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गँवई प्रेम का संस्कार: सूर की कृष्णभक्ति 


प्रो. ऋषभदेव शर्मा 


वैशाख शुक्ल पंचमी को महाकवि सूरदास की जयंती मनाई जाती है। सूरदास के जन्मस्थान, नाम, जाति, संप्रदाय और जन्मांधता को लेकर अनेक मत हो सकते हैं, किंवदंतियां हो सकती हैं लेकिन इस सत्य पर कोई मतभेद नहीं कि वे कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा ही नहीं बल्कि समूचे हिंदी काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवियों में सम्मिलित हैं। वे कृष्ण-प्रेम के अमर गायक हैं। सूर के यहाँ भक्ति और प्रेम परस्पर पर्याय हैं। जाति-पांति, कुल-शील आदि यहाँ नगण्य हैं, सर्वथा तुच्छ - 'जाति गोत कुल नाम गनत नहिं, रंक होय कई रानो!' कृष्ण स्वयं प्रेम हैं। उन्हें केवल प्रेम से ही पाया जा सकता है -
प्रेम प्रेम सो होय, प्रेम सों पारहि जैये।
प्रेम बंध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैये।
एकै निश्चय प्रेम को, जीवन्मुक्ति रसाल।
सांचो निश्चय प्रेम को, जिहिं तैं मिलैं गुपाल। 
कहना न होगा कि सूर हिंदी के भागवतकार हैं जिन्होंने कृष्ण को पंडितों की कैद से निकालकर जनसाधारण के आँगन में खेलने के लिए उन्मुक्त किया। उन्होंने 'सूरसागर' के दसवें स्कंध में अपने काव्य नायक कृष्ण की बचपन और किशोरावस्था की लीलाएँ गाई हैं। परिवार, प्रेम और गाँव की निरंतर उपस्थिति ने इन लीलाओं को भारतीय लोकमानस का कंठहार बना दिया है। परिवार और प्रेम दोनों ही के केंद्र में हैं कृष्ण. कृष्ण अवतारी पुरुष और राजपुत्र नहीं हैं यहाँ। वे तो पूरे नंदगाँव के बेटे हैं। उनका जन्म गाँव भर को उछाह से भर देता है। सूरदास स्वयं इस उछाह में भागीदार बने हैं और तब तक नंदबाबा की ड्योढ़ी पर अड़े रहने की जिद बाँधे हुए हैं जब तक बालक कृष्ण हँसकर उनसे कुछ बोल नहीं लेते। विचित्र है यह अंधा बाबा भी। अरे बाबा अब जाओ भी। पर नहीं, अड़े हैं कि जब गोवर्धन से दौड़कर आए हैं तो भला ऐसे ही थोड़े चले जाएँगे. बड़े गँवार हो बाबा। कोई ऐसे भी हठ करता है? बधावे और आशीष दिए जा रहे हैं - 
;नंद जूद्ध मेरे मन आनंद भयौ, मैं गोवर्धन तैं आयौ।
तुम्हारे पुत्र भयौ, हौं सुनि कै, अति आतुर उठि धायौ।
नंदराइ सुनि बिनती मेरी तबहि बिदा भल है हौं।
जब हँसि कै मोहन कछु बोलैं, तिहि सुनि कै घर जाऊँ।
हौं तो तेरे घर कौ ढाढ़ी 'सूरदास' मोंहि नाऊँ। 
कृष्ण की समस्त बाललीला में सूरदास ने पूरे ब्रजमंडल को शामिल किया है जो उनके मन में बसे सामूहिकता के गँवई संस्कार का प्रतीक है। कृष्ण का सोना, जागना, रेंगना, रीझना, खेलना - सब कुछ सार्वजनिक हैं। वे सबके हैं। सबका उन पर एक-सा प्यार है। एक-सा अधिकार। 'कृष्ण जितने यशोदा को प्रिय हैं, ब्रजवासियों को उससे कम प्रिय नहीं हैं। उलूखल बंधन के समय सारे ब्रजवासी यशोदा को क्या नहीं सुनाते - विशेषतः गोपियाँ. यशोदा का हृदय पत्थर है। उसमें दया-ममता नहीं है, वह निर्मोही है। उम्र में बड़ी और सयानी होने पर भी उसे यही बुद्धि मिली है। कितनी मनौतियाँ मानने पर एक बेटा हुआ है। उसे कितनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ी हैं। उसी को मारकर पितरों को पानी दे रही है। ऐसे निर्दयी के पास कौन बैठे? अत्यंत खिन्न ब्रजबालाएँ अपने-अपने घर चली जाती हैं। बलराम भी दुखी हो उठते हैं। तात्पर्य यह है कि इस सुख-दुःख में पूरा समुदाय सम्मिलित है। ' (डाॅ.बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ.133)। 
सबको भली प्रकार मालूम है कि कृष्ण बेहद उधमी, उपद्रवी और आतंककारी बालक हैं। पर नहीं, आप माँ हैं तो क्या हुआ? उन्हें इस तरह बाँधकर नहीं रख सकतीं। लगता है, सारा गाँव बच्चों के मानवाधिकारों का अलमबरदार बन गया हो। यशोदा की हिम्मत नहीं है कि कह दें तो जरा, हमारा घरेलू मामला है जी ये। ना, यह तो सबका मामला है, पूरे ब्रज का मामला है। तभी तो ये ही गोपियाँ शिकायत के बहाने जब-तब कृष्ण को देखने आती रहती हैं। इस सारे व्यवहार में लोकजीवन का वह रस झलकता और छलकता है जिसकी मधुरता का पान कराकर सूरदास ने मध्यकाल में दबी-कुचली भारतीय जाति को जीवनेच्छा का पाठ पढ़ाया। वास्तव में यहाँ केवल वात्सल्य का चित्रण नहीं वरन उसे केंद्र में रखकर समूचा घर-परिवार-कुटुंब चित्रित होता है। कृष्ण की ब्यौरेवार दिनचर्या, संस्कारों और उत्सवों के क्रमिक चित्रण में एक पूरा परिवार और ग्रामीण समाज उभर कर सामने आता है। आगे चलकर युवा कृष्ण का जीवन भी एकदम निरपेक्ष या एकांतिक नहीं है, पूरा गाँव किसी-न-किसी रूप में उसमें भागीदार है। बसंतोत्सव और रास के विविध सामूहिक आयोजन इसके व्यावहारिक प्रमाण हैं।'(डाॅ.रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ.54)। 
गँवई संस्कार का प्यार भी किसी तरह की कुंठा और व्यक्तिगतता नहीं जानता. साहचर्य से उपजता है न। राधा और कृष्ण दोनों ही अपरूप रूपवान हैं। बड़ी-बड़ी आंखों वाली राधा। माथे पर रोली लगाने वाली राधा। गोरे तन पर नील वसन पहनने वाली राधा। पीठ पर वेणी लहराती राधा। बचपना है तो क्या - 'सूर श्याम देखत ही रीझे नैन-नैन मिली पड़ी ठगौरी।'बातों-बातों में रसिक शिरोमणि ने भोली बालिका को मोह लिया। संबंध पल-प्रतिपल बढ़ने लगा। एक अप्रतिम प्रेम जगा और गाँव की मिट्टी में परवान चढ़ा। अनन्य प्रेम। प्रगाढ़ प्रेम। प्रतिपल आत्मसमर्पण को विकल प्रेम। लड़कपन का यह प्यार तकरार में भी बढ़ता गया। गाय चराना हो या दुहना, प्यार भरी तकरार चलती रही और कभी दान के बहाने तो कभी मान के बहाने, कभी पनघट पर तो कभी मधुबन में गोपियाँ कृष्ण पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करती रहीं। और तब आया वह क्षण। देह से प्राण को खींचकर ले जाने का क्षण! कृष्ण तो पूरे ब्रजमंडल के थे - सबके अपने, सबके प्रिय, सबके वल्लभ, सबके प्राण। और वही मथुरा गए तो वहीं के हो गए। कहने को तो कहते रहे 'ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।' पर नदी पार करके मथुरा से गोकुल न आ सके। शहर से गाँव नहीं लौट सके। 
सूरदास जानते हैं, शहर आदमी को किस तरह चालाक बना देता है। इस काजल की कोठरी में जो गया, वही काला हो गया। गोपियों का प्रेम उज्ज्वल है, एकनिष्ठ है। गँवार जो ठहरीं! कृष्ण मथुरा में जाकर सचमुच काले हो गए हैं। उनमें वह पहले-सी पारदर्शिता नहीं रही. अब वे राजपुरुष हो गए हैं - 'हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।' राजनीति मनुष्य को लंपट बना देती है। 'भ्रमरगीत' का भँवरा इस नगरीय लंपटता का भी प्रतीक है। इसी से कृष्ण और उनके संदेशवाहक उद्धव की कोई बात गोपियों की समझ में नहीं आती. डाॅ. बच्चन सिंह ने इस ओर ध्यान खींचा है - 'राजनीतिज्ञों की बात न तब समझ में आती थी और न अब आती है। सारी कथनी ऊलजलूल, सारी करनी छल-प्रपंच। वे कहती हैं कि राजधर्म तो वह है जहाँ प्रजा सताई न जाए। 'राजगतिक लीला' बेचारे अहीर क्या जानें। गोपियाँ जानती हैं कि मुरली धारण करना उन्हें अच्छा नहीं लगता, गोपियों का नाम लेने पर सहम जाते हैं, गायों का चित्र देखने से उनके बड़प्पन को धक्का लगता है। वे मर्माहत होकर व्यंग्य से कहती हैं - 'वै राजा तुम ग्वारि बुलावत'। अरे वे राजा हैं, गँवारों के बीच क्यों आने लगे? कृष्ण की बाललीला, रासलीला आदि की ओर पंडितों का ध्यान गया है, पर 'राजगतिक लीला' की ओर नहीं गया है। सूर ने अन्य लीलाओं की तरह कृष्ण की 'राजगतिक लीला' भी लिखी है। ' 
कृष्ण तो आखिर कृष्ण ठहरे। कल तक 'चोर-जार-शिखामणि' थे। आज 'अनासक्त-योगेश्वर' बन गए. कल तक 'राधा-वल्लभ' थे। आज रुक्मणि-रमण' हो गए. जैसे ब्रज की गायों, कुंजों और यमुना का स्मरण करते थे, वैसे ही गोपियों और राधा का भी। पर राधा भी राधा ही थीं। कृष्ण वंशीधर से चक्रधर हो गए, लेकिन राधा की साड़ी नीली ही रही। कृष्ण की स्मृतियों की गंध से भरी साड़ी भला धोई कैसे जा सकती है। यह नीला वर्ण तो कृष्ण का वर्ण है। राधा से अलग कैसे हो सकता है। है न गँवई प्यार के पागलपन का चरम उत्कर्ष? अहेतुक परमप्रेम ही तो भक्ति है! सूर की राधा परमप्रेम रूपा हैं - स्वयं भक्ति हैं। 
'सूरसागर' के अंत में राधा-कृष्ण मिलते हैं - कुछ पल के लिए। यह मिलन भी कोई मिलन है? कृष्ण तो अपनी महारानी से राधा का परिचय कराने आए हैं। क्या गुजरी होगी राधा पर जब दूर से कृष्ण ने इशारा करके कहा होगा - 'वह जो युवतियों के बीच में खड़ी है ना - अरे वही गोरे वाली - हाँ, जिसने नीली साड़ी पहनी है - वही तो है राधा।'चरम कारुणिक है राधा के प्रेम का यह अंत जिसमें मिलकर भी मिलना संभव नहीं. ऊपर से कृष्ण का यह आश्वासन कि मैं तो निरंतर तुम्हारे ही साथ हूँ, अब लौट जाओ। एक परम विश्वासिनी स्त्री के समक्ष एक विश्वासघाती विवश पुरुष की खिसियानी हँसी - 
बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहि कै उन ब्रज पठई।
सूरदास प्रभु राधा-माधव, ब्रज-बिहार नित नई-नई।।... 


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