प्रतापनारायण मिश्र हमारे मिष्टर अंगरेजीबाज और उसके गुरु गौरंडाचार्य्य में यह एक बुरा आरजा है कि जो बात उनकी समझ में नहीं आती उसे, वाहियात है (ओह नांसेंस), कह के उड़ा देते हैं। नहीं तो हमारे शास्त्रकारों की कोई बात व्यर्थ नहीं है। बहुत छोटी-छोटी बातें विचार देखिए। पयश्राव के समय यज्ञोपवीत कान में चढ़ाना इसलिए लिखा है कि लटक के भीग न जाय। तिनका तोड़ने का निषेध किया है, सो इसलिए कि नख में प्रविष्ट होके दुःख न दे। दाँत से नख काटना भी इसी से वर्जित है कि जिंदा नाखून कट जाएगा तो डॉक्टर साहब की खुशामद करनी पड़ेगी। अस्तु यह रामरसरा फिर कभी छेड़ेंगे, आज हम इतना कहा चाहते हैं कि पुराणों में बहुधा लिखा है कि अमुक अकाशबाणी हुई। इस पर हमारे प्यारे बाबू साहबों का, 'यह नहीं होने सकता' इत्यादि कहना व्यर्थ है। इस्से उनकी अनसमझी प्रगट होती है। क्योंकि आकाश अर्थात पोपालन के बिना तो कोई शब्द हो ही नहीं सकता। इस रीति से वचन मात्र को आकाशबाणी कह सकते हैं, और सुनिए, चराचर में व्याप्त होने के कारण ईश्वर को आकाश से एक देशी उपमा दी जा सकती है। बेद में भी 'खम् ब्रह्म' लिखा है और