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स्वच्छ भारत एवं ग्रामीण विकास

धनीराम ईमेल- dhaniram1251@gmail.com इस बार महात्मा गांधी की जयंती 'स्वच्छ भारत' अभियान के रूप में मनायी गई। स्वच्छता की आवश्यकता सभी ने महसूस की तो लोगों ने साफ-सफाई के इस नए अभियान को अपने-अपने तरीके से अपनाया। महात्मा गांधी का मानना था कि 'भगवान के बाद स्वच्छता का स्थान है।'यह भी विदित है कि सफाई न होने के कारण बहुत सी बीमारियां होती हैं, जिनके ऊपर बहुत सा पैसा खर्च होता है। उदाहरण के तौर पर भारत में गंदगी के कारण हर नागरिक को वार्षिक लगभग 6500 रुपए की हानि होती है। यह बीमारी के कारण होता है। अगर संपन्न लोगों को इससे दूर कर दिया जाए तो गरीबों पर सालाना 12-13 हजार का बोझ केवल गंदगी के कारण होता है। अगर स्वच्छता हो जाए तो फिर इस पैसे को अन्य कार्यों में लगाया जा सकता है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत इन पांच वर्षों में 62 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। अगले पांच वर्ष के बाद यानी 2019 में गांधीजी की 150वीं जयंती के मौके पर भारत स्वच्छ देशों की कतार में खड़ा होगा। यहाँ पर हम चर्चा कर रहे हैं कि इस मिशन को कैसे सफल बनाया जा सके, कैसे आम आदमी इस आंदोलन का हिस्सा बन सके? पंचायतों की भू

तेलुगु भाषा और साहित्य की समग्र झाँकी 

  प्रख्यात जर्मन दार्शनिक हेगेल (जिन्हें हिंदी वाले प्यार से हीगल कहते हैं) कहा करते थे कि पुस्तक की भूमिका स्वरूप लिखे गए उनके वक्तव्य को गंभीरता से न लिया जाए क्योंकि मुख्य है उनकी कृति। लेकिन उनके विपरीत फ्रेंच दार्शनिक जाक देरिदा ने कहा कि भूमिका-लेखन कृति के पाठ के पश्चात तैयार किया गया वक्तव्य है जो कृति से पहले पढ़ा जाता है। उन्होंने भूमिका-लेखन से परहेज किया और माना कि प्रस्तुत कृति उनकी अगली कृति की भूमिका है और उनका समस्त लेखन भूमिकाओं की एक अखंड शृंखला।  गुर्रमकोंडा नीरजा की इस कृति 'तेलुगु साहित्य: एक अंतर्यात्रा' के प्रथम पाठ से ये दो विचारक और उनके विचार अनायास  सामने आते हैं।  इस कृति में लेखिका द्वारा दी गई कोई भूमिका नहीं है किंतु समस्त टेक्स्ट उस भूमिका का साधिकार और समर्थ निर्वाह है। भूमिका स्वरूप चार विद्वानों - प्रो.राज मणि शर्मा, प्रो. देवराज, प्रो. योगेंद्र नाथ शर्मा 'अरुण' और प्रो. एम. वेंकटेश्वर -  के अभिमत और पाठ हैं जिनसे एक और पाठकीय पाठ तैयार हो सकता है। प्रो. ऋषभदेेेव शर्मा की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर उन्हें यह कृति सादर भेंट की गई है। लेखिका

गँवई प्रेम का संस्कार: सूर की कृष्णभक्ति 

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  वैशाख शुक्ल पंचमी को महाकवि सूरदास की जयंती मनाई जाती है। सूरदास के जन्मस्थान, नाम, जाति, संप्रदाय और जन्मांधता को लेकर अनेक मत हो सकते हैं, किंवदंतियां हो सकती हैं लेकिन इस सत्य पर कोई मतभेद नहीं कि वे कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा ही नहीं बल्कि समूचे हिंदी काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवियों में सम्मिलित हैं। वे कृष्ण-प्रेम के अमर गायक हैं। सूर के यहाँ भक्ति और प्रेम परस्पर पर्याय हैं। जाति-पांति, कुल-शील आदि यहाँ नगण्य हैं, सर्वथा तुच्छ - 'जाति गोत कुल नाम गनत नहिं, रंक होय कई रानो!' कृष्ण स्वयं प्रेम हैं। उन्हें केवल प्रेम से ही पाया जा सकता है - प्रेम प्रेम सो होय, प्रेम सों पारहि जैये। प्रेम बंध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैये। एकै निश्चय प्रेम को, जीवन्मुक्ति रसाल। सांचो निश्चय प्रेम को, जिहिं तैं मिलैं गुपाल।  कहना न होगा कि सूर हिंदी के भागवतकार हैं जिन्होंने कृष्ण को पंडितों की कैद से निकालकर जनसाधारण के आँगन में खेलने के लिए उन्मुक्त किया। उन्होंने 'सूरसागर' के दसवें स्कंध में अपने काव्य नायक कृष्ण की बचपन और किशोरावस्था की लीलाएँ गाई हैं। परिवार, प्रेम और

समकालीन कविता की जनपदीय चेतना

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  'जनपद' शब्द को जहाँ प्राचीन भारत में राज्य व्यवस्था की एक इकाई के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता था और आजकल उत्तर प्रदेश में 'जिले' के अर्थ में व्यवहृत किया जाता है, वहीं आंध्र प्रदेश में इसका 'लोक' के व्यापक अर्थ में इस्तेमाल होता है। हिंदी कविता में 'जनपद' की चर्चा इन संदर्भों के अलावा कभी किसी क्षेत्र विशेष और कभी किसी अंचल विशेष के रूप में भी पाई जाती है। कुछ पत्रिकाओं ने ऐसे कविता विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं जो क्षेत्र विशेष, अंचल विशेष, जिला विशेष या प्रांत विशेष की रचनाधर्मिता को एकांततः समर्पित हैं।  'जनपद' से आगे बढ़कर जब 'जनपदीय चेतना' की चर्चा की जाए तो यह सोचना पड़ेगा कि क्या उसे जनपद की भौगोलिक सीमा तक संकीर्ण बनाया जाना चाहिए, अथवा इस शब्दयुग्म को किसी विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ से मंडित करना होगा? यदि जनपदीय चेतना को किसी भौगोलिक सीमा से आवृत्त किया जाएगा तो निश्चय ही एक भारतीय चेतना के भीतर पचीसों क्षेत्रीय चेतनाएँ या सैंकड़ों आंचलिक चेतनाएँ जनपदीय चेतना के नाम पर सिर उठाती दिखाई देंगी। विखंडनवादी उत्तरआधुनिकता

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष

स्त्री-स्त्री की पीड़ा

सुचिता शिव कुमार पांडे भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय है। आम स्त्री को समाज में कोई स्थान नहीं हैं तो दलित स्त्रियों की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। सुशीला टाकभौरे अपने एक वैचारिक निबंध में लिखती हैं 'स्त्री सर्वप्रथम स्त्री होने के कारण शोषित होती है। इसके साथ दलित स्त्री होने के कारण दोहरे रूप में शोषण-पीड़ा का संताप भोगती है ।'1 दलित स्त्रियों को अपना जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत सारी कठिनाईयों का समाना करना पड़ता  है। वह खेतों में काम करती है, उच्च जाति के घरों में काम करती है, मजदूरी करती है। दलित स्त्री अपनी मजबूरी के कारण सारे काम करती है। लेकिन पुरुष समाज उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते है, काम के बहाने शोषण करते है । दलित स्त्रियों की स्थिती बहुत ही दयनीय है। आर्थिक या सामाजिक दृष्टि से दलित स्त्रियों का संघर्ष कई गुना अधिक है। वे हमेशा कठिन परिश्रम करती आयी है। लेकिन उनके मेहनत का उन्हें कभी सही मूल्य नहीं मिला है।  डॉ.काली चरण 'स्नेही' जी ने अपनी कविता 'दोनों के हाथ झाडू है' में लिखते है- 'पुरुष ने अप

आचार्य ब्रह्मानंद शुक्ल के संस्कृत काव्य  में देश-प्रेम की भावना

निधि देश-प्रेम की भावना - देश के प्रति लगाव तथा समर्पण का भाव ही 'देशप्रेम' है। वह देश जहाँ हम जन्म लेते हैं, जिसमें निवास करते हैं उसके प्रति अपनापन स्वाभाविक है। एक सच्चा देश प्रेमी अपनी मातृभूमि को अपनी माँ के समान ही प्रेम करता हैं जो व्यक्ति देशप्रेम की भावना से पूर्ण होते हैं वे ही देश की उन्नति में सहायक होते हैं। देश की सुरखा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना ही सही मायने में देश प्रेम है। देशप्रेम की भावना ही मनुष्य को अपनी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञ बनाती हैं किसी भी देश की शक्ति उसमें निवास करने वाले लोग होते है जिस देश के लोगों में देशप्रेम की भावना जितनी अधिक पाई जाती है वह देश उतना ही विकसित एवं उन्नत होता हैं देश प्रेम की भावना एक पवित्र भावना है। देशप्रेम व्यक्ति के हृदय में त्याग और बलिदान की भावना को जाग्रत कर देता है जिससे व्यक्ति अपने प्राणों को त्यागकर भी देश के सम्मान की रक्षा करता है। जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है-''जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदापिगरीयसी'' जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। हमारा देश 'अनेकता में एकता'