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प्रेमधाम: आश्रम और उसकी शिक्षा सेवा (प्रेमधाम आश्रम नजीबाबाद के संदर्भ में)

धनीराम कुदरत भी दुनिया में नए-नए करिश्में करती रहती है किसी को दुनिया भर की नियामतों से नवाज़ देती है तो वहीं कुछ को मूलभूत ज़रूरतों से भी महरूम कर देती है। दरअसल कुदरत पर किसी का कोई जोर नहीं है लेकिन कुदरत की इस बेरहमी का शिकार कुछ मासूम और लाचार बच्चों के लिये रोशनी की किरण बना है प्रेमधाम आश्रम। प्रेमधाम आश्रम उन अनाथ या शारीरिक, मानसिक रूप से दिव्यांग बालकों का है, जिनके सगे-संबंधियों या माता-पिता ने इस बेरहम दुनिया में अकेला छोड़ दिया। यहाँ उन दिव्यांगों को अपनों से ज्यादा प्यार मिलता है। शारीरिक व मानसिक रूप से निःशक्त बच्चों की तमाम जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर लेकर यहाँ के प्रत्येक सेवक व कर्मचारी इनकी पढ़ाई-लिखाई, सेहत, इलाज आदि कार्य को पूर्ण करते हैं। साथ ही इनको संस्कार भी दिए जा रहे हैं। यहाँ के सेवकों के साथ-साथ दूसरे अन्य सेवक भी सेवा करते हैं, दान देते हैं। इस आश्रम में दूर-दूर से लोग सेवा के लिए आते हैं। प्रेमधाम आश्रम में फादर शीबू व फादर बेनी को देखकर लगता है कि वह दुनिया के सबसे अधिक सौभाग्यशाली व्यक्ति हैं क्योंकि ये दोनों उस कार्य को कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें चुन

यमुना तीरे ...

कविता वाचक्नवी   गर्मी अभी जलाने वाली नहीं हुई थी। आँगन में सोना शुरू हो चुका था। आँगन इतना बड़ा कि आज के अच्छे समृद्ध घर के दस-ग्यारह कमरे उसमें समा जाएँ। एक ओर छोटी-सी बगीची थी। बगीची के आगे आँगन और बगीची की सीमारेखा तय करती, तीन अँगुल चौड़ी और आधा बालिश्त गहरी, एक खुली नाली थी; जिसे महरी सींक के झाड़ू से, आदि से अंत तक एक ही `स्ट्रोक' में साफ़ करती हुई आँगन की दो दिशाएँ नाप जाती थी। नीचे हरी-हरी काई की कोमलता, ऊपर से बहता साफ़ पानी...। मैं कल्पना किया करती कि चींटियों के लिए तो यह एक नदी होगी...| ...और... मैं चींटी बन जाती अपनी कल्पना में। फिर उस नन्हें आकार की तुलना में इस तीन अंगुल चौड़ी नाली के बड़प्पन की गंभीरता में, एक फ़रलाँग की दूरी पर बहती यमुना याद आती। ...याद आता उसके पुल पर खड़े होकर नीचे गर्जन-तर्जन, भँवर, पुल के खंभों का दोनों दिशाओं में काफी बाहर की ओर निकला भाग, उनसे टकराती, बँटकर बहती धाराएँ। पुल पर खड़े-खड़े मैं इतना डूब जाती थी कि लगता पुल बह रहा है और मैं निरंतर आगे-आगे बहे जा रही हूँ...जंगला थामे खड़ी। आज भी डर लगता है। ... मैं जिसे भी यह समझाने की कोशिश करती

रेल का टिकट

भदंत आनंद कौसल्यायन   भला हो सिस्टर निवेदिता का! उसने कहीं लिखा है कि यदि देश की सेवा करनी हो तो पहले अपने देश का परिचय प्राप्त करो। उसके लिए आवश्यक है कि घर-घर घूमो, गाँव-गाँव घूमो, नगर-नगर घूमो, शहर-शहर घूमो। मैं नहीं कह सकता कि मुझसे अपने देश की कुछ सेवा बन पड़ी अथवा नहीं, किन्तु सिस्टर निवेदिता के उस कथन की कृपा से मैं घूमा खूब हूँ। मेरे घूमने का उद्देश्य केवल देश-दर्शन था और साधनों के नाम पर एक प्रकार से 'शून्यवाद।' पैदल चलना और माँग कर खाना इन्हीं दो को में अपने उन दिनों के घुमक्कड़ी जीवन की आधार-शिला कह सकता हूँ। हाँ, साथ मैं थी 'हीरो एंड हीरो वर्शिप' अंग्रेजी किताब। उसका मुझ पर कम उपकार नहीं। *** जिस दिन की बात मैं कहने जा रहा हूँ, उस शाम को मैं एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ देखकर लौटा था। पैदल तो चला ही करता था किन्तु प्राय: रेल की पटरी के किनारे-किनारे, जिससे कभी-कभी रेल की सवारी का जुगाड़ भी लग ही जाता। सामान्य तौर पर मैं भोजनोपरांत ही किसी दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान किया करता। शाम तक चलते रहकर किसी भी रेलवे स्टेशन के मुसाफिर-खाने में जा ठहरता। जब अधिक सन्ध्या हो

कुछ कहना ,कुछ सुनना हो,

डॉ साधना गुप्ता   कुछ कहना ,कुछ सुनना हो, मन के सपनों को बुनना हो,   दें उतार मुखटो को आज कर ले स्व से पहचान आज, मानव-मानव हो एक समान,   धर्म रहे मानवतावादी, कर्म रहे कर्तव्य प्रधान, शिक्षा दे संस्कार आज    उत्तम हो आचार-विचार  नर-नारी का भेद न हो  निर्भय हो  सकल संसार    कुछ कहना ,कुछ सुनना हो,  मन के सपनों को बुुनना हो ।                                       मंगलपुरा, टेक, झालावाड़ 326001 राजस्थान 

शोध प्रविधि Research Methodology

Prof. Deoshankar Navin साभार https://deoshankarnavin.blogspot.com/2017/01/blog-post.html   शोध विषय विशेष के बारे में बोधपूर्ण तथ्यान्वेषण एवं यथासम्भव प्रभूत सामग्री संकलित कर सूक्ष्मतर विश्लेषण-विवेचन और नए तथ्यों, नए सिद्धान्तों के उद्घाटन की प्रक्रिया अथवा कार्य शोध कहलाता है। शोध के लिए प्रयुक्त अन्य हिन्दी पर्याय हैं-- अनुसन्धान, गवेषणा, खोज, अन्वेषण, मीमांसा, अनुशीलन, परिशीलन, आलोचना, रिसर्च आदि। अंग्रेजी में जिसे लोग डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स कहते हैं, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (सन् 1969) स्थूल अर्थों में उसी नवीन और विस्मृत तत्त्वों के अनुसन्धान को शोध कहते हैं। पर सूक्ष्म अर्थ में वे इसे ज्ञात साहित्य के पूनर्मूल्यांकन और नई व्याख्याओं का सूचक मानते हैं। दरअसल सार्थक जीवन की समझ एवं समय-समय पर उस समझ का पूनर्मूल्यांकन, नवीनीकरण का नाम ज्ञान है, और ज्ञान की सीमा का विस्तार शोध कहलाता है। पी.वी.यंग (सन् 1966) के अनुसार नवीन तथ्यों की खोज, प्राचीन तथ्यों की पुष्टि, तथ्यों की क्रमबद्धता, पारस्परिक सम्बन्धों तथा कारणात्मक व्याख्याओं के अध्ययन की व्यवस्थित विधि को शोध कहते हैं। एडवर्ड