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Showing posts with the label संस्‍मरण

प्रेमचंदजी के साथ दो दिन

बनारसीदास चतुर्वेदी   प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी। यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौका नहीं मिला था। इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे। इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया पार्क पहुँच ही गया। प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता। लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा। हाँ मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफेद हो गए हैं। उम्र भी करीब-करीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करे, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं। यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंदजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कवीवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंद

कुआँ प्यासे के पास आया

पृथ्वीराज कपूर   दरियागंज की एक छोटी-सी गली में, एक छोटे-से मकान की, एक छोटी सी बैठक के छोटे-से दरवाजे में घुसते ही, एक छोटी-सी चारपाई पर एक विशाल मूर्ति को बैठे देख, मैं मंत्रमुग्ध कुछ झुका-झुका सा, बस, खड़ा-खड़ा-सा ही रह गया। मूर्ति की पीठ मेरी ओर थी। शरद जो मुझे वहाँ लिवा ले गए थे लपक कर आगे बढ़े, मूर्ति के सामने की ओर जा प्रणाम कर बोले 'पृथ्वीराज आए हैं'। मूर्ति ने एक उचटती हुई निगाह अपने विशाल कंधो पर से मुझ पर डाली जैसे कौंदा पहाड़ पर से लपके और फिर गायब हो जाए - शरद की ओर देखते हुए, एक गंभीर आवाज ने कहा - 'मैंने इन्हें पहले कहीं देखा है!' शरद मेरी ओर देखने लगे। उसकी आँखें कह रही थी कि आप तो कहते थे कि यह पहली ही मुलाकात होगी, क्या रहस्य है? मैं स्वयं विचारमग्न हो गया कि वह वृषभ स्कंध तेजी से घूमे और दो बड़ी-बड़ी आँखें मेरे चेहरे पर रुक गईं जैसे रात के अंधियारे में किसी पहाड़ी रस्ते पर चलते-चलते एक मोड़ पर अचानक कोई मोटर गाड़ी नमूदार (प्रगट) हो और अपनी बड़ी बत्तियाँ आपके मुँह पर गाड़ दे - हाँ बस फर्क था तो इतना कि उस रोशनी की उष्णता जला दे, और चमक आँखों को चुंधिया दे, किंतु

कुदरत से गिला नहीं

    मै नवीन कुमार, वर्ग स्नातकोत्तर उतरार्द्ध हिन्दी का छात्र हूँ जो उत्तरप्रदेश राज्य के बिजनौर जनपद के नजीबाबाद शहर में साहू जैन कॉलेज में अध्ययन कर रहा हूँ। मेरा जन्म 10.12.1995 को दिन गुरूवार को एक साधारण परिवार में, जो कि बिहार राज्य के माँ जानकी का जन्म स्थान सीतामढ़ी जनपद के रामनगरा गाँव के निवासी रामनाथ प्रसाद के पुत्र के रूप में हुआ। मेरे जन्म के पश्चात् मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई क्योंकि घर में एक विशेष बच्चे के रूप में जन्मा, विशेष का तात्पर्य यह है कि उस समय समान्य बच्चों की तुलना में मेरा सिर बड़ा तथा हाथ-पैर छोटे-छोटे के साथ उन मांसपेशियों पर कई सारे गांठे थे जिसे प्रतीत होता था कि यह बच्चा छोटे कद का होगा। पर दुर्भाग्य यह हुआ कि गाँव के क्षेत्र में अगर विशेष बच्चें का जन्म होता है चाहे वह दिव्यांग हो अथवा कद से छोटा उन्हें तथा उनके परिवार को अपमान, तिरस्कार सहन करना पड़ता है। उनमें से हम एक थे जो शारीरिक रूप अक्षम व्यक्ति था पर मानसिक रूप से नही। समय की गति तेजी से बढ़ी लगभग 3 साल मै अपने पैरों से चल नही पाया था, इसका कारण यह था कि मेरे शरीर का वजन अधिक होने के

मैं और मेरा विद्यालय

सुधीर राणा प्रभारी प्रधानाध्यापक -पू.मा. विद्यालय अकबरपुर आॅवला प्रकृति श्रेष्ठ कार्य के लिए श्रेष्ठ पर्सन का चुनाव करती है। मैं हृदय से प्रकृति का आभारी हूँ कि उसने अध्यापन जैसे श्रेष्ठ कार्य करने के लिए मेरा चुनाव किया। मैं और मेरी टीम विद्यालय के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करते हैं। पू.मा. विद्यालय अकबरपुर आंवला जनपद बिजनौर (उ.प्र.) के विकास खंड नजीबाबाद की ग्राम पंचायत अकबरपुर आंवला के ग्राम किशनपुर मुरशदपुर लिंक मार्ग पर 29.590 अक्षांश तथा 78.390 देशान्तर पर अवस्थित है। बेसिक शिक्षा परिषद्/शाखा द्वारा 2007 में विद्यालय की स्थापना हुई और 01 जुलाई 2008 से कक्षा 6-8 का संचालन आरम्भ हुआ। इसके पूर्व ग्राम पंचायत में प्राथमिक स्तर पर सरकारी तथा उच्च शिक्षा के लिये निजी संस्थाएं व मदरसे संचालित थे। सांविधानिक बाल अधिकार के अंतर्गत लागू कार्यक्रम सर्व शिक्षा अभियान में इस विद्यालय की स्थापना उच्च प्राथमिक कक्षाओं के लिए की गई। आरंभ में विद्यालय में प्रधानाध्यापक श्री मदनगोपाल टाॅक व श्रीमती सरिता रानी, सहायक अध्यापक दो टीचर नियुक्त हुए तथा लगभग 900 वर्गमीटर में बने विद्यालय में लगभग 60-8

दुष्यंत जैसा कौन होगा

                           सत्यकुमार त्यागी जीवन में बहुत लोग मिलते हैं बातें होती हैं। सामाजिक होने की सूरत में दायरा अधिक बड़ा होता है। इस जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।  मेरा दुष्यंत से काफ़ी मिलना जुलना था। वो थे ही ऐसे इंसान कि रास्ते चलते आदमी से दोस्ती कर लें। जब भी भोपाल से अपने गाँव राजपुर नवादा आते, तुरंत मेरे लिए बुलावा भेज देते। घंटों सफ़र की कहानी सुनाते रहते, मैं शांत बैठा हाँ हूँ करता रहता। उनके पास पुरानी कार थी।  भोपाल से राजपुर नवादा के सफ़र में जितने भी छोटे बड़े शहर के कार मैकेनिक थे, उस कार ने उनसे दुष्यंत की पक्की दोस्ती करा दी थी। वो उनसे कार ही ठीक नहीं कराते बल्कि उनके घर भी जाते और खाना या चाय पीकर अपना सफ़र आगे बढ़ाते।  एक बार जब दुष्यंत अपने पिता जी की मृत्यु के पश्चात् गंगा स्नान पर दीपदान करने आए शाम का समय था उनका नौकर मेरे घर आया और फ़रमान सुनाया बाबू जी ने आपको बुलाया है। मुझे ज़रूरी काम से कहीं जाना था परंतु दुष्यंत बुलाए और मैं इंकार कर दूँ ऐसा पहले भी कभी नहीं हुआ था। मैंने काम बाद में निपटाने