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नन्हों

शिवप्रसाद सिंह   चिट्ठी-डाकिए ने दरवाजे पर दस्‍तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटुली पर यों कलछी मारी जैसे सारा कसूर बटुली का ही है। हल्‍दी से रँगे हाथ में कलछी पकड़े वे रसोई से बाहर आईं और गुस्‍से के मारे जली-भुनी, दो का एक डग मारती ड्योढ़ी के पास पहुँचीं। 'कौन है रे!' सहुआइन ने एक हाथ में कलछी पकड़े दूसरे से साँकल उतार कर दरवाजे से झाँका तो डाकिए को देख कर धक से पीछे हटीं और पल्‍लू से हल्‍दी का दाग बचाते, एक हाथ का घूँघट खींच कर दरवाजे की आड़ में छिपकली की तरह सिमट गईं। 'अपने की चिट्ठी कहाँ से आएगी मुंशीजी, पता-ठिकाना ठीक से उचार लो, भूल-चूक होय गई होयगी,' वे धीरे से फुसफुसाईं। पहले तो केवल उनकी कनगुरिया दीख रही थी जो आशंका और घबराहट के कारण छिपकली की पूँछ की तरह ऐंठ रही थी। 'नहीं जी, कलकत्‍ते से किसी रामसुभग साहु ने भेजी है, पता-ठिकाना में कोई गलती नहीं...' 'रामसु...' अधकही बात को एक घूँट में पी कर सहुआइन यों देखने लगीं जैसे पानी का धक्‍का लग गया हो। कनगुरिया का सिरा पल्‍ले में निश्‍चेष्‍ट कील की तरह अड़ गया था - 'अपने की ही है मुंशीजी...' मु

अंतरिक्ष-युग की ‘माता मइया’

विवेकी राय   साधी माधवी गंध से आपूरित नीम वृक्ष की डालों पर 'माता मइया' झूल डाले झूल रही हैं। गीत भी गा रही हैं... नीमिया की डढ़िया मैया लावेली झुलहवा, कि झूली-झूली ना, मइया गावेली गीतिया, कि झूली-झूली ना। रात के साढ़े सात बजे हैं। चारों ओर घरों से गीत की पवित्र गुनगुनाहट उठ रही है। दीपक अभी तक नहीं जला। जले भी कैसे! माता मइया का जब तक डग्गा नहीं बज जाता है तब तक दीपक जलाना मना है। चारों ओर अँधेरा... लेकिन अँधेरा क्यों? आज तो अष्टमी है। सिर के ठीक ऊपर चाँद का चमचमाता टुकड़ा आसमान में झूल रहा है। जब आसमान की ओर देखता हूँ, तब ऐसा लगता है कि असंख्य छिटके और जगमगाते तारों के बीच कहीं से कोई तारा अवश्य ही धीमे-धीमे किसी न किसी ओर खिसकता नजर आएगा! आसमान में घुड़दौड़ हो रही है। रूसी और अमेरिकी घोड़े दौड़ते हैं। मानव की महत्ता और विज्ञान की करामात पर ध्यान जाता है, परंतु ऐसा लगता है कि वह भगवान अभी भी स्वयंसिद्ध सबसे महान है जिसने असली तारों की फुलवारी उगाई, चाँद सूरज की रचना की और जिसने उस इनसान को बनाया जो विज्ञान का स्रोत, प्रवाह और संगम है। जिसके नाम में जादू है, जो राम है और जिसकी कल राम

विश्व-मंदिर

वियोगी हरि   परमेश्वर का यह समस्त विश्व ही महामंदिर है। इतना सारा यह पसारा उसी घट घट-व्यापी प्रभु का घर है, उसी लामकाँ का मकान है। पहले उस मनमोहन को अपने अंदर के मंदिर में दिल भर देख लो, फिर दुनिया के एक-एक जर्रे में उस प्यारे को खोजते चलो। सर्वत्र उसी प्रभु का सुंदर मंदिर मिलेगा, जहाँ-तहाँ उसी का सलोना घर दिखेगा। तब अविद्या की ‍अँधेरी रात बीत गई होगी। प्रेम के आलोक में तब हर कहीं भगवान के मंदिर-ही-मंदिर दिखाई देंगे। यह बहस ही न रहेगी कि उस राम का वास इस घर में है या उसमें। हमारी आँखों में लगन की सच्ची पीर होगी, तो उसका नूर हर सूरत में नजर आएगा, कोने-कोने से साँवले गोपाल की मोहिनी बाँसुरी सुनाई देगी। हाँ, ऐसा ही होगा, बस आँखों पर से मजहबी तअस्सुब का चश्मा उतारने भर की देर है। यों तो ऐसा सुंदर मंदिर कोई भी भावुक भक्त एक आनंदमयी प्रेमकल्पना के सहारे अपने हृदय-स्थल पर खड़ा कर सकता है या अपने प्रेमपूर्ण हृदय को ही विश्व-मंदिर का रूप दे सकता है। पर क्या ही अच्छा हो, यदि सर्वसाधारण के हितार्थ सचमुच ही एक ऐसा विशाल विश्व मंदिर खड़ा किया जाए। क्यों न कुछ सनकी सत्यप्रेमी नौजवान इस निर्माण-कार्य

बाजार का जादू

जैनेंद्र कुमार   बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है। पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैन्सी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को जरूर सेंक मिल जाता है। पर इससे अभिमान की गिल्टी को और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी? पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो मन खाली न हो। मन खाली हो, तब बाजार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्

हरसिंगार

विद्यानिवास मिश्र   सखि स विजितो वीणावाद्यै: कयाप्‍यपरस्त्रिया             पणितमभवत्‍तयाभ्‍यां तत्र क्षपाललितं ध्रुवम। कथमितरथा शेफालीषु स्‍खलत्‍कुसमास्‍वपि             प्रसरति नभोमध्‍ये s पींदौ प्रियेण विलंब्यते। किसी प्रेयसी ने प्रिय की स्‍वागत की तैयारी की है, समय बीत गया है, उत्‍कंठा जगती जा रही है,आधी रात गिर रही है, सवान-भादों की बदली कटी हरी-हरी-सी चाँदनी छिटक रही है, मन में दुंश्चिंताएँ होती हैं कि कहीं ऐसा तो नही हुआ, अंत में सखी से अपना अंतिम अनुमान कह सुनाती है... सखि, प्रिय रुकते नहीं, पर बात ऐसी आ पड़ी है कि वे मेरी चिंता में वीणा में एकाग्रता ना ला सके होंगे, इसलिए बीन की होड़ में उस नागरी से हार गए होंगे और शायद हारने पर शर्त रही होगी रात भर वहीं संगीत जमाने की, इसी से वह विलम गए। नहीं तो सोचो भला, चाँद बीच आकाश में आ गया, और हरसिंगार के फूल ढुरने लगे, इतनी देर वे कभी लगातेᣛ? सो हरसिंगार के फूल की ढुरन ही धैर्य की अंतिम सीमा है, मान की पहली उकसान है और प्रणय-वेदना की सबसे भीतरी पर्त। हरसिंगार बरसात के उत्‍तरार्द्ध का फूल है, जब बादलों को अपना बचा-खुचा सर्वस्व लुटा देने क

‘प्रताप’ की नीति

गणेशशंकर विद्यार्थी   आज अपने हृदय में नयी-नयी आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्‍य पर पूर्ण विश्‍वास रखकर 'प्रताप' कर्मक्षेत्र में आता है। समस्‍त मानव जाति का कल्‍याण हमारा परमोद्देश्‍य है और इस उद्देश्‍य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारत वर्ष की उन्‍नति को समझते हैं। उन्‍नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्‍यापार विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार औा सच्‍चरित्रता की वृद्धि से है। भारत को इस उन्‍नतावस्‍था तक पहुँचाने के लिए असंख्‍य उद्योगो, कार्यों और क्रियाओं की आवश्‍यकता है। इनमें से मुख्‍यत: राष्‍ट्रीय एकता, सुव्‍यवस्थित, सार्वजनिक और सर्वांगपूर्ण शिक्षा प्रचार, प्रजा का हित और भला करने वाली सुप्रबंध और सुशासन की शुद्ध नीति का राज्‍य-कार्यों में प्रयोग, सामाजिक कुरीतियों और अत्‍याचारों का निवारण और आत्‍मावलंबन और आत्‍मशासन में दृढ़ निष्‍ठा हैं। हम इन्‍हीं सिद्धांतों और साधनों को अपनी लेखनी का लक्ष्‍य बनायेंगे। हम अपनी प्राचीन सभ्‍यता और जातीय गौरव की प्रशंसा करने में किसी से पीछे न रहेंगे और अपने पूजनीय पुरुषों के साहित्‍य, दर्शन, विज्ञान औा धर्म-भाव क

गेहूँ बनाम गुलाब

रामवृक्ष बेनीपुरी   गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है। गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं - पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस? जब मानव पृथ्‍वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्‍या खाए, क्‍या पिए? माँ के स्‍तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी - कुछ न छुट पाए उससे ! गेहूँ - उसकी भूख का काफला आज गेहूँ पर टूट पड़ा है? गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ ! मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं - गेहूँ के लिए। बेचारा गुलाब - भरी जवानी में सि‍सकियाँ ले रहा है। शरीर की आवश्‍यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्‍खा है, दबा रक्‍खा है। किंतु, चाहे कच्‍चा चरे या पकाकर खाए - गेहूँ तक पशु और मानव में क्‍या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव मानव तब बना जब उसने शरीर की आवश्‍यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी। यही नहीं, जब उसकी भूख खाँव-खाँव कर रही थी तब भी उसकी आँखें गुलाब पर टँगी थीं। उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूँ को ऊखल और