथ प्रसाद के पुत्र के रूप में हुआ। मेरे जन्म के पश्चात् मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई क्योंकि घर में एक विशेष बच्चे के रूप में जन्मा, विशेष का तात्पर्य यह है कि उस समय समान्य बच्चों की तुलना में मेरा सिर बड़ा तथा हाथ-पैर छोटे-छोटे के साथ उन मांसपेशियों पर कई सारे गांठे थे जिसे प्रतीत होता था कि यह बच्चा छोटे कद का होगा। पर दुर्भाग्य यह हुआ कि गाँव के क्षेत्र में अगर विशेष बच्चें का जन्म होता है चाहे वह दिव्यांग हो अथवा कद से छोटा उन्हें तथा उनके परिवार को अपमान, तिरस्कार सहन करना पड़ता है। उनमें से हम एक थे जो शारीरिक रूप अक्षम व्यक्ति था पर मानसिक रूप से नही। समय की गति तेजी से बढ़ी लगभग 3 साल मै अपने पैरों से चल नही पाया था, इसका कारण यह था कि मेरे शरीर का वजन अधिक होने के कारण अपने पैर पर भार सहन नही कर पाता थासमय की बढ़ती रफ्तार ने हमारे परिवार की प्रार्थना सुन ली और कुछ महीनों के बाद चलने का प्रयास जारी रहा तदुपरांत मेरे माता-पिता की मेहनत ने आखिरकार रंग लाई जो कि पैर-हाथ पर मालिस डॉक्टर की सलाह पर कार्य किया। आखिरकार अपने पैरों पर मै चलने लगा। लगभग 6 वर्ष की उम्र में गाँव में सरकारी प्राथमिक विद्यालय में नामांकन करा दिया गया। हमारे घर से लगभग 1 किमी0 की दूरी तय करता जो कि अधिकतर पैदल सफर था। जाने व आने के दौरान बच्चे तथा कुछ बड़े लोग भी मजाक बनाया करते थे। धीरे-धीरे सुनने की क्षमता बढ़ती चली गई और मैं 2007 में 5वी कक्षा में आ गया। मेरे पिता की ख्वाईस थी कि इसका पढ़ाई किसी अच्छे संस्थान हो जिसे कि पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बन सके। तदुपरांत अप्रैल माह में जालन्धर शहर के करतारपुर क्षेत्र में स्थित गुरूकुल विरजानन्द स्मारक है जहाँ से सभी भाईयो ने अपना अध्ययन प्राप्त किया है, जिसमे कक्षा 6 से 15 तक चलती है। वहाँ कक्षा 6 में नामांकन के लिए टेस्ट परीक्षा देने आया था पर मै सफल नही हो पाया फिर से जून माह में नवोदय विद्यालय का फार्म भरा तथा फरवरी माह में परीक्षा दिया और अंततः मै पास हुआ। इसके साथ ही जवाहर नवोदय विद्यालय, खैरवी जनपद- सीतामढ़ी में नामाकंन हो गया और सितम्बर माह से कक्षा प्रारंभ हो गई। इसके साथ ही मैने हाईस्कूल परीक्षा 2013 प्रथम श्रेणी में तथा नवोदय विद्यालय वफापुर शर्मा, वैशाली से 84 प्रतिशत के साथ इंटर की परीक्षा 2015 में पास की। 2018 में स्नातक की परीक्षा 57 प्रतिशत के साथ उतीर्ण किया इसके साथ ही राष्ट्रीय सेवा योजना नजीबाबाद कॉलेज से पुर्ण किया।


पढ़ाई के साथ-साथ ही कई सारे सांस्कृतिक क्रियाकलाप में भाग लेता रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि मुझे स्काउट के क्षेत्र में प्रवेश, द्वितीय, तृतीय सोपान करने के उपरांत 2011 में राज्यपाल तथा 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल से सम्मानित किया गया। नवोदय विद्यालय वैशाली से साक्षरता पर आधारित चयनित नाट्य राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिभाग करने का मौका नवोदय विद्यालय दुर्गापुर, (पश्चिम बंगाल) में मिला जहाँ प्रथम रैंक प्राप्त हुआ था बक्सर और सीतामढ़ी में शब्द संकेत विधा में उत्कृष्ट प्रदर्शन रहा।


इण्टर में अच्छा परिणाम आने के पश्चात् मैं किसी अच्छे संस्थान की तलाश में स्नातक करने के लिए सोचा था। उसी समय के दौरान मेरे बड़े भाई के कथनानुसार मेरी छोटी बहन को नजीबाबाद, कोतवाली रोड पर श्रवणपुर गाँव के अंतर्गत आर्ष कन्या विद्यापीठ है जिसमें लड़कियों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ आवास की सुविधा उपलब्ध है। इसी संस्था में नामांकन कराना था जिसके फलस्वरूप मैं भी अपनी छोटी बहन को साथ लेकर अपने परिवार के साथ आया हुआ थाउसी उपरांत नजीबाबाद के लोगों द्वारा पता चला कि साहू जैन कॉलेज कोतवाली रोड पर है जो कि अपनी विशिष्ट पहचान अपना बना रखा है। इसके पश्चात् मेरा नामांकन मेरिट सुची के आधार पर पहले रैंक हमारा था, जिसके फलस्वरूप सभी शिक्षकगण का हमें भरा पूरा प्रेम मिला, और नामांकन हो गया।


बिजनौर जनपद के नजीबाबाद से 2 किमी0 आगे प्रेमधाम आश्रम है जो कि हरिद्वार रोड, निकट साहनपुर में स्थित है। पढाई के साथ- साथ दैनिक चीजों को ध्यान में रखते हुए फादर बिन्नी और फादर षिब्बू के संरक्षण में मेरा अध्ययन जारी रहा। प्रेमधाम आश्रम का भ्रमण करने के दौरान यहाँ ऐसे बच्चों से मिला जो कि अपनों से ठुकरायें गयें है, जिनके माता-पिता की किसी प्रकार का कोई खबर नही है, जिनमें से कुछ बच्चे बेड (Bed) पर आश्रित थे जो कि किसी भी प्रकार से अपना कोई भी कार्य कर सकने में असक्षम है, ऐसे बच्चों के बीच हर वक्त उनकी विशेष तरह से देखरेख के लिए व्यक्ति मौजूद रहता है। जो कि उनकी सेवा करने में कभी पीछे मुड़कर अपने काम से हटते नही देखा और बुद्धि और समझदारी के अनुसार प्रत्येक कार्य कर रहे थे कुछ बच्चे ऐसे भी मिले जो चलने व दौड़ने में असमर्थ थे पर वह व्हील चेयर पर बैठ सकते है तो उनकी के व्हील चेयर की व्यवस्था करा दी गई तथा इन सभी बच्चों से भी अलग विशिष्ट प्रकार के बच्चे मिले जो कि अपनी दैनिक क्रियाओं को खुद से करतें थे। समय-सारणी के अनुसार अपना कार्य खुद करते थे। उनमें से कुछ बहुत महत्वपुर्ण बच्चों से मिला जो कि समयानुसार इंग्लिश मिडियम स्कूल में उनका जाना व आना करते थे। जो अन्य सभी बच्चों की तुलना में काफी खास है। इन सभी बच्चों में से कुछ ऐसे लोगो से भी मिला जो सुर व लय के साथ गाना गाना तथा डांस के क्षेत्र में बहुत ही शानदार प्रदर्शन कर रहे थे जो कि ऐसे बच्चों के लिए सराहनीय योग्य है, और इसके बारे मे जानकारी मिली कि ये 3 दिसम्बर “विश्व विकलांग दिवस' पर अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते है, और विभिन्न प्रकार के पुरस्कार जीतकर भी लातें है। यहाँ एकता, अनुशासन एवं भाईचारा बहुत करीब से देखा जहाँ कि प्रत्येक बच्चें कहीं न कहीं किसी भी अंग से कमी के बावजूद भी एक दूसरे का मदद करते है तथा सभी में भातृत्व प्रेम देखने को मिला।


अगर दूसरी तरफ देखा जाए तो उनके रहने के लिए साफ-सुथरा मकान मिला जिसका कमरा हवादार था जिसमें प्रत्येक चारपाई पर एक-एक बच्चे के लिए उचित व्यवस्था है, एवं कमरे के साथ संलग्न शौचालय व स्नानघर की व्यवस्था थी। उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक दिन नाश्ते में सारे बच्चों के लिए दुध की व्यवस्था है जिसमें प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। यहाँ 24 घंटे बिजली की व्यवस्था रहती जिसके फलस्वरूप इनके अनुकूल वातावरण उन्हें मिल सके। जिसके लिए सौर उर्जा, जनरेटर की व्यवस्था उपलब्ध हैइन सभी चीजों को देखकर मेरा मन ऐसे बच्चों के प्रति आकर्षित हुआ, तत्पश्चात् अपने पढ़ाई के साथ-साथ उन सभी बच्चों के बीच अपना योगदान दे रहा हूँ।


तथापि हम अपने गाँव, शहर, तथा कहीं दूर दराज क्षेत्रों में ऐसे व्यक्तियों से मिला तो जरूर होगा लेकिन उनके बारे में किसी प्रकार का कोई जानकारी एकत्रित नही किया होगा, वह कौन है, कहाँ का है, क्या करता है, उनका आश्रय कहाँ है। इन सभी प्रश्नों से दूर हम रहते है। कभी-कभी अगर जानकारियाँ प्राप्त भी हो जाती है तो हम ऐसे व्यक्तियों के बीच हम अपना योगदान बहुत कम देते हैं या इन सभी बातों का दरकिनार करते हुए हम अपने कर्तव्य को विशेष महत्व देते हुए अपने पथ पर चल पड़ते है, उस व्यक्ति का कोई महत्व नही देते। जो व्यक्ति समाज के मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ा है वह भी हमारे समाज का अंग है।


परम पिता परमेश्वर ने हमें सभी जीवों में श्रेष्ठ जीवन दान दिया जो कि सभी जीवों की अपेक्षा एक लंबी आयु, तथा सोचने व समझने के लिए और हमे विवेक, कौशल, व बुद्धि से काम लेने के लिए हमारे पास एक अद्भुत चीजों में से एक विशिष्ट चीज दिया है जो सभी जीवों में से किसी के पास नही है केवल मानव को छोड़कर। जिसे हमे दिमाग के नाम से जानते है। प्रभु ने इसी कारण इस पृथ्वी पर हमें एक सेवक की भांति हमें भेजा है जो कि अपने सद्बुद्धि का प्रयोग कर सभी जीवों में अपना विशिष्ट पहचान बनायें, बस हमाकों एक अच्छी सोच, विचार, अनुभूति की जरूरत है जो कि प्रकृति ने हमे पहले से हमको प्रदान किया है जिससे इसका सद्उपयोग कर मानव की विशेषता, मानवता यानि मानव अपने कर्म के आधार पर सकारात्मक परिवर्तन करके मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाता है।


वर्तमान समय में भारत वर्ष में विकलांगजन को दिव्यांग के नाम से जाना जाता है। हमारे समाज में दिव्यांग को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाज के कुछ व्यक्तियों के द्वारा टुकरा दिया जाता है, टुकराने की कई सारे वजह हो सकती है। समाज के लोगों के बीच हमारे ऊपर किसी भी प्रकार का अंकुश, द्वेष, घृणा, भेदभाव आदि का प्रभाव हमारे ऊपर ना लगे, जिसके फलस्वरूप आज के इस इक्किसवी सदी के दौड़ में भी कहीं न कहीं हम समाज सेवा से दूर है। जिसके फलस्वरूप दिव्यांगजन हमारे समाज के बीच होकर भी हमसे बिछड़े हैं।


मैं आपके बीच विकलांगता का स्पष्टीकरण करता हूँ, ऐसा व्यक्ति जो कि माँ के पेट से जन्म लेते ही एक आम इंसान की भांती जन्म लेता है, पर किसी शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ्य न होकर उसके पुरक होते है, तथा जन्म के पश्चात् भी किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का घटना से ग्रसित हो जाता है, तो कभी-कभी विकलांगता का शिकार होना पड़ता है ऐसे व्यक्ति के शारीरिकता, मानसिकता या बौद्धिक क्षमता में कमी होने कारण उन्हें अपंग, विकलांग, निःशक्त, अपाहिज, के नाम से जाना जाता है।


वैसे तो सरकार द्वारा दिव्यांगजन के लिये बहुत सारे कदम उठायें जाते है, उदाहरण स्वरूप आरक्षण सुविधा, पढ़ाई, क्रिड़ा, छात्रवृति, आवास, वाहन वितरण आदि कदम उठायें जाते हैं पर ये सभी चीजो का लाभ सभी दिव्यांगजनों को नही मिल पाता हैइन सभी चीजों पर विशेष ध्यान नही होने के कारण आज समाज के मुख्यधारा से दिव्यांगजन पीछे छुटते चले जा रहें है। इन्हें केवल हमारी मदद की आवश्यकता है। इसी के परिणाम स्वरूप सरकार द्वारा उठाये गए कदम समय-समय पर कैम्प लगवाकर लोगों को जानकारी देना निःशक्त प्रमाणपत्र बनाना, व्हीलचेयर वितरण आदि कार्य होता है।


विश्व विकलांग दिवस का अगर इतिहास देखा जाए तो वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के द्वारा "विकलांग के आंतरिक वर्ष' के रूप में वर्ष 1981 को घोषित किया गया था। आंतरिक, राष्ट्रीय और क्षेत्रिय स्तर पर विकलांगों के लिए पुनरुद्धार, हस्तक्षेप अभियान के मौके पर जोर देने के लिए योजना बनाई गयी थी। समाज में उनकी बराबरी के विकास के लिए विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारें में लोगों को जागरूक करने के लिए, सामान्य नागरिक की तरह ही उनके सेहत पर भी ध्यान देने के लिए और उनकी समाजिक-आर्थिक स्थिति को सु धार लाने के लिए समानता का ध्यान रखते हुए इस कदम का उठाया गया।


विश्व अंतर्राष्ट्रीय विकलांगता व्यक्ति दिवस 3 दिसम्बर को प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। इसकी शुरूआत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा 1992 में से शुरूआत किया गया जो कि दिव्यांग व्यक्ति का आंतरिक दिवस के रूप में मनाया जाता है। विकलांगों के प्रति समाजिक कलंक को मिटाने और उनके जीवन के बारे में, तथा तौर तरीकों बेहतर बनाने के लिए उनके वास्ततिक जीवन में बहुत सारी सहायता को लागू करने के द्वारा इसे प्रति वर्ष 1992 से ही पुरे विश्व में इस दिन को विशेष महत्व दिया जाता है।


समाज में उनके आत्मसम्मान, सेहत और अधिकारों को सुधारने के लिए और उनकी सहायता के लिए एक साथ होने के साथ ही लोगों के विकलांगता के मुददे की ओर पूरे विश्व भर के समक्ष को सुधारने के लिए विशेष महत्व दिया जाता है। जीवन के हरेक पहलू को समाज में सभी विकलांग लोगों के लिए इसे देखा जाता है जैसे राजनीतिक, आर्थिक, समाजिक और सांस्कृतिक। में ऐसे में समाज के समाजसेवक द्वारा लोगों को आमंत्रित कर समाज के मुख्यधारा में जोड़ने का कार्य करती है। जिसके फलस्वरूप दिव्यांगजन जोश तथा उत्साह के साथ उस दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम मे सम्मिलित होते हैं। कार्यक्रम के तुरंत पश्चात् आए अतिथि द्वारा उन सभी बच्चों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाता है।


प्रेमधाम आश्रम ऐसा मंदिर है जिसमें मानवता की पूजा होती है। व्यक्ति अपने कर्म पर आधारित जीवन जीता है और फल का किसी भी प्रकार से चिंता नहीं करता। वह व्यक्ति प्रभु के संदेशवाहक के रूप कार्य करते हैं। जिस मंदिर में किसी भी प्रकार से धर्म या धन-दौलत का कोई कोई संबंध नही है सिर्फ है तो मानवता की पूजा होती हैजो कि अपने प्रेम के पथ पर चलकर अपना गंतव्य स्थान को छूने की अभिलाषा हैइसी उम्मीद के साथ प्रेमधाम आश्रम दिन-प्रतिदिन आगे बढ़ रहा है। हम ऐसे बच्चों के बीच थोड़ा वक्त निकालकर हमें इन बच्चों के बीच सहानुभूति और अपना प्रेम बांटने की आवश्यकता है, जिसे कि ऐसे लोग भी समाज के मुख्यधारा में जुड़ सके। तथा आत्मनिर्भर होने की उम्मीद के साथ तथा उन बच्चों के अंदर उस ताकत व विश्वास को जगाकर हम अपना योगदान दे सके, जिसे हमारा भी मानव जीवन सफल हो जाए। अंतत: यही कहा जा सकता है व्यक्ति का कर्म की उसकी अपनी छवि को उभारता है।


 


Thursday, November 7, 2019

मैं और मेरा विद्यालय


सुधीर राणा
प्रभारी प्रधानाध्यापक
-पू.मा. विद्यालय अकबरपुर आॅवला


प्रकृति श्रेष्ठ कार्य के लिए श्रेष्ठ पर्सन का चुनाव करती है। मैं हृदय से प्रकृति का आभारी हूँ कि उसने अध्यापन जैसे श्रेष्ठ कार्य करने के लिए मेरा चुनाव किया। मैं और मेरी टीम विद्यालय के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करते हैं।
पू.मा. विद्यालय अकबरपुर आंवला जनपद बिजनौर (उ.प्र.) के विकास खंड नजीबाबाद की ग्राम पंचायत अकबरपुर आंवला के ग्राम किशनपुर मुरशदपुर लिंक मार्ग पर 29.590 अक्षांश तथा 78.390 देशान्तर पर अवस्थित है। बेसिक शिक्षा परिषद्/शाखा द्वारा 2007 में विद्यालय की स्थापना हुई और 01 जुलाई 2008 से कक्षा 6-8 का संचालन आरम्भ हुआ।
इसके पूर्व ग्राम पंचायत में प्राथमिक स्तर पर सरकारी तथा उच्च शिक्षा के लिये निजी संस्थाएं व मदरसे संचालित थे। सांविधानिक बाल अधिकार के अंतर्गत लागू कार्यक्रम सर्व शिक्षा अभियान में इस विद्यालय की स्थापना उच्च प्राथमिक कक्षाओं के लिए की गई।
आरंभ में विद्यालय में प्रधानाध्यापक श्री मदनगोपाल टाॅक व श्रीमती सरिता रानी, सहायक अध्यापक दो टीचर नियुक्त हुए तथा लगभग 900 वर्गमीटर में बने विद्यालय में लगभग 60-80 बच्चे अध्ययन करते थे। चार दीवारी न होने तथा असमतल परिसर के कारण गैर शैक्षणिक गतिविधियों तथा अच्छा शैक्षणिक वातावरण प्रदान करना जटिल रहा पर टीचर्स द्वारा अपने सर्वश्रेष्ठ प्रयासों से विद्यालय का नामांकन बढ़कर 100 की संख्या को पार कर गया। 2013 में शासन द्वारा 100 से अधिक नामांकन द्वारा उच्च प्राथमिक विद्यालयों में अंशकालिक अनुदेशकों की नियुक्ति की गई थी। इस योजना में आलोक कुमार खेल एवं स्वास्थ्य, शाजिया कला तथा सुमित कुमार (1 वर्ष बाद) कृषि विषय के रूप में नियुक्त हुए। मुस्लिम बहुल गांव होने के कारण वैकल्पिक विषय/भाषा के रूप में अधिकतर बच्चों उर्दू का चयन करते थे। फरवरी 2014 में शबाना उर्दू टीचर की नियुक्ति के बाद सभी विषय-भाषा के टीचर की पूर्ति हुई तथा विद्यालय का शैक्षणिक वातावरण और सुधरने लगा।
01 जुलाई 2014 को प्रधानाध्यापक मदन गोपाल जी के सेवानिवृत्त होने पर मुझे विद्यालय प्रधानाध्यापक का दायित्व विभाग द्वारा सौंपा गया। इससे पहले मेरा अनुभव 04 वर्ष निजी विद्यालय तथा 13 वर्ष प्राथमिक विद्यालय में अध्ययन कार्य था।
मैंने अपने सभी टीचर्स के साथ पहली बैठक में विद्यालय को आदर्श व प्रगतिशील रूप देने का सपना देखा व इसे करने में तन्मयता के साथ जुट गए। हमारे प्रयासों में खंड शिक्षा अधिकारी, जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी तथा डायट से उचित दिशा निर्देश तथा ग्राम पंचायत सचिव और प्रधान श्री सुशील चैहान का पूरा सहयोग मिला।
विद्यालय की विकास यात्रा को असली पंख तब लगे जब वर्ष 2015 में विद्यालय का नामांकन राष्ट्रीय स्वच्छता/बच्चों के व्यवहार परिवर्तन के लिए किया गया। विद्यालय परिसर के ठीक सामने कूड़ी (ग्रामीणों के कूड़े के ढेर) पड़ी होने के कारण हम उक्त पुरस्कार से वंचित कर दिए गए, पर हमने आगे बढ़ने की प्रेरणा ली। समुदाय के तथ प्रशासन के सहयोग से हमने विद्यालय के सामने स्वच्छता अभियान चलाकर कूड़े के स्थान पर खड़ंजा बिछवाया और पौधारोपण किया।
परिसर के ठीक ऊपर से गुजरने वाली 440 वोल्ट की विद्युत लाइन को सड़क पर शिफ्ट कराया। बालक-बालिका के अलग-अलग नए शौचालय, मल्टी हैंड वाश काॅर्नर बनवाए, रसोईघर को नया रूप दिया। एमडीएम टीन शेड का निर्माण कराया। प्रे-ग्राउंड/चबूतरा/मंच तथा लघु वाटिका विकसित की। सबमर्सेबल विद ओवर हैड टैंक तथा इंवरटर से निरंतर निबार्धित पानी व बिजली की सप्लाई प्राप्त होने लगी।
इसमें ग्राम पंचायत से निरन्तर सहयोग मिलता रहा, अब तक विद्यालय भौतिक रूप से नये क्लेवर में आ चुका था।
अगस्त 2016 में विद्यालय का चयन ज्योतिर्गमय योजना के लिए किया गया। इसके 02 वर्ष बाद जिला अधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी, व बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा उत्कृष्ट कार्य के लिए विद्यालय को जनद स्तर पर सम्मानित किया गया।
हमारे द्वारा किए गए विशिष्ट प्रयास निम्न प्रकार रहे:-
1. नामांकन:- वर्ष 2014-15 में 108 से बढ़कर वर्तमान में 289 बच्चे नामांकित है।
2. उपस्थिति:- दैनिक उपस्थिति 95 प्रतिशत तक रहती है। वार्षिक उपस्थिति औसत 83 प्रतिशत है।
3. हिंदी पखवाड़ा:- मातृभाषा हिंदी में सभी बच्चे प्रवीण ही इसके लिए प्रतिवर्ष 15 दिन केवल हिंदी लेखन-वाचन-पाठन का आरंभ कराया जाता है।
4. अकादमिक समूह:- सभी बच्चों को कक्षा/सैक्सनवार एवं परिवार/गली अथवा मौहल्ले के अनुसार बिना जाति-धर्म, लिंग भेद किये 3 से 5 बच्चों के समूह में विभाजित कर दिया शर्त केवल ये रही कि वे बेरोकटोक एक-दूसरे के घर आ जा सके। इनका लीडर कक्षा के टाॅप टेन बच्चों में से कोई एक रही।
इसके उद्देश्य निम्न प्रकार रहे-
क. अनुपस्थित बच्चों की सूचना:- उसी दिन प्राप्त होना
ख. अनुपस्थित बच्चों का गृह कार्य:- उसी दिन जाकर पूर्ण कराया जाना
ग. समूह में बैठकर गृह कार्य/ स्वाध्याय करना।
5. प्रोत्साहन:- अनुशासन बनाने के लिए दंड के स्थान पर प्रोत्साहन को बढ़ावा दिया गया। बैस्ट अटैन्डैन्स, फ्लावर एंड पर्सनैलिटी आॅफ द वीक स्टाॅर आॅफ द मंथ, प्रतियोगिता के विजेताओं को पुरस्कार, परीक्षा में प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं टाॅप टैन को पुरस्कार/प्रोत्साहन दिए जाते हैं। साथ ही प्रतिदिन स्कूल आने वाले बच्चों के अभिभावकों को भी सम्मानित किया जाता है।
6. इकोक्लब:- शासन के आदेशानुसार विद्यालय में एक लघुवाटिका विकसित की गई तथा एक इको समिति बनाई गई जो विद्यालय के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों पर पेड़-पौधे लगाने तथा लोगों से लगवाने का कार्य एवं देख-रेख का कार्य करती है।
7. आईसीटी/स्मार्ट क्लास:- विद्यालय में कम्प्यूटर एवं प्रोजेक्टर के प्रयोग से स्मार्ट क्लास का संचालन किया जा रहा है। बच्चों को विभिन्न विषयों की जानकारी आॅडियो , विडियो के साथ दी जाती है।
8. स्टूडेंट पुलिस कैडेट:- शासनादेश व कार्यालय से प्राप्त निर्देशों के आधार पर एसपीसी कार्यक्रम का संचालन किया जा रहा है। जिसमें बच्चों को सड़क के निमय तथा कानूनी धाराओं की जानकारी दी जाती है।
9. सामाजिक सरोकार एवं स्वच्छता:- विद्यालय अपने सामाजिक सरोकार के लिए आना जाता है, विद्यालय का अपना विशिष्ट अभियान ''स्वच्छ भारत नशामुक्त समाज'' के लिए शपथ, नुक्कड़ बैठके एवं रैलियों का आयोजन किया जाता है।
10. शैक्षिक टूर/आउटिंग:- बच्चों को समय-समय पर आउटिंग के अवसर प्रदान किए जाते हैं। जैसे-बिजनौर, रेडियो स्टेशन, अकाशवाणी, कोटद्वार (कण्व ऋषि आश्रम) आदि स्थानों पर ले आया जाता है।
11. अनुशासन:- विद्यालय का ध्येय वाक्य:- अनुशासन फस्र्ट प्रवेश के समय बच्चों को पानी की बोटल निःशुल्क दी जाती है ताकि बच्चा पानी पीने के बहाने कक्षा छोड़कर बार-बार न भागे।
12. खेल एवं स्वास्थ्य:- विद्यालय में कबड्डी, खो-खो, वैडमिंटन, हाई जंप, पीटी के साथ-साथ स्काउट/गाइड की टीम प्रतिवर्ष बनाई जाती है। जो जिलास्तर तक प्रतिभाग करती है।
13. समय सारिणी में नवीनता:- समय सारिणी में मुख्य धारा के विषयों के अतिरिक्त वाचनालय/पुस्तकालय, गृह विज्ञान, व्यक्तित्व विकास, बागवानी, खेल, योग, सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं सामान्य ज्ञान को स्थान दिया गया है एवं समय विभाजन का पालन किया जाता है?
14. पुस्तकालय:- विद्यालय में 1000 से अधिक पुस्तकें सरकारी/व्यक्तिगत प्रयासों से एकत्रित की गई है जो निःशुल्क बच्चों को उपलब्ध कराई जाती है।
15. अभिभावक संपर्क:- प्रत्येक शनिवार को लगातार या अधिक अनुपस्थित बच्चों के अभिभावकां से सम्पर्क कर समस्या की जानकारी एवं समाधान किया जाता है।
16. संगीतमय असेंबली:- विद्यालय में प्रतिदिन म्यूजिक सिस्टम से प्रेयर, प्रेरणा गीत, राष्ट्रीय गान तथा प्रतिभा मंचन ;2 बच्चों से प्रतिदिन मंच पर बुलाकर कोई भी प्रस्तुति देनाद्ध किया जाता है।
17. मीना मंच:- महिला सशक्तिकरण/बालिका व्यक्तित्व विकास के लिए समय-समय पर वर्कशाॅप आयोजन एवं मीनाक का जन्मदिन मनाया जाता है।
18. भौतिक सुधार:- विद्यालय में अच्छे से रंगाई-पुताई, फ्लैक्स बोर्ड चार्ट, वाइट बोर्ड तथा मिड-डे-मील टीन शेड, वाश बेसिन सबमर्सेबल आदि उल्लेखनीय कार्य कराए गए है।
19. पीएलसी वर्कशाॅप:- जनपद स्तर पर एससीईआरटी के निर्देशन पर डायट द्वारा प्रभावी रूप से चलाए जा रहे पीएलसी कार्यक्रम की प्रभावशाली वर्कशाॅप का आयोजन किया जाता है।
विद्यालय को प्राप्त प्रोत्साहन
1. बेसिक शिक्षा निदेशक महोदय एवं बेसिक शिक्षा सचिव महोदया द्वारा 27 अप्रैल 2019 को उत्कृष्ट शिक्षक के रूप में प्रशस्ति पत्र दिया गया।
2. मंडलायुक्त मुरादाबाद महोदय द्वारा सामाजिक सरोकार के लिए सम्मानित किया गया।
3. ज्योतिर्गमय योजना में अच्छे कार्य के लिए उपजिलाधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी/बेसिक शिक्षा अधिकारी बिजनौर द्वारा सम्मानित।
4. जिला अधिकारी महोदय द्वारा बेस्ट नवाचारी शिक्षक 2018 का पुरस्कार।
5. जिला अधिकारी महोदय द्वारा महिला सशक्तिकरण वर्कशाॅप 2018 में रुपये 15000/- का चैक विद्यालय को दिया गया।
6. राष्ट्रीय स्वच्छता पुरस्कार 2016-17 में नामांकन-जिले में द्वितीय स्थान।
7. मंडल स्तर पर स्मार्ट क्लास प्रदर्शन।
8. राज्य स्तर पर केस स्टडी, उत्कृष्ट विद्यालय, एवं स्मार्ट क्लास के लिए नामांकन।
9. महा-प्रबंधक जल विगम द्वारा औचक निरीक्षण के समय विद्यालय की व्यवस्था से संतुष्ट होकर रुपए 2100.00 का नकद पुरस्कार।
10. विद्यालय के विभिन्न बच्चों को जिला स्तरीय कई प्रतिस्पधाओं में सम्मानित।
विद्यालय परिवार समस्त बच्चों जो सारी व्यवस्था के केंद्र बिंदु है, अभिभावकों, एसएमसी, ग्राम पंचायत, प्रशासनिक अधिकारियों जिनका समय-समय पर सहयोग मिलता है, विभागीय अधिकारियों/समन्वयकों एवं खंड शिक्षा अधिकारी नजीबाबाद जिनके निर्देशों में संप्रत्तियाँ संभव हो पा रही हैं एवं मित्रों तथा परिवार का हृदय से आभार व्यक्त करता है।
मुझे अपने विद्यालय परिवार पर गर्व है।
सुधीर कुमार, प्रधानाध्यापक (प्रभारी)
पूर्व माध्यमिक विद्यालय अकबरपुर आंवला,
नजीबाबाद, बिजनौर
E-mail- skrana1774@gmaill.com



ग्राम प्रधान श्री सुशील कुमार चौहान जी के साथ 


Friday, October 25, 2019

दुष्यंत जैसा कौन होगा


                          
सत्यकुमार त्यागी


जीवन में बहुत लोग मिलते हैं बातें होती हैं। सामाजिक होने की सूरत में दायरा अधिक बड़ा होता है। इस जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। 
मेरा दुष्यंत से काफ़ी मिलना जुलना था। वो थे ही ऐसे इंसान कि रास्ते चलते आदमी से दोस्ती कर लें। जब भी भोपाल से अपने गाँव राजपुर नवादा आते, तुरंत मेरे लिए बुलावा भेज देते। घंटों सफ़र की कहानी सुनाते रहते, मैं शांत बैठा हाँ हूँ करता रहता। उनके पास पुरानी कार थी।  भोपाल से राजपुर नवादा के सफ़र में जितने भी छोटे बड़े शहर के कार मैकेनिक थे, उस कार ने उनसे दुष्यंत की पक्की दोस्ती करा दी थी। वो उनसे कार ही ठीक नहीं कराते बल्कि उनके घर भी जाते और खाना या चाय पीकर अपना सफ़र आगे बढ़ाते। 
एक बार जब दुष्यंत अपने पिता जी की मृत्यु के पश्चात् गंगा स्नान पर दीपदान करने आए शाम का समय था उनका नौकर मेरे घर आया और फ़रमान सुनाया बाबू जी ने आपको बुलाया है। मुझे ज़रूरी काम से कहीं जाना था परंतु दुष्यंत बुलाए और मैं इंकार कर दूँ ऐसा पहले भी कभी नहीं हुआ था। मैंने काम बाद में निपटाने का मन बनाया और दुष्यंत से मिलने उनके घर पहुँच गया। उस दिन उन्होंने वो गर्म जोशी नहीं दिखाई जिससे वो हर बार मिला करते थे। बल्कि उनके छोटे भाई मुन्नु जी बड़े अदब से मिले और नौकर को पानी लाने को कहा। मेरा माथा ठनका सो मैंने दुष्यंत से पूछा स्वास्थ्य तो ठीक है? दुष्यंत ने हाँ में सिर हिलाया और बोले ''पापा के बाद ज़िम्मेदारी बढ़ गई है। ...माँ जी को देखो सफ़ेद साड़ी में कैसी लग रही हैं। ज़मींदारनी की दशा देखी नहीं जाती आज माँ जी ने कुछ डायरी दी जिनमें हिसाब-किताब लिखा है। आप तो जानते ही हो पापा पैसे का लेन-देन करते थे और सबसे ज़्यादा एक हज़ार रुपए तुम्हारे नाम लिखे हैं?'
मैंने कहा-'हां मैंने अपनी बहन की शादी में लिए थे तुम तो आए ही थे शादी में।'' 
दुष्यंत जी बोले- 'वो तो ठीक है बड़ी रक़म है और कुछ प्रमाण भी नहीं है। इक़रारनामा लिख देते तोकृ...मुझे कुछ यक़ीन हो जाता।'
उनकी यह बात सुनकर मेरा शरीर पसीने-पसीने हो गया था। मैं चारपाई से खड़ा हो गया, सैकड़ों प्रश्न मेरे मन मैं तैरने लगे। जिसकी एक आवाज़ पर मैं हमेशा अपने काम छोड़कर हाज़िर हो जाता हूँ, न जाने कितने ही कामों और विवादों में मैंने साथ दिया है, वो कैसी बातें कर रहा है? ख़ैर मैं बेईमान नहीं था। वक़्त ज़रूरत पर कोई किसी के भी काम आ सकता है। मैंने जवाब दिया ''आप काग़ज़़ तैयार रखना मैं कल सुबह आऊँगा और हस्ताक्षर कर दूँगा।'' कहकर मैं चल दिया।
दुष्यंत ने उस दिन मुझे बैठने को नहीं कहा। उस दिन मुझे अपने घर का रास्ता लंबा नज़र आ रहा था। हज़ारों प्रश्न मेरे सामने खड़े थे और मांगी गई यह मदद अब मुझे कचैट रही थी। मैं मन ही मन बड़बड़ा रहा था- 'ज़मींदारी की ठसक है, आदमी की पहचान नहीं। हम कोई गुलाम हैं क्या? इसके बात करने का सलीक़ा देखो बनते हैं बड़े।' 
मेरा चेहरा उतरा हुआ था रात को ठीक से सो नहीं सका सुबह जल्दी नहा-धोकर दुष्यंत की बैठक पर पहुँच गया नौकर ने मेरे आने की ख़बर दुष्यंत को दी। दुष्यंत हाथ में स्टांप और पैन लेकर घर से बाहर आए और बोले चलो आनंदस्वरूप लाला के यहाँ वो ही लिखेंगे। मुझे फ़रमान सुना दिया गया। हम दोनों लाला जी की बैठक पर पहुँचे लाला जी स्वागत में खड़े हुए, चारपाई सही करते हुए बैठने को कहा। दुष्यंत ने बैठते हुए स्टांप उन्हें सौंप दिया। तभी लाला जी ने अपने बेटे से तीन चाय के लिए कहा। मेरे मन में ग़्ाुस्से का ग़्ाुबार था जिसके लिए न जाने कितनी बार मैंने रातें कुरबान कीं सैकड़ों बार इस आदमी के काम आया आज मेरे साथ कैसा व्यवहार कर रहा है? आज समझ में आया जब लोहा लोहे पर वार करता है तो आवाज़ तेज़ क्यों होती है। जिसे हम अपना समझते रहे वो इतनाकृ... मेरी आँंखें भीग जाना चाहती थीं मगर मैंने हिम्मत करके लाला से कहा आज मुझे कुछ ज़्यादा ही जल्दी है लाओ कहाँ हस्ताक्षर करने हैं मैं कर देता हूँ। और मैंने लगभग काग़ज़़ छीन कर अपने हाथ में लिए, पैन दुष्यंत की जेब से निकाला, लाला जी ने काग़ज़़ पर नीचे की तरफ़ अंगुली से इशारा किया तो मैंने हस्ताक्षर कर दिए और वहाँ से निकल गया। उस दिन दुष्यंत ने मुझे न रोका न टोका लाला जी ने कई बार रोकने का प्रयास किया लेकिन मैंने रुकना ठीक नहीं समझा। मुझे याद है शनिवार का दिन था। कैसे शाम ढली? मैं कभी इधर कभी उधर निराश हताश चक्कर काटता रहा। ग़म हस्ताक्षर का नहीं था, ग़म तो विश्वास का था। बाबू जी ने तो विश्वास पर पैसे दिए, ये तो दोस्त है अरे बड़े लोग होते ही ऐसे हैं। शाम को मैं अपनी बैठक पर चारपाई पर बैठा था, तभी दुष्यंत का नौकर आया और बोला बाबू 'जी ने आपको बुलाया है।' 
मेरा चेहरा ग़्ाुस्से से तमतमा गया। मैंने ज़ोर से कहा- 'मैं नौकर नही हूँ तेरे बाबू जी का, जा कह देना मैं नहीं आता।' 
नौकर बोला- 'बाबू जी ने कहा है ज़रूरत पड़े तो पैर पकड़कर ले आना लेकिन साथ लेकर ही आना।' 
मेरा गुस्सा मानो काफूर हो गया। मेरे मन में अच्छे ख़याल आने लगे। -'अरे वो है ही ऐसा, मेरी परीक्षा ले रहा होगा। चल मैं तेरे साथ चलता हूँ।' 
रास्ते में मैं नौकर से पूछता रहा मेरा क्या ज़िक्र हो रहा था? नौकर ने कहा कि-'मेरे सामने कोई बात नहीं हुई मैं तो घर के काम में लगा था।'
हम दुष्यंत जी की बैठक पर पहुँच कर बैठ गए कुछ देर बाद तीन गिलास पानी आया। मैं चैक गया। मैं अकेला और तीन गिलास पानी? दुष्यंत ज़मींदारी के गुरूर के साथ अपनी सफ़ेद लुंगी ठीक करते हुए बैठक पर आए और नौकर से कहा- 'वैद्य जी को बुलाकर लाओ।' 
वैद्य जी उनके पड़ोसी थे। उनका नाम ओमप्रकाश वैद्यक करने के कारण उन्हें सब वैद्य जी ही कहते थे। 
तुरंत वैद्य जी भी आ गए हम तीनों बैठ गए घर आदि की बातें हुईं दुष्यंत  ने अपना सिगार जलाया। मैंने बीड़ी जलाई और बातें शुरू हुईं। दुष्यंत  बोले 'बताओ वैद्य जी कितने पैसे दोगे इस काग़ज़ के?' 
सुनकर मैं चैंक गया। वही स्टांप था जिस पर मैंने हस्ताक्षर किए थे। वैद्य जी ने 4000 से बोली लगानी शुरू की और 20000 पर सौदा मेरे सामने हो गया। मेरा बदन पसीने से तर हो गया, आँखों के आगे तारे नृत्य करने लगे। 
दुष्यंत ने वैद्य जी से कहा-'जाओ पेशगी ले आओ।' 
वैद्य जी घर जाने के लिए चारपाई से उठे साथ ही मैं भी उठने लगा दुष्यंत ने मेरा हाथ पकड़ कर बैठाया, बोले-'बीड़ी जलाओ।' कहते हुए दुष्यंत ने बताया-'जानता है तूने क्या किया कोरे स्टांप पर हस्ताक्षर, और मैंने तेरी सारी ज़मीन का इक़रारनामा करा लिया अब तू ज़मीन से बेदख़ल, एक हज़ार की जगह दो लाख रुपए लिख दिए और वैद्य जी को दिखा दिया स्टांप वैद्य जी सुबह से मेरे पीछे हैं।'
सुनकर मुझे हंसी आ गई, साथ ही अपनी सोच पर गुस्सा भी। तभी दुष्यंत ने मुस्कुराते हुए कहा- 'ले इससे जला।' और स्टांप के एक कोने को जलाकर मेरे सामने कर दिया।  
तभी वैद्य जी पेशगी के 1000 रुपए लेकर आए और दुष्यंत को देने लगे दुष्यंत ने मेरी ओर इशारा करके कहा 'चालाक है, ये दुष्यंत का साथी है मेरे हाथ से छीनकर जला दिया स्टांप ये देखो राख।' वैद्य जी पर तो मानो वज्रपात हो गया हो। उनकी तो जैसे दुनिया ही लुट गई, दो लाख का माल बीस हज़ार में मिल रहा था, भारी नुकसान हो गया उनका। अब वो मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे मैं कोई खानदानी दुश्मन था उनका।
मैंने शर्म से सिर झुका लिया तो दुष्यंत ने वैद्य जी को सुनाते हुए कहा-'अब सर झुकाता है, सर उठा और गले मिल और वादा कर आज के बाद ज़मीन का कोई सौदा नहीं करेगा। ये ज़मीन पुरखों ने हमें दी है। हम अपने बच्चों को सौंप देंगे।'
आज जब मैं दुष्यंत से किए वादे के अनुसार अपनी ज़मीन की वसीयत अपने पौत्रों अनिरूद्ध 'नमन', निश्चल और स्वर्णिम के नाम करने का मन बना रहा हूँ तो बहुत याद आ रही है दुष्यंत की। 
मुझे खुशी है कि अब अमन और आलोक के सकारात्मक प्रयास से दुष्यंत स्मृति द्वार बन रहा है परंतु असली खुशी तो उस दिन होगी जब उनके खंडहर हो चुके मकान में रौनक़ आएगी।
;लेख श्री सत्यकुमार त्यागी जी से की गई वार्ता पर आधारित, श्री सत्यकुमार जी दुष्यंत के बाल सखा एवं मृत्युर्पंयत अभिन्न मित्र रहे हैं।द्ध


वैशाली

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